बालगंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार | Political Thoughts of Bal Gangadhar Tilak in Hindi
बालगंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार
इस आर्टिकल में बालगंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार तथा स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनके द्वारा दिये गये योगदान को जानना है कि उन्होंने अपनी विचारधारा तथा साधनों के माध्यम से राष्ट्रीय आन्दोलन एवं संवैधानिक विकास को दिशा दी। उनके विचारों ने जनमानस को अत्यन्त प्रभावित किया।
लोकमान्य तिलक के राजनीतिक विचार
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर तिलक के विचार
- तिलक की दृष्टि में स्वतन्त्रता की धारणा वेदान्त का अद्वैतवादी दर्शन है। उनके अनुसार वेदान्त के अद्वैतवादी तत्वशास्त्र में प्राकृतिक अधिकारों की राजनीतिक धारणा निहित है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के बिना व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास सम्भव नहीं है। तिलक व्यक्ति एवं राष्ट्र के विकास के लिए स्वतन्त्रता को परमावश्यक मानते थे। इसीलिए उन्होंने ब्रिटिश शासन का खुला विरोध किया।
- तिलक स्वतन्त्रता को व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए एक प्राकृतिक व ईश्वर प्रदत्त शक्ति मानते थे। इसीलिए के कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में घोषणा की कि, “स्वतन्तत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा।" का तो यहां तक मानना था कि जो लोग इस लोक में परतन्त्र नागरिक के रूप में मरेंगे उनको मरणोपरान्त स्वर्ग में भी स्वतन्त्रता 1916 नहीं होगी। लेकिन तिलक ने कभी भी अनियन्त्रित एवं असीमित स्वतन्त्रता का समर्थन नहीं किया। तिलक के अनुसार स्वतन्त्रता आध्यात्मिक अनुभूति है, अतः सर्जनात्मक कार्यों में लगने वाली शक्ति को ही स्वतन्त्रता कहते हैं।
राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का समर्थन
- तिलक के अनुसार व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की वास्तविक अभिव्यक्ति या प्राप्ति राष्ट्र की तन्त्रता के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है। तिलक के राष्ट्रों की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर वेदान्त के अद्वैतवादी दर्शन तथा स्वात्य चिन्तकों के विचारों का समन्वित प्रभाव पड़ा। उनके विचारों पर बर्क, मिल, मैजिनी तथा विल्सन के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता' 'राष्ट्रीय आत्मनिर्णय' के सिद्धान्त का प्रभाव पड़ा।
- विल्सन ने 'राष्ट्रीय आत्मनिर्णय' के सिद्धान्त के माध्यम से यह सिद्ध करने का किया कि विश्व में प्रत्येक राष्ट्रीयता के लोगों को स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त हो और कोई राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को परतन्त्र न बनाए। इस तरह तिलक ने इस सिद्धान्त को भारत में लागू करने की मांग की।
बालगंगाधर तिलक की राष्ट्रवाद की अवधारणा
- राष्ट्रवाद से अभिप्राय है, राष्ट्र की जनता में अपने राष्ट्र प्रति प्रेम, त्याग, बलिदान, समर्पण की भावना का होना तिलक भी राष्ट्रवाद की अवधारणा के प्रबल समर्थक थे। उनका विश्वास था कि सच्ची और स्वस्थ राष्ट्रीयता केवल भारतीय संस्कृति और मूल्यों के आधार पर ही निर्मित होनी चाहिए। उन्होंने वेदों व गीता से आध्यात्मिक शक्ति तथा राष्ट्रीय उत्सव ग्रहण करने का संदेश दिया।
- राष्ट्रवाद की अवधारणा को आधार प्रदान करने के लिए हने 'मराठा' एवं 'केसरी' नामक दो समाचार पत्र निकाले तथा शिवाजी उत्सव व गणेश उत्सव क्रमशः 1893 व 1895 में शुरू ।
- तिलक ने प्राचीन स्वस्थ परम्पराओं के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद की स्थापना करनी चाही। सच्ची राष्ट्रीयता का प्रचार तो प्राचीन संस्कृति का पुनर्जागरण अनिवार्य है। प्राचीन काल में आदिम जातियों के मन में कबीले के प्रति जो भक्ति रहती, उसी का आधुनिक नाम राष्ट्रवाद है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि तिलक का राष्ट्रवाद हिंसा, अत्याचार और हत्याओं पर आधारित नहीं था। उनका राष्ट्रवाद अन्तरराष्ट्रवाद का विरोधी नहीं था।
तिलक द्वारा उपयोगितावाद खण्डन
- उपयोगितावाद बन्थम द्वारा प्रतिपादित एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। जिस सिद्धान्त का आधार अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख मनुष्य एक सुखवादी प्राणी है जो सुखों की ओर तथा दुःखों से दूर भागता है। इस विचारधारा द्वारा राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के सुखों में अभिवृद्धि करना है, लेकिन उपयोगितावाद के इन विचारों से तिलक सहमत नहीं है।
- तिलक राज्य को एक आध्यात्मिक संस्था मानते हैं। राज्य के उद्देश्यों में व्यक्ति का सांसारिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार का कल्याण करना है। तिलक उपयोगितावादी दर्शन को स्वार्थवाद को बढ़ावा देनेवाली विचारधारा मानते थे। उनके मत में राज्य एक यान्त्रिक संस्था नहीं है, जिसका उद्देश्य मात्र भौतिक सुख-सुविधाओं में वृद्धि करके अपने नागरिकों को यान्त्रिक सुख प्रदान करता है। राज्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति में व्यक्ति का सच्चा सहयोगी बनना है।
बालगंगाधर तिलक की स्वशासन की धारणा
- तिलक स्वशासन की अवधारणा को राष्ट्रवाद के लिए अनिवार्य मानते हैं। स्वशासन के बिना सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में विकास नहीं हो सकता। तिलक ने स्वराज्य का संदेश घर-घर तक पहुंचाने के लिए कार्यक्रम बनाया। इसके लिए होमरूल लीग की स्थापना की। 1916 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में तिलक ने कहा- “स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।"
- तिलक ने स्वराज्य को नैतिक आवश्यकता के रूप में रखा अर्थात् स्वधर्म के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो के रूप में विश्लेषित किया। उनका विचार था कि स्वराज्य के अभाव में औद्योगिक प्रगति, राष्ट्रीय शिक्षा एवं सामाजिक सुधार सम्भव नहीं हैं।
- 31 मई, 1916 को अहमद नगर में स्वराज्य पर दिये गये अपने भाषण में कहा 'स्वराज्य का अर्थ' सम्राट के शासन का उन्मूलन करना और किसी देशी रियासत का शासन कायम करना नहीं है। हमें मंदिर के देवताओं को नहीं हटाना है। केवल पुजारियों को बदलना है अर्थात् भारत के आन्तरिक मामलों का संचालन व प्रबन्ध भारतीयों के हाथों में हो। हम इंग्लैण्ड के राजा को बनाए रखने में विश्वास करते हैं।
- इससे स्पष्ट है कि तत्कालीन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वराज्य का अंतिम लक्ष्य उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। तिलक ने न केवल स्वराज्य का नारा बल्कि तप, त्याग, समर्पण व निष्ठा के साथ जीवन के एक मात्र आदर्श की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित भी किया। तिलक को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में अविश्वास था।
बालगंगाधर तिलक के अनुसार स्वराज्य प्राप्ति के साधन
- बाल गंगाधर ने अपनी विचार धारा के अनुरूप स्वराज्य की अवधारणा को का जामा पहनाने के लिए व्यापक साधन अपनाने पर बल दिया। उन्होंने संवैधानिक एवं उदारवादियों के विचारों को स्वराज्य के प्रतिकूल माना।
- 1905 के बंगाल विभाजन के बाद बाल पाल लाल ने उग्र साधनों के साथ पदार्पण किया। स्वराज्य प्राप्ति के लिए इस ने मुख्यतः चार साधनों का प्रभावशाली प्रयोग किया- 1. स्वदेशी, 2. बहिष्कार, 3. राष्ट्रीय शिक्षा, 4. निष्क्रिय प्रतिरोध।
1 स्वदेशी
- तिलक ने अपने समाचार पत्र 'केसरी' में लिखा था कि "हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है, जिसका मूल ना स्वराज्य है व स्वदेशी और बहिष्कार शाखाएँ हैं।" तिलक के अनुसार स्वदेशी आत्मनिर्भरता स्वालम्बन का सूचक है। स्वदेशी आन्दोलन के लिए 1893 को गणपति उत्सव तथा 1895 को शिवाजी उत्सव आयोजित किये। स्वदेशी को जन आन्दोलन का रूप दिया। इससे देश के उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा जो अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के कारण मरणासन स्थिति में पहुँच गए हैं। इस तरह स्वदेशी द्वारा के भारत को आर्थिक दृष्टि से सबल बनाना चाहते थे।
2 बहिष्कार
- स्वेदशी की धारणा को गति प्रदान करने के लिए बहिष्कार पर भी बल देते थे। उनका कहना था कि स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग प्रोत्साहन देने के लिए विदेशी वस्तुओं की होली जलाने एवं बहिष्कार करने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए।
3 राष्ट्रीय शिक्षा
- तिलक के अनुसार वास्तविक शिक्षा वही है जो व्यक्ति को जीविकोपार्जन के योग्य बनाए। उसमें के देश के सच्चे गुणों का संचार करें और जो पूर्वजों का ज्ञान व अनुभव दे। राष्ट्रीय शिक्षा से ही राष्ट्रीयता का निर्माण हो सकेगा। तिलक ने शिक्षा पर भी बल दिया।
- तिलक के अनुसार धार्मिक शिक्षा झगड़ों व पारम्परिक कलह को दूर करने का श्रेष्ठ मार्ग है। धार्मिक से भारतीयों में अनुशासन व अतीत के प्रति सम्मान के भाव का उदय होगा। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।
- तिलक ने अंग्रेजी की महत्ता को तो स्वीकार किया, लेकिन मातृभाषा को प्रधानता दी। वे शिक्षा को जन जागरण का सर्वोच्च साधन मानते थे। शिक्षा मनुष्य के अन्धकारमय जीवन को प्रकाशमय बनाने में सहायक होती है और शिक्षा के माध्यम से मानव को अपने अधिकारों, दायित्वों, स्वतन्त्रताओं आदि का आभास होता है।
4 निष्क्रिय प्रतिरोध
- तिलक के अनुसार निष्क्रिय प्रतिरोध विदेशी शासन के प्रति असहयोग का एक अहिंसात्मक शस्त्र है। इसका अर्थ है स्वदेशी शासन के संचालन में जनता द्वारा किसी भी प्रकार का सहयोग न देना तिलक का दृढ़ विश्वास था कि यदि हम अंग्रेजों का असहयोग करना प्रारम्भ कर दें तो ये सरकार एक दिन भी नहीं चल सकती हम अंग्रेजों को कर संग्रह करने में सहयोग न करें, उनकी सेना में भर्ती न हो, उनके न्यायालय में मुकदमें न ले जाएँ, अपनी पंचायतें स्थापित करें तथा मद्यपान का त्याग करें आदि। तिलक का मत था कि यद्यपि निष्क्रिय प्रतिरोध एक शक्तिशाली राजनीतिक अस्त्र है, लेकिन जनता के सहयोग के बिना सम्भव नहीं है।
Post a Comment