धर्म और सांस्कृतिक व्यवस्था | Religion and the Cultural Order in Hindi

धर्म और सांस्कृतिक व्यवस्था (Religion and the Cultural Order) 

धर्म और सांस्कृतिक व्यवस्था | Religion and the Cultural Order in  Hindi



  • हम यह मान कर चलें कि सांस्कृतिक व्यवस्था सार्थक प्रतीकों से ओत-प्रोत है तो यह बात सामने आती है कि धर्म प्रतीकों का अर्थ बदल सकता हैऔर इस प्रकार सांस्कृतिक व्यवस्था को भी बदल सकता है। जैसा कि आप जानते हैंदुर्खाइम (1965 (1912) की दृष्टि में धर्म प्रमुखतया सामाजिक पहलू है। 


  • धार्मिक प्रतीक सामूहिक प्रतीक होते है और वे सामूहिक वास्तविकताओं को अभिव्यक्त करते हैं। पूजा और श्रद्धा का विषय गणचिह्न (टोटम) भी प्रतीक ही होता है। गणचिह्न जनजाति विशेष का प्रतिनिधित्व करता है। 

  • ऑस्ट्रेलिया की जिस अरूंडा जनजाति को दुर्खाइम ने विश्लेषण के लिए चुनाउनमें 'चुरिंगाएक वंश विशेष का प्रतीक है। संस्कारों का जन्म समाज-जनित सामूहिक बुदबुदाहटसे होता है। इसके अतिरिक्तधर्म संसार को समझने के लिए आवश्यक श्रणियाँ और वर्गीकरण देता है। संस्कार समूह की एकजुटता को बनाए रखते हैं। दुर्खाइम के विवेचन सेयह बात व्यापक रूप से सामने आती है कि धर्म मजबूती के साथ सामाजिक ढांचे से संबद्ध होता है।
  • अब हमारे सामने यह विवेचना आती है कि जब कभी सामाजिक ढांचे में बदलाव होता है। धर्म में उसी के अनुसार बदलाव हो सकता है और जब कभी धर्म में बदलाव होता हैसामाजिक ढांचे में उसी के अनुसार बदलाव हो सकता है और स्पष्ट किया जाएतो सामाजिक ढांचे में बदलाव होने पर धर्म प्रतीक भी नए अर्थ ग्रहण कर सकते हैं।
  • यह भी सिद्ध है कि धर्म में तेजी से बदलाव होता है तो नातेदारी जैसे गैर-धार्मिक प्रतीक नया अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। उदाहरण के लिएजब किसी साधारण समाज परसंयोगवश भिन्न धर्म वाली किसी औपनिवेशिक ताकत का आधिपत्य हो जाता है तो समूचा साधारण समाज अपने मिथकोंप्रतीकोंसंस्कारोंविश्वासों और विश्व दृष्टिकोण को पुनःव्यवस्थित कर लेता है। आइएइस उदाहरण को समझें मैक्सिको में वर्ष 1810 के दौरान स्थानीय लोगों ने स्पेनी आधिपत्य के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के दौरान एक विशिष्ट धार्मिक प्रतीक 'आवर लेडी ऑव गुदालुपे' ने कोलंबिया पूर्व के धार्मिक स्रोतों से नया अर्थ ग्रहण कर लिया ।

 

  • धार्मिक प्रतीक सशक्त और गहन भावनाओं और चिरस्थाई मनोस्थितियों को जन्म देते हैं। फिर भी सामाजिक बदलाव के कारण कोई प्रमुखतम प्रतीक विशाल सामाजिक ऐतिहासिकसामाजिक-राजनीतिकसामाजिक संरचनात्मक संदर्भों में अलग-अलग अर्थ ग्रहण कर सकता है। 


  • ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स की खाली सलीब पुनर्जीवित यशु के सिद्धांत पर जोर देती हैकैथोलिक यशु की मानवता और उनके त्याग को महत्व देती हैऔर प्रोटेस्टैंट की खाली सलीब परमप्रसाद के निरंतर त्यागमय चरित्र को नकारती है। 

  • धार्मिक प्रतीकों में बहुधा किसी समूह को किसी विशेष उद्देश्य के लिए लामबंद करने के उद्देश्य से फेरबदल किया जाता है। उदाहरण के लिएजब आक्रामक हिंदुत्व सिर उठाता है तो हिंदुओं के शुभंकर देवता गणेश को त्रिशूलधारीभालाधारी और तलवारधारी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जब सामाजिक बदलाव होता है तो हमें धार्मिक प्रतीकों की प्रस्तुति और उनके अर्थ की विवेचना में तदनुसार बदलाव देखने को मिलता है। यही नहीं विरोध करने वाले समूह प्रतीकों में फेरबदल कर उन्हें नए अर्थ दे सकते हैं। 
  • वीर शैव आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों के हाथों गैर-ब्राह्मणों की अधीनता का विरोध किया गया और उस समय 'लिंग', विरोध का प्रतीक बन गया। प्रत्येक वीर शैव मतावलंबी से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह ब्राह्मणों जैसी शुद्धता का दावा करने के लिए अपने शरीर पर लिंग को धारण करें।


सांस्कृतिक व्यवस्था शब्द 

  • सांस्कृतिक व्यवस्था शब्द के अंतर्गत हमारे मानसिक वर्गीकरण (जैसे अच्छा और बुरा) और समयस्थान और व्यक्ति की हमारी समझ शामिल है। यह स्पष्ट हो जाता है कि जब धर्म में बदलाव आता है तो व्यक्ति का 'अच्छाऔर 'बुरा समयस्थान और व्यक्ति का विचार तदनुसार बदल सकता है। इसका उलटा भी उतना ही सही है जब अच्छे और बुरेसमयस्थान और व्यक्ति के प्रति हमारी समझ में संचार माध्यमोंशिक्षा आदि के कारण बदलाव आता है तो इस बात की पूरी संभावना रहती है कि धर्म के प्रति हमारी अभिवृत्ति में भी बदलाव आ जाएगा।
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