धर्म और सामाजिक व्यवस्था |धर्म की कुछ प्रमुख विशेषतायेँ |Religion and the Social Order in Hindi

धर्म और सामाजिक व्यवस्था (Religion and the Social Order)

धर्म और सामाजिक व्यवस्था |धर्म की कुछ प्रमुख विशेषतायेँ |Religion and the Social Order in Hindi


 

  • धर्मसामाजिक व्यवस्थास्थिरता और बदलाव वे चार अवधारणात्मक माध्यम हैं जिन की मदद से इस इकाई को समझा जा सकता है। इस अनुभाग में हम इन्हीं अवधारणात्मक माध्यमों के विषय में जानकारी हासिल करेंगे। 

 

  • धर्म अपने आप में एक व्यवस्था है और यह व्यापक समाज की एक उप-व्यवस्था भी है। परिवारशिक्षाशासन और अर्थव्यवस्था जैसी समाज की अन्य उप-व्यवस्थाओं के साथ धर्म की निरंतर अन्योन्यक्रिया चलती रहती है। आप जानते ही हैं कि धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच इस अन्योन्याक्रिया की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं।


  • सामाजिक व्यवस्था के साथ अपने अन्योन्यक्रिया के दौर में धर्मसामाजिक व्यवस्था को स्थिर कर सकता है । इस के लिए वह व्याख्याओं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था को औचित्य और वैधता प्रदान करता है। दूसरी ओर धर्म मौजूद सामाजिक व्यवस्था को बदल भी सकता है। धर्म यथास्थितिवादी भी हो सकता है और क्रांतिकारी भी अन्योन्यक्रिया की प्रकृति और उस का परिणाम अनेक कारकों पर निर्भर करते हैं. 


धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच अन्योन्यक्रिया (Interaction between Religion and Social Order)

 

सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा

  • सामाजिक व्यवस्था क्या हैआप में से अपेक्षाकृत उत्सुक विद्यार्थियों को स्मरण होगा कि 'सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा समाज की क्रियावादी समझ के अंदर आती है। इस अवधारणा की उत्पत्ति मध्य युग में हुई जब लोग विध्वंसक सामंती लड़ाइयों और प्रलयकारी प्राकृतिक विपदाओं और भीषण महामारियों से जूझते हुए 'व्यवस्थाकी तलाश कर रहे थे । हमारी समझ से इस अवधारणा को उन विचारकों ने लोकप्रिय बनाया है जो समाज को क्रियावादी दृष्टिकोण से समझने की हिमायत करते हैं और साथ ही समाज और मानव शरीर की गतिशीलता की तुलना भी करते हैं। संक्षेप मेंवे जैविक सादृश्य की बात करते हैं।

 

अवधारणा के रूप में सामाजिक व्यवस्थाके इनमें से एक या अधिक अर्थ निकल सकते हैं: 

(i) समाज में संस्थाओं की व्यवस्था 

(ii) समाज में भूमिकाओं और प्रस्थितियों की व्यवस्था

(iii) इस 'ढांचेका सुचारू और सुसमन्वित रूप से कार्य करना। 


  • दूसरे शब्दों में 'ढांचाया संरचना और कार्य किसी भी सामाजिक व्यवस्था के दो जुड़वां आयाम हैं। व्यक्ति और समाज एक दूसरे के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध में बंधे होंयही किसी सामाजिक व्यवस्था का सार है। सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा के पीछे एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सवालिया मान्यता यह है कि सामाजिक व्यवस्था भी लगभग प्राकृतिक व्यवस्था की तरह ही एक संतुलित 'आत्म-नियंत्रणकारीऔर 'आत्म-संतुलनकारी व्यवस्था है।

 

  • सामाजिक व्यवस्था की क्रियावादी व्याख्या से उभरने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि सामाजिक व्यवस्था में शक्तिसंपदा और अवसरों की असमानता भी होती है और इन संसाधनों को हासिल करने के लिए विभिन्न समूहों के बीच चलने वाला संघर्ष भी होता है । क्या ये असमानताएं स्थायी होती हैंऔर क्या इन्हें 'स्वाभाविकया 'नियतया 'तर्क से निर्धारित मान कर स्वीकार कर लिया जाता हैक्या हमें इस कलह पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदल नहीं देना चाहिएइन सवालों पर समाजशास्त्रियों में हमेशा से बहस चलती आ रही है। समाजशास्त्रियों का एक विशिष्ट वर्ग है जो सामाजिक व्यवस्था के संसाधनों को प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा रखने वाले समूहों के बीच टकराव के रूप में देखता है।

 

  • धर्म क्या कहता हैसामाजिक व्यवस्था के बारे मेंक्या धर्म मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को उसकी शक्तिसंपदा और अवसरों की असमानताओं सहित जैसा का तैसा स्वीकार कर लेता हैक्या धर्म यह कहता है कि सामाजिक व्यवस्था तो स्वाभाविक और नियत होती है और इसलिए उसे बदला नहीं जा सकताक्या धर्म कहता है कि अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था दैवीय इच्छा और रचना की अभिव्यक्ति हैक्या धर्म यह कहता है कि मनुष्य को सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार करना ही होगा क्योंकि यह व्यक्ति के पापों और कर्मों आदि का परिणाम है और इसलिए वे इसे बदल नहीं सकते ?

 

धर्म की कुछ प्रमुख विशेषतायेँ

इन महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करने से पहलेआइए हम धर्म की कुछ प्रमुख विशेषताओं पर दुबारा विचार करें:

 

  • 1) धर्म की एक संरचनात्मक भूमिका (कार्य) होती है: यह हमें समझने के लिए वैचारिक रूप देता है। दूसरे शब्दों मेंयह हमें बुद्धि का एक ढांचा देता है जिसमें समयस्थानवर्ग और व्यक्ति आदि की अवधारणाएं आती हैं। 

 

  • i) धर्म की एक बौद्धिक भूमिका होती है यह मानव जीवन के अर्थ और उद्देश्य की व्याख्या करता है। यह समाज को नियंत्रित करने वाले मूल्य और प्रतिमान देता है और उनका समर्थन करता है। और स्पष्ट शब्दों में धर्म किसी भी समय में लक्ष्य निर्धारण और मूल्य अभिविन्यास की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके अतिरिक्त धर्म जन्ममृत्युदुःख और बुराई जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाओं की भी व्याख्या करता है।

 

  • iii) धर्म सामाजिक संस्था है क्योंकि आस्थकों का समुदाय ही किसी धर्म का आधार होता है। धर्म संगठन है क्योंकि इसमें देवी-देवतापुरोहितपैगम्बर और विश्वासी एक श्रेणीबद्ध क्रम में रहे हैं।

 

  • iv) धर्म संस्कारों और विश्वासों का एक पुंज होता है जिसके केंद्र में 'पवित्रकी धारणा होती है।
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