मत, पंथ और संप्रदाय |वीर शैव आंदोलन | Sects, Cults and Denominations In Hindi
मत, पंथ और संप्रदाय (Sects, Cults and Denominations)
मत, पंथ और संप्रदाय का अर्थ
- मत, पंथ और संप्रदाय व्यापक अर्थों में मातृ धर्म के अंदर होने वाली फूट या असंतोष की अभिव्यक्ति हैं। उदाहरण के लिए, आप को सार्वभौमिक चर्च के अंदर अनेक प्रोटेस्टैंट मत, संप्रदाय और पंथ देखने को मिलते हैं। इतिहास में ऐसा मोड़ भी आता है जब समाज में होने वाले बदलावों के कारण धर्म समाज को अस्थिर करने वाला कारक बन जाता है। ऐसे समय में कुछ असंतुष्ट गुट उठ खड़े होते हैं जो मातृ धर्म के सिद्धांतों, संस्कारों और रीतियों पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं।
मतों, पंथों और संप्रदायों की विशेषताएं (Characteristics of Sects, Cults and Denominations)
- मतों का अभ्युदय कुछ पुरोहित वर्गों और विश्वासियों के बीच की फुट या असंतोष के कारण होता है। उन्हें ऐसा लग सकता है कि मूल धर्म (जैसे, चर्च) अपने संस्थापक या पैगम्बर के उपदेशों को सही परिमाण में सामने नहीं रख पाया है और सामाजिक व्यवस्था का ही अंग बन गया है। बदलाव, पुनः निर्माण और पुनर्विवेचना के लिए प्रेरित करना मतों के अभ्युदय का कारण होते हैं।
- यहाँ हम एक उदाहरण देकर आप को यह समझाने का प्रयास करेंगे कि - चर्च और मत का संसार से अलग किस्म का संबंध है। चर्च सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार करते हैं और उसकी प्रस्थिति को विश्वसनीय बनाते हैं। वहीं मत मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से यथास्थिति से अपने आपको अलग रखने का प्रयास करते है। मत एक अर्थ में विरोधी प्रवृत्ति के निकाय होते हैं। मत की विशेषता उसकी ऐच्छिक सदस्यता है, जबकि चर्च की सदस्यता प्राकृतिक अर्थात जन्मजात होती है। चर्च की अपेक्षा मत कहीं अधिक स्वायत्तता रखते हैं।
- पूर्ण रूप से विकसित चर्च राज्य और शासक वर्गों का अपने हित में इस्तेमाल करता है और इन तत्वों का अपने जीवन में समावेश करता है, फिर वह मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बन जाता है। इस तरह चर्च सामाजिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है। मतों का संबंध सामान्यतया निम्न वर्गों से या कम से कम उन तत्वों से होता है जो राज्य और समाज के विरोधी होते हैं। जैसा कि एर्नेस्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द सोशल टीचिंग ऑफ द क्रिश्चियन चर्चेज़ में लिखा है, वे नीचे से ऊपर की ओर क्रियाशील होते हैं।
- मत आदर्शवादी समुदाय है, और आकार में अपेक्षाकृत छोटा होता है। इसके सदस्य सीधी व्यक्तिगत सहभागिता चाहते हैं। वैसे, एक निश्चित स्थिति के बाद भी संस्था का रूप धारण कर ये संप्रदाय बन सकते हैं। इसे और अलग ढंग से समझा जाए तो संप्रदाय वास्तव में विकास की उन्नत अवस्था में पहुंचे हुए मत होते हैं जिनमें आपस में और धर्मेतर समाज के साथ संबंध भी उन्नत अवस्था में पहुंचे हुए होते हैं। पंथ प्रमुख रूप से किसी जीवित या मृत व्यक्ति विशेष पर केंद्रित होता है। व्यक्तिगत सहभागिता पर पंथ में कम से कम जोर होता है। ढीली ढाली संरचना वाले इस धार्मिक संगठन (पंथ) में अनुयायी लोग व्यक्तिगत परमानंद का अनुभव मोक्ष और सुख की अभिलाषा करते हैं ।
मत सामाजिक व्यवस्था के बदलाव के माध्यम
- अब हम एक हिंदू मत के विषय में जानकारी देंगे जिसमें सामाजिक व्यवस्था को बदलने का प्रयास किया वीर शैव आंदोलन 12वीं शताब्दी का हिंदू मत है। इस मत ने उस समय के ब्राह्मणी लोकाचार का जमकर विरोध किया था। विरोध का यही तत्व वीर शैव आंदोलन को मत का रूप दे देता है, जबकि विद्वान लोग 'मत' शब्द का इस्तेमाल पश्चिमी संदर्भ के बाहर करने में हिचकिचाते हैं।
- बारहवीं शताब्दी के दौरान, सामाजिक व्यवस्था पर ब्राह्मणी हिंदुत्व का वर्चस्व था ।जाति और संस्कार की कठोर अवस्थाएं आम थीं। विभिन्न जातियों के बीच आपसी सामाजिक व्यवहार पर अत्यंत कड़ा प्रतिबंध और नियंत्रण था। इसके लिए नियमों की एक व्यापक व्यवस्था थी जिसके माध्यम से विभिन्न जाति समूहों के बीच खान-पान और शादी-विवाह के संबंधों पर रोक लगाई गई थी। ब्राह्मण जाति से बाहर के लोगों को बंधुआ मजदूरी और लज्जाजनक व अमानवीय स्थितियों में जीने के लिए बाध्य किया जाता था ।
वीर शैव आंदोलन
- वीर शैव आंदोलन के प्रमुख वासवेश्वर थे । वे कालाचूड़ी के राजा, बिज्जाला द्वितीय के खंजाची और मुख्य मंत्री थे। वीर शैव आंदोलन ने दमनकारी ब्राह्मणी हिंदू व्यवस्था के खिलाफ जम कर संघर्ष किया। इस आंदोलन ने उन प्रतीकों और मूल्यों को चुनौती दी जिसकी हिमायत ब्राह्मण करते थे। आंदोलन के सदस्य शिव को सर्वोच्च ईश्वर मानते थे । जो लोग शिव की भक्ति करते हैं वे वासवेश्वर के अनुसार समान होते हैं, चाहे वे किसी भी लिंग, जाति और वर्ग के हों। वीर शैव मतावलंबी छूआछूत को बुराई मानते थे। वे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि जीवन मुक्ति में विश्वास करते थे। वे कार्य को पवित्र मानते थे। वीर शैव मतावलंबी अंतिम सत्य की तलाश के प्रयास में भक्ति मार्ग को अपनाते थे । उस समय व्याप्त ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था के विरुद्ध विरोधपरक विचारधारा के कारण वीर शैव आंदोलन में अधिकांशतः निम्न जाति के लोग शामिल हुए। 1162 ई. तक इस आंदोलन ने गति पकड़ ली थी और वासवेश्वर, अल्लता प्रभु, चेन्ना वासव और सिद्धराम इसका नेतृत्व कर रहे थे। वीर शैव मतावलंबियों की नीति संहिता पंकाकरास कहलाती थी और उसका आधार समतावादी सिद्धांत थे।
- आंदोलन खुद को मत की व्यवस्था, पुरोहितों की श्रेणीबद्धता और नियमों-विनियमों के माध्यम से संस्था का रूप देने लगा तो उसके बाद इसका मतीय चरित्र विशेषकर इसकी विरोध की विचारधारा समाप्त होने लगी। वीर शैव मत ने धीरे-धीरे ब्राह्मणों की व्यवस्था के समांतर व्यवस्था में अपने आप को संस्थाबद्ध कर लिया। वीर शैव आंदोलन ने लिंगायतों के एक राजनीतिक समूह के रूप में उदय में मदद की और गैर-ब्राह्मणों में शिक्षा का प्रचार किया, फिर भी सत्य यह है कि आज कर्नाटक में इसे एक और जाति ही माने जाने लगा है।
- यह सच है कि वीर शैव आंदोलन के कारण कर्नाटक में 12वीं शताब्दी में सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हुआ। लेकिन अंततः इसे संस्था का रूप लेने की प्रक्रिया के आगे घुटने टेक देने पड़े और इसने एक समानांतर व्यवस्था कायम कर ली। मतों का उदय विरोध स्वरूप होता है, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ वे दर्रे पर आ जाते हैं और सामाजिक व्यवस्था से सामंजस्य कर लेते हैं ।
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