धर्म सामाजिक स्थिरता और सामाजिक बदलाव | Social Stability and Social Change in Hindi
धर्म सामाजिक स्थिरता और सामाजिक बदलाव Social Stability and Social Change
धर्म और सामाजिक व्यवस्था के बीच अन्योन्यक्रिया होती है तो उसके दो व्यापक प्रभाव हो सकते है:
(i) धर्म सामाजिक व्यवस्था को बदल सकता है और धर्म सामाजिक व्यवस्था को स्थिर भी कर सकता है;
(ii) सामाजिक बदलाव के परिणामस्वरूप स्वयं धर्म में भी विभिन्न स्तरों पर बदलाव हो सकता है या मौजूदा सामाजिक व्यवस्था कभी-कभी अत्याचारी और दमनकारी होने वाले धर्म का बचाव भी कर सकती और उसे उचित भी ठहरा सकती है।
- स्थिरता और बदलाव ही अकेले धर्म और सामाजिक बदलाव के बीच अन्योन्यक्रिया के संभावी परिणाम नहीं है। कभी-कभी कुछ निश्चित स्थानों पर इसकी परिणति निरंतरता में भी हो सकती है।
- दूसरे शब्दों में पिछले युग की कुछ विशेषताएं तो जैसे की तैसे बनी रह सकती हैं। जबकि कुछ अन्य विशेषताएं बदल दी जाती हैं। नई पैदा होने वाली स्थितियों के कारण पिछले काल के कुछ सिद्धांतों को बनाए रखना आवश्यक हो सकता है।
- धर्म मनुष्यों के दुःखों और असमानताओं की व्याख्या प्रस्तुत करके मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है। धर्म एक निश्चित नैतिक ढांचे के भीतर व्यक्तियों का समाजीकरण करके समाज को स्थिरता प्रदान कर सकता है।
- कोई धर्म विशेष कुछ ऐसे सिद्धांत प्रस्तुत करता है जो असमानताओं की व्याख्या स्वाभाविक या प्राकृतिक और ईश्वर प्रदत्त प्रघटना के रूप में करते हैं। कुछ धर्म व्यक्तिगत मोक्ष या उद्धार की अवधारणा को इतना अधिक महत्व देते हैं कि वे मनुष्य के दुःखों को 'पाप' या 'मनुष्य की पतित अवस्था के परिणाम के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
- धर्म कभी-कभी सामाजिक बदलाव की शक्ति के रूप में कार्य करने लगता है। समाज में होने वाले व्यापक बदलावों की रोशनी में पुराने शास्त्रों, संस्कारों या सिद्धांतों की नई-नई विवेचनाएं होती हैं। ये सामाजिक बदलाव में अपना निश्चित योगदान देती हैं। ऐसे में धर्म स्वयं अभी तक हाशिए में पड़े या भुला दिए गए सिद्धांतों पर इस बदले संदर्भ में फिर से जोर दे सकता है। विश्वासियों के समुदाय के इस लोक के दुःखों (उत्पीड़न, दमन, दासता आदि) से बाध्य होकर धर्म को विशिष्ट सामाजिक राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में अपनी पारलौकिक भूमिका को गौण करना पड़ सकता है। अक्सर धार्मिक भावनाओं और प्रतीकों का आह्वान किया जाता है, संस्कारों और विश्वासों को नए अर्थ दिए जाते हैं; और इंस प्रक्रिया में धर्म, विश्वासियों के उस समूह के लिए सामूहिक लामबंदी का वाहक बन जाता है जो 'मुक्ति' पाना चाहते हैं।
- विश्वासियों का यह समूह विरोध स्वरूप मातृ धर्म संबंध तोड़ कर अलग मत का निर्माण कर सकता है। धर्म यह भी व्याख्या करता है कि आदर्श परिवार, सर्वोत्तम शिक्षा आदि का अर्थ है। इसके चलते इन संस्थाओं में बदलाव या स्थिरता भी आ सकती है।
उपर्युक्त विवेचन से एक दिलचस्प विचार सामने आता है कि धर्म आवश्यक रूप से पुरातनपंथी या रूढ़िवादी शक्ति नहीं है, जैसा कि अधिकांश लोग मानते हैं। अपितु धर्म तो प्रगतिशील, आधुनिक और क्रांतिकारी शक्ति भी हो सकती है। यह उन कारकों पर निर्भर करता है जिनमें से कुछ की व्याख्या नीचे दी गई है।
धर्म मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को स्थिर करता है या इसे बदलता है - निर्धारक कारक (Determining Factors)
धर्म मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को स्थिर करता है या इसे बदलता है, यह अनेक कारकों पर निर्भर करता है। ऐसे कुछ कारक हैं:
- ऐसे नए साक्ष्य / अनुसंधान जो शास्त्रों, पवित्र ग्रंथों और धर्म के संस्थापक के संदेश की नई विवेचना प्रस्तुत करते हैं। पादरी, पुरोहित और विश्वासियों के समुदाय के सामाजिक मूल बिन्दु (सामाजिक वर्ग, प्रजातियता आदि) ।
- ऐसा माध्यम जिसके जरिए स्थिरता अथवा बदलाव की प्रक्रिया संपन्न होती है। विद्वानों के शास्त्रार्थ या आंदोलनों की रोशनी में पवित्र ग्रंथों / शास्त्रों / पाठों की पुनः विवेचना |
- किसी औपनिवेशिक शासन या स्व-शासन में चलने वाले धार्मिक समुदाय की राजनीतिक परिस्थिति।
- धार्मिक श्रेणीबद्धता में व्यक्तियों का समाज के दूसरे वर्गों के साथ संबंध, दूसरे शब्दों में धर्म के भीतर और बाहर सत्ता की स्थिति ।
- पैगम्बरों का अभ्युदय, दूसरी संस्कृतियों का प्रभाव, राजनीतिक अधीनता और विश्वासियों का आर्थिक शोषण ।
- जैसे धर्म में बदलाव आने से सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आ सकता है, ठीक वैसे ही समाज की शिक्षा, परिवार, विज्ञान, उद्योग और स्तरीकरण जैसे क्षेत्रों में आने वाले बदलाव धर्म को इस बात के लिए बाध्य कर सकते हैं कि वह नई रोशनी में सामाजिक व्यवस्था की व्याख्या करें ।
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