अरस्तू का जीवन परिचय | Arastu (Aristotle) Ka Jeevan Parichay

 अरस्तू का जीवन परिचय

अरस्तू का जीवन परिचय | Arastu (Aristotle) Ka Jeevan Parichay



अरस्तू का जीवन परिचय

 

  • अरस्तू का जन्म 384 ईसा पूर्व में मेसीडोनिया के स्टेजिरा नामक नगर में हुआ था, जो एथेन्स के लगभग दो सौ मील दूर उत्तर में है। 
  • अरस्तू के पिता मेसीडोनिया के राजा तथा सिकन्दर के पितामह एमण्टस के मित्र और चिकित्सक थे। ऐसा लगता है कि स्वयं अरस्तू भी बाद में एस्किलपेड्स के प्रसिद्ध चिकित्सक समाज का सदस्य बन गया था। 
  • अस्पताली वातावरण में उसका पालन-पोषण हुआ और इस तरह उसके मस्तिष्क को वैज्ञानिक ढंग से सोचने-समझने का अभ्यास हो गया, जिसके लिए उसे हर तरह का अवसर और प्रोत्साहन मिला था। 
  • उसकी युवावस्था के संबंध में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। एक कहानी के अनुसार उसने विद्रोही जीवन व्यतीत करने के लिए अपनी पैतृक सम्पत्ति पानी की तरह बहा दी और फिर पैसा न रहने पर सेना में भर्ती हो गया। इसके बाद वह स्टेजिरा लौट आया और चिकित्सक का काम करने लगा। 
  • तत्पश्चात् वह तीस वर्ष की आयु में प्लेटो से दर्शनशास्त्र की शिक्षा लेने के लिए एथेन्स चला गया। इससे भी अच्छी कहानी यह है कि वह अठारह वर्ष की आयु में ही एथेन्स चला गया था और वहां पहुंचते ही उसे महान् गुरु का संरक्षण प्राप्त हो गया था, किन्तु इस कथा में भी इस बात का पर्याप्त संकेत हैं कि उसकी जवानी लापरवाही और अस्त-व्यस्त जीवन में ही तेजी से बीती थी। 
  • हम दोनों कथाओं में देखते हैं कि हमारा यह दार्शनिक अपने जीवन में इधर-उधर अनेक थपेड़े खाता हुआ अन्त में प्लेटो के विद्या मन्दिर के शान्त कुंजों में ही आकर आश्रय ग्रहण करता है। प्लेटो की देख-रेख में उसने आठ या बीस वर्ष तक विद्याध्ययन किया और वास्तव में अरस्तू की विचार धाराओं में यहाँ तक कि अधिकांश प्लेटो-विरोधी विचारधाराओं में भी प्लेटो के सिद्धांतों की व्यापकता यह बतलाती है कि विद्या अध्ययन की यह अवधि इससे अधिक ही होगी। 
  • कोई व्यक्ति यह अनुमान लगा सकता है कि ये वर्ष कितने सुख के होंगे जबकि एक मेधावी छात्र अपने अद्वितीय गुरु के पथ-प्रदर्शन में दर्शनशास्त्र की वाटिकाओं में ग्रीक प्रेमियों की भांति टहलता होगा, किन्तु दोनों प्रतिभाशाली पुरुष थे और यह कहावत प्रसिद्ध है कि प्रतिमासम्पन्न पुरुषों का आपस में वैसा ही मधुर मिलन होता है जैसा कि बारूद का आग के साथ दोनों की आयु के बीच लगभग पचास वर्ष का अन्तर था और यह समझना कठिन है कि वर्षों का यह अन्तर कैसे पाटा गया होगा तथा आत्माओं की भिन्नता किस तरह दूर की गयी होगी। 
  • प्लेटो ने इस विचित्र नये शिष्य की महानता पहचान ली थी, जो उत्तरी प्रदेश के ऐसे भाग से आया था जिसे उस समय असभ्य समझा जाता था। प्लेटो ने उसे एक बार अपने विद्या मंदिर का 'नौस' या बुद्धि का साक्षात् अवतार कहा था। 
  • अरस्तू ने पुस्तकों के संग्रह पर पानी की तरह पैसा बहाया था। यूरीपिड्स के बाद वह प्रथम व्यक्ति था जिसने पुस्तकों का संग्रह कर पुस्तकालय बनया था। ज्ञान-भंडार को उसकी अनेक देनों में पुस्तकालय - विभाजन का सिद्धांत भी एक देन है।
  • प्लेटो ने अरस्तू के निवास स्थान को 'विद्यार्थी का घर कहा था और हृदय से उसकी प्रशंसा की थी, किन्तु कतिपय प्राचीन कथाओं ने उक्त कथन का दूसरा ही अर्थ लगाया है और कहा है कि प्लेटो अरस्तू को किताबी समझते थे। ऐसा लगता है कि वास्तविक झगड़ा तो प्लेटो की मृत्यु के बाद ही आरम्भ हुआ था। हमारे इस महत्वाकांक्षी युवक के हृदय में अपने गुरु के विरुद्ध उनके दर्शन के प्रति पक्षपात और अनुराग के कारण स्पष्ट रूप से एक विद्रोही भाव उत्पन्न हो गया था और वह कहने लगा था कि प्लेटो की मृत्यु के साथ ही पांडित्य का अंत हो जाएगा। 
  • दूसरी ओर प्लेटो का अपने इस शिष्य के संबंध में कथन था कि वह घोड़े या गदहे के उस बच्चे की तरह है, जो अपनी मां का दूध चूस लेने के बाद उसे लात मार देता है। विद्वान जीलर ने, जिसकी पुस्तकों में को प्रतिष्ठा अरस्तू का सर्वोच्च पद या निर्वाण मिला है, इन कथाओं को न मानने की सलाह दी थी, किन्तु आज हम सोच सकते हैं कि जब इन कथाओं का जिक्र अब तक होता है तो उनमें सत्य का कुछ न कुछ अंश अवश्य होगा। 
  • एथेन्स के इस काल की घटनाएँ और भी अधिक शंकास्पद हैं। कुछ जीवनी लेखकों ने कहा है कि अरस्तू ने आइसोक्रेट्स विचारकों की प्रतिद्वन्द्विता में एक विद्यालय की स्थापना की थी जहां व्याख्यान देने की कला की शिक्षा दी जाती थी। यह भी कहा जाता है कि इस विद्यालय में हर्मियास नामक उसका एक धनी शिष्य भी था, जो बाद में एटारनॉस के नगर राज्य का स्वेच्छाचारी शासक बन गया था।
  • हर्मियास ने उस उच्च पद पर पहुंचने के बाद अरस्तू को अपने दरबार में आमंत्रित किया और उसकी पिछली सेवाओं या कृपाओं के बदले अपने गुरु के साथ अपनी बहन (या भतीजी) की 344 ई.पू. में शादी कर दी। 
  • कोई भी इसे यूनानी भेंट के रूप में स्वीकार कर सकता है, किन्तु इतिहासकारों ने हमें विश्वास दिलाया है कि प्रतिभासम्पन्न होते हुए भी अरस्तू का जीवन अपनी पत्नी के साथ बड़ा सुखमय रहा और वसीयतनामे में अपनी पत्नी के संबंध में बड़े प्रेमपूर्ण उदगार प्रकट किये हैं। 
  • लगभग एक वर्ष पश्चात ही मेसीडोनिया के राजा फिलिप ने अरस्तू को सिकन्दर की शिक्षा का कार्य सौंपने के लिए उसे पेल्ला के अपने दरवार में बुला लिया था। इससे स्पष्ट लगता है कि हमारे इस दार्शनिक अरस्तू की प्रसिद्धि कितनी फैल चुकी थी कि तत्कालीन सबसे महान राजा ने सर्वश्रेष्ठ गुरु की खोज में अरस्तू को चुना, जिसे विश्व के भावी शासक का शिक्षक बनना था।
  •  
  • फिलिप का दृढ़ निश्चय था कि उसके पुत्र को हर तरह की शिक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि उसने उसके सम्बन्ध में अनन्त योजनाएँ बनायी थीं। ईसा पूर्व 356 में उसकी थेस पर विजय हो जाने से उसका वहां की सोने की खानों पर अधिकार हो गया था, जिससे उसकी आय लगभग दस गुनी बढ़ गयी थी। उसकी प्रजा में परिश्रमी किसान और योद्धा थे, जो शहर के विलासमय जीवन और दुर्गुणों से बहुत दूर थे। उसकी प्रजा उन तत्वों की सम्मिश्रण थी जिनकी सहायता से सौ छोटे-छोटे नगर-राज्यों को अधीन करना और यूनान का राजनीतिक एकीकरण करना बड़ा सरल था। 
  • फिलिप के हृदय में व्यक्तिवाद ने ही यूनान की कला और बुद्धि का तो पोषण किया था, किन्तु साथ ही उसने देश की सामाजिक व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न कर डाली थी। इन सब छोटी-छोटी राजधानियों में उसे मनोहर संस्कृति तथा अजेय कला के दर्शन नहीं हुए, बल्कि उसने वहां व्यापारिक भ्रष्टाचार तथा राजनीतिक अराजकता भी देखी। 
  • उसने देखा कि अर्थलोलुप व्यापारी और धनाढ्य लोग राष्ट्र के महत्वपूर्ण साधनों को लूट रहे हैं। अयोग्य राजनीतिज्ञ तथा चतुर वक्ता जीवन में फंसी जनता को गुमराह कर भयंकर षड्यन्त्र रच रहे हैं, उन्हें युद्ध की ओर घसीट रहे हैं तथा आपसी मतभेद पैदा करके वे उन्हें वर्गों और जातियों में बांट रहे हैं। 

  • फिलिप का कहना था कि यह किसी राष्ट्र का रूप नहीं है बल्कि केवल ऐसे व्यक्तियों का जमघट है, जिनमें बुद्धिमान और गुलाम सभी सम्मिलित हैं। वह ऐसी व्यवस्था कायम करेगा जिसमें यह विषम स्थिति समाप्त हो जायेगी और यूनान के सभी लोगों को एकताबद्ध कर यूनान इतना शक्तिशाली बना दिया जायेगा कि वह विश्व का राजनीतिक केन्द्र और आधार बन सके। उसने अपनी युवावस्था में सामन्त एपॉमिनाण्डस के अधीन थेब्स में सैनिक शिक्षा तथा प्रशासन कला सीखी थी और अब अपने अपार साहस और अपनी असीम महत्वाकांक्षा के कारण उसने इस ज्ञान में पर्याप्त उन्नति कर ली थी। 


  • ईसा पूर्व 338 में उसने एथेन्सवासियों को कोरोनिया के युद्ध में परास्त कर दिया और अन्त में अपनी आँखों में एक संयुक्त यूनान देख ही लिया, यद्यपि वह गुलामी की जंजीरों से एक किया गया था। इसके बाद उसका एक विजय से ज्योंही साहस बढ़ा वह सोचने लगा कि किस तरह वह और उसका पुत्र समस्त संसार पर विजय प्राप्त करें तथा उसे एक सूत्र में बांधे कि एक दिन उसकी किसी ने हत्या कर दी।

 

  • जब अरस्तू शिक्षा देने आया था तब सिकन्दर तेरह वर्ष का उद्दण्ड युवक था, जो बहुत ही क्रोधी, हठीला और मदमस्त भी था। उसे ऐसे घोड़े पालने का शौक था जिन्हें वश में करना मनुष्यों के लिए कठिन हो। इस बाल- ज्वालामुखी की लपटों को शीतल करने में इस दार्शनिक को विशेष सफलता नहीं मिली। अरस्तू को सिकन्दर के संबंध में जितनी सफलता मिली थी उससे कहीं अधिक सिकन्दर को बूसीफालस के संबंध में मिली थी।
  • प्लूटार्क का कहना है सिकन्दर का अरस्तू के प्रति उतना ही प्रेम और उतनी ही श्रद्धा थी जितनी कि अपने पिता के प्रति थी। उसका कहना था कि यदि उसने अपने पिता से जीवन पाया है तो गुरु ने उसे जीवन की कला दी है।" ( एक बहुत ही सुन्दर यूनानी कहावत है कि जीवन प्रकृति की देन है, किन्तु सुन्दर जीवन बुद्धि की देन है)। सिकन्दर ने अपने एक पत्र में अरस्तू को लिखा था, मैंने अपने को शक्ति और साम्राज्य बढ़ाने की कला की अपेक्षा इस ज्ञान में अधिक श्रेष्ठ बना लिया है कि अच्छाई क्या है।" किन्तु यह सम्भवतः शाही युवक की प्रशंसात्मक उक्ति से अधिक कुछ नहीं है।


  • दर्शनशास्त्र के उत्साही नौसिखिये के अन्दर बर्बर राजकुमार और अनियन्त्रित राजा के जोशीले बेटे का रूप छिपा हुआ था। इन पैतृक उद्दीप्त भावनाओं को बांधने के लिए विवेक के बन्धन बहुत ही कोमल थे और इसीलिए सिकन्दर ने राज-सिंहासन पर आसीन होने तथा विश्व को वश में करने की इच्छा से दो वर्ष बाद दर्शनशास्त्र को त्याग दिया इतिहास हमें यह विश्वास करने की स्वतंत्रता देता है (यद्यपि इन सुखद विचारों के प्रति हमें शंका हो सकती है) कि सिकन्दर को विश्व विजय की भावना की थोड़ी बहुत शक्ति और प्रेरणा अपने गुरु से भी मिली थी, जो दर्शनशास्त्र के इतिहास में सर्वाधिक सामंजस्यपूर्ण विचारक था। इस तरह शिष्य द्वारा राजनीतिक क्षेत्र में तथा गुरु द्वारा दार्शनिक क्षेत्र में विजय व्यवस्था एक ही शुद्ध एवं महाकाव्यमय विचार के विभिन्न अंग हैं। वे मेसीडोनिया के दो शानदार पुत्र थे, जिन्होंने दो विप्लवयुक्त विश्वों (दर्शन एवं राजनीति) को एक सूत्र में बांध दिया था।

 

  • एशिया - विजय के लिए रवाना होने पर सिकन्दर अपने पीछे यूनान के नगरों में अपनी सार्थक सरकारें तो छोड़ गया था, किन्तु जनता एकदम विरोधी थी। एथेन्स की लम्बी परम्परा में जो कभी साम्राज्य भी रह चुका था, गुलामी असह्य थी चाहे वह विश्व - विजयी शानदार स्वेच्छाचारी शासक की ही गुलामी क्यों न हो। साथ ही डिमास्थीनियों के तीखे एवं प्रभावशाली व्याख्यानों से महासभा मेसीडोनियन दल के विरुद्ध विद्रोह के लिए हमेशा कटिबद्ध रहती थी, जिसके हाथों में नगर का शासन सूत्र था।
  • अतः जब अरस्तू दूसरी बार विदेश भ्रमण के बाद 334 ईसा पूर्व में एथेन्स लौटा तो उसका स्वाभाविक रूप से मेसीडोनियन दल से संबंध हो गया और उसने सिकन्दर के एकतामूलक शासन को अच्छा मानने के अपने विचारों को छिपाने का प्रयत्न नहीं किया। जैसे-जैसे अरस्तू के कार्यों का, जो उसने अपने जीवन के अन्तिम बारह वर्षों में किये थे, हम मनन तथा अनुसंधान के साथ अध्ययन करते हैं तथा जैसे-जैसे हम उसे अपने विद्या मंदिर के संगठन संबंधी अनेक कार्यों में लगे और ऐसे ज्ञान भण्डार का समन्वय करते देखते हैं जो इससे पूर्व किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क में कभी नहीं गुजरा था, वैसे-वैसे हमारे सामने बार-बार यह विचार आ जाते हैं कि खोज का यह कोई शान्त और सुरक्षित मार्ग नहीं था। किसी भी क्षण वहां का राजनीतिक वातावरण बदल सकता था और इस शान्तिपूर्ण दार्शनिक जीवन में तूफान आ सकता था। हम अपने मन में केवल इसी स्थिति को सम्मुख रखकर अरस्तू का राजदर्शन समझ सकते हैं और उसके दुःखद अन्त की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

 

  • राजाओं के राजा को शिक्षा देने वाले इस गुरु को एथेन्स के समान विरोधी लोगों के नगर में भी शिष्यों का मिलना कठिन नहीं था। जब अरस्तू ने 53वें वर्ष की आयु में अपने विद्यालय लिसीयम की स्थापना की तो इतने अधिक छात्र इकट्ठे हो गये कि व्यवस्था बनाये रखने के लिए जटिल नियम बनाना आवश्यक हो गया। छात्रों ने स्वयं उन नियमों की रचना की थी और वे हर दसवें दिन अपने में से एक छात्र को विद्यालय की देखरेख के लिए निर्वाचित करते थे, किन्तु हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि उस जगह कठोर अनुशासन था, बल्कि हमें जो विवरण प्राप्त है उसके अनुसार ज्ञात होता है कि सभी छात्र अपने गुरु के साथ समान रूप से भोजन करते तथा खेलकूद के मैदान में गुरु के साथ घूमते-फिरते, उनसे ज्ञान प्राप्त करते थे। इसी खेलकूद के मैदान के ही नाम पर उस विद्यालय का भी नाम लिसीयम पड़ा था।

 

  • यह नया विद्यालय प्लेटो के विद्या मन्दिर का केवल प्रतिरूप नहीं था, जो वह अपने पीछे छोड़ गया था। यदि हम प्लिनी के कथन पर विश्वास करें तो यह मानना पड़ेगा कि सिकन्दर ने अपने शिकारियों, आखेट करने वालों मालियों तथा मछुओं को आदेश दे रखा था कि वे अरस्तू को उसकी इच्छानुसार प्राणीशास्त्र संबंधी तथा वनस्पतिशास्त्र सम्बन्धी सामग्री देते रहें। अन्य प्राचीन लेखकों ने बताया है कि किसी समय उसकी सेवा में एक हजार व्यक्ति थे जो समस्त यूनान और एशिया में फैले हुए थे तथा उसके लिए हर प्रदेश के पशु और वनस्पतियों एकत्रित करते रहते थे। इन सामग्रियों की निधि से उसने एक ऐसा प्राणीशास्त्र संबंधी बाग तैयार कर लिया था, जो विश्व में अपने प्रकार का पहला था। इस संग्रह का उसके विज्ञान और उसके दर्शन पर समान प्रभाव बतलाना अत्युक्ति न होगी।

 

  • इन कार्यों के लिए अरस्तु को धन कहां से मिला होगा? अब तो वह स्वयं एक लम्बी आमदनी वाला व्यक्ति बन चुका था और साथ ही उसने यूनान के सबसे बड़े शक्तिशाली एवं सम्पन्न परिवार में विवाह किया था। एथीनास का कथन है (जिसमें कुछ अत्युक्ति अवश्य होगी कि सिकन्दर ने अरस्तू को भौतिक तथा प्राणी विद्या संबंधी सामान खरीदने और अनुसन्धान करने के लिए 800 यूनानी गिन्नियाँ दी थीं (आधुनिक समय में उनका क्रय मूल्य चालीस लाख डालर होगा)। कुछ लोगों का कहना है कि अरस्तू के सुझाव पर ही सिकन्दर ने नील नदी का उद्गम जानने और समय-समय पर उसमें बाढ़ आ जाने का कारण खोजने के लिए एक दल भेजा था, जिस पर काफी धन व्यय किया गया था। 
  • अरस्तू के लिए 158 राजनीतिक विधानों की रूपरेखा वाले विधि संग्रह की रचना तथा ऐसी ही अन्य पुस्तकों को तैयार किया जाना बतलाया है कि उसकी सहायता के लिए अनेक सचिव तथा सहायक अधिकारी अवश्य रहे होंगे। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि हमारे समक्ष यूरोपीय इतिहास का यह प्रथम उदाहरण है जबकि राजकीय कोष से विज्ञान पर बड़े ऊँचे पैमाने पर धन खर्च किया गया था। यदि आज की सरकारें अनुसन्धान और खोज पर इसी अनुपात से दिल खोलकर खर्च करें तो संसार का ऐसा कौन-सा ज्ञान है जो हम प्राप्त नहीं कर सकते।

 

  • अरस्तू के जीवन की अवसान वेला अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टमय बीती एक और उसने सिकन्दर से दुश्मनी मोल ले ली थी जबकि उसने केलिस्थनिज (अरस्तू का भतीजा) की फांसी का विरोध किया था, जिसने सिकन्दर को ईश्वर मानने से इन्कार कर दिया था और जब अरस्तू के प्रतिरोध के उत्तर में सिकन्दर ने यह संकेत किया था कि दार्शनिकों तक को मृत्यु की सजा देना उसके अधिकार की बात है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है। इसके साथ ही अरस्तू एथेन्सवासियों के बीच सिकन्दर का पक्ष प्रतिपादित करने में व्यस्त हो गया। 
  • उसने नगर की देशभक्ति की अपेक्षा यूनान की एकता को संस्कृति और विज्ञान की उन्नति होगी। उसने सिकन्दर में वे ही गुण देखे थे जो गेटे ने नेपोलियन में देखे थे। सिकन्दर में अनेक भागों में बंटे अशान्त और असम्य विश्व में एकता स्थापित करने की क्षमता का गुण था स्वतन्त्रता के भूखे यूनानवासी अरस्तू को भला-बुरा कहने लगे और जब सिकन्दर ने विरोधी नगर के बीचों बीच इस दार्शनिक की प्रतिमा स्थापित कर दी तो उनकी कटुता और बढ़ गयी प्लेटो की अकादमी के उत्तराधिकारी तथा कुछ जनसमूह जो डेमोस्थनीज की तीखी वाकपटुता से प्रभावित थे षड्यन्त्र रचने लगे और अरस्तू को देश निकाला देने या मृत्युदण्ड देने की मांग का शोर मचाने लगे।

 

  • इसी दौरान एक दिन अचानक (323 ई. पू.) सिकन्दर की मृत्यु हो गयी। एथेन्सवासी देश प्रेम के आनंद से पागल हो गये। मेसेडोनियन दल का तख्ता उलट दिया गया और एथेन्स की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी गयी सिकन्दर का उत्तराधिकारी और घनिष्ठ मित्र एण्टिपीटर विद्रोही नगर पर चढ़ आया।


  • मेसेडोनियम दल के अधिकांश लोग भाग गये। यूरोमेडन नामक एक प्रमुख पुरोहित ने अरस्तू के विरुद्ध अभियोग पत्र रखा जिसमें उस पर आरोप थे कि वह प्रार्थना और बलि को व्यर्थ मानने की शिक्षा देता है। अरस्तू ने देखा कि उसका भाग्य अब उन न्यायाधीशों और जनसमूह के हाथों में है जो उनसे भी अधिक विरोधी हैं जिन्होंने सुकरात की हत्या की थी। अतः उसने बुद्धिमानी की और यह कहकर नगर छोड़कर चला गया कि मैं एथेन्सवासियों को दर्शन के विरुद्ध दूसरी बार पाप करने का अवसर देना नहीं चाहता। कैलसिस आकर अरस्तू बीमार पड़ गया।


  • डायगनिस लार्टियस का कहना है कि इस वृद्ध दार्शनिक ने एकदम निराश होकर विषपान द्वारा आत्महत्या कर ली थी। अपने को चाहे जितना संभालने के बाद भी अरस्तू की बीमारी घातक सिद्ध हुई और एथेन्स छोड़ने के कुछ माह बाद (322 ई.पू.) एकान्तवासी अरस्तू ने संसार त्याग दिया। इस प्रकार यूनान का सूर्य अस्त हो गया, इसके बाद उसका वैभव भी नष्ट हो गया। एक हजार वर्ष तक यूरोप के मुख पर अन्धकार की छाया फैलती रही। समस्त संसार दर्शन के पुनर्जीवन की प्रतीक्षा करने लगा।

 

अरस्तू की प्रमुख रचनाएँ

 

  • राजनीति पर - The Politics, The Constitution. 
  • साहित्य पर Eademus or Soul, Protepicus, Poetics तथा Rhetoric आदि 
  • तर्कशास्त्र व दर्शन पर Physics, DeAnima, The Prior Metaphysics, Categories Interpretation The PosteriorAnalytics तथा The Topics आदि 
  • भौतिक विज्ञान पर - Meteorology (चार भाग) तथा अन्य ग्रन्थ 
  • शरीर विज्ञान पर - Histories ofAnimals तथा दस अन्य ग्रन्थ 

Read Also.....

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.