अरस्तू के अनुसार ऐच्छिक कर्मों की परिभाषा | Arastu Ke Anusaar Ekchik karm

  अरस्तू  के अनुसार  ऐच्छिक कर्मों की परिभाषा

अरस्तू  के अनुसार  ऐच्छिक कर्मों की परिभाषा | Arastu Ke Anusaar Ekchik karm



ऐच्छिक कर्मों की परिभाषा

 

  • जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि अरस्तू के मतानुसार समस्त नैतिक सद्गुण अथवा दुर्गुण मनुष्य के उन ऐच्छिक कर्मों में व्यक्त होते हैंजिन्हें वह किसी बाहरी दबाव या विवशता के बिना सोच-समझकर स्वयं अपनी स्वतंत्र इच्छा के आधार पर करता है- अर्थात् जिनका निर्धारण केवल उसकी भावनाओं द्वारा नहीं अपितु बुद्धि द्वारा किया जाता है। 


  • सर्वप्रथम इस परिभाषा के अनुसार ऐच्छिक कर्म वह है जिसे मनुष्य जानबूझकर अपनी इच्छा से करता है। इसका अर्थ यह है कि ऐसे कर्म को ऐच्छिक नहीं माना जा सकता जिसे करने के लिए व्यक्ति पर बाहरी दबाव डाला गया है और उसे विवश किया गया है। परंतु इस सम्बन्ध में एक बहुत बड़ी कठिनाई यह है कि उस बाहरी दबाव या विवशता की ठीक-ठीक परिभाषा करना लगभग असम्भव है जिसके कारण मनुष्य के किसी कर्म को वास्तव में अनैच्छिक कहा जा सकता है। 


  • उदाहरणार्थ क्या ऐसे कर्म को सचमुच अनैच्छिक माना जा सकता है जिसे किसी व्यक्ति ने अपनी अथवा अपने प्रियजन की सम्भावित मृत्यु, कठोर दंड, तीव्र पीड़ा आदि के भय से उत्पन्न विवशता के कारण किया है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा कर्म उस ऐच्छिक कर्म से भिन्न है जिसे व्यक्ति ने जानबूझकर अपनी स्वतंत्र इच्छा से किया है, किंतु फिर भी ऐसे कर्म को पूर्णत: अनैच्छिक मानकर इसके कर्ता को इसके सम्बन्ध में नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त मानना बहुत कठिन है। इसका कारण यह है कि किसी प्रकार के भय से उत्पन्न विवशता के होते हुए भी व्यक्ति अंततः इस कर्म को करने या न करने के लिए स्वतंत्र था। 


  • संक्षेप में भय अथवा किसी अन्य संवेग से उत्पन्न मनुष्य की विवशता उसे अपने कर्मों के लिए नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं कर सकती। अरस्तू मूलतः इस मत को स्वीकार करते हैं, क्योंकि उनके अनुसार इच्छाओं प्रवृत्तियों तथा संवेगों से प्रेरित अपने सभी कर्मों के लिए मनुष्य नैतिक दृष्टि से स्वयं उत्तरदायी है परंतु वे यह मानते हैं कि जिन कारणों पर मनुष्य के लिए किसी प्रकार का नियंत्रण सम्भव नहीं है। उनसे प्रेरित कर्मों के लिए उसे नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी नहीं माना जा सकता।


  • ऐसे कमों को अनैच्छिक अथवा निरैच्छिक कर्म कहा जा सकता है जो नैतिक प्रशंसा तथा निंदा के विषय नहीं माने जाते, इन कर्मों के अतिरिक्त अरस्तू के विचार में ऐसे सभी कर्म भी अनैच्छिक तथा नैतिक प्रशंसा एवं निन्दा से मुक्त है जिन्हें मनुष्य तथ्यों और परिस्थितियों से पूर्णत: अनभिज्ञ होने के कारण ही मरता है। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति एक भिखारी की क्षुधा शांत करने के लिए उसे भोजन खरीद कर देता है और उस भोजन में विष मिला होने के कारण भिखारी की मृत्यु हो जाती है तो इसके लिए उस व्यक्ति को नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह इस तथ्य से पूर्णतया अनभिज्ञ था कि उस भोजन में विष मिला हुआ है। 
  • अरस्तु का कथन है कि इस प्रकार की तथ्य सम्बन्धी अनभिज्ञता के कारण किये गये सभी कर्म वास्तव में अनैच्छिक अथवा निरैच्छिक ही होते हैं, अतः उनके लिए मनुष्य को उत्तरदायी मानना उचित नहीं है। परंतु यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अरस्तु के मतानुसार नैतिक सद्गुणों की अनभिज्ञता के फलस्वरूप किये गये कर्म अनैच्छिक नहीं है, अतः इन कर्मों के लिए मनुष्य को नैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं माना जा सकता। 
  • यदि कोई मनुष्य शराब के नशे में अथवा क्रोध, वासना, घृणा या ईर्ष्या के कारण कोई कर्म करता है तो उस कर्म को ऐच्छिक ही माना जाएगा और उसके लिए वह मनुष्य नैतिक दृष्टि से पूर्णत: उत्तरदायी होगा। यह समझना कठिन नहीं है कि अरस्तू ने ऐसे कमों को ऐच्छिक क्यों माना है। वे मनुष्य को मूलतः बौद्धिक प्राणी मानते हैं, अत: उनका विचार है कि वह ऐसे कर्मों के मूल कारणों अर्थात् तीव्र संवेगों तथा वासनाओं पर अपनी बुद्धि द्वारा नियंत्रण रख सकता है और यदि वह इसमें सफल नहीं होता तो वह स्वयं ही इसके लिए उत्तरदायी है। 


  • यद्यपि 'अरस्तू' ने संकल्प स्वातंत्र्य तथा नियतिवाद को उस समस्या के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विचार नहीं किया जिस पर आधुनिक दर्शन में तीव्र विवाद चलता रहा है और आज भी चल रहा है, फिर भी उनका मत है कि संकल्प स्वातंत्र्य के बिना नैतिकता अथवा नैतिक उत्तरदायित्व का कोई अर्थ नहीं है। इसी कारण उन्होंने ऐच्छिक कर्मों के स्वरूप पर ध्यान दिया है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अरस्तू ने ऐच्छिक कर्मों के स्वरूप की जो व्याख्या की है वह सामान्यतः युक्तिसंगत तथा संतोषप्रद है।

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