आदर्श नैतिक जीवन- अरस्तू का नीतिशास्त्र | Arastu Ke Anusaar Natik Jeevan
आदर्श नैतिक जीवन- अरस्तू का नीतिशास्त्र
आदर्श नैतिक जीवन की अरस्तू के अनुसार व्याख्या
- मनुष्य के आदर्श नैतिक जीवन के सम्बन्ध में अरस्तू के विचार प्लेटो के विचारों से अधिक भिन्न नहीं है। प्लेटो की भांति वे भी यह मानते है कि आत्मा के बौद्धिक तथा भावात्मक इन दोनों पक्षों के समुचित समन्वय द्वारा मनुष्य का जीवन वास्तव में आनंदमय हो सकता है। अपने मध्य मार्ग के सिद्धांत में अरस्तू से स्पष्ट कहा है कि इच्छाओं तथा भावनाओं का पूर्ण दमन करना और सदैव उन्ही के वशीभूत होकर आचरण करना दोनों ही अवांछनीय है। वे प्लेटो के इस मत का पूर्णतः समर्थन करते हैं कि बुद्धि के नियंत्रण में ही इच्छाओं की तृप्ति करना आनंदमय तथा आदर्श नैतिक जीवन का सर्वोत्तम मार्ग है। इसी कारण उन्होंने कहा है कि समस्त नैतिक सद्गुणों का मुख्य उद्देश्य मनुष्य की भावनाओं, प्रवृत्तियों तथा वासनाओं को नियंत्रित करना ही है।
- इस प्रकार प्लेटो तथा अरस्तू दोनों ही बुद्धि द्वारा नियंत्रित जीवन को संतुलित एवं आदर्श नैतिक जीवन मानते हैं। परंतु शुभ के स्वरूप के सम्बन्ध में इन दोनों दार्शनिकों के विचार समान नहीं है। अरस्तू प्लेटो के प्रत्ययों के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते, अत: उन्होंने प्लेटो के इस मत का समर्थन नहीं किया है कि सभी शुभ वस्तुओं के मूल में एक ही ‘शुभ का प्रत्यय' विद्यमान रहा है जो परम और निरपेक्ष शुभ है। अरस्तू का कथन है कि हम बहुत सी ऐसी वस्तुओं को शुभ कहते हैं जिनमें परस्पर कोई समानता नहीं है।
- उदाहरणार्थ हम सुख, स्वास्थ्य, सम्मान, विवेक, संयम, साहस, न्याय आदि को भी शुभ कहते हैं और धन, घर, वस्त्राभूषण, भोजन आदि भौतिक वस्तुओं को भी। स्पष्ट है कि इन भिन्न-भिन्न वस्तुओं के मूल में शुभ का एक ही प्रत्यय विद्यमान में नहीं हो सकता। इसी कारण अरस्तू ने प्लेटो द्वारा मान्य निरपेक्ष शुभ अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। उनका मत है कि हम जिन वस्तुओं को शुभ कहते हैं, उन सबके सम्बन्ध में एक ही बात समान है और वह यह कि हम किसी न किसी प्रत्यय के रूप में उनकी कांमना या इच्छा करते हैं।
- दूसरे शब्दों में, अरस्तू के मतानुसार 'शुभ' का मानवीय इच्छा से अनिवार्य सम्बन्ध है। इसी आधार पर 'परम शुभ' की परिभाषा करते हुए वे कहते हैं कि ‘परम शुभ' वह है जिसे सभी मनुष्य अपने आप में वांछनीय मानते हैं- अर्थात् जिसकी वे किसी अन्य वस्तु के साधन के रूप में नहीं अपितु स्वत: साक्ष्य के रूप में कामना करते हैं। इस दृष्टि से किसी भी भौतिक वस्तु तथा स्वास्थ्य, सम्मान, सद्गुण आदि को परम शुभ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये सब स्वतः साध्य न होकर आनन्द के साधन हैं। इससे स्पष्ट है कि अरस्तू के विचार में आनन्द ही मनुष्य के लिए परम शुभ है, क्योंकि हम आनन्द की कामना किसी अन्य वस्तु के साधन के रूप में नहीं करते अपितु उसे अपने आप में ही वांछनीय मानते हैं।
- अब प्रश्न यह है कि आनन्द क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अरस्तू ने कहा है कि आनन्द मनुष्य की वह शान्तिपूर्ण मानसिक स्थिति है, जिसका अनुभव वह सदैव सद्गुणयुक्त जीवन व्यतीत करने के परिणामस्वरूप ही कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि अरस्तू आनन्द को शारीरिक सुख से भिन्न मानते हैं, किन्तु उनका विचार है कि शारीरिक सुख भी आनन्द का ही भाग है। इसी कारण उन्होंने शारीरिक सुख का निषेध नहीं किया अपितु उसे उचित महत्व दिया है।
- यद्यपि बौद्धिक नियंत्रण आनन्दमय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आधार है, शारीरिक सुख के साथ-साथ अनुकूल भौतिक परिस्थितियों को भी अरस्तू ने आनन्द के लिए आवश्यक माना है। यह सत्य है कि आनन्द अन्ततः एक मानसिक अवस्था है, किन्तु इस पर बाह्य कारणों तथा भौतिक परिस्थितियों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ पर्याप्त धन, उत्तम स्वास्थ्य, उचित सम्मान, अकांक्षित सफलता, स्नेह करने वाले माता-पिता, विश्वासपात्र मित्र एवं सम्बन्धी, प्यार करने वाला जीवन साथी, सुयोग्य सन्तान आदि सभी मनुष्य के आनन्द में बहुत सहायक हैं। इन सब सहायक कारणों के अभाव में मनुष्य अपने जीवन में आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता।
- यदि किसी व्यक्ति के जीवन में आनन्द के इन सहायक कारणों से विपरीत कारण उपस्थित हों तो वह शोक और दुःख से ग्रस्त रहेगा। परन्तु यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अरस्तू के मतानुसार उपर्युक्त सभी सहायक कारण आनन्द के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, वे स्वयं आनन्द का भाग नहीं हैं।
- वास्तव में आनन्द मनुष्य की मानसिक अनुभूति है जो अन्ततः जीवन और जगत के प्रति उसके अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है। अरस्तू के विचार में मनुष्य वास्तविक आनन्द तभी प्राप्त कर सकता है जब वह सदैव नैतिक सद्गुणों के अनुसार आचरण करे और उसके जीवन में आनन्द के उपर्युक्त सभी अथवा इनमें से अधिकतर सहायक कारण विद्यमान हों।
- आनन्द के सम्बन्ध में अरस्तू के उपर्युक्त विचारों से यह निष्कर्ष निकालना के अनुचित होगा कि अरस्तू सुखवादी थे। वस्तुतः प्लेटो और अरस्तू दोनों ही 'आनन्द' को बहुत व्यापक अर्थ में ग्रहण करते हैं। उनके मतानुसार 'आनन्द पूर्ण शुभ 'कल्याण' में कोई अन्तर नहीं है इन दोनों दार्शनिकों ने मानवीय कल्याण के अन्तर्गत भावनाओं तथा इच्छाओं को उचित स्थान दिया है, किन्तु उनके विचार में ये और इच्छाएँ बुद्धि द्वारा नियंत्रित होनी चाहिए। इस प्रकार प्लेटो तथा अरस्तू दोनों वह मानते हैं कि मनुष्य के लिए सन्तुलित आदर्श नैतिक जीवन व्यतीत करना तभी सम्भव है जब वह अपनी इच्छाओं पर बुद्धि अथवा विवेक द्वारा उचित नियन्त्रण रखते हुए उनकी तृप्ति करे। इस दृष्टि से दोनों ही मानवीय कल्याण में इच्छाओं एवं भावनाओं के महत्व को स्वीकार करते हुए भी बुद्धि या विवेक को सर्वोत्तम स्थान देते हैं संके में यह कहा जा सकता है कि मानव-कल्याण के सम्बन्ध में प्लेटो तथा अरस्तू का नैतिक सिद्धान्त अरिस्टिपस एवं ऐपिक्लूयरस के सुखवादी नैतिक सिद्धान्त से मूलतः भिन्न और उसकी अपेक्षा कहीं अधिक सन्तुलित तथा सन्तोषप्रद हैं, इसी कारण आज भी पाश्चात्य नैतिक दर्शन में इन दोनों प्राचीन महान दार्शनिकों का विशेष महत्व है।
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