अरस्तू की राज्य सम्बन्धी धारणा | अरस्तू के राज्य के विकास का स्वरूप लक्ष्ण | Arastu Ke Rajya Ke Lakshan
अरस्तू की राज्य सम्बन्धी धारणा, अरस्तू के राज्य के विकास का स्वरूप लक्ष्ण
अरस्तू की राज्य सम्बन्धी धारणा
- अरस्तू अपने गुरु प्लेटो की भांति सोफिस्ट वर्ग के इस विचार का खण्डन करता है कि राज्य की उत्पत्ति समझौते से हुई है और उसका अपने नागरिकों की शक्ति पर कोई वास्तविक अधिकार नहीं है। अरस्तू के अनुसार व्यक्ति अपनी प्रकृति से ही एक राजनीतिक प्राणी है और राज्य व्यक्ति की इस प्रवृत्ति का ही परिणाम है। उसका मत था कि राज्य का जन्म विकास के कारण हुआ है, वह एक स्वाभाविक संस्था है, उसके उद्देश्य और कार्य नैतिक हैं, वह सब संस्थाओं में श्रेष्ठ और उच्च है।
- अरस्तू के अनुसार राज्य की उत्पत्ति जीवन की आवश्यकताओं से होती है, परन्तु उसका अस्तित्व सद्जीवन की सिद्धि के लिए बना रहता है। अतः यदि समाज के आरम्भिक रूप प्राकृतिक हैं, तो राज्य की भी वही स्थिति है, क्योंकि वह उनका चरम लक्ष्य है और किसी वस्तु की प्रकृति उसका चरम लक्ष्य होती है। अरस्तू के शब्दों में, इसलिए यह जाहिर है कि राज्य प्रकृति की रचना है और मनुष्य प्रकृति से राजनीतिक प्राणी है, और जो मनुष्य प्रकृति से या मात्र संयोगवश किसी भी राज्य से सम्बद्ध न हो, वह या तो नराधम होगा या अतिमानव उसकी स्थिति तो उस समुदायहीन, नियमहीन, गृहहीन व्यक्ति जैसी होगी जिसकी होमर ने निन्दा की है।
- व्यक्ति के लिए राज्य की उत्पत्ति प्राकृतिक है, अपने इस विचार की पुष्टि के लिए अरस्तू ने दो तर्क प्रस्तुत किये हैं सर्वप्रथम, वह मानता है कि प्रत्येक राज्य प्रकृतिजन्य है क्योंकि राज्य उन समस्त समुदायों का पूर्णरूप है, जो प्रकृतिजन्य हैं। राज्य में भी वही गुण विद्यमान है जो इसका विकास करने वाले पूर्ववर्ती समुदायों में पाया जाता है। राज्य की प्रारम्भिक एवं मूलभूत इकाई अरस्तू व्यक्ति को मानता है जो अकेले में अपूर्ण है। अपनी दैनिक आवश्यकताओं को जुटाने एवं अपने जीवन को सुन्दर व सुखमय बनाने के लिए व्यक्ति को अनेक समुदायों की आवश्यकता होती है।
- परिवार, ग्राम राज्य आदि व्यक्ति के कुछ ऐसे ही मूलभूत समुदाय हैं। जिस अर्थ में परिवार या ग्राम व्यक्ति के लिए नितान्त आवश्यक होने के कारण स्वाभाविक समुदाय हैं, उसी अर्थ में राज्य भी व्यक्ति का एक नितान्त आवश्यक समुदाय है। इस समुदाय की उपस्थिति से ही व्यक्ति आत्मनिर्भरता एवं पूर्णत्व की स्थिति को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं । अरस्तू का मत है केवल जीवन मात्र की आवश्यकता के लिए राज्य उत्पन्न होता है और अच्छे जीवन की उपलब्धि के लिए कायम रहता है।"
- अरस्तू के विचार में राज्य इस कारण प्राकृतिक है कि यह वह उद्देश्य अथवा सम्पूर्णत्व है जिसकी ओर अन्य दूसरे समुदाय बढ़ते हैं। परिवार तथा ग्राम आदि व्यक्ति के जो अन्य प्राकृतिक समुदाय हैं, वे अपनी पूर्ण प्रकृति का विकास तभी कर सकते हैं, जबकि राज्य के रूप में वे अपनी प्रकृति की परिसमाप्ति को प्राप्त कर चुके हों। व्यक्ति के सम्पूर्ण प्राकृतिक समुदायों का विकसित स्वरूप राज्य है।
- यदि परिवार आत्मनिर्भरता संबंधी व्यक्ति की सभी आवश्यकताएँ पूर्ण कर पाते हैं तो ग्राम व्यक्ति के लिए आवश्यक हो जाते और इसी प्रकार यदि परिवार एवं ग्राम ही व्यक्ति को आत्मनिर्भरता प्रदान कर पाते तो राज्य उसके लिए महत्वहीन हो जाते, किन्तु राज्य के अतिरिक्त अन्य समुदायों में इतनी क्षमता नहीं है कि वे व्यक्ति को आत्मनिर्भर बना सकें, अतः राज्य व्यक्ति के लिए एक प्राकृतिक एवं मूलभूत समुदाय है। दूसरा, राज्य को प्राकृतिक कहने का एक अन्य कारण भी है।
- अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य एवं लक्ष्य आत्मनिर्भरता की प्राप्ति है। इसे व्यक्ति के जीवन का महानतम लक्ष्य कहा जा सकता है। सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य की उपलब्धि का साधन राज्य है। अतः सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति का साधन होने के कारण भी राज्य व्यक्ति के लिए प्राकृतिक संस्था है।
- अरस्तू के अनुसार राज्य मनुष्य की सामाजिकता का परिणाम है। सामाजिक जीवन अन्य जीवधारियों में भी पाया जाता है, परन्तु व्यक्ति विचारशील प्राणी है, इसलिए उसकी सामाजिकता अन्य श्रेणी के जीवधारियों से भिन्न है। यह सामाजिक मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों तथा कुछ विशेष उद्देश्यों पर आधारित है और इसने अनेक स्थितियों से गुजरकर अपना पूर्ण विकास प्राप्त किया है।
- सर्वप्रथम विवाह पद्धति के आधार पर अरस्तू ने सबसे पहले सामाजिक संस्था परिवार की स्थापना की जिसमें पति-पत्नी, सन्तान और दास एक साथ रहते हैं। परिवार में हमें राज्य के बीज दिखाई देते हैं क्योंकि परिवार का स्वामी शासक के रूप में कार्य करता है। परिवार स्वाभाविक समुदाय है क्योंकि यह सन्तानोत्पत्ति और सुरक्षा की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
- परन्तु व्यक्ति केवल सुरक्षा ही नहीं चाहता, उसकी अन्य भी अनेक भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताएँ हैं। इसलिए कुछ परिवार मिलकर ग्राम का निर्माण करते हैं। ग्राम के द्वारा व्यक्तियों के पारस्परिक झगड़े निपटाने और उनके सामूहिक जीवन व्यतीत करने का प्रबन्ध किया जाता है, लेकिन ग्राम भी व्यक्तियों की सभी भौतिक, बौद्धिक और नैतिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पाते, अतः ग्रामों के सम्मिलन से नगर राज्य का जन्म होता है।
- नगर राज्य सुरक्षा और न्याय प्रदान करने की आवश्यकता ग्राम की तुलना में अधिक अच्छे प्रकार से पूरी कर सकता है और यह व्यक्ति की बौद्धिक एवं नैतिक शक्तियों को भी अधिक अच्छे प्रकार से विकसित कर सकता है। अतः नगर राज्य व्यक्तियों का अन्तिम और पूर्ण एवं श्रेष्ठतम समुदाय है। इस प्रकार अरस्तू के अनुसार परिवार से ग्राम से राज्य अस्तित्व में आये। अरस्तू के शब्दों में जब बहुत से ग्राम एक दूसरे से पूर्ण रूप से इस प्रकार मिल जाते हैं कि वे केवल एक ही समाज का निर्माण करते हैं, तब वह समाज राज्य बन जाता है। दूसरे शब्दों में राज्य कुलों (परिवार) और ग्रामों का एक ऐसा समुदाय है जिसका उद्देश्य पूर्ण और आत्मनिर्भर जीवन की प्राप्ति है।"
1 अरस्तू के राज्य के विकास का स्वरूप
- अरस्तू के अनुसार राज्य एक जीवधारी के समान है, अतः जिस प्रकार एक सावयवी जीवधारी का विकास होता है उसी प्रकार राज्य का भी विकास होता है।
- अरस्तू के विचार को मानव शरीर के उदाहरण से समझाया जा सकता है। मानव शरीर में हाथ, पैर, नाक, कान आदि अनेक अंग होते हैं, इन अंगों को अलग-अलग कार्य करने पड़ते हैं और इन्हें करने के लिए वे शरीर पर निर्भर रहते हैं। यदि शरीर का कोई अंग अपना कार्य करना बन्द कर देता है या उसे ठीक प्रकार से नहीं करता है तो शरीर निर्बल हो जाता है। जो बात शरीर के बारे में कही गयी है, वहीं राज्य के बारे में भी कही जा सकती है। जिस प्रकार शरीर का विकास स्वाभाविक ढंग से होता है, उसी प्रकार राज्य का भी हुआ है। शरीर के समान राज्य भी अनेक अंगों से मिलकर बना है। ये अंग हैं व्यक्ति और उनकी संस्थाएँ, परिवार, ग्राम आदि। जिस प्रकार शरीर के सब अंगों को अपने-अपने निर्धारित कार्य करने पड़ते हैं, उसी प्रकार राज्य के सब अंगों को भी अपने निर्धारित कार्य करने आवश्यक हैं।
- इस प्रकार राज्य के विकास का स्वरूप सावयवी या जैविक है। व्यक्ति, परिवार और ग्राम इसके विभिन्न अंग हैं। ये अंग एक-दूसरे से संबंधित होते हैं और इनका क्रमिक विकास होता रहता है। इनके विकास की अन्तिम परिणति राज्य में होती है।
- राज्य के विकास के संबंध में अरस्तू के दृष्टिकोण को समझाते हुए बार्कर ने लिखा है "राजनीतिक विकास, जैविक विकास है। राज्य तो मानो पहले से ही ग्राम, परिवार और व्यक्ति के रूप में भ्रूणावस्था में होता है। राजनीतिक विकास की प्रक्रिया ऐसी है मानो राज्य आरम्भ से लेकर अन्त तक विभिन्न रूपों को धारण करता है और प्रत्येक रूप इसको पूर्णता के अधिक से अधिक निकट ले जाता है। इस प्रकार अरस्तू के राज्य की उत्पत्ति संबंधी विचार, विकासवादी सिद्धांत के अनुरूप है। परिवार के विकास से व्यक्ति पूर्णत्व की दिशा में कुछ कदम बढ़ाता नजर आता है। कुछ और अधिक पूर्णता की प्राप्ति उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति ग्राम को जन्म देती है और सम्पूर्णता एवं आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़े हुए मानव के चरण अपनी मंजिल तक उस समय पहुँच जाते हैं जबकि सर्वोच्च एवं सर्वव्यापी समुदाय राज्य की स्थापना सम्भव हो जाती है।
2 अरस्तू के राज्य के लक्षण
1. राज्य एक स्वाभाविक संस्था है-
- अरस्तू द्वारा राज्य के प्रादुर्भाव के बारे में प्रकट किये गये विचारों से प्रकट होता है कि वह राज्य को स्वाभाविक संस्था मानता है। उसके अनुसार राज्य मानव के भावनात्मक जीवन की अभिव्यंजना है और इससे अलग रहकर व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। राज्य परिवार का ही वृहत रूप होने के कारण यह भी वैसे ही स्वाभाविक है जैसा कि परिवार व्यक्ति के विकास का जो कार्य परिवार में प्रारम्भ होता है उसकी पूर्ण सिद्धि राज्य में ही की जा सकती है।
- "राज्य एक स्वाभाविक संस्था है इस कथन की पुष्टि में अरस्तु का एक तर्क यह भी है कि जिन संस्थाओं पर राज्य में आधारित है वे संस्थाएँस्वाभाविक हैं, तो निश्चय ही उन संस्थाओं का विकसित रूप भी स्वाभाविक होगा। अरस्तू का मत है कि राज्य एक स्वाभाविक संस्था इसलिए भी है कि राज्य का जन्म मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एवं उसके सर्वांगीण विकास के लिए स्वाभाविक रूप से हुआ है। उसके शब्दों में मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित मानव समुदाय के बढ़ते हुए घेरे की पराकाष्ठा राज्य है।" वह कहता है राज्य स्वाभाविक है और इसके बिना मनुष्य का जीवन सम्मत नहीं है। जो व्यक्ति राज्य में नहीं रहता वह या तो देवता है या पशु।
2. राज्य व्यक्ति कर पूर्वगामी है-
- अरस्तू का कहना है राज्य मनुष्य से प्राथमिक है। ऐसा कहने में अरस्तू का तात्पर्य यह नहीं था कि ऐतिहासिक दृष्टि से राज्य का जन्म पहले हुआ, वरन उसके कहने का अभिप्राय यह था कि मानसिक या मनोवैज्ञानिक दृष्टि से राज्य का जन्म पहले ही हो चुका था। यह कैसे हुआ, इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि राज्य एक पूर्ण समुदाय है, व्यक्ति केवल एक तत्व पूर्णता पहले आती है, उसके बाद में अंग, इसलिए राज्य व्यक्ति से पूर्ववर्ती है। मनुष्य के बौद्धिक विकास की पूर्ण कल्पना के रूप में राज्य का जन्म व्यक्ति, परिवार और ग्राम के अस्तित्व में आने से पूर्व ही हो चुका था। अरस्तु का कथन है कि समय की दृष्टि से परिवार पहले है, परन्तु प्रकृति की दृष्टि से राज्य पहले है।"
- अरस्तु के इस दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए फॉस्टर ने लिखा है-राज्य का स्थान प्रकृतिवश परिवार और व्यक्ति से पहले है, क्योंकि अवयवी अनिवार्यतः अवयव से पहले आता है। राज्य प्रकृति की रचना है और वह व्यक्ति से पहले आता है- इसका प्रमाण यह है कि जब व्यक्ति को राज्य से पृथक कर दिया जाये तो वह आत्मनिर्भर नहीं रह जाता, अतः उसकी स्थिति अवयवी की तुलना में अवयव जैसी होती है।"
3. राज्य सर्वोच्च समुदाय है-
- अरस्तू के अनुसार राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है। उसके शब्दों में राज्य केवल समुदायों का समुदाय ही नहीं है, वरन् सर्वोच्च समुदाय है।" इस दृष्टिकोण के पक्ष में अरस्तू कहता है-प्रथम, राज्य में अनेक प्रकार की सामाजिक धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँहोती हैं। इन सब संस्थाओं का अस्तित्व राज्य के कारण ही होता है; ये केवल राज्य के अन्दर ही कार्य कर सकती हैं ये राज्य के अधीन होती हैं और राज्य का इन पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। द्वितीय, राज्य के अन्तर्गत कार्यरत विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँ एकपक्षीय होती हैं। जैसे धार्मिक संस्थाएँ धार्मिक आवश्यकताओं और सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। इनमें से कोई भी व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। राज्य ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करके उसका अधिकतम विकास करती है, अतः राज्य सर्वोच्च समुदाय है। तृतीय, राज्य के अन्तर्गत कार्यरत सभी संस्थाओं का कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होता है, पर राज्य के लक्ष्य की तुलना में ये सभी लक्ष्य निम्नतर होते हैं। इसका कारण यह है कि राज्य अपने नागरिकों को अपने जीवन को शुभ और सुखी बनाने का अवसर प्रदान करता है। वे इस प्रकार के जीवन की प्राप्ति राज्य के सदस्यों के रूप में ही कर सकते हैं, समुदायों या संस्थाओं के सदस्यों के रूप में नहीं। अतः राज्य सर्वोच्च समुदाय है।
4. राज्य जैविक संस्था है-
- अरस्तू के राज्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता उसका स्वरूप जैविक अथवा आंगिक है। जैविक सिद्धांत के अनुसार सम्पूर्ण के बहुत से विभिन्न अंग होते हैं, प्रत्येक अंग का अपना पृथक कार्य होता है और प्रत्येक अंग अपने अस्तित्व एवं जीवन के हेतु सम्पूर्ण पर पूर्ण रूप से निर्भर करता है। जब अरस्तू राज्य को समुदायों का समुदाय कहता है, तब उसके सिद्धांत में राज्य का यही जैविक तत्व परिलक्षित होता है। उसने राज्य की तुलना शरीर से और व्यक्ति की तुलना हाथ जैसे अंग से की है। उसके अनुसार राज्य और व्यक्ति में वही सम्बन्ध होता है जो शरीर और हाथ में है। उसने यह भी कहा है कि जिस शरीर के किसी एक अंग में अत्यधिक वृद्धि होने से समस्त शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है, उसी प्रकार राज्य के किसी एक तत्व में अत्यधिक वृद्धि होने से राज्य का स्थायित्व खतरे में पड़ जाता है।
5. राज्य एक आत्मनिर्भर संगठन है-
- अरस्तू के अनुसार राज्य की एक प्रमुख विशेषता उसका आत्मनिर्भर होना है। आत्मनिर्भरता से अभिप्राय है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता है। अरस्तू ने आत्मनिर्भरता' शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में किया है। उसने इसके लिए यूनानी शब्द आतरकिया का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है पूर्ण निर्भरता' । अरस्तू के शब्दों में आत्मनिर्भरता वह गुण है जिसके कारण और जिसके द्वारा जीवन स्वयं वांछनीय बन जाता है और उसमें किसी प्रकार का अभाव नहीं रह जाता है। वस्तुतः अरस्तू ने आत्मनिर्भर शब्द का प्रयोग अतिव्यापक अर्थ में किया है। इससे उसका अभिप्राय यह है कि राज्य न केवल व्यक्ति की भौतिक समस्याओं का समाधान करता है अपितु उसे अच्छा और सुखी सम्पन्न जीवन व्यतीत करने भी सहायता देता है। राज्य व्यक्ति के लिए उन समस्त परिस्थितियों का निर्माण करता है जो उसके शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास के लिए आवश्यक हैं। अरस्तू के दृ ष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए बार्कर ने लिखा है, 'आत्मनिर्भरता का अर्थ है- राज्य में ऐसे भौतिक साधनों और ऐसी नैतिक प्रेरणाओं और भावनाओं की उपस्थिति जो किसी प्रकार की बाह्य भौतिक या नैतिक सहायता पर निर्भर हुए बिना पूर्ण मानव विकास को सम्भव बनाइए।"
6. नगर राज्य सर्वाधिक राजनीतिक संगठन है-
- अरस्तु के लिए प्लेटो की ही भांति नगर राज्य सर्वाधिक श्रेष्ठ राजनीतिक संगठन था। यद्यपि उसके जीवनकाल में ही फिलिप ने यूनान के नगर राज्यों का अन्त कर अपने साम्राज्य की स्थापना की थी, लेकिन अरस्तू ने इन साम्राज्यों के संबंध में बिलकुल भी विचार नहीं किया है। उसने तो आदर्श राज्य का चित्रण एक नगर राज्य के रूप में ही किया है। अरस्तू का यह नगर राज्य समस्त विज्ञान, कला, गुणों और पूर्णता में एक साझेदारी है।
7. राज्य विविधता में एकता है-
- अरस्तु के अनुसार राज्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता विविधता में एकता है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में एकता पर विशेष बल दिया है और वह सम्पूर्ण राज्य को एक परिवार का रूप देना चाहता था, किन्तु अरस्तू प्लेटो के एकता संबंधी विचारों से सहमत नहीं है। प्लेटो के समान अरस्तू राज्य की चरम एकता पर बल न देकर, राज्य की विविधता में एकता का समर्थन करता है। अरस्तू के अनुसार राज्य का आदर्श स्वरूप, उसकी विविधता में एकता है। उसका निर्माण विभिन्न तत्वों के मिलने से होता है। जिस प्रकार सुन्दर चित्र विभिन्न रंगों के अनुपम मिश्रण से बनता है और जिस प्रकार मधुर संगीत की सृष्टि विभिन्न रागों और तालों के समन्वय से होती है, उसी प्रकार आदर्श राज्य का निर्माण उसके विभिन्न अंगों के उचित सामंजस्य और संगठन के आधार पर होता है। स्वयं अरस्तू ने कहा है, "राज्य तो स्वभाव से ही बहु आयामी होता है। एकता की ओर अधिकाधिक बढ़ना तो राज्य का विनाश करना होता है।"
8. राज्य एक क्रमिक विकास है-
- अरस्तू राज्य के विकासवादी सिद्धांत का समर्थक है। उसके अनुसार राज्य का क्रमिक विकास हुआ है। राज्य का विकास उसी प्रकार हुआ है जिस प्रकार सावयवी जीवधारी का होता है। राज्य के विकास का रूप आंगिक है। व्यक्ति, परिवार और ग्राम इसके विभिन्न अंग हैं। ये अंग एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं और इनका क्रमिक विकास होता रहता है। अन्त में इनके पूर्ण रूप से विकसित हो जाने पर राज्य के दर्शन होते हैं।
9. राज्य एक आध्यात्मिक संगठन है-
- अरस्तू के अनुसार राज्य एक मानवीय समुदाय है, अतः इसका उद्देश्य मानव में सदगुणों या अच्छी शक्तियों का विकास करना है। यह मानव को बौद्धिक, नैतिक और शारीरिक श्रेष्ठता की प्राप्ति के साधन प्रदान करता है। तभी तो अरस्तू कहता है "राज्य नैतिक जीवन में आध्यात्मिक समुदाय है। जिस प्रकार व्यक्ति नैतिक जीवन का अनुसरण कर आनन्द की प्राप्ति करता है उसी प्रकार राज्य का आनन्द भी सकारात्मक अच्छाई का विकास करता है।
10. संविधान राज्य की पहचान है
- अरस्तू की धारणा है कि संविधान राज्य की पहचान है और संविधान में परिवर्तन राज्य में परिवर्तन करने के समान है।
11. राज्य और शासन में भेद-
- अरस्तू ने राज्य और शासन में स्पष्ट भेद किया है। जहाँ राज्य समस्त नागरिकों और गैर नागरिकों का समूह है वहाँ शासन उन नागरिकों का समूह है जिनके हाथ में सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता है। अरस्तू लिखता है शासन में परिवर्तन तो उसी समय आ जाता है जब शासकों को अपदस्थ कर दिया जाता है। राज्य में परिवर्तन तभी होता है जब उसके संविधान में परिवर्तन होता है।
अरस्तू के राज्य के लक्ष्ण
- अरस्तू के अनुसार- "राज्य का अस्तित्व सदजीवन के लिए है, मात्र जीवन के लिए नहीं। यदि इसका उद्देश्य मात्र जीवन को बनाये रखना होता तो गुलाम और जंगली जानवर भी राज्य बना लेते, परन्तु वे राज्य नहीं बना सकते क्योंकि न तो जीवन के आनंद में उसका कोई हिस्सा होता है न वे अपनी पसन्द का जीवन जी सकते हैं... राज्य का अस्तित्व मैत्री के लिए या अन्याय से सुरक्षा के लिए भी नहीं होता, न परस्पर संसर्ग तथा विनिमय के लिए ही होता है क्योंकि तब तो टाइरेनियम और कार्थेजिनियन तथा वे सब लोग जिन्होंने एक-दूसरे के साथ वाणिज्य सन्धियाँ कर रखी हैं, एक ही राज्य के नागरिक होते... अतः हमारा निष्कर्ष यह है कि राजनीतिक समाज का अस्तित्व उदात्त कार्यों के लिए है, मात्र साहचर्य के लिए नहीं।"
- उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि राज्य के कार्यों और उद्देश्यों के प्रति अरस्तू का दृष्टिकोण रचनात्मक और सकारात्मक है। उसका यह दृष्टिकोण लॉक और स्पेन्सर जैसे व्यक्तियों के नकारात्मक और विध्वंसात्मक दृष्टिकोण से पूर्णतया भिन्न है। अरस्तू के अनुसार राज्य एक सकारात्मक अच्छाई है, अतः इसका कार्य केवल बुरे कामों अथवा अपराधों को रोकना नहीं वरन् मानव को नैतिकता और सदगुणों के मार्ग पर आगे बढ़ाना है। इस प्रकार राज्य का उद्देश्य है व्यक्ति के जीवन को श्रेष्ठ बनाना और व्यवहार में उसके द्वारा वे सभी कार्य किये जाने चाहिए जो इस लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हों। संक्षेप में, अरस्तू राज्य को निम्न कार्य सौंपता है
1. अपने सदस्यों के लिए पूर्ण और
आत्मनिर्भर जीवन की व्यवस्था करना आत्मनिर्भरता का व्यापक अर्थ है-व्यक्ति न केवल
भौतिक उपकरणों की दृष्टि से ही आत्मनिर्भर हों, अपितु नैतिक
प्रोत्साहनों एवं प्रेरणाओं की दृष्टि से ही आत्मनिर्भर बनें। इस विस्तृत अर्थ में
आत्मनिर्भरता की प्राप्ति का एकमात्र साधन राज्य है।
2. उत्तम और आनन्दपूर्ण जीवन का निर्माण
उत्तम जीवन की व्याख्या करते हुए बार्कर ने लिखा है कि यह एक ऐसा जीवन है जो उत्तम
कार्य और उत्तम आचरणों से ओत-प्रोत है। नैतिक और बौद्धिक सदगुण ही उत्तम जीवन के
मुख्य तत्व हैं और इन दोनों की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन अपरिहार्य हो जाते हैं।
बाह्य साधनों में आर्थिक व्यवस्था और शारीरिक स्वास्थ को मुख्य माना गया है।
अरस्तु आनन्द को सत् से पृथक नहीं करता। अरस्तू के शब्दों में "हमें यह मानना
होगा कि हर व्यक्ति में आनन्द की मात्रा उसके द्वारा किये गये उत्तम और
बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यों तथा उत्तमता और बुद्धिमत्ता के गुणों के अनुसार प्राप्त
होती है। सार यह है कि मनुष्य का उद्देश्य एक नैतिक और आनन्दपूर्ण जीवन बिताना है
और राज्य ऐसे जीवन को सम्भव बनाने के लिए स्थित है और इस प्रकार स्वयं एक नैतिक
संस्था है। एक नैतिक और सद्गुणी जीवन का निर्माण करना इसका उद्देश्य है।"
3. राज्य का एक प्रमुख कार्य अरस्तू ने
नागरिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना माना है। शिक्षा को कुछ अर्थों में
अरस्तू ने प्लेटो से भी अधिक महत्व दिया है। फॉस्टर के शब्दों में, लॉक (व्यक्तिवादी)
के विचार से शिक्षा राज्य का कार्य नहीं, अरस्तू के विचार
से यह उसका प्रमुख कार्य है। इसकी संस्थाओं का उद्देश्य मनुश्यों को उत्कृष्ट
बनाना है- न केवल बौद्धिक स्तर पर बल्कि नैतिक और भौतिक स्तर पर भी न केवल
बाल्यकाल बल्कि उनके सम्पूर्ण जीवन के दौरान राज्य नागरिक के लिए पाठशाला होना
चाहिए।'
4. शिक्षा संबंधी कार्य के साथ ही अरस्तू ने राज्य का यह कार्य भी माना है कि वह नागरिकों के लिए अवकाश जुटाने का प्रयत्न करे। ए. के. रोगर्स के अनुसार, चूंकि अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य श्रेष्ठ जीवन का निर्माण है और यह अवकाश से ही सम्भव है।
- संक्षेप में राज्य के कार्य क्षेत्र के बारे में अरस्तू के विचारों से स्पष्ट है कि वह राज्य के अत्यन्त व्यापक कार्यक्षेत्र का समर्थक था। जहां ग्रीन और लॉक जैसे आधुनिक विचारक राज्य के लिए सीमित कार्य क्षेत्र की चर्चा करते हैं वहां अरस्तू ने यह घोषणा की है कि राज्य 'अच्छे जीवन की स्थापना के लिए यथासम्भव प्रयत्नशील रहे। व्यक्तिवादियों के इस मत से अरस्तू बिल्कुल भी सहमत नहीं हो सकता था कि राज्य का कार्य क्षेत्र अधिक से अधिक सीमित हो। साथ ही उसके विचार उन आदर्शवादियों से भी मेल नहीं खाते जो राज्य के नकारात्मक कार्य क्षेत्र को उचित ठहराते हैं। की स्पष्ट धारणा थी कि राज्य का कार्य क्षेत्र सकारात्मक होना चाहिए। राज्य को वे सब कार्य करने चाहिए जो अच्छे जीवन की स्थापना को सम्भव बनाएं। राज्य का व्यापक कार्य क्षेत्र अरस्तू निःसंकोच रूप से इसलिए निर्धारित कर पाया क्योंकि वह यूनानी दार्शनिक था। यूनानियों के लिए उस काल में राज्य अत्यन्त व्यापक समुदाय था। यह उनका राजनीतिक संगठन ही नहीं था, अपितु उनका समाज, उनका धार्मिक समुदाय एवं उनका आर्थिक संगठन भी था।
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