अरस्तू की महानतम रचना दि पॉलिटिक्स | Arastu Ki Rachna the Politics
अरस्तू की महानतम रचना दि पॉलिटिक्स
पॉलिटिक्स अरस्तू की महानतम रचना
- 'पॉलिटिक्स अरस्तू की महानतम रचना है जिसे राजनीतिशास्त्र पर लिखी गई बहुमूल्य निधि माना जाता है। इसमें पहली बार राजनीति को एक वैज्ञानिक रूप दिया गया है।
- 'पॉलिटिक्स' के विषय में अनेक विरोधी भावनाएँ और विचार विद्यमान हैं। एक ओर जैलर और फॉस्टर जैसे विद्वान हैं तो दूसरी ओर विरोधी विचार प्रकट करने वाले टेलर तथा मैक्इल्वेन जैसे लेखक हैं।
- जैलर के अनुसार अरस्तू की पॉलिटिक्स प्राचीनकाल में हमें प्राप्त होने वाली सर्वाधिक मूल्यवान निधि है तथा राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में हमें प्राप्त होने वाला महानतम् योगदान है।"
- फॉस्टर का कहना है यदि यूनानी राजनीतिक दर्शन का सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधित्व करने वाला कोई ग्रन्थ हो सकता है तो वह यही है।" इस मत के सर्वथा विपरीत विचार ए. ई. टेलर का है। इनके अनुसार, "पॉलिटिक्स के अतिरिक्त अरस्तू का कोई दूसरा ग्रन्थ एक बहुमुखी विषय की विवेचना में इतना साधारण कोटि का नहीं रहा है तथा सत्य यह है कि सामाजिक विषयों में उसकी अभिरुचि तीक्ष्ण नहीं थी।
- मैकइल्वेन के अनुसार, यह (पॉलिटिक्स) यदि अत्यन्त महत्वपूर्ण भी नहीं है तो भी राजनीति दर्शन के शास्त्रीय ग्रन्थों में अत्यन्त हैरानी पैदा करने वाला ग्रन्थ तो है ही।
- पॉलिटिक्स के बारे में विद्वानों के इसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार हैं, पर इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि 'पॉलिटिक्स राजनीति के क्षेत्र में अरस्तू की एक अनुपम देन है। प्रो. बार्कर ने इसे राजनीति के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ रचना कहा है और ब्राउले के शब्दों में अपने विषय पर पॉलिटिक्स' सबसे अधिक प्रभावक और सबसे अधिक गम्भीर ग्रन्थ है जिसका अध्ययन सबसे पहले किया जाना चाहिए।"
- 'पॉलिटिक्स की रचना के विषय में विद्वानों में विरोधी विचार पाये जाते हैं। इसके रचना काल और क्रम के सम्बन्ध में जायगार और आर्नीम आदि विद्वानों के दृष्टिकोणों में प्रतिकूल विचार पाये जाते हैं।
- जायगार के अनुसार पॉलिटिक्स की सातवीं तथा आठवीं पुस्तकों की रचना सबसे पहले हुई और इन पुस्तकों में अरस्तू पर प्लेटो के प्रभाव की स्पष्ट छाप नजर आती है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पुस्तकों की रचना अरस्तू ने 347 ईसा पूर्व की होगी जब वह अकादमी त्यागकर अस्सुस में रहले लगा था। इसके विपरीत आर्नीस के अभिमत में इन दो पुस्तकों की रचना अरस्तू ने अन्य सब पुस्तकों की रचना के बाद उस युग में की थी जब वह प्लेटो के प्रभाव से मुक्त हो चुका था, किन्तु इस विषय में प्रो. बार्कर का मत उपयुक्त जान पड़ता है। उनका यह कहना है कि इसकी रचना अरस्तू के एथेन्स में दूसरे निवासकाल में, आयु के अन्तिम 12 वर्षों में (335 ई.पू.) हुई है। यद्यपि यह अरस्तू की प्रौढ़तम आयु की रचना है, किन्तु उसकी अन्य रचनाओं के समान यह सम्भवतः उसके व्याख्यानों के नोट्स मात्र हैं जिन्हें भली-भाँति संशोधित एवं पूर्ण नहीं किया गया।
- पॉलिटिक्स के बारे में इस प्रकार उलझनपूर्ण धारणाओं का कारण यही है कि उसमें कहीं-कहीं तो किसी विषय का उल्लेख इस ढंग से किया गया है जैसे उसका प्रसंग पूर्व में ही हो चुका हो और कहीं-कहीं उन बातों का उल्लेख कर दिया गया है जिनका विवेचन आगे चलकर हुआ है। अर्थात् सारा ग्रन्थ अव्यवस्थित विषय परिवर्तन से भरा पड़ा है। जो 'पॉलिटिक्स' आज हमें उपलब्ध है वह एक अपूर्ण कृति लगती है। अरस्तू की पॉलिटिक्स के अनुशीलन से यह एक एकीकृत अथवा सुगठित रचना नहीं मालूम पड़ती। इसे एक सम्पूर्ण ग्रन्थ की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती। अधिक से अधिक यह एक प्रकार से विभिन्न निबन्धों का संकलन है। डेविस के शब्दों में, पॉलिटिक्स को युक्तियों की तथा सिद्धांतों की खान समझा जाना चाहिये न कि एक कलात्मक ढंग से रचा हुआ साहित्यिक ग्रन्थ ।"
- संक्षेप में, 'पॉलिटिक्स अरस्तू की ऐसी रचना है जिसमें अपूर्णता एवं अस्पष्टता इसलिए दिखाई देती है क्योंकि इसे अरस्तू ने एक साथ क्रमबद्ध रूप से नहीं लिखा था।
- 'पॉलिटिक्स निम्नलिखित आठ भागों में विभक्त है पहला भाग इसमें राज्य की प्रकृति और दास प्रथा का वर्णन है।
- दूसरा भाग- इसमें प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना की गई है। तीसरा भाग-इसमें संविधानों के विभिन्न स्वरूपों का विवेचन है।
- चौथा भाग - इसमें राजतन्त्र के अतिरिक्त अन्य सब प्रकार के संविधानों का विवेचन किया गया है। राजतंत्र का वर्णन तीसरे भाग में है।
- पांचवां भाग - इसमें क्रांतियों, उनके कारण और उनको दूर करने का वर्णन किया गया है।
- छठा भाग-इसमें उपरोक्त विषय को पूर्ण किया गया है। सातवाँ भाग-इसमें आदर्श राज्य का वर्णन है।
- आठवाँ भाग-इसमें आदर्श राज्य और आदर्श संविधान का विवेचन किया गया है।
'पॉलिटिक्स में आदर्श की स्थापना तथा यथार्थ का विश्लेषण एक ही साथ कर अरस्तू ने एक नवीन राजनीति विज्ञान को जन्म दिया। उसने यह मत प्रतिपादित किया कि यथार्थ आदर्श से कितना ही दूर क्यों न हो उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। संक्षेप में, इसमें हमें अरस्तू के सामाजिक और राजनीतिक तत्वों, वास्तविक संविधानों, उनके सम्मिश्रण और तज्जनित परिणामों का एक अनुभवात्मक अध्ययन मिलता है।
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