अरस्तू का नैतिक दर्शन- मध्य मार्ग का सिद्धांत | Aristotle (Arastu) Ka Madhya marg Sidhant
अरस्तू का नैतिक दर्शन
अरस्तू का नैतिक दर्शन- मध्य मार्ग का सिद्धांत
- नैतिक सद्गुणों के स्वरूप तथा उनके अनुसार आचरण के सम्बन्ध में अरस्तू ने एक विशेष सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसे “मध्य-मार्ग का सिद्धांत" कहा जाता है। जैसा कि इस सिद्धांत के नाम से ही स्पष्ट है, यह मनुष्य के लिए संतुलित जीवन के मार्ग की ओर संकेत करता है। इसके अनुसार प्रत्येक नैतिक सद्गुण दो विशेष अतिवादी दृष्टिकोणों के बीच की अवस्था है। उदाहरणार्थ संयम अत्यधिक भोगासक्ति और पूर्णतया आनंदरहित संन्यासवाद की मध्यवर्ती स्थिति है। इसी प्रकार साहस भी उद्दंडता अथवा दुःसाहस एवं कायरता के बीच की अवस्था है।
- इसी सिद्धांत के आधार पर 'न्याय' की व्याख्या करते हुए अरस्तू ने कहा है कि “न्याय” अपने अधिकार की अपेक्षा बहुत अधिक प्राप्त करने तथा अपने अधिकार को पूर्णतः छोड़ देने के बीच की स्थिति है। इसी प्रकार 'उदारता' बिना सोचे-समझे सब कुछ लुटा देने तथा कभी किसी को कुछ न मध्यवर्ती अवस्था है। यही नम्रता के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है, क्योंकि वह अत्यधिक चापलूसी, तथा अत्यधिक दुर्व्यवहार के बीच की स्थिति है। इस प्रकार अरस्तू के मतानुसार समस्त नैतिक सद्गुणों का महत्व यही है कि वे दो अतिवादी दृष्टिकोणों से हटकर उनके मध्य में संतुलित मार्ग पर ले जाते हैं।
मध्य मार्ग का सिद्धांत की कठिनाइयां
- ऊपरी दृष्टि से देखने पर अरस्तू का यह सिद्धांत बहुत सरल तथा महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, किंतु गम्भीरतापूर्वक विचार करने से ज्ञात होता है कि इसमें ऐसी अनेक कठिनाइयां हैं, जिनके कारण व्यावहारिक जीवन में इसके आधार पर आचरण के शुभ या अशुभ होने का ठीक-ठीक निश्चय करना बहुत कठिन हो जाता है।
- इस सिद्धांत की पहली कठिनाई तो यह है कि सभी संवेगों तथा कर्मों के संबंध में मध्यवर्ती अवस्थाएँ निर्धारित करना सम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ ईर्ष्या, घृणा, प्रतिशोध आदि ऐसे संवेग हैं, जिनमें कोई मध्यवर्ती स्थिति सम्भव नहीं है।
- इसी प्रकार हत्या, चोरी, व्यभिचार आदि कर्मों की मध्यवर्ती अवस्थाएँ भी नहीं हो सकती। अरस्तू के उक्त सिद्धांत की दूसरी कठिनाई यह है कि सभी परिस्थितियों तथा सभी व्यक्तियों के लिए किसी भी संवेग अथवा कर्म की एक मध्यवर्ती अवस्था ठीक-ठीक निश्चित करना लगभग असम्भव है।
- अरस्तू ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि किसी संवेग या कर्म की मध्यवर्ती अवस्था का निश्चय करते समय व्यक्ति की परिस्थितियों का ध्यान रखना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में यह कहना बहुत कठिन है कि किसी कर्म अथवा संवेग की कोई एक मध्यवर्ती अवस्था समस्त परिस्थितियों में सभी व्यक्तियों के लिए निश्चित रूप से स्वीकार की जा सकती है। इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी बहुत महत्वपूर्ण है कि किस आधार पर कोई व्यक्ति किसी विशेष संवेग अथवा कर्म की एक मध्यवर्ती अवस्था का निर्णय कर सकता है।
- अरस्तू स्वयं यह मानते हैं कि इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देना बहुत कठिन है। अत: उन्होंने कहा है कि इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं बताया जा सकता। उनका मत है कि अपनी परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए अंततः व्यक्ति स्वयं ही अपनी बुद्धि द्वारा इस प्रश्न का उचित उत्तर पा सकता है। अपनी बुद्धि के अतिरिक्त व्यावहारिक बुद्धिमत्ता से युक्त व्यक्तियों का निर्णय भी इस प्रश्न का उत्तर पाने में सहायक हो सकता है।
- वस्तुतः अरस्तू ने स्वयं यह स्वीकार किया कि उनका मध्य मार्ग का सिद्धांत गणित के किसी सिद्धांत की भाँति पूर्णतया निश्चित रूप से दो अतिवादी स्थितियों के बीच की स्थिति अर्थात नैतिक आचरण या सद्गुण निश्चित नहीं करता। परंतु उपर्युक्त सभी कठिनाइयों के होते हुए भी अरस्तू का यह सिद्धांत नैतिक आचरण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह व्यावहारिक जीवन में मनुष्य का पर्याप्त मार्गदर्शन कर सकता है।
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