अरस्तूः राजनीति विज्ञान का जनक | Aristotle (Arastu) Rajneeti Ka Janak
अरस्तूः राजनीति विज्ञान का जनक
Aristotle (Arastu) Rajneeti Ka Janak
अरस्तूः राजनीति विज्ञान का जनक
- मैक्सी ने अरस्तू को प्रथम वैज्ञानिक विचारक कहा है। डनिंग के अनुसार, पश्चिमी जगत में राजनीति विज्ञान अरस्तू से ही प्रारम्भ हुआ। उसकी महानतम कृति पॉलिटिक्स को राजनीति विज्ञान की अनुपम निधि माना जाता है। यद्यपि अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने राजनीति पर विचार किया था, किन्तु उसका सम्पूर्ण ज्ञान कल्पनावादी था।
- प्लेटो हवाई योजनाएँ बनाने वाला और स्वप्निल उड़ान भरने वाला दार्शनिक था जिसको वास्तविक तथ्यों से कोई मतलब नहीं था प्लेटो की पद्धति निगमनात्मक है और वह केवल इस बात पर विचार करता है कि आदर्श राज्य कैसा होना चाहिए, यथार्थ राजनीतिक स्थिति से उसे कोई मतलब नहीं। उसकी दृष्टि में स्थूल रूप से दिखाई देने वाला वास्तविक जगत मिथ्या है और विचारों का काल्पनिक जगत वास्तविक है। ऐसी स्थिति में प्लेटो को हम अधिक से अधिक कवि, कलाकार या दार्शनिक कह सकते हैं, विषय पर क्रमबद्ध रूप से विचार करने वाला वैज्ञानिक नहीं।
- इसके अतिरिक्त प्लेटो के द्वारा राजनीति विज्ञान को स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा भी प्रदान नहीं किया गया। वह राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का ही पुच्छल्ला ( अंग) मानता है। राजनीति विज्ञान को एक स्वतंत्र विज्ञान की गरिमा प्रदान करने का कार्य अरस्तु के द्वारा ही किया गया। उसने नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर किया। उसने राजनीतिशास्त्र को उच्चकोटि का शास्त्र माना क्योंकि यह राज्य जैसी सर्वोच्च संस्था का अध्ययन करता है।
अरस्तू को राजनीति विज्ञान का जनक अथवा प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक क्यों कहा जाता है ?
अरस्तू को निम्नलिखित कारणों के आधार पर राजनीति विज्ञान का जनक अथवा प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक कहा जा सकता है-
1 आगमनात्मक विधि का अनुसरण
- अधिकतर विद्वानों ने अरस्तू को राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में आगमनात्मक विधि के प्रणेता के रूप में स्वीकार किया है। इस विधि की विशेषता यह है कि इसमें विचारक जो कुछ देखता है या जिन ऐतिहासिक तथ्यों की खोज करता है उनका निष्पक्ष रूप से बिना अपनी किसी पूर्व धारणा के अध्ययन करता है और इस अध्ययन के फलस्वरूप जो कुछ भी निष्कर्ष निकलता है उसमें वैज्ञानिकता का पुट होता है। इस दृष्टि से अरस्तू ने अपने समय में प्रचलित 158 संविधानों का अध्ययन किया और उस अध्ययन के सन्दर्भ निकले निष्कर्षों के आधार पर ही राज्य के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
2 राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र से पृथक करना-
- प्लेटो ने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का एक अंग माना है। उसने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र में ही समाहित कर दिया जिससे राजनीतिशास्त्र का अपना स्वतंत्र और पृथक स्थान नहीं रहा। इसके विपरीत, अरस्तू वह प्रथम विचारक है, जिसने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र से पृथक कर उसे स्वतंत्र स्थान प्रदान किया। उसने नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर किया है। उसके अनसार नीतिशास्त्र का सम्बन्ध उद्देश्यों से हैं, जबकि राजनीतिशास्त्र का सम्बन्ध उन साधनों से है जिनके द्वारा उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
3 यथार्थवादी विचारक-
- अरस्तू प्रथम विचारक है जिसने राजनीति पर यथार्थवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया। उसने सदैव ही अतिवादिता से बचते हुए मध्यममार्ग का अनुसरण किया। केटलिन के शब्दों में, "क्फ्यूशियस के बाद अरस्तू सामान्य ज्ञान और मध्यम माग्र का सबसे बड़ा प्रतिपादक है। व्यावहारिक विचारक होने के कारण अरस्तू ने मध्य मार्ग के अनुसरण पर सबसे अधिक जोर दिया। वह यह मानता था कि विकास के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध असन्तुलन है, चाहे वह राजनीति असन्तुलन हो अथवा सामाजिक और आर्थिक असन्तुलन। यह असन्तुलन 'अतियों के कारण पैदा होता है। साम्यवाद, निरंकुशता, आंगिक समानता आदि सभी को वह अति समझता था। इसलिए वह इनके बीच का मार्ग अपनाने का समर्थन करता था। पालिटी का सिद्धांत एक मध्यम मार्ग है जिसके अनुसरण द्वारा अरस्तु ने राजनीतिक और आर्थिक असन्तुलन को सदैव के लिए दूर करने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न को एक वैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है।
4 राज्य के पूर्ण सिद्धांत का क्रमबद्ध निरूपण-
- अरस्तू ही वह पहला विचारक है जिसने राज्य का पूर्ण सैद्धान्तिक वर्णन किया है। राज्य के जन्म और उसके विकास से लेकर उसके स्वरूप, संविधान की रचना, सरकार के निर्माण, नागरिकता की व्याख्या कानून की सर्वोच्चता और क्रान्ति आदि अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर उसने विस्तार से प्रकाश डाला है। ये सभी आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों के चिन्तन के विषय हैं और इन विषयों पर इतना क्रमबद्ध विवेचन प्लेटो के दर्शन में भी नहीं मिलता है। बार्कर के शब्दों में, अरस्तू के विचार प्रायः आधुनिकतम हैं, भले ही अरस्तू का राज्य केवल एक नगर राज्य ही रहा है।" अरस्तू ही वह पहला विचारक था जिसने यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है।" अरस्तू का यह कथन आज भी राजनीतिशास्त्र की अमूल्य धरोहर है।
5 संविधानों का वैज्ञानिक वर्गीकरण
- बार्कर ने अरस्तू की महान कृति 'पॉलिटिक्स' के अनुवाद में लिखा है, 'अगर कोई यह पूछे कि अरस्तू की 'पॉलिटिक्स' ने सामान्य यूरोपीय विचारधारा को उत्तराधिकार के रूप में क्या दिया तो इसका उत्तर एक ही शब्द में दिया जा सकता है संविधानशास्त्र । वास्तव में संविधान के बारे में जितना विस्तृत अध्ययन हमें अरस्तू की 'पॉलिटिक्स में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं और उस समय जबकि दुनिया में राजनीतिक विचारधाराओं का उदय हो रहा था, संविधान पर व्यक्त अरस्तू के विचार कल के विचारों जैसे मालूम होते हैं।
- अरस्तू को संविधान और संविधानवाद का जनक कहा जाता है। संविधानों का वर्गीकरण उसे प्लेटो से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ पर उसने इस विषय पर अपने 'लिसियम' में विस्तृत अध्ययन किया और इस प्रकार से प्लेटो के सैद्धान्तिक विवेचन पर अपनी अनुसंधानिक पुष्टि कर दी। संविधानों और राज्यों का वर्गीकरण इसीलिए मूल रूप में अरस्तू के नाम के साथ जोड़ा जाता है। संविधानों का अध्ययन आधुनिक राजनीति विज्ञान का प्रमुख विषय है और समूचा राजनीतिशास्त्र इसके लिए अरस्तू का ऋणी है।
6 नागरिकता की व्याख्या-
- अरस्तू द्वारा नागरिकता की जो व्याख्या की गई है वह राजनीतिशास्त्र के लिए बहुत सहायक और आधुनिक नागरिकता की परिभाषा को निर्धारित करने में मार्गदर्शक सिद्ध हुई है। नागरिकता संबंधी विषय के अध्ययन के लिए आगे चलकर विद्वानों ने अरस्तू के मूल विचारों को ही आधार बनाया। नागरिकता का विचार अरस्तू की एक मौलिक देन है जिसके लिए राजनीतिशास्त्र उसका सदा ऋणी रहेगा।
7 कानून की सर्वोच्चता का प्रतिपादन
- अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के बारे में एक सम्यक् विचार प्रस्तुत किया है। अरस्तू सर्वाधिक बुद्धिसम्पन्न व्यक्तियों के विवेक के स्थान पर परम्परागत नियमों और कानूनों की श्रेष्ठता में विश्वास करता है जबकि प्लेटो अतिमानव के शासन में विश्वास करता है। प्लेटो एक ऐसे अतिमानव की खोज करना चाहता है जो आदर्श राज्य का निर्माण कर सके, अरस्तू एक ऐसे अतिविज्ञान का अन्वेषण करना चाहता है, जो राज्य का अच्छे से अच्छा बना सके। प्लेटो अपने दार्शनिक राजा के द्वारा आदर्श राज्य का निर्माण करना चाहता है, परन्तु अरस्तू एक ऐसे शास्त्र की रचना करना चाहता है, जिसके निर्धारित नियमों का अनुसरण कर आदर्श राज्य की सृष्टि सम्भव हो सके। संक्षेप में, अरस्तू का विश्वास कानून के शासन में है। कानून की सर्वोच्चता तथा संवैधानिक शासन की वांछनीयता में विश्वास उसकी ऐसी धारणाएँ हैं जिनके आधार पर उसे संविधानवाद का पिता कहा जाता है। अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है उसमें वैधानिक सम्प्रभुता के बीज निहित हैं। आगे चलकर ग्रोशियस, बेन्थम, हॉब्स, ऑस्टिन और लास्की ने अरस्तू की व्याख्या के आधार पर ही वैधानिक सम्प्रभुता की अवधारणा का प्रतिपादन किया। सम्प्रभुता के बारे में आधुनिक राजनीतिशास्त्र बहुत कुछ सीमा तक अरस्तू का ऋणी है।
8 सरकार के अंगों का निर्धारण-
- अरस्तू ने सरकार के अंगों- नीति निर्धारक, प्रशास और न्यायिक का निरूपण किया है। ये शासकीय अंग वर्तमान समय के व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के समान ही हैं। अरस्तू ने इन विभिन्न शासकीय अंगों के संगठन, कार्यक्षेत्र और शक्तियों के बारे में विस्तार से विचार किया है। अरस्तू की यह खोज आगे चलकर शक्ति पृथक्करण सिद्धांत तथा नियन्त्रण और सन्तुलन के सिद्धांत की रूपरेखा बनी।
9 राजनीति पर भौगोलिक एवं आर्थिक प्रभावों का अध्ययन
- अरस्तू ने राजनीति पर पड़ने वाले भौगोलिक और आर्थिक प्रभावों को बहुत महत्व दिया है। उसने इन मूलभूत तथ्यों का प्रतिपादन किया कि सम्पत्ति का लक्ष्य और वितरण शासन व्यवस्था के रूप को निश्चित करने में निर्णयकारी तत्व होता है, राज्य की समस्याओं का एक बहुत बड़ा कारण अत्यधिक धनी एवं निर्धनों के बीच चलने वाला संघर्ष है; व्यक्तियों का व्यवसाय उनकी राजनीतिक योग्यता और प्रवृत्ति को प्रभावित करता है, यदि सम्पत्ति पर स्वामित्व व्यक्तिगत रहे, लेकिन उसका उपयोग सार्वजनिक हो तो राज्य की समस्याएँ सरलता से हल हो सकती हैं। राज्य की भौगोलिक स्थिति की चर्चा करते हुए अरस्तू कहता है कि राज्य सागर तट के पास होना चाहिए ताकि विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध रखे जा सकें। संक्षेप में, अरस्तू पहला राजनीतिक वैज्ञानिक है। उसने राजनीति को एक पूर्ण विज्ञान का सम्मान प्रदान किया। वह प्लेटो की भांति कल्पनावादी और आदर्शवादी नहीं था वरन् एक पूर्णतः व्यावहारिक एवं यथार्थवादी दार्शनिक था जिसने राजनीति को नीतिशास्त्र से अलग करके उसे एक स्वतंत्र विज्ञान का रूप प्रदान किया।
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