स्वैच्छिक संगठनों की समस्यायें या कमियाँ | Drawbacks of Voluntary Organisations
स्वैच्छिक संगठनों की समस्यायें या कमियाँ (Problems and Drawbacks of Voluntary Organisations)
स्वतंत्रता के बाद भारत में स्वैच्छिक संगठनों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई। सामाजिक कल्याण से संबंधित अधिकतर कार्य उन्हीं संगठनों द्वारा किये जा रहे हैं। गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, नशापान, बालश्रम, आतंकवाद, नि:शक्तता, पिछड़े वर्ग एवं महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचारों जैसी अनेक सामाजिक समस्यायें हैं । इन समस्याओं से निबटने के लिये राज्य तथा स्वैच्छिक संगठन दोनों ही अपने को असमर्थ पा रहे हैं। स्वैच्छिक संगठनों की मुख्य समस्या यह है कि ये स्वयं ही अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं।
स्वैच्छिक संगठनों की समस्यायें या कमियाँ निम्नलिखित हैं
- (1) स्वैच्छिक संगठनों की कमजोर वित्त स्थिति इसकी सबसे बड़ी समस्या है। सजाज के जीवन में आज धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों के कारण ऐच्छिक अभिकरण के परम्परागत साधन स्त्रोत निरंतर सूखते जा रहे हैं। अतः ये अभिकरण सरकारी अनुदान की ओर ध्यान लगाये रहते हैं। इन संगठनों को पर्याप्त वित्तीय सहायता निजी एवं सरकारी स्त्रोतों से नहीं मिल पाते हैं और यदि धन की व्यवस्था हो भी जाती है तो यह पर्याप्त नहीं होता है। ऐसे में वित्तीय ढाँचा जाने के कारण कुछ संगठने मृत प्राय सी हो जाती है।
- (2) स्वैच्छिक संगठनों के पास योग्य तथा प्रशिक्षित कार्मिको का अभाव बना रहता है। उन संगठनों का कार्य मुख्यतः समाज सेवा होता है, जिसे आज के युग में अपना कैरियर बनाने की दृष्टि से, कोई इन संगठनों में आना स्वीकार नहीं करना चाहेगा। कोई शिक्षित और मेघावी व्यक्ति तो बिल्कुल ही नहीं। और यदि कोई देना भी चाहे तो यहाँ की सेवा शर्तें बहुत ही दयनीय होती हैं जैसे नौकरी की असुरक्षा, अल्प वेतन, पदोन्नति तथा अन्य लाभों के अभाव में कुशल कार्मिक यहाँ बना रहना नहीं चाहेगा।
- (3) परिवर्तित होते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में जनसहयोग मेंक मी आ रही है। पहले लोग समाज सेवी संस्थाओं को तन, मन तथा धन से सहायता देना पुण्य का कार्य समझते थे। परन्तु अब ऐसा नहीं है। लोग अधिकतर ऐच्छिक संस्थाओं को सही नजर से नहीं देखते है जिसके कारण कुछ व्यक्ति चाहकर भी उनकी मदद नहीं करते हैं।
- (4) कुछ समाज कल्याण के क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ स्वैच्छिक संस्थाओं को 'समाजकोटकोंकाशिकार भी होना पड़ता है। जैसे बाल श्रम, महिला अत्याचार, बाल-विवाह, वैश्यावृत्ति तथा पिछड़े वर्गों के शोषण के विरू कार्य करने वाले स्वैच्छिक संगठनों को प्रायः रूढ़िवादी समाज की मानिसिकता का सामना करना पड़ता है।
- (5) बहुत से स्वैच्छिक संगठनों में दिखावा-संस्कृति का प्रादुर्भाव हो चुका है। ये संगठन वास्तविक कार्यक्षेत्र एवं उद्देश्य की ओर ध्यान देने के बजाय समारोहों के माध्यम से तड़क-भड़क का प्रदर्शन करते है। कुछ असामजिक तत्वों ने तो इन्हें व्यावसायिक संगठन का रूप दिया है। इससे जो अच्छी संस्थायें है, उन्हें हानि उठानी पड़ती है।
- (6) स्वैच्छिक संगठनों के आड़ में कई बार 'स्वार्थपूर्ति' भी की जाती है। धर्म, सम्प्रदाय, जाति या राजनीतिक मान्यताओं का प्रचार भी इन संगठनों के माध्यम से किया जाता है। दूसरी तरफ भारी गरीबी, निरक्षरता तथा रूढ़िवादिता को मद्देनजर रखते हुए बहुत सी विदेशी शक्तियाँ इन स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से देश में प्रवेश कर जाती हैं। ऐसी स्वैच्छिक संगठन, सरकारी धन का दुरुपयोग करते हैं।
- (7) इन संगठनों से जुड़ी एक अन्य प्रमुख समस्या पारदर्शिताकीकमीतथाजवाबदेयताकाअभाव है। अर्थात् व्यवहार में ये संगठन नितांत अनुत्तरदायी तथा दुरुपयोग से ग्रस्त है। इनमें से अधिकतर संगठनों में न तो प्रभावी एवं सशक्त नेतृत्व होता है। अधिकतर संगठन ना तो आम सभा बुलाते हैं ना ही लेखा परीक्षा करवाते हैं। बहुत से व्यक्तियों के लिये तो ये लाभ कमाने का एक जरिया बन गये हैं। इस कारण बहुत सारी संस्थायें काली सूची (Black Listed) में डाली हुई हैं।
वैसे तो स्वैच्छिक संगठनों की जनकल्याण तथा विकास में भूमिका निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत में फर्जी संगठनों तथा स्वार्थी तत्वों ने स्वैच्छिक संगठन शब्द का माने ही बदल डाला है। आज समाज सेवी संगठन 'स्वयं की सेवा' के पर्याय हो गये हैं। बिहार में 17,000 से भी अधिक स्वैच्छिक संगठन पंजीकृत है, लेकिन वास्तविक अस्तित्व 500 का भी नहीं है। लोगों ने इसे व्यापार बना दिया है। परन्तु स्वैच्छिक संगठनों की जो भी समस्यायें या कमियाँ हैं उनका समाधान किया जा सकता है।
स्वैच्छिक संगठनों की समस्यायें का समाधान (Solutions ) :-
- सामाजिक कल्याण तथा विकास के नाम पर जिनकी भी स्वैच्छिक संस्थायें कार्य कर रही है को दो प्रकार की होती हैं- वे संगठन जो कम संसाधनों तथा प्रतिबल भावना कार्य सम्पादित करने में प्रभावी नहीं बन पाता।
- दूसरा वैसे संगठन जो एक शक्तिशाली संस्था के रूप में सामने आ चुकी है, परन्तु उनकी आड़ में गतल कार्य किये जाते हैं जैसे राष्ट्र विरोधी कार्य इत्यादि । परन्तु इन दोनों का समाधान राज्य के द्वारा दी संभव है। समाज कल्याण का अधिकांश कार्य स्वैच्छिक संगठनों द्वारा ही होता आया है। आज सामाजिक समस्याओं का दायरा भी बढ़ गया है। इसके लिये एक अच्छी 'नीति' का निर्माण किया जाना चाहिये ।
भारत में स्वैच्छिक संगठनों की कार्यप्रणाली में सुधार लाना एग आवश्यकता है। आज इन ऐच्छिक संगठनों द्वारा संपन्न कार्यों को अभी तक किसी ने नहीं संभाला है। इन संगठनों की ओर आने वाले स्वयंसेवियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। अतः इनके कार्यों की शर्ते सुधारी जानी चाहिये। स्वैच्छिक संगठनों के कार्यकरण में सुधार के लिये कुछ सुझाव दिये गये हैं-
- (1) स्वैच्छिक संगठनों में एक राष्ट्रीय नीति एवं स्पष्ट दिशा निर्देश या नियामावली केंद्र सरकार द्वारा बनानी चाहिये ।
- (2) आज निजी प्रशासन और लोक प्रशासन का अंतर कम हो रहा है। अतः राज्य ऐच्छिक क्षेत्र में समाज कल्याण कार्यक्रमों के विकास के लिये इन संगठनों को विभिन्न प्रकार का सहयोग प्रदान कर सकता है।
- (3) राज्य द्वारा ऐच्छिक संगठनों को तकनीकी क्षेत्र में सहायता जा सकती है। तकनीकी सहयोग तथा वित्तीय सहयोग दोनों साथ-साथ चलने चाहिये। यदि अनुदान प्राप्त करने वाला अभिकरण समाज कल्याण की आवश्यकताओं और सेवा प्रदान करने की तकनीकों से परिचित नहीं है तो सारी वित्तीय सहायता यूं ही बर्वाद हो जायेगी ।
- (4) सामाजिक समस्याओं तथा समाजिक कार्यक्रमों में शोध की व्यवस्था करना काफी महंगा है, पर आवश्यक या अनिवार्य भी है। क्षेत्रीय स्तर के कार्यकर्ताओं को जैसे ग्राम सेविका, बाल सेविका तथा मनोरंजन कार्यकर्त्ता आदि की प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम ऐच्छिक संस्थायें कर सकती हैं, किन्तु इस कार्य के लिये राज्य द्वारा वित्तीय सहयोग दिया जाना चाहिये ।
- (5) ऐच्छिक संगठनों की सहायता करने का एक अन्य तरीका यह है कि राज्य द्वारा कुछ समय के लिये प्रशिक्षित और अनुभवी अधिकारी इन संगठनों को भेजी जाँचे ( On deputation)। अपने विशेष ज्ञान से ये ऐच्छिक संगठनों को लाभान्वित कर सकते हैं।
- (6) ऐच्छिक संगठनों को वित्तीय सहायता दी जानी चाहिये। यदि ऐच्छिक संगठन ना हो तो सारा भार राज्य पर ही पड़ेगा। अतः यह उचित है कि वित्तीय सहायता देकर इन अभिकरणों को सार्थक और प्रभावशाली बनाया जाये। साथ ही राज्य ऐच्छिक संगठनों के स्वतंत्र कार्य संचालन में आवश्यक हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये।
परन्तु पारदर्शिता एवं जवाबदेयता के अभाव से ग्रस्त इन संगठनों पर लगाम कसना आवश्यक है। जवाबदेयता की एक ऐसी सार्थक प्रणाली विकसित की जाये जिनमें पारदर्शिता तथा नैतिकता का समावेश हो। सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit) की ठोस प्रणाली एक प्रभावी कदम हो सकता है।
- अन्त में यह कहा जा सकता है कि इन संगठनों द्वारा जनता का विश्वास अर्जित किया जाये क्योंकि बिना विश्वसनीय सामाजिक छवि के उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसके लिये सामाजिक कार्य, या सामाजिक प्रशासन से संबंधित संवर्ग (cadre) तैयार किया जाये। यद्यपि ऐच्छिक संगठन स्वयं की इच्छा से बनाये जाते हैं, तथा समाज के दबे कुचले व्यक्तियों की सेवा करते हैं फिर भी इन पर राज्य का नियंत्रण और पर्यवेक्षण कुछ सीमा तक आवश्यक है। क्योंकि राज्य का समुचित नियंत्रण ऐच्छिक अभिकरणों को उनके लक्ष्यों की ओर प्रेरित रख सकेगा। नियंत्रण की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिये जो जनता को अच्छे कार्यों के लिये अधिक धन देने को प्रोत्साहित कर सके ।
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