प्लेटो का नैतिकता सिद्धान्त | Plato ka naitikta siddhant
प्लेटो का नैतिकता
सिद्धान्त
प्लेटो के विचारों को
भली-भाँति समझने के लिए हम उनके नैतिक दर्शन को तीन मुख्य भागों में विभाजित कर
सकते हैं- (1) प्रत्ययों का सिद्धान्त (2) मुख्य सद्गुण (3) सन्तुलित तथा
सामंजस्यपूर्ण जीवन।
प्लेटो का नैतिकता सिद्धान्त- 1. प्रत्ययों का सिद्धान्त
- सुकरात की तरह प्लेटो भी यह मानते थे कि "ज्ञान ही सद्गुण है’’, अत: उन्होंने ज्ञान और सद्गुण के स्वरूप की विस्तारपूर्वक व्याख्या की है। वास्तविक ज्ञान के स्वरूप को समझाने के लिए उन्होंने एक विशेष सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जिसे 'प्रत्ययों का सिद्धान्त' कहा जाता है। यद्यपि यह सिद्धान्त बहुत जटिल है और इसका सम्बन्ध मुख्यतः तत्वमीमांसा से है, फिर भी प्लेटो के नैतिक विचारों को ठीक-ठीक समझने के लिए इसे, संक्षेप में जान लेना आवश्यक है।
- सुकरात प्राय: इस प्रकार के प्रश्न पूछा करते थे कि न्याय क्या है? सौन्दर्य क्या है? साहस क्या है? संयम क्या है? इत्यादि। स्वयं सुकरात तथा उनके समकालीन किसी अन्य दार्शनिक ने इन प्रश्नों का कोई स्पष्ट एवं सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया था, अतः प्लेटो ने इनका उत्तर खोजने का प्रयास किया। इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए प्लेटो ने वस्तुओं तथा क्रियाओं से भिन्न एवं स्वतंत्र प्रत्ययों के अस्तित्व की कल्पना की। उदाहरण के लिए उनके मतानुसार सौंदर्य और शुभ (Good) के प्रत्यय सुंदर वस्तुओं तथा शुभ कार्यों से पृथक और स्वतंत्र है। इसी प्रकार साहस, न्याय और संयम के प्रत्यय साहसपूर्ण, न्यायशील तथा संयमपूर्ण से भिन्न एवं स्वतंत्र हैं। प्लेटो के अनुसार केवल सद्गुणों के प्रत्ययों का ही नहीं अपितु सभी भौतिक वस्तुओं के प्रत्ययों का भी उन वस्तुओं से भिन्न और स्वतंत्र अस्तित्व है।
- इस प्रकार प्लेटो ने भौतिक तथा मानसिक जगत् से भिन्न एक ऐसे जगत् की कल्पना की है जिसे उन्होंने 'प्रत्ययों का जगत्' कहा है। यह “प्रत्ययों का जगत्’” ही सत्य और वास्तविक है। सभी वस्तुएं और मानसिक क्रियाएं प्रत्ययों की केवल अपूर्ण प्रतिकृतियाँ हैं, भौतिक तथा मानसिक जगत् इसकी छाया मात्र होने के कारण असत्य एवं अवास्तविक है। इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसी प्रकार प्लेटो प्रत्ययों के ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान मानते हैं, सांसारिक वस्तुओं के ज्ञान को नहीं। सभी मनुष्यों के लिए प्रत्ययों का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं हैं, कुछ प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति ही इस ज्ञान को दीर्घकालीन प्रशिक्षण तथा निरन्तर कठोर परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त कर सकते हैं। प्लेटो का विश्वास है कि वस्तुओं तथा सद्गुणों के प्रत्ययों के ज्ञान से ही मनुष्य को भौतिक जगत् और नैतिक आचरण का समुचित ज्ञान हो सकता है।
- जिस व्यक्ति ने न्याय, साहस, संयम, विवेक आदि के प्रत्ययों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है वही वास्तव में न्यायशील, साहसी, संयमी तथा विवेकपूर्ण हो सकता है। इन प्रत्ययों का ज्ञान केवल बुद्धि द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, इंद्रियों द्वारा नहीं है। इंद्रियजन्य ज्ञान भौतिक वस्तुओं तथा मानसिक अनुभवों तक ही सीमित होता है, किन्तु प्रत्यय अमूर्त, अनश्वर तथा पूर्ण है, अत: उन्हें केवल बुद्धि द्वारा ही जाना जा सकता है। इस प्रकार प्लेटो ने बुद्धि को विशेष महत्व दिया है और यह कहा है कि वही व्यक्ति सद्गुणयुक्त हो सकता है जो बुद्धि द्वारा सद्गुणों के प्रत्ययों का ज्ञान प्राप्त कर चुका है।
- प्लेटो के अनुसार एक प्रत्यय समस्त प्रत्ययों में समन्वय स्थापित करता है और वह है “शुभ का प्रत्यय"। यह शुभ का प्रत्यय किसी विशेष वस्तु से सम्बद्ध नहीं है अपितु सभी प्रत्ययों में इसी की अभिव्यक्ति होती है। प्लेटो इस शुभ के प्रत्यय को सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रत्यय मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में यह प्रत्यय ही सत्य, ज्ञान, सौंदर्य तथा नैतिक शुभत्व का मूल आधार है। केवल प्रतिभाशाली व्यक्ति ही बुद्धि द्वारा शुभ के प्रत्यय का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और जो व्यक्ति इसका ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसे स्वत: समस्त सद्गुणों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है तथा उसका आचरण सद्गुणयुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं सद्गुणयुक्त होने के कारण दूसरों को भी सद्गुणी बनने में सहायता दे सकता है। इस प्रकार प्लेटो के मतानुसार नैतिक आचरण की दृष्टि से शुभ के प्रत्यय तथा उसके ज्ञान का सर्वाधिक महत्व है।
- यह कहना बहुत कठिन है कि प्लेटो के प्रत्ययों के सिद्धान्त का आधार क्या है। भौतिक वस्तुओं तथा मानसिक अनुभवों से पूर्णतया भिन्न इन प्रत्ययों की कल्पना का कोई वास्तविक आधार नहीं मालूम होता। प्लेटो ने भौतिक तथा मानसिक जगत से नितांत पृथक 'प्रत्यय जगत' की जो कल्पना की है उसकी प्रामाणिकता एवं सत्यता अत्यन्त संदिग्ध प्रतीत होती है। यद्यपि प्लेटों ने इस 'प्रत्यय जगत्' को ही सत्य और वास्तविक माना है, फिर भी उन्होंने इसकी सत्यता का कोई सन्तोषप्रद प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। यदि उनका यह सिद्धांत स्वीकार भी कर लिया जाय तो उनके मतानुसार प्रत्ययों का ज्ञान कुछ थोड़े से प्रतिभाशाली व्यक्ति ही प्राप्त कर सकते हैं, सभी मनुष्य नहीं। ऐसी स्थिति में सामान्य मनुष्यों के नैतिक आचरण के लिए इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों अथवा दार्शनिकों से मार्गदर्शन प्राप्त करना होगा, और प्लेटो का ऐसा ही मत है। भौतिक तथा मानसिक जगत् अलग प्रत्यय जगत् की कल्पना करके और प्रत्ययों के ज्ञान की प्राप्ति कुछ थोड़े से प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों लिए ही संभव मानकर प्लेटो ने सद्गुण युक्त नैतिक आचरण का क्षेत्र वास्तव में बहुत सीमित कर दिया है। संभवत: प्रत्ययों के सिद्धान्त की कठिनाइयों के कारण ही प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने उनके द्वारा कल्पित पृथक 'प्रत्यय-जगत्' की सत्ता को स्वीकार नहीं किया।
प्लेटो का नैतिकता सिद्धान्त (2) मुख्य सद्गुण-
- प्लेटो, विवेक, साहस, संयम और न्याय इन चार सद्गुणों को नैतिक आचरण का आधार मानते हैं। उन्होंने अपने ग्रंथ से इन मुख्य सद्गुणों की विस्तृत व्याख्या की है और इन्हें राज्य तथा व्यक्ति दोनों के कल्याण के लिए आवश्यक माना है। हम पहले राज्य तथा उसके पश्चात् व्यक्ति के सद्गुणों के विषय में प्लेटो के मत पर विचार करेंगे। उनका मत है कि जिस राज्य में ये चारों मुख्य सद्गुण उचित मात्रा एवं सम्मिलित रूप में विद्यमान हैं, वही भौतिक, नैतिक, आध्यात्मिक आदि सभी दृष्टियों से विकसित और उन्नत हो सकता है। उन्होंने राज्य के सभी नागरिकों को तीन वर्गों में विभाजित किया है।
- प्रथम वर्ग में वे नागरिक आते हैं जिनका कार्य राज्य के प्रशासन का संचालन करना और उसकी सुरक्षा एवं व्यवस्था के लिए नीतियों को निर्धारित करना होता है। राज्य का समुचित मार्गदर्शन करने के लिए इन प्रशासकों का विवेकशील होना बहुत आवश्यक है। इसी कारण प्लेटो ने 'विवेक' को ही प्रशासकों का विशेष सद्गुण माना है। राज्य के नागरिकों का दूसरा वर्ग योद्धाओं का है। ये वीर पुरुष ही आंतरिक अव्यवस्था और बाह्य आक्रमण से राज्य की रक्षा कर सकते हैं, अतः उसकी सुरक्षा का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व इन्हीं नागरिकों पर है। इस महान उत्तरदायिन्त्र को भलीभाँति निभाने के लिए इन नागरिकों में 'साहस' का होना बहुत आवश्यक है। यही कारण है कि 'साहस' को योद्धाओं का प्रमुख सद्गुण माना गया है।
- राज्य के नागरिकों का तीसरा वर्ग कृषकों, श्रमिकों तथा व्यवसायियों का है। इनका कार्य राज्य के लिए सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करना और उसकी समृद्धि के लिए परिश्रम करना है। इन नागरिकों के परिश्रम पर ही राज्य की उन्नति एवं समृद्धि निर्भर है। अत: इनका संयमी होना बहुत आवश्यक है। प्लेटो के अनुसार अपनी समस्त इच्छाओं तथा भावनाओं पर उचित नियंत्रण रखना ही 'संयम' है। यह संयम सम्पूर्ण समाज के लिए भी आवश्यक है। संयम के फलस्वरूप ही राज्य के विभिन्न वर्गो में समुचित व्यवस्था बनी रह सकती है। इसके अतिरिक्त संयम के कारण ही प्रजा में आज्ञापालन तथा प्रशासकों में नि:स्वार्थ जनकल्याण की भावना का विकास हो सकता है।
- इस प्रकार राज्य की सुव्यवस्था, सुरक्षा तथा समृद्धि के लिए विवेक, साहस, संयम इन तीनों सद्गुणों का बहुत महत्व है। परन्तु प्लेटो के विचार में 'न्याय' इन सभी सद्गुणों की अपेक्षा अधिक व्यापक तथा महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह कि न्याय में शेष सभी सद्गुणों का समावेश होता है।
- जब राज्य के तीनों वर्गों के नागरिक एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप किए बिना अपना-अपना कार्य भलीभांति सम्पन्न करते हैं तभी राज्य में न्याय की स्थापना होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस राज्य के प्रशासक विवेकपूर्वक जनता का मार्गदर्शन करते हैं, योद्धा साहसपूर्वक उसकी रक्षा करते हैं और कृषक, श्रमिक तथा व्यवसायी संयमपूर्वक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं उसी राज्य को 'न्याय' पर आधारित माना जा सकता है।
- इस प्रकार 'न्याय' तीनों वर्गों के नागरिकों में सामंजस्य उत्पन्न करके राज्य को सर्वांगीण उन्नति एवं समृद्धि की ओर ले जाता है, अत: यह सद्गुण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। राज्य की भांति व्यक्ति के कल्याण तथा आनंदमय जीवन के लिए भी प्लेटो ने उपर्युक्त चार सद्गुणों को बहुत आवश्यक माना है।
- जिस प्रकार राज्य में तीन वर्गों के नागरिक हैं उसी प्रकार व्यक्ति के स्वभाव के तीन पक्ष हैं जिन्हें बुद्धि, संवेग तथा इच्छा की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें से प्रत्येक का अपना-अपना विशेष कार्य है, अतः ये तीनों मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। बुद्धि का विशेष सद्गुण विवेक है जो विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति का समुचित मार्गदर्शन करता है और शेष दो पक्षों-इच्छा तथा संवेग को नियंत्रित करता है ।
- 'साहस' द्वारा मनुष्य बाधाओं, विपत्तियों तथा सभी प्रकार के भय पर विजय प्राप्त कर सकता है, अत: यह सद्गुण केवल युद्ध क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। व्यापक अर्थ में साहस सामान्य व्यक्ति के लिए भी उतना ही आवश्यक है जितना योद्धा के लिए।
- विवेक तथा साहस के साथ साथ 'संयम' भी मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक है। इसका कारण यह है कि मनुष्य .आनंदमय जीवन तभी व्यतीत कर सकता है जब वह अपनी भावनाओं, इच्छाओं और वासनाओं को भलीभाँति नियंत्रित करे। व्यक्ति के जीवन में भी 'न्याय' की वही स्थिति है जो राज्य के सम्बन्ध में बतायी गयी है।
- प्लेटो का कथन है कि जब व्यक्ति के तीनों पक्ष अपने-अपने सद्गुण के अनुसार समुचित कार्य करते है तभी 'न्याय' का उदय के होता है। जब मनुष्य विवेकपूर्वक आचरण करता हैं, साहस द्वारा बाधाओं पर विजय प्राप्त करता है और अपनी भावनाओं, इच्छाओं एवं वासनाओं पर उचित नियंत्रण रखता है तभी उसके जीवन में 'न्याय' का समावेश होता है, अतः राज्य की भाँति व्यक्ति के लिए भी ‘न्याय' सर्वोच्च सद्गुण है। इस प्रकार चार मुख्य सद्गुणों का व्यक्ति के लिए भी उतना ही महत्व है जितना राज्य के लिए।
प्लेटो का नैतिकता सिद्धान्त-3 संतुलित और सामंजस्यपूर्ण जीवन
- मनुष्य के बौद्धिक तथा भावनात्मक इन दोनों पक्षों के पूर्ण समन्वय पर आधारित जीवन को ही प्लेटो संतुलित एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन मानते हैं। मानव कल्याण अथवा शुभ की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि इसमें चिंतन तथा आनंद दोनों का समुचित स्थान है। अपने ग्रंथ “फिलेबस” में उन्होंने मानव-जीवन के इस मूल प्रश्न पर सविस्तार विचार किया है कि मनुष्य के लिए शुभ क्या है- अर्थात वह कौन-सा तत्व है जिससे मनुष्य को जीवन में वास्तविक आनंद की उपलब्धि हो सकती है।
- यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्लेटो के विचार में ‘शुभ' का अर्थ बहुत व्यापक है; वे ‘शुभ' (Good) तथा ‘मानव कल्याण' में कोई भेद नहीं मानते। इसी व्यापक अर्थ में 'शुभ' के स्वरूप की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि आनंद और चिंतन का समुचित समन्वय ही अंतिम शुभ और इसी में वास्तविक मानव कल्याण निहित है।
- इस से स्पष्ट है कि प्लेटो ने शुभ के संबंध में “सेरेनैक” तथा “सिनिक" इन दोनों एकांगी सिद्धांतों को अस्वीकार किया है, किंतु वे इन सिद्धांतों में निहित आंशिक सत्य को अवश्य स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि 'पूर्ण शुभ' में सुख तथा सद्गुण दोनों का होना अनिवार्य है, अत: इन दोनों में से किसी एक के अभाव में पूर्ण शुभ' की कल्पना करना भ्रामक है।
- सुख अथवा आनन्द को पूर्ण शुभ का आवश्यक तत्व मानते हुए प्लेटो ने 'फिलेबस' में उसका विस्तृत विश्लेषण किया है। सामान्यतः सुख को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- ऐन्द्रिक या शारीरिक तथा मानसिक या बौद्धिक। यह सत्य है कि दोनों प्रकार का सुख मूलत: इंद्रियों के माध्यम में ही प्राप्त होता है। परंतु फिर भी यह कहा जा सकता है कि शारीरिक सुख मुख्यतः किसी एक इंद्रिय तक ही सीमित रहता है और उसकी प्राप्ति के लिए किसी अभाव अथवा अपूर्ण इच्छा का होना आवश्यक है। विभिन्न इंद्रियों द्वारा प्राप्त सभी प्रकार के शारीरिक सुख के मूल में मनुष्य की कोई अतृप्त प्राकृतिक इच्छा अवश्य निहित रहती है। इस दृष्टि से मानसिक अथवा बौद्धिक सुख-जिसे 'आनंद' कहना ही अधिक उचित होगा- शारीरिक सुख से कुछ भिन्न अवश्य है।
- अनेक प्रकार की कलाओं, चिंतन, ज्ञान एवं सद्गुण से मनुष्य को जो आनन्द प्राप्त होता है वह किसी एक इंद्रिय विशेष तक सीमित नहीं होता और उसकी प्राप्ति के लिए किसी अतृप्त प्राकृतिक इच्छा का होना भी अनिवार्य नहीं है। सुख के संबंध में प्लेटो के विचारों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे शारीरिक सुख तथा मानसिक आनंद के इस भेद को स्वीकार करते हैं। यद्यपि उन्होंने पूर्ण शुभ अथवा मानव-कल्याण के लिए शारीरिक सुख का निषेध नहीं किया, फिर भी इसे मानसिक अथवा बौद्धिक आनंद की अपेक्षा कम महत्व देते हैं।
- सैरेनैक सिद्धांतों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा है कि प्रत्येक इंद्रिय सुख किसी विशेष अतृप्त प्राकृतिक इच्छा से उत्पन्न दुःख के निराकरण का परिणाम मात्र है, अतः वह स्थायी न हो कर क्षणिक ही होता है। परंतु मानसिक अथवा बौद्धिक आनंद अधिक तीव्र न होते हुए भी अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है। इसी कारण प्लेटो ने मानव-कल्याण के लिए शारीरिक सुख की अपेक्षा बौद्धिक आनंद को अधिक महत्व दिया है। वस्तुतः वे साहित्य, कला, चिंतन, ज्ञान, सद्गुण युक्त आचरण आदि से प्राप्त बौद्धिक आनंद को ही 'विशुद्ध आनंद' मानते हैं।
- यही कारण है कि मनुष्य के पूर्ण शुभ अथवा कल्याण के लिए शारीरिक सुख का निषेध न करते हुए भी उन्होंने इस प्रकार के विशुद्ध बौद्धिक आनंद को अधिक वांछनीय माना है।
- परंतु प्लेटो सुखवादियों के इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते कि सुख अथवा आनंद ही एकमात्र शुभ (Good) है। उनका मत है कि सभी सुख अनिवार्यतः शुभ नहीं होते; अनेक सुख समुचित ज्ञान एवं विवेक पर आधारित न होने के कारण वास्तविक न होकर मिथ्या ही होते हैं। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक धनवान होने की कल्पना करके ही प्रसन्न होता रहता है तो उसका यह सुख मिथ्या ही कहा जाएगा, क्योंकि, यह संभव है कि वह अधिक मात्रा में धन कभी प्राप्त न कर सके और यदि वह इसमें सफल भी हो जाय तो भी इससे उसे वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार संयमहीन जीवन व्यतीत करते हुए तीव्र वासनाओं में अत्यधिक लिप्त होकर प्राप्त किए गए सुख का क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि संवेगों की तुष्टि से उत्पन्न सुख भी वास्तविक न होकर मिथ्या ही है। प्लेटो ऐसे सभी सुखों को अशुभ तथा मानव कल्याण में बाधक मानते हैं। उनके मतानुसार वास्तविक सुख अथवा आनंद वही है जो बुद्धि द्वारा नियंत्रित और विवेक पर आधारित है। इसी कारण उन्होंने चिंतन अथवा बुद्धि को मानव-कल्याण के लिए अनिवार्य ही नहीं माना अपितु उसे सर्वोच्च स्थान भी दिया है। उनका मत है कि जो व्यक्ति चिंतनशील है और जिसके कर्म बुद्धि द्वारा नियंत्रित होते हैं, वही सद्गुण युक्त आचरण करते हुए जीवन में वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकता है।
- इससे स्पष्ट है कि यद्यपि प्लेटो सुख या आनंद को मानव कल्याण का आवश्यक अंग मानते हैं, फिर भी उनके विचार में उसका मूल आधार सुख अथवा आनंद न होकर विवेक या बुद्धि ही है। इस प्रकार वे सिनिक्स सिद्धान्त के इस पक्ष को स्वीकार करते हैं कि चिंतन-प्रधान सद्गुणयुक्त जीवन ही सर्वोत्तम जीवन है। संक्षेप में प्लेटो का निष्कर्ष यही है कि जो व्यक्ति सदैव सद्गुणों के अनुसार आचरण करते हुए बुद्धि के मार्गदर्शन में सुख तथा आनंद प्राप्त करता है, उसी का जीवन वास् में संतुलित एवं सामंजस्यपूर्ण है। ऐसे संतुलित तथा सामंजस्यपूर्ण जीवन को ही उन्होंने नैतिक दृष्टि से सर्वोत्तम एवं आदर्श जीवन के रूप में स्वीकार किया है।
- मानव जीवन के संबंध में प्लेटो के इस निष्कर्ष से यह स्पष्ट है कि उनका नैतिक सिद्धान्त जिसे सामान्यत: पूर्णता वाद कहा जाता है- सैरेनेक्स तथा सिनिक्स के एकांगी नैतिक सिद्धांतों का खंडन करके मनुष्य के लिए संतुलित जीवनदर्शन का प्रतिपादन करता है जिसमें भावना और बुद्धि दोनों को समुचित महत्व दिया गया है।
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