प्लेटो का न्याय सिद्धांत | प्लेटो के न्याय सिद्धांत की विशेषताएँ एवं आलोचना |Plato ka nyay siddhant
प्लेटो का न्याय सिद्धांत, प्लेटो के न्याय सिद्धांत की विशेषताएँ एवं आलोचना
प्लेटो का न्याय सिद्धांत
- सिफालस और पोलीमारकस थ्रेसीमेकस तथा ग्ल्यूकोन न्याय से सम्बन्धित जिन दृष्टिकोणों का प्रतिपादन करते हैं, उन तीनों की ही एक समान विशेषता है कि वे न्याय को बाह्य वस्तु मानते हैं इसके विपरीत प्लेटो न्याय को आत्मा के अन्दर की वस्तु मानता है और इसी आधार इन तीनों दृष्टिकोणों को अस्वीकार कर देता है।
- प्लेटो का कहना है कि, "न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक मांग है।" ई. एम. फॉस्टर के शब्दों में, "जिसे हम नैतिकता कहते हैं वहीं प्लेटो के लिए न्याय है।"
- न्याय पर चिन्तन करते समय दो प्रश्न प्लेटो के सामने उपस्थित होते हैं प्रथम तो उसे न्याय की वास्तविक प्रकृति की खोज करनी है; दूसरे, उसे न्याय के निवास स्थान को ढूंढ निकालना है। न्याय उसे एक और तो व्यक्ति के मानस में स्थित दृष्टिगोचर होता है और दूसरी और उसे समस्त नगर (राज्य या समाज) में इसका दिखलाई पड़ता है। उसके विचार से व्यक्ति तथा राज्य (समाज) में इस प्रकार की वैसी ही एकरूपता विद्यमान है, जैसी कि छोटे अक्षरों में और बड़े अक्षरों में होती है।
- राज्य व्यक्ति से बहुत बड़ा है, अतः इस बात की अधिक सम्भावना है कि राज्य में न्याय विराट् मात्रा में उपस्थित हो और वहां उसकी खोज आसानी से की जा सके। राज्य में स्थित न्याय की प्रकृति ढूंढ निकालने पर व्यक्ति में स्थित न्याय के स्वरूप को समझना अधिक सरल होगा।
- प्लेटो व्यक्ति और राज्य में पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड का संबंधी मानता है। व्यक्ति में जो गुण और विशेषताएँ अल्प मात्रा में पाई जाती हैं, वहीं विशाल रूप में राज्य में पाई जाती हैं 'यथा' पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। राज्य व्यक्ति की विशेषताओं का विराट रूप है। व्यक्तियों की चेतना और गुण राज्य की चेतना का निर्माण करते हैं।
- प्लेटो के अनुसार न्याय के दो रूप हैं व्यक्तिगत और सामाजिक वह मानवीय आत्मा (व्यक्ति) में तीन तत्व या नैसर्गिक प्रवृत्तियां मानता है- (i) इन्द्रिय तृष्णा या वासना (ii) शौर्य या साहस (iii) बुद्धि या ज्ञान।
- ये तीनों गुण जब उचित अनुपात में मानव मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं, तभी व्यक्ति न्याय का पालन कर सकता है। दूसरे शब्दों में इन्द्रिय तृष्णा, शौर्य तथा बुद्धि का उचित समन्वय और सामंजस्य व्यक्ति के जीवन में न्याय की सृष्टि करता है। जब यह सन्तुलन बिगड़ता है तो व्यक्ति में धर्मान्धता और कामान्धता का विकास होता है।
- ये तीन तत्व - तृष्णा, साहस और बुद्धि प्लेटो के दर्शन के प्रमुख आधार हैं और इसी के आधार पर उसने राज्य को उत्पन्न करने वाले तीन तत्वों का तथा राज्य का निर्माण करने वाले तीन वर्गों का प्रतिपादन किया है। प्लेटो के अनुसार जिस प्रकार छोटे अक्षरों की तुलना में बड़े अक्षर आसानी से पढ़े जा सकते हैं, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन की उपेक्षा राज्य में न्याय को स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है। राज्य के संबंधी में प्लेटो का विचार है कि राज्य मानव मस्तिष्क का ही विराट रूप है। राज्य बलूत के वृक्ष अथवा चट्टानों से नहीं निकलते, वरन वे उन लोगों के मस्तिष्क और चरित्र का परिणाम होते हैं, जो उनमें निवास करते हैं।"
- प्लेटो की मान्यता है कि व्यक्ति की भांति राज्य में भी तीनों गुण-वासना, साहस और बुद्धि विद्यमान होते हैं। इन तीनों गुणों के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के उत्पन्न करने में तीन सहायक होते हैं आर्थिक, सैनिक और दार्शनिक आर्थिक तत्व का यह अभिप्राय है कि मनुष्य कामतत्व से संबंधी रखने वाली भोजन, वस्त्र, निवास आदि की आवश्यकताएँ एकाकी रूप में पूर्ण नहीं कर सकता, ये अनेक व्यक्तियों के सहयोग से तभी पूर्ण हो सकती हैं जब इन्हें पूरा करने के लिए समाज में अन्न उत्पन्न करने वाले किसानों, मकान बनाने वाले कारीगरों, कपड़ा बनाने वाले जुलाहों, जूता बनाने वाले मोची आदि की विशेष आर्थिक श्रेणियां बन जायें आर्थिक तत्व के अतिरिक्त राज्य का निर्माण करने वाला दूसरा तत्व सैनिक है। यह आत्मा के गुणों में उत्साह या शौर्य के साथ साम्य रखता है। केवल आर्थिक आवश्यकताएँ पूरा करने वाला राज्य तो ग्ल्यूकोन के शब्दों में केवल अपना पेट भरने में सन्तुष्ट होने वाला सूअरों का राज्य होगा। मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से सन्तुष्ट नहीं होता, यह केवल रोटी से ही नहीं जीता, उसमें अपने को सुसंस्कृत एवं परिमार्जित बनाने की कुछ आकांक्षाएँ होती हैं। इनसे चित्र, मूर्ति, संगीत आदि कलाओं का जन्म होता है। इन्हें पूरा करने के लिए अधिक जनसंख्या और प्रदेश होने चाहिए। यह प्रदेश युद्ध द्वारा प्राप्त हो सकता है। अतः राज्य का एक कार्य पर्याप्त प्रदेश को उपलब्ध करना तथा उसे अपने अधिकार में बनाये रखना होता है। अतः राज्य में उत्साह या शौर्य का तत्व उत्पन्न होता है। राज्य की रक्षा के लिए शूरवीय रक्षकों की आवश्यकता होती है। विशेषीकरण के नियम के अनुसार इसे करने वाले योद्धाओं का एक विशेष वर्ग होना चाहिए। इनसे राज्य अपनी रक्षा और प्रदेश विस्तार का कार्य करता है। राज्य की सत्ता इन पर निर्भर है। राज्य के निर्माण का तीसरा आधार दार्शनिक तत्व है। इसका संबंधी आत्मा के विवेक या बुद्धितत्व से है। शासक का विवेक विशेष रूप से इस बात में निहित है कि वह बुद्धिमान हो तथा शासितों से प्रेम करे, उनका कल्याण अपना कल्याण तथा उनका अहित अपना अहित समझे। वह अपने विवेक और प्रजा प्रेम की भावना से राज्य की एकता को बनाए रखता है। वस्तुतः विवेक राज्य का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, अतः विवेक सम्पन्न दार्शनिक को ही राजा होना चाहिए।
- राज्य निर्माण के उपर्युक्त तीन तत्वों के आधार पर प्लेटो ने अपने राज्य में तीन वर्गों की सत्ता मानी है - (i) तृष्णा या वासना तत्व की पूर्ति करने वाले उत्पादक या कृषक वर्ग: (ii) शौर्य या साहस गुण के प्रतिनिधि सैनिक या संरक्षक तथा (iii) बुद्धि या विवेक गुण का प्रतिनिधित्व करने वाले संरक्षक समाज का यह त्रैवर्गिक विभाजन मध्यकालीन यूरोप में बड़ा लोकप्रिय हुआ। उस समय योरोपीय समाज को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा जाता था (1) पादरी; (2) योद्धा, तथा (3) मजदूर वर्ग
- प्लेटो के अनुसार राज्य में जब शासक निःस्वार्थ भाव से शासितों के हितों की रक्षा करते हुए शासन कार्य करता है, सैनिक वर्ग प्राणों की बाजी लगाते हुए देश की सीमाओं की रक्षा करता और उत्पादक वर्ग सब कष्टों को सहन कर अपने उपयोग से अधिक उपयोग की सामग्रियां पैदा करता है तभी राज्य में न्याय स्थिर रहता है। न्याय वस्तुतः कर्तव्य पालन से परे कोई वस्तु नहीं है।
- राज्य के इन तीन वर्गो- दार्शनिक शासक, सैनिक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग द्वारा अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विशिष्टता प्राप्त कर लेना तथा अपने कर्तव्यों का समुचित रूप से निर्वाह करने की मनोकामना का नाम ही न्याय है। (हिन्दू दृष्टिकोण से स्वधर्म पालन करते रहना एवं स्वधर्म में अधिकतम श्रेष्ठता प्राप्त कर लेने को अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है।) यह राज्य के तथा व्यक्ति के हित में है कि व्यक्ति अपनी प्राकृतिक प्रतिभा एवं क्षमता के आधार पर अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित कर ले और उस कार्य में अधिक से अधिक योग्यता बढ़ाकर अधिकतम श्रेष्ठता प्राप्त करे। न्याय के सिद्धांत की मांग है कि राजा विवेकशील हो; सैनिक साहसी हो और उत्पादक वर्ग आत्म संयमयुक्त हो। अगर ऐसा है तो उस राज्य में 'न्याय' का निवास है, अन्यथा नहीं।
- न्याय क्या है और उसका अधिवास कहां है, इसका उत्तर देते हुए प्लेटो ने कहा है कि यह अपने निश्चित स्थान में अपने कर्तव्यों का पालन करना और दूसरे के कर्तव्यों में हस्तक्षेप न करना ही है और इसका निवास स्थान अपना निश्चित कर्तव्य पूरा करने वाले प्रत्येक नागरिक के मन में हैं। प्लेटों की न्याय संबंधी धारणा विशेषीकरण के इस विचार पर आधारित है कि एक व्यक्ति को केवल एक ही ऐसा कार्य कुशलतापूर्वक करना चाहिए जो उसके स्वभाव के नितान्त अनुकूल हो।
प्लेटो के इस न्याय सिद्धांत के संबंधी में बार्कर का विचार है-
- "नागरिक की स्वधर्म की चेतना तथा सार्वजनिक जीवन में उसकी अभिव्यंजना ही राज्य का न्याय है।" क्वायरे के अनुसार प्रत्येक नागरिक को उसके अनुकूल भूमिका और कार्य देना है न्याय है। फॉस्टर ने प्लेटो के सामाजिक न्याय के विचार को वास्तुकला की संज्ञा दी है जिसमें प्रधान शिल्पकार जिस प्रकार अधीनस्थ कारीगरों को नियन्त्रण व अनुशासन में रखता है ताकि सुन्दर व सुढढ़ भवन का निर्माण हो सके, उसी प्रकार समाज में न्याय सब मनुष्यों से उनका कर्तव्य पूरा कराते हुए उन पर इस प्रकार से नियन्त्रण रखता है कि वे सामर्थ्यवान होते हुए भी अपने क्षेत्र में बाहर न जाएँ, स्वधर्म का पालन करें तथा समाज के सभी अंगों में सामंजस्य बना रहे। सेबाइन के अनुसार, "न्याय समाज का एकतासूत्र है, यह उन व्यक्तियों के परस्पर तालमेल का नाम है, जिनमें से प्रत्येक ने अपनी प्रकृति और शिक्षा-दीक्षा के अनुसार अपने कर्तव्य को चुन लिया है।"
प्लेटो की न्याय संबंधी परिभाषा
- प्लेटो की न्याय संबंधी परिभाषा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य उपलब्ध हो। व्यक्ति के लिए प्राप्य क्या हैं, इससका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति के साथ उसकी योग्यता और शिक्षा दीक्षा के अनुसार ही व्यवहार होना चाहिए। व्यक्ति से क्या प्राप्य है, इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति की योग्यता के अनुसार उसको जो काम सौंपे जाएँ उन्हें वह पूरी ईमानदारी के साथ करे।"
- प्लेटो के राजनीतिक चिन्तन का प्रमुख उद्देश्य एक आदर्श राज्य की रूपरेखा तैयार करना था। इस आदर्श राज्य को वह तत्कालीन यूनानी नगर राज्यों में पाई जाने वाली अक्षमता, अस्थिरता, अव्यवस्था अत्यधिक व्यक्तिवाद तथा राजनीतिक स्वार्थपरता आदि से पैदा होने वाली कमजोरियों से बचाना चाहता था। अतः न्याय के सिद्धांत की रचना उसने अपने आदर्श राज्य के रक्षक एवं त्राता के रूप में की है। यह सिद्धांत मुख्यतः नैतिक तथा मानसिक है। इसके दो पहलू पहला, सामाजिक तथा दूसरा व्यक्तिगत जब न्याय के सामाजिक पहलू पर विचार किया जाता है तो 'न्याय' का आशय राज्य के विभिन्न वर्गों एवं समूहों द्वारा स्वयं निर्धारित मर्यादाओं का निर्वाह कर दूसरों के उचित कार्यों एवं अधिकारों में अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करने से है। शासक, सैनिक एवं उत्पादक वर्ग के मेल से राज्य का निर्माण होता है। इन तीनों के लोग अगर अपने-अपने कार्यक्षेत्र में ही रहें और एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र पर अतिक्रमण न करें तो राज्य न्यायपूर्ण होगा एवं अनेक त्रुटियों से मुक्त होगा। राज्य का न्या नागरिक का अपने क्षेत्र में कर्तव्य ज्ञान है जो विश्व के सामने सार्वजनिक कार्यवाही के रूप में प्रकट होता है। इसी प्रकार जब हम न्याय के व्यक्तिगत पहलू को दृष्टि में रखकर सोचते हैं तो "न्याय का अर्थ होता है कि व्यक्ति अपना काम अपने उस कार्यक्षेत्र में रहते हुए करे जो कि उसकी क्षमता के आधार पर निश्चित हुआ है।"
- जोवेट के शब्दों में -न्याय व्यक्तिगत जीवन के उस प्रकार का नाम है जहां आत्मा का हर अंग अपना स्वयं का कार्य करता है। राज्य का वह जीवन है जहां प्रत्येक वर्ग अपने विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करता है।"
प्लेटो के न्याय सिद्धांत की विशेषताएँ
01 तीन गुणों का समावेश-
- प्लेटो के अनुसार 'न्याय' राज्य तथा व्यक्ति के मौलिक सदगुणों का एक अंग है। व्यक्ति में तीन नैसर्गिक गुण हैं- इन्द्रिय तृष्णा, साहस एवं बुद्धि राज्य में भी ये तीन गुण हैं उसका उत्पादक वर्ग इन्द्रिय तृष्णा को सैनिक वर्ग साहस को और शासक वर्ग विवेक गुण को अभिव्यक्त करता है। इन तीन गुणों का सुव्यवस्थित सन्तुलन और जीवन संचालन ही न्याय है।
2. नैतिक सिद्धांत -
- प्लेटो की न्याय संबंधी धारणा वैधानिक नहीं वरन् नैतिक सर्वव्यापी है। इसमें मानव के केवल वैधानिक कर्तव्यों का ही नहीं वरन् समस्त कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है।
3. न्याय जीवन का एक आन्तरिक तत्व और सन्तुलनकारी धारणा
- प्लेटो के अनुसार न्याय कृत्रिम या बाह्य वस्तु ने होकर मनुष्य के अन्तःकरण की एक पवित्र भावना है जिसका आधार आत्मसंयम एवं आत्म त्याग है।
- इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि जीवन में अति को नहीं वरन् सन्तुलन को अपनाया जाना चाहिए।
4. कार्य विशिष्टिकरण का सिद्धांत-न्याय सिद्धांत
- कार्यों के विशिष्टीकरण का प्रतिपादक है। प्रत्येक राज्य तथा तथा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य 'श्रेष्ठता की प्राप्ति है। यह तभी प्राप्त की जा सकती है जबकि व्यष्टि तथा समष्टि के रूप में सब लोग अपनी प्राकृतिक क्षमता के आधार पर निश्चित कार्य करें एवं उस कार्य के करने में अधिक से अधिक कार्यकुशलता प्राप्त की जाये।
5. अहस्तक्षेपवादी सिद्धांत
- न्याय का सिद्धांत मुख्यतः निर्वाध का सिद्धांत है। 'न्याय' इसी में है कि राज्य के विभिन्न अंग अपने कार्य सम्पन्न करें तथा दूसरों के कार्यों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें। डॉ. रूज के शब्दों में अपने स्वयं का कार्य करना एवं अन्य कार्यों में हस्तक्षेप न करना न्याय है।" राज्य का निर्माण करने वाले तीन अंगों का अपना विशिष्ट कार्यक्षेत्र है। उनके लिए उचित है कि वे अपने-अपने कार्यक्षेत्र की मर्यादाओ में रहते हुए कार्य करें एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण न करें। यथा शासक वर्ग का कार्य शासन संचालन, सैनिक वर्ग का रक्षण तथा उत्पादक वर्ग का उत्पादन करना है। इन सबको अपने-अपने कायक्षेत्र में निर्बाध रूप में कार्य करते रहने देना ही न्याय है। कार्य विशिष्टीकरण का यह सिद्धांत राज्य में एकता स्थापित करने में सहायक सिद्ध होगा। प्रो बार्कर के अनुसार "नगारिक अव्यवस्था उस राज्य में असम्भव है जो कार्यों के विशिष्टीकरण पर आधारित.
6. अति व्यक्तिवाद का विरोधी
- प्लेटो नहीं मानता था कि समष्टि (राज्य-समाज) से भिन्न एवं प्रतिकूल व्यक्ति का कोई अस्तित्व अथवा हित है। उसके विचार से व्यक्ति तथा राज्य दोनों का लक्ष्य एक श्रेष्ठ जीवन का विकास है। राज्य के अंग के रूप में अपनी प्राकृतिक क्षमता तथा प्रशिक्षण के आधार पर निर्धारित क्षेत्र में अधिक से अधिक श्रेष्ठता प्राप्त करके ही व्यक्ति अपनी जीवन का समुचित विकास कर सकता है। सोफिस्ट विचारकों ने यूनानी युवकों के हृदय में घोर व्यक्तिवाद का जो विष-वमन किया था, वह उन्हें तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के पीछे दौड़ने को बाध्य कर रहा था और नगर राज्यों के जीवन के लिए बहुत अभिशाप बना हुआ था । न्याय के सिद्धांत के माध्यम से प्लेटो, ग्रीक नवयुवकों के हृदय से व्यक्तिवाद के तुच्छ विचार निकालकर उन्हें उनके स्वयं के तथा नगर राज्य के कल्याण के लिए समष्टिवाद का मंगलकारी मार्ग दिखाना चाहता था। वह मानता था कि व्यक्ति को उसके लिए समुचित स्थान पर अवस्थित करने का अधिकार राज्य को है।
7. सावयव एकता का सिद्धांत-
- प्लेटो के न्याय सिद्धांत में व्यक्ति बनाम राज्य जैसी कोई चीज नहीं। इसमें व्यक्ति राज्य के लिए है। राज्य के प्रति उसके कर्तव्य ही हैं, अधिकार नहीं राज्य साध्य है व्यक्ति साधन प्लेटो ने स्पष्ट लिखा है कि नागरिकों में कर्तव्य भावना ही राज्य का न्याय सिद्धांत है। राज्य से पृथक् व्यक्ति की कोई अपनी इच्छाएँ, आवश्यकताएँ या आकांक्षाएँ नहीं। व्यक्ति आंगिक और सुव्यवस्थिता पूर्ण का अंग है। संक्षेप में, न्याय वह सिद्धांत है जो राज्य में समरसता तथा एकता स्थापित करता है।
8. मनोवैज्ञानिक आधार-
- प्लेटो के न्याय संबंधी विचार मनोवैज्ञानिक तत्व के लिए हुए हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि अपनी प्राकृतिक क्षमता एवं तदुनरूप प्रशिक्षण पर आधारित अपने विशिष्ट कार्य क्षेत्र में रहकर काम करने वाले व्यक्ति को किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं होगी। वह स्वभावतः ही अपने कार्य में अधिक से अधिक रुचि लेगा एवं अपने तथा समाज के लिए अधिकतम श्रेष्ठता प्राप्त करने का अविरल प्रयत्न करेगा। 9. दार्शनिक शासक न्याय की प्राप्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि राज्य की शासन व्यवस्था विवेकशील, निःस्वार्थी और कर्तव्यपरायण व्यक्तियों के हाथ में हों। इन्हीं गुणों से युक्त व्यक्ति समूह को प्लेटो के द्वारा शासक का नाम दिया गया है।
प्लेटो के न्याय सिद्धांत की आलोचना
यूनान की
तत्कालीन परिस्थितियों की दृष्टि से न्याय की घोषणा उपयोगी थी और उसका अपना महत्व
था, लेकिन वर्तमान
परिस्थितियों के सन्दर्भ में उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उनके आधारों पर
आलोचकों ने प्लेटो के न्याय सिद्धांत की कड़ी अग्नि परीक्षा की है। सेबाइन ने लिखा
है-"यह अत्यधिक स्थैतिक व्यक्तिनिष्ठ, नैतिक रूप से पतनकारी, अमनोवैज्ञानिक एवं अव्यावहारिक है।"
1. न्याय को कानूनी धारणा न मानकर नैतिक धारणा मानना-
- न्याय' शब्द के कानूनी पहलू को ध्यान में रखकर कुछ आलोचक यह कहते हैं कि उसका न्याय कानूनी न्याय नहीं है। यह न्याय आत्मसंयम, आत्म निषेध नैतिक सिद्धांतों पर आधारित है, लेकिन कानूनी शक्ति के अभाव में यह निष्क्रिय सिद्धांत है। व्यक्तियों की इच्छाओं एवं विभिन्न हितों में टकराहट होने की दशा में प्लेटो का न्याय सिद्धांत अधिक कारगर सिद्ध नहीं होता। अतः इस शब्द का वह अर्थ नहीं है जो साधारणतया न्याय शब्द का अर्थ समझा जाता है।
2. व्यक्ति को राज्य का अधीनस्थ बना देना-
- प्लेटो का न्याय सिद्धांत व्यक्ति को पूर्णतया राज्य के अधीन कर देता है। इकाई के रूप में व्यक्ति का, चाहे वह किसी वर्ग का क्यों न हो कोई विशेष महत्व नहीं माना गया है। सभी वर्ग के लोगों के हाथ पैर जकड़े हुए हैं। केवल सामाजिक अंग के आधार पर ही व्यक्ति के बारे में विचार किया गया है। वेपर के शब्दों में, "निम्न वर्ग शासकों की बिना असन्तोष व्यक्त किये आज्ञा मानता है ताकि अभद्र की इच्छाएँ कुछ भद्रों की इच्छाओं तथा विवेक द्वारा संचालित रहें और भद्रों को अपने व्यक्तिगत हित राज्य के हितों के लिए छोड़ने को बाध्य करता है।"
3. अत्यधिक एकीकरण पर बल-
- अरस्तू ने न्याय सिद्धांत को अत्यधिक एकीकरण की दिशा में ले जाने वाला कहा है। यह व्यक्ति को राज्य के हित साधन के लिए यन्त्रमात्र समझता है। व्यक्ति के हाथ पैर बंधे हैं। वह अपनी आत्मा के केवल उसी एक गुण का विकास कर सकता है जो अन्य • गुणों से कुछ ज्यादा प्रबल है अतः प्लेटो के न्याय सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था में व्यक्ति के बाकी के दो गुणों के विकास की आहुति अत्यधिक एकीकरण की वेदी पर चढ़ा दी जाती है।
4. अत्यधिक पृथकीकरण-
- जहां अरस्तू ने प्लेटो के न्याय सिद्धांत को अत्यधिक एकीकरण की दिशा में ले जाने वाला कहा है, वहां कतिपय आलोचकों ने प्लेटो को राज्य के अत्यधिक पृथकीकरण के लिए जिम्मेदार ठहराया है। उनके विचार में प्लेटो का राज्य एक इकाई नहीं है, बल्कि एक राज्य के नागरिकों का वर्गीकरण करके तथा उनमें कार्यों का विभाजन करके प्लेटो ने राज्य की एकता को आंच पहुंचाई है। इस वर्गीकरण एवं कार्य विभाजन के कारण, राज्य के विभिन्न वर्गों में सामान्य हित की भावना का अभाव हो जाता है। उनका समूचा ध्यान अपने वर्गगत हितों की और केन्द्रित हो जाता है और वे वर्गहित साधन के सिवाय अन्य किसी प्रकार के उद्देश्यों को ध्यान में नहीं रखते।
5. प्रजातन्त्र विरोधी
- झेनोफोन तथा जोन बोवले के अनुसार, प्लेटो का न्याय सिद्धांत अप्रजातान्त्रिक है। इसमें एक वर्ग का राजनीतिक शक्ति पर एकाधिकार है जो अल्पसंख्यक है जबकि दूसरे वर्ग को, जो बहुसंख्यक है उससे वंचित रखा गया है। इतना ही नहीं, इसमें प्रत्येक वर्ग के लोगों के पांव में जंजीरें हैं, वे चाहें भी तो अपना वर्ग बदल नहीं सकते। स्पष्टतः यह सिद्धांत प्रजातान्त्रिक सिद्धांतों, विशेषकर समानता और स्वतन्त्रता के सिद्धांतों के विपरीत है।
6 विरोधाभास -
- यह कहा जाता है कि प्लेटो का न्याय सिद्धांत विभिन्न वर्गों में पारस्परिक अहस्तक्षेपएवं समानता को प्रोत्साहन देने वाला है। राज्य के तीन अंग एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते, किन्तु व्यावहारिक रूप में हम पाते हैं कि प्लेटो के आदर्श राज्य में राज्य के विवेक का प्रतिनिधि दार्शनिक शासक, बाकी दो वर्गों-सैनिक तथा उत्पादक वर्ग-के कामों में हस्तक्षेप ही नहीं, कठोर नियन्त्रण भी रखता है। साथ ही इस वर्ग का स्थान अन्य वर्गों की बराबरी का भी नहीं है। इसका स्थान अपेक्षाकृत अत्यन्त उच्च है।
7. अधिकारों और दण्ड की व्यवस्था का अभाव-
- प्लेटो के न्याय सिद्धांत में व्यक्ति के अधिकारों, उसकी स्वतन्त्रताओं, उसके ऐच्छिक कार्यों के क्षेत्र आदि की कोई व्यवस्था नहीं। प्लेटो यह तो कहता है कि कोई किसी दूसरे के कार्य या क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करे, परन्तु इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करता कि यदि कोई हस्तक्षेप करता है तो उसके लिए क्या दण्ड होगा। वस्तुतः प्लेटो का न्याय सिद्धांत व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक संघर्षों का कोई सामाधान नहीं करता।
- पॉपर ने प्लेटो के न्याय सिद्धांत की कड़ी आलोचना की है। उसके अनुसार प्लेटो के न्याय सिद्धांत में सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य के अंकुर छिपे हुए हैं। पॉपर ने यह भी आरोप लगाया है कि प्लेटो का न्याय सिद्धांत परिवर्तन और सुधार का विरोधी है क्योंकि न्याय का अर्थ अपनी जगह पर सदा पड़े रहना है । कतिपय आलोचकों के अनुसार प्लेटो के न्याय सिद्धांत में फासीवादी के बीच भी दृष्टिगोचर होते हैं। न्याय सिद्धांत असमानता का समर्थन करता है, प्रजातन्त्र का विरोधी है, मानव अधिकार की उपेक्षा कर सिर्फ मानव कर्तव्य पर जोर देता है और शासन कार्य का विशेषाधिकार कुछ श्रेष्ठ व्यक्तियों को सौंपता है। पॉपर के शब्दों में, "प्लेटों के न्याय की परिभाषा के पीछे मौलिक रूप से सर्वसत्ताधिकारवादी वर्ग के शासन की उसकी मांग एवं उसे कार्यान्वित करने के उसके निर्णय छिपे हुए हैं। "
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