सुकरात के बारे में जानकारी |सुकरात की समस्या |सुकरात की विधि | Sukraat (Socrates) GK in Hindi

 सुकरात के बारे में जानकारी

सुकरात के बारे में जानकारी |सुकरात की समस्या |सुकरात की विधि | Sukraat GK in Hindi


 

  • सुकरात का जन्म एथेंस में 469 ई.पू. में हुआ था और वे चौथीं शताब्दी ई.पू. के उत्तरार्ध में एथेन्स के सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा बनकर लगभग 70 वर्ष तक जीवित रहें।

 

  • उनकी मृत्यू 70 वर्ष की अवस्था में 399 ई. पू. में हुई थी । वह एक मूर्तिकार और धाय (दाई) को लड़के थे। वह कहा करते थे कि उसकी ( दार्शनिक) कला उसकी माँ के समान धाय की कला, जिससे बच्चे के जन्म के समान सत्य का जन्म ( उत्पन्न) होता है, जैसी है। 
  • सुकरात की आवाज किसी के भी अन्तःकरण की आवाज मान ली गयी थी, जो यह संकेत करता है कि ईश्वर का प्रतिनिधि और कुछ सीमा तक रहस्यवादी मान मिला गया था। वे एथेंस के एक निष्ठावान नागरिक थे। उन्होंने अपनी वयस्कावस्था को एथेंस में प्रायः नीतिशास्त्र, धर्म और राजनीति से सम्बन्धित खुले दार्शनिक वाद-विवादों में बिताया।


  • सुकरात ने निम्नलिखित प्रसगों से सम्बंधित प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए होमर, हेसियड आदि सम्मानित कवियों के विचारों को उचित आधार भूमि मानने की परंपरागत दृष्टि का विरोध किया। इसके बजाय उन्होंने इस बात पर बल दिया कि व्यक्तिगत खोज और तर्कपूर्ण बहस ही इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने का उचित आधार हो सकता है। उनका विश्वास था कि उन्हें प्रत्येक तथाकथित बुद्धिमान मनुष्यों या दूसरे शब्दों में ज्ञान के स्थापित प्राधिकरणों एवं परंपराओं की विवेचना से ज्ञान प्राप्त करने का देवीय उत्तरदायित्व प्राप्त है।
  • विद्वान व्यक्तियों की विवेचना के द्वारा ज्ञान प्राप्ति के दैविय मिशन ने उन्हें संकट में डाल दिया। इस ज्ञान की खोज ने उन्हें एक परम ईश्वर को मानने के लिए प्रेरित किया, जो तत्कालीन ईश्वर की यूनानी अवधारणा से मेल नहीं खाता था। 
  • समाज के सत्ताधारियों ने इसे विध्वंसात्मक समझा, क्योंकि उनके अनुसार यह प्रचलित मान्य विश्वासों को क्षति पहुंचाने वाला था। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें न्यायालय के समक्ष निम्न तीन अभियोगों के लिए मुकदमें का सामना करना पड़ा-

 

  • 1) राष्ट्रीय देवों की अस्वीकृति 
  • 2) नए देवों की स्थापना का प्रयास 
  • 3) युवाओं को पथभ्रष्ट करना।

 

यद्यपि, उन्होंने इन सभी अभियोगों को अपना पक्ष रखते हुए नकार दिया, लेकिन फिर भी 399 ई.पू. में उन्हें मृत्यु दण्ड दे दिया गया। इस महान एथेनियन विचारक के अन्तिम शब्द थे "वह वक्त आ गया है कि मैं मरने वाला हूँ और आप जीवित रहेंगे, मगर किसकी नियति में ज्यादा खुशी लिखी है, वह ईश्वर को छोड़ कोई नहीं जानता."

 

सुकरात की समस्या

 

  • यद्यपि परम्परा और सत्ता के अंधानुकरण का विरोध सुकरात को प्रोटागोरस, गार्जियस और प्रोडिकस जैसे सोफिस्टों के साथ जोड़ देता है, फिर भी सुकरात का मुख्य लक्ष्य मानव के आन्तरिक तत्व को समझना था, जो सोफिस्टों में उतना महत्वपूर्ण नहीं था।
  • सोफिस्टों के विपरीत सुकरात का ध्येय नैतिक नियमों की सार्वभौमिक वैधता के सत्य और ज्ञान का निरूपण करना था। 
  • सुकरात के अनुसार यह खोज वस्तुतः मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को जानने की मुख्य समस्या से जुड़ी हुई है। डेल्फी के मंदिर पर खुदा हुआ सूत्र "मानव अपने आप को जानों", सुकरात के मन पर सर्वदा छाया रहता था।

 

  • "मैं अभी तक अपने आप को नहीं जानता, जैसे कि डेलफि सूत्र में कहा गया है, अतः जब तक मुझे इस प्रकार का ज्ञान नहीं हो जाता है, मुझे बाहरी तथ्यों का अनुसंधान नहीं करना चाहिए। अतः इनके विषय में चिन्तित न होते हुए मैं इनके सम्बन्ध में प्रचलित विश्वासों को स्वीकार कर लेता हूँ तथा अपने अनुसंधानों की दिशा को स्वः की ओर मोड़ता हूँ" ( फड्स, 230a)। यद्यपि, जहाँ तक ज्ञान की प्राप्ति का प्रश्न है, सोफिस्टों का यह आदर्श था कि मानव सभी वस्तुओं का मानदण्ड है। प्रोटागोरस और गार्जियस ने यह सिद्ध किया कि नैतिक नियमों के सार्वभौमिक स्वरूप की सत्यता का शुद्ध ज्ञान सम्भव नहीं है। परन्तु सुकरात सोफिस्टों के इस विचार से सहमत नहीं थे। सुकरात के अनुसार आत्मज्ञान में ज्ञान का विस्तृत विश्लेषण अर्न्तनिहित होता है।

 

इस विश्लेषण से तीन बातें निकल कर सामने आती हैं-

 

  • 1) नैतिक सिद्धान्त की सार्वभौम वैधता 
  • 2) राज्य के नियम 
  • 3) धार्मिक श्रद्धा का स्वरूप

 

  • इन तीनों बिंदुओं पर सुकरात ने अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों विशेषतः सोफिस्टों के विचारों को स्वीकार नहीं किया। उनका आरोप था कि सोफिस्ट बुद्धि की अपेक्षा प्रत्यक्ष पर अत्यधिक - बल देते थे। वे बुद्धि और प्रत्यक्ष में तथा बुद्धि और संवेदना में भेद नहीं करते थे। अतः उनका प्रमाण मीमांसीय दर्शन संदेहवाद और शून्यवाद में पर्यवासित होता है तथा उनके नैतिक और राजनैतिक विचारों का अन्त यदृच्छावाद में होता है। 
  • अतः सुकरात का उद्देश्य ज्ञान, नैतिकता, और राजनैतिक नियमों को सार्वभौम सिद्धान्तों पर प्रतिष्ठित करना था। ज्ञान की सार्वभौमिकता की संभावना तथा नैतिक और राजनैतिक विचारों की सार्वभौमिकता की संभावना के अन्वेषण से सुकरात इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सदगुण शुभ का प्रत्ययों के माध्यम से होने वाला ज्ञान है। 
  • अतः उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि यदि सद्गुण ही ज्ञान है और ज्ञान ऐसे प्रत्ययों के द्वारा होता है जो तार्किक हैं, तब ज्ञान सार्वभौम हो जायेगा तथा नैतिक और राजनैतिक विचारों की भी सार्वभौमिकता संभव हो सकेगी। लेकिन इसकी प्राप्ति कैसे होगी? अतः इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए सार्वभौम ज्ञान को प्राप्त कराने वाली पद्धति का विश्लेषण करना होगा।

 

सुकरात की विधि

 

  • सुकरात का मानना था कि ज्ञान तथा नैतिक एवं राजनैतिक नियमों की सार्वभौमिकता से जुड़े प्रश्नों के उत्तर का उचित आधार केवल व्यक्तिगत खोज और तार्किक बहस ही हो सकती है। यह व्यक्तिगत खोज और तार्किक वाद-विवाद उनके दर्शन में एक संवाद का रूप ले लेता है। ये संवाद केवल नैतिक विषयों तक ही सीमित थे। इसलिए इनमें न्याय, सद्गुण, ज्ञान, आत्मसंयम इत्यादि शामिल थे। इन संवादों का प्रधान उद्देश्य था, स्वयं को जानना। 

 

  • उसने इसे इलेन्चस की विधि कहा। यह 'कसौटी पर कसने' या निरस्तिकरण के लिए प्रयुक्त यूनानी शब्द था। इस संवाद में उन लोगों से कुशलतापूर्वक प्रश्न करना सम्मिलित था, जो स्वयं को बुद्धिमान कहते थे। परिणामस्वरूप सद्गुण, न्याय आदि के विषय में उनके विचारों को आगे लाया जाता था। इस संवाद का उद्देश्य इस तथ्य से पर्दा उठाना था कि जो अपने को कुछ जानने का दावा करते हैं, वे वास्तव में कुछ भी नहीं जानते तथा उनके विचार या दृष्टिकोण अपर्याप्त है। इस प्रकार सुकरात को यह विश्वास था कि वह इस विधि द्वारा यह दिखा सकता है कि वह दूसरों से अधिक बुद्धिमान है, क्योंकि वह जानता है कि वह नहीं जानता। सुकरात की इस विधि के दो विशिष्ट आयाम है। प्रथम, कार्य प्रणाली को लेकर यह द्वन्द्वात्मक है और दूसरे उद्देश्य को लेकर यह धाय विधि है।

 

द्वन्द्वात्मक विधि (Dialectic Method)

 

  • कुशलतापूर्वक प्रश्नोत्तर द्वारा वाद-विवाद की कला ही द्वन्द्वात्मक विधि है, जिसका उद्देश्य कम से कम सम्भव शब्दों में सारर्भित एवं सटीक उत्तर तक पहुंचाना होता है।

 

  • इस विधि का प्रथम चरण प्रायः विषय सम्बंधि सर्वमान्य कथनों से प्रारम्भ होता है। यह सर्वमान्य कथन परिकल्पना पक्ष (Thesis) कहा जाता है। द्वितीय चरण में द्वन्द्वात्मक विधि परिकल्पना के विरूद्ध और इसके संभावित निरस्तिकरण की ओर अग्रसर होती है, जिसे प्रतिपक्ष कहते हैं। 


  • एक परिकल्पना के निराकरण से अपेक्षाकृत क्रम अर्न्तविरोधों वाली दूसरी परिकल्पना तक पहुंचा जा सकता है। अब इसे संपक्ष (Synthesis) कहा जाता है। इस प्रकार, द्वन्द्वात्मक पद्धति की सहायता से अन्वेषक कम से कम अर्न्तविरोधों वाली नई परिकल्पनाओं की ओर बढ़ता है।

 

  • तथापि सुकरात स्वयं नीतिशास्त्र और जीवन के आचरण के विषय में उठाए गए प्रश्नों का पूरी तरह सही उत्तर नहीं पा सके, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि द्वन्द्वात्मक विधि एक विफल विधि थी। वास्तव में, सुकरात के लिए उनकी विधि पूर्णज्ञान तक पहुँचने के लिए दार्शनिकों के प्रबल प्रेम के जैसी थी, क्योंकि सुकरात के अनुसार पूर्णज्ञान निरन्तर खोज में निहित है, उसे पकड़ने या वहाँ तक पहुँचने में नहीं। इस प्रकार यह प्रतीत होता है कि द्वन्द्वात्मक विधि का उद्देश्य यह दिखाना था कि सुकरात के लिए दर्शन प्रज्ञा की खोज है, न कि पूर्ण ज्ञान तक पहुँचना

 

धाय विधि (Midwifery Method)

 

  • यद्यपि सुकरात ने द्वन्द्वात्मक विधि का अनुसरण और उसका समर्थन किया, फिर भी उन्होंने अपनी विधि को धाय-विधि के नाम से पुकारा। यद्यपि यह तथ्य उनकी माँ की ओर संकेत करता है, जो एक धाय का कार्य करती थी। इस धाय विधि का अर्थ उनके लिए दूसरों के मस्तिष्क में शुद्ध विचार उत्पन्न करना था, जिससे कि वे सब सही कार्य कर सकें। वास्तव में, वे वैचारिक नहीं वरन व्यावहारिक उद्देश्य के लिए परिभाषा के स्पष्ट रूप में सच्चे विचारों को जन्म देना चाहते थे। 


4.4

 

सुकरात और ज्ञानमीमांसा

 

  • जैसा कि हम देख चुके हैं, सुकरात पूर्ववर्ती दर्शन की सभी शाखाओं के साथ-साथ उनकी ज्ञान मीमांसीय शाखा से विशेष रूप से असन्तुष्ट थे। उनके अनुसार ज्ञान की पूर्ववर्ती धारणाएं रुढीवादी, सापेक्षिक एवं पूर्व मान्यताओं पर आधारित थी। सुकरात ने इसका विरोध करते हुए पूर्ववर्ती ज्ञान-योजनाओं के खोखलेपन को उजागर किया। पूर्व में हमने देखा कि सुकरात की समस्या सार्वभौम वैध ज्ञान प्राप्त करने से सम्बन्धित थी। साथ ही उनकी दार्शनिक खोज मूलतः नैतिक प्रकृति की थी। जिसका लक्ष्य स्वयं की खोज था। इसलिए काई भी इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुँच सकता है कि सुकरात का ज्ञान से तात्पर्य न्याय, सद्गुण, और चिरन्तन या धार्मिक विचारों के ज्ञान था। 


  • सुकरात का विश्वास था कि न्याय, सदगुण व चिरन्तन विचारक का वास्तविक ज्ञान पहले से ही मनुष्य में निहित रहता है। यह ज्ञान प्रसुप्त होता है, जिसे कौशलपूर्ण प्रश्नों से पुनः स्मृत किया जा सकता है। यह ज्ञान किस प्रकार मनुष्य में उपस्थित रहता है? इस प्रश्न ने सुकरात को आत्मा के अमरत्व में विश्वास के लिए प्रेरित किया, क्योंकि उसे प्रतीत हुआ कि आत्मा की अमरता से ही मानव न्याय, सद्गुण एवं चिरन्तन विचारों के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकत है।
  • चूंकि आत्मा अमर है, इसलिए इहलोक और परलोक की सभी वस्तुओं को इसने देखा है और सब कुछ इसके द्वारा जाना हुआ है। इसलिए हमें सदगुण या किसी अन्य वस्तु की पुनर्रस्मृति के बारे में आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान हम अपने में पहले से उपस्थित देखते हैं। लेकिन कैसे हम अपने में पहले से उपस्थित ज्ञान के प्रति जागरूक बनें? यहां हमें सुकरात की ज्ञानमीमांसा के सूत्र मिलते हैं। अरस्तू ने मेटाफिजिक्स में स्पष्ट कहा है कि दो चीजें हमें सुकरात से मिली हुई है "आमनात्मक तर्क और सार्वभौम परिभाषा" । अतः सुकरात के अनुसार आगमनात्मक तर्क और सार्वभौम परिभाषा के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

 

  • इस प्रकार सुकरात के अनसार सार्वभौमिक परिभाषा और आगमनात्मक तर्कणा दोनों ही ज्ञान के पुनर्बांध के साधन हैं, जबकि, यह ज्ञान सभी मनुष्यों में प्रसुप्त अवस्था में पाया जाता है।

 

परिभाषा

 

  • हम देख चुके हैं कि सुकरात की विधि संवाद की विधि हैं, जिसमें सही उत्तर पाने के लिए प्रश्नों को पूछा जाता है। जब सुकरात कोई प्रश्न पूछते हैं, तो वह केवल यह नहीं पुछते कि कोई चीज क्या है? जैसे कि न्याय क्या है, बल्कि वह यहां पर न्याय की परिभाषा पूछ रहे होते हैं। 


  • किसी चीज को परिभाषित करना उसके सार तत्व को बताना होता है। इस प्रकार परिभाषा का ज्ञान तत्व के ज्ञान की ओर ले जाता है। इस प्रकार ज्ञान के प्रति यह एक नया दृष्टिकोण था। इस प्रकार का प्रयास पूर्ववर्ती विचारकों जैसे सोफिस्टों में नहीं दिखाई पड़ता यद्यपि इलियाई दर्शन का यह मुख्य विषय था। इस तथ्य से सुकरात की चिन्तन प्रक्रिया की उर्वरता प्रकट होती है, जिसके कारण वह सत्य के अन्वेषण की ओर मुड़ सकें। सुकरात ने उस सत् को अपना लक्ष्य बनाया, जिसे सोफिस्टों ने महत्व नहीं दिया था। अतः यह कहा जाता है कि सुकरात के दर्शन में तत्व को यथार्थ रूप में जानने का प्रयास दिखाई पड़ता है।

 

सुकरात के लिए आगमन का अर्थ

 

  • सुकरात के लिए आगमन का वह अर्थ नहीं था जैसा कि बाद में आने वाले तर्कशास्त्रियों जैसे-फ्रांसिस बेकन और जॉन स्टुअर्ट मिल समझते थे। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं सोफिस्टों के विपरीत सुकरात ज्ञान के स्रोत के रूप में केवल प्रत्यक्ष पर निर्भर नहीं करते, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान सापेक्षता को जन्म दे सकता है।

 

  • सुकरात के अन्वेषण का लक्ष्य निरपेक्ष ज्ञान है न कि कोई सापेक्ष ज्ञान । चूंकि सुकरात के लिए ज्ञान संप्रत्ययों पर आधारित है। उसने प्रत्यक्ष और संप्रत्यक्ष में तीक्षण अंतर बताया है।  संप्रत्यय से तात्पर्य किसी वर्ग के सामान्य प्रत्यय से है। उदाहरण के लिए, गाय के वर्ग के लिए गायपन। लेकिन विशेष तौर से केवल विशिष्ट वस्तुओं (गायों) की संख्या का निरीक्षण गायपन के संप्रत्यय को उत्पन्न नहीं कर सकता। तब हम संप्रत्यय का निर्माण कैसे करते हैं। ?

 

  • संप्रत्यय का निर्माण सामान्य के पुनःस्मरण या अन्तःप्रज्ञा द्वारा होता है। यह अन्तः प्रज्ञा अचानक घटित होती है। प्लेटो के फीडो में सुकरात यह सुझाव देते हुए प्रतीत होते हैं कि यह पुनस्मरण किसी रहस्यवादी के अन्तर्ज्ञान जैसा है। सुकरात वास्तव में एक रहस्यवादी थे और उनके अनुसार ज्ञान सामान्यों के रहस्यात्मक अन्तर्ज्ञान में पाया जाता है। यद्यपि इसमें प्रत्यक्ष उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। लेकिन सुकरात ने सामान्य प्रत्ययों के ज्ञान में इन्द्रियों को बाधास्वरूप ही बताया। 


  • सुकरांत कहते हैं कि "स्पष्टतः तत्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आत्मा तभी निश्चय पूर्वक समर्थ हो सकती है, जब वह दृष्टि और श्रवण के व्यवधान से मुक्त हो, यह किसी प्रकार के सुख-दुःख से विचलित न हो, जब यह शरीर की उपेक्षा कर दे तथा सारे संपर्कों और सहचयों से स्वयं को मुक्त कर ले।"

 

  • "सुकरात ने यहाँ तक माना कि शरीर से मुक्त होने के बाद ही सत्यान्वेषी को सत्य का पूर्ण और भ्रमरहित साक्षात्कार होता है। इस जीवन में भी यदि कोई शारीरिक तप पूर्वक जीवन बिताता है तो उसे सत्यज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। अतः इस प्रकार सुकरात ने सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए सन्यासयुक्त आचरण पर बल दिया। जिससे व्यक्ति नैतिक, धार्मिक और राजनैतिक नियमों के अनुकूल जीवन व्यतीत करने के लिए सक्षम हो जाता है।

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