बिरसा मुंडा का इतिहास | बिरसा मुंडा के जीवनी एवं उपदेश | Birsa Munda Ka Itihaas

 बिरसा मुंडा का इतिहास , बिरसा मुंडा के जीवनी एवं उपदेश 
 Birsa Munda Ka Itihaas

बिरसा मुंडा का इतिहास , बिरसा मुंडा के जीवनी एवं उपदेश   Birsa Munda Ka Itihaas



मुंडा जनजाति विद्रोह- प्रस्तावना

 

  • जब भी जनजाति क्षेत्रों में बाह्य हस्तक्षेप करने की कोशिश की गई और उन्हें शोषण का शिकार बनाया गया, उसका उसने विरोध किया। मुंडा आंदोलन इसी हस्तक्षेप का परिणाम था, जिसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। 
  • बिरसा मुंडा ने मुंडा जनजाति के लोगों में व्याप्त बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया ही, साथ-साथ धार्मिक पहलुओं द्वारा लोगों में एकता लाने का प्रयास किया और अपने-आपको ईश्वर का दूत या स्वयं ईश्वर (?) के रूप में प्रस्तुत किया।
  • हालांकि इस विद्रोह को तो दबा दिया गया, परंतु इसकी प्रेरणा से लोगों में एक नई चेतना उत्पन्न हुई, जो राष्ट्रीय आंदोलन में भी देखने को मिलती है । 

 

मुंडा एक जनजाति समूह

 

  • मुंडा एक जनजाति समूह है, जो छोटानागपुर पठार के क्षेत्रों में निवास करते हैं । झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र के अलावा ये लोग बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा आदि राज्यों में भी रहते हैं । इनकी भाषा 'मुंडारी' ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार की एक प्रमुख भाषा है।


  • इनका प्रमुख भोजन मुख्य रूप से धान, मडुआ, मक्का, जंगल के फल-फूल और कंध-मूल रहा है। इनका जीवन भी सादगी भरा रहा है । उनकी पुरुष साधारण सा धोती का प्रयोग करते हैं, जिसे 'तोलांग' कहते हैं । - महिलाओं के लिए विशेष प्रकार की साड़ी होती है, जिसे हथिया कहते हैं ।

 

  • जब इन जनजाति क्षेत्रों में बाहरी लोगों ने हस्तक्षेप कर इनके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया, तब मुंडा जनजाति के इन लोगों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आंदोलन करना शुरू किया, जिसे 'उलगुलान' या 'महाविद्रोह' कहा गया. 

 

 बिरसा मुंडा के जीवनी एवं उपदेश, बिरसा मुंडा का इतिहास

 

  • मुंडा विद्रोह को नेतृत्व करनेवाले बिरसा मुंडा 'मुंडा' जनजाति के लोगों के लिए 'धरती आवा' के रूप में जाने जाते हैं इनका जन्म 15 नवंबर, 1874/1875 को जुलाई महीने में वृहस्पतिवार के दिन गड़ेरिया उलिहातु में हुआ था। यह गाँव उन दिनों तमाड़ (राँची जिला) के अंतर्गत था। 
  • बिरसा मुंडा के पिता का नाम सुगना मुंडा तथा माता का नाम कदमी था। 
  • बिरसा अपनी माता-पिता के चौथी (4) संतान थे ।
  • बिरसा का बचपन मौसी के घर खटांगा में काफी समय तक बीता इन्होंने बारजो में निम्न प्राथमिक शिक्षा तथा चाईबासा से उच्च प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। 
  • 15 साल की उम्र में बिरसा ने तंज कसते हुए कहा था कि ‘साहेब साहेब एक टोपी है’। यानी ईसाई मिशनरी जो धर्मांतरण में लगे हैं और अंग्रेज जो जमींदारों के साथ मिलकर उनके जमीन और जंगल को छीन रहे हैं, वे दोनों एक ही हैं। 
  •  बिरसा ने अंततः ईसाईयों के क्रिया-कलापों को देखते हुए उन शिक्षण संस्थानों को छोड़ दिया । और वह अपने माता-पिता के पास चालकंद चला आया, जो आगे चलकर बिरसा के अनुयायियों का तीर्थस्थल भी बना । 
  • बिरसा गौड़बेड़ा के आनंद पंडा के संपर्क में जब आया, तब वह वैष्णव धर्म की ओर मुड़ गए और धीरे-धीरे शिकार करना भी छोड़ दिया। कुमार सुरेश सिंह की रचना 'बिरसा और उनका आंदोलन' के अनुसार बिरसा के अनुयायी यह मानते हैं, कि पाटपुर में बिरसा को विष्णु भगवान का दर्शन भी हुआ था.  

बिरसा मुंडा की स्मृति में भारत सरकार द्वारा 1988 में जारी की गई डाक टिकट।


बिरसा मुंडा का दर्शन एवं उपदेश 

  • धीरे-धीरे बिरसा मुंडा चिंतनशील होते गये और वे आदिवासियों में व्याप्त सामाजिक दोष, आर्थिक स्थिति आदि से काफी दुखी थे। धीरे-धीरे बिरसा अपने धार्मिक प्रवृत्तियों एवं कार्यों से युवा वर्ग को आकर्षित करना शुरू कर दिया। लोग दूर-दूर से नियमित रूप से उनके उपदेश को सुनने के लिए आया करते थे । 


  • कीर्तन के पश्चात् वे धर्म की भी चर्चा किया करते थे। उसने लोगों को परंपरागत एवं रूढ़िवादी रीति-रिवाजों से मुक्त होकर ईश्वर पर आस्था रखने के लिए प्रेरिता किया। उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार एवं एकेश्वरवाद का उपदेश दिया।   
  • बिरसा ने अनेक देवी-देवताओं की उपासना करने की जगह उसने लोगों से केवल सिंग बोंगा की उपासना करने का आग्रह किया, क्योंकि इनका मानना था कि समस्त बोंगाओं सहित संपूर्ण ब्रह्मांड का निर्माता भी सिंग - बोंगा ही था। 
  • इनका कहना था कि उपासना के लिए मंदिर आदि आवश्यक नहीं है और सिंग-बोंगा की पूजा गाँव के सरना में ही की जा सकती है। सरना में ही पूजा-अर्चना को महत्व देना पारंपरिक मुंडा उपासना-स्थली के प्रति उसके लगाव का परिचायक था ।


बिरसा मुंडा ईश्वर का दूत घोषित 

  • बिरसा ने अपने-आपको ईश्वर का दूत घोषित किया, परंतु लोग धीरे-धीरे इन्हें ही देवता मानने लगे । इन्होंने कहा कि ईश्वर ने मुंडा को विदेशी दासताओं से मुक्ति एवं एक शून्य समाज की स्थापना के लिए इन्हें भेजा है । 
  • बिरसा मुंडा ने अपनी अनुयायियों को प्रकृति पूजा करने, हिंसा का परित्याग करने, पशु-बलि को बंद करने, हड़िया सहित किसी प्रकार की शराब पीने की मनाही कर दी। अपने अनुयायियों को उसने यज्ञोपवित धारण करने को कहा और उपासना काल में हृदय की शुद्धता पर जोर दिया ।
  •  स० सी० रॉय ने अपनी पुस्तक 'द मुंडाज ऐंड देयर कंट्री' में लिखते हैं कि 'नवीन धर्म के प्रचार का विचार बिरसा के लिए आकस्मिक था ना कि सुनियोजित'


बिरसा मुंडा की लोकप्रियता  

  • बिरसा न केवल धार्मिक पहलुओं के द्वारा बल्कि अपने सामाजिक क्रिया-कलापों के द्वारा भी लोगों के बीच लोकप्रिय होते जा रहे थे। इसका एक उदाहरण 1895 ई० में मुचिया चालकंद के निकट फैली एक महामारी के समय देखने को मिला । बिरसा ने यहाँ पहुँचकर जिस तरह लोगों की सेवा की, उसके कारण लोगों ने इन्हें ईश्वर मानना शुरू कर दिया। बिरसा ने उनलोगों का शाप भी देना कर दिया, जो उनकी बात नहीं मानते थे ।

 

बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी 

  • जब बिरसा की ख्याति इस तरह फैलने लगी, तब ब्रिटिश प्रशासकों, ईसाई मिशनरियों तथा अन्य शोषक वर्गों के बीच इसको लेकर चिंता बढ़ने लगी। छोटानागपुर के कमिश्नर डब्ल्यू० एच० ग्रीमले ने सुझाव दिया कि बिरसा को एक संदिग्ध, पागल अथवा शांति भंग करने का आरोप लगाकर कैद कर लिया जाए अंततः बिरसा एवं उनके सात (7) अनुयायियों के खिलाफ गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया गया । इसकी जिम्मेवारी पुलिस डिप्टी सुपरिटेंडेंट जी० आर० के० मेयर्स को सौंपा गया । 


  • मेयर्स 10 सिपाहियों, मुरहू के ऐंग्लिकन मिशन के रेवरेंडी लस्टी और बंदगांव के जमींदार बाबू जगमोहन सिंह के साथ एक अंधेरी रात को चुप-चाप बिरसा के झोपड़ी में प्रविष्ट हो गया और उसके अनुयायियों को पकड़कर उन्हें 2 वर्षों की सजा दी गई बिरसा पर 50 रु० जुर्माना भी किया गया । 

  • इस तरह बिरसा आंदोलन का पहला चरण समाप्त हुआ। शांतिपूर्ण तरीका और अहिंसात्मक कार्रवाई इस चरण के महत्वपूर्ण के प्रमुख लक्षण थे। 


बिरसा आंदोलन का द्वितीय चरण

  • बिरसा आंदोलन का द्वितीय चरण तब शुरू हुआ, जब महारानी विक्टोरिया के शासन के हीरक जयंती के अवसर पर सजा का समय पूरी होने से कुछ पहले ही 1897 ई० के उत्तरार्द्ध में बिरसा तथा उसके अनुयायियों को हजारीबाग जेल से छोड़ दिया गया। जेल से छूटने के बाद बिरसा ने आक्रामक नीति शोषकों के खिलाफ अपनानी शुरु कर दी ।
  • डोम्बारी को आंदोलन का केंद्र बनाया गया। फरवरी, 1898 में मुंडा जनजाति की एक सभा डोम्बारी में हुई, जहाँ विद्रोह की रूप रेखा तैयार की गई । तीर-धनुष एवं तलवारों से लैस एक सेना तैयार की गई। 
  • गया मुंडा को इस सेना को सेनापति और बिरसा का प्रमुख मंत्री बनाया गया। पुडु मुंडा, जोहन मुंडा, रीढ़ा मुंडा, दुखन स्वामी, हाथीराम मुंडा, डेमका मुंडा तथा ढ़िपर मुंडा आंदोलन के मुख्य पदाधिकारी निर्वाचित किए गए सेना का मुख्यालय खूँटी में था । 
  • बिरसा लगातार विद्रोह की तैयारी के उद्देश्य से विभिन्न स्थानों पर गुप्त सभाएँ कर रहा था तथा अपने अनुयायियों पर बीर दा (वीर जल) छिड़कता था। अपनी सेना को अजेय रहने का भरोसा दिलाता था । 
  • अंततः क्रिसमस के पूर्व संध्या पर 25 दिसंबर, 1899 को विद्रोह की शुरुआत करते हुए मुंडा सैनिकों ने सरवादा मिशन होता, मुरहू मिशन एवं बोरजो मिशन पर आक्रमण कर दिया । जल्द ही दामिन-ए-कोह के कई क्षेत्रों पर मुंडा सैनिकों ने आक्रमण करना शुरू कर दिया, परंतु अंग्रेजों की कूटनीति एवं आधुनिक हथियारों के समक्ष मुंडा सैनिक टिक नहीं पाए । कई नेता शहीद हो गए ।
  • अंततः बिरसा को भी धोखे से चक्रधरपुर के जंगलों से मार्च, 1900 को कैद कर लिया गया। 500 रु० इनाम की राशि के लालच में आकर बनगाँव के जगमोहन सिंह के आदमियों वीर सिंह महली आदि ने बिरसा की सूचना अंग्रेजों को दे दी। 


बिरसा मुंडा की मृत्यु

  • राँची में करीब 9 महीने तक बिरसा पर मुकदमा डब्ल्यू० एस० कटुस के कोर्ट (court) में चला। के० के० दत्त की रचना 'फ्रीडम मूवमेंट इन बिहार' के अनुसार मुकदमा चल ही रहा था, कि 9 जून,  1900 ई० को जेल में बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गई । लेकिन, कुछ विद्वानों का मानना है कि उन्हें जहर देकर मारा गया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गई । इनकी मृत्यु के संदर्भ में महाश्वेता देवी अपनी महान् कालजयी उपन्यास 'जंगल के दावेदार में लिखती है, कि 'बिरसा मुंडा मरा नहीं था, आदिवासी मुंडाओं का भगवान मर चुका था'

 

  • ब्रिटिश सरकार ने साथ देने वाले अपने समर्थकों को भड़कीली पोशाक, तलवार तथा मोतियों की माला तक भेंट की । टेकारी के बहादुर खाँ को राजा बहादुर खाँ दिलवर जंग की उपाधि दी । पलामू के जमींदारों की बकाया मालगुजारी माफ कर दी गई । ठाकुराई छत्रधारी सिंह, भवानी बख्श राय और ठाकुर बसंत सिंह को सालाना मालगुजारी में 240 रु० की छूट दी गई ।

 

  • इस तरह बिरसा ने जनजाति लोगों में जिस तरह एक नई चेतना फैलाई, उससे लोग आनेवाले दिनों में भी प्रेरणा लेते रहे हैं । इनकी समाधि राँची के कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है । वहीं उनका स्टैच्यू भी लगा है। उनकी ही स्मृति में राँची में बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय विमान क्षेत्र भी है ।

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