राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज । ब्रह्म समाज की स्थापना और विकास । Bramh Samaj Ki Sthapna Aur Vikas
राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज, ब्रह्म समाज की स्थापना और विकास
राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज
- कलकत्ता में रहते हुए राममोहन राय का सम्पर्क “यंग बंगाल" के कुछ सदस्यों से हुआ। राममोहन ने उनसे मिलकर सन् 1815 ई. में आत्मीय सभा की स्थापना की। इस सभा की साप्ताहिक बैठक में एकेश्वरवाद तथा अन्य मौलिक धार्मिक सिद्धांतों की चर्चा होती थी।
- सन् 1816 में उन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की। सन् 1819 ई. में उन्होंने मद्रास के प्रसिद्ध ब्राह्मण सुब्रह्मण्यम शास्त्री को मूर्ति पूजा के प्रश्न पर शास्त्रार्थ में हरा दिया।
- सन् 1827 में उन्होंने कुछ ईसाई मिशनरियों को अद्वैतवाद का समर्थक बनाया तथा इसी वर्ष उन्होंने कलकत्ता यूनेटेरियन कमेटी की स्थापना की। सन् 1823 में उनकी पुस्तक “प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस" प्रकाशित हुई।
- जब राममोहन राय का जन्म हुआ तब बंगाल में सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्थिति बड़ी बुरी अवस्था में थी। भारतीय अज्ञान, अंधविश्वास और पाश्चात्य विचारों के बीच प्रतिक्रिया प्रारंभ हुई। राममोहन ने इस प्रतिक्रिया का नेतृत्व किया।
- राममोहन राय ने हिन्दूधर्म के सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन किया एवं देश के सांस्कृतिक और सामाजिक पतन के मूल कारणों की खोज की। राममोहन राय को अपने देश तथा देशवासियों से अगाध स्नेह था । तत्कालीन भारतीय समाज जो वर्ण व्यवस्था प्रथा परम्पराओं से नियंत्रित तथा परिचलित था, में व्याप्त शोषण, भ्रष्टाचार और जड़ता से वे अत्यधिक दु:खी थे।
- हिन्दू धर्म में व्याप्त पुरोहितवाद के कर्मकांड से सम्पूर्ण समाज शोषित और त्रस्त था। उच्च वर्ग अपनी आर्थिक और जातिगत उच्चता के अहं में चूर एवं स्वार्थी और संकीर्ण विचारों के आधार पर जन सामान्य के हितों की उपेक्षा कर रहे थे।
- मूर्ति पूजा के आधार पर समाज का कुछ वर्ग सम्पूर्ण धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाए हुए था। इसी कारण उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया।
- राममोहन राय अपने समय से काफी विक्षुब्ध थे। मानसिक शान्ति के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म का सहारा लेना चाहा और इसके लिए उन्होंने तिब्बत यात्रा की। वहाँ उन्होंने देखा कि बौद्ध धर्म के अनुयायियों में मूर्ति पूजा के प्रति अत्यधिक लगाव है। अत: उन्हें निराशा हुई।
- राजा राममोहन राय स्वतंत्र विचारक थे। उन्होंने परम्पराओं को ऐसे ही नकारने को नहीं कहा। उन्हें तर्क और मानव विवेक की कसौटी पर कसकर देखने के बाद ग्रहण त्याग की बात कही। पाश्चात्य संस्कारों का अंधानुकरण करने वालों का विरोध भी उन्होंने किया और पाश्चात्य विचारों को जो उपयोगी थे, उन्हें अपनाने की वकालत उन्होंने की। अपने दार्शनिक विचारों के समर्थन में प्राचीन मान्य ग्रन्थों का उद्धरण देते हुए भी उन्होंने तर्क और मानव विवेक पर ही अधिक बल दिया।
- उनका कहना था कि बुद्धि और तार्किक शक्ति ही पूर्वी तथा पश्चिमी सिद्धान्तों, विचारों एवं परम्पराओं की प्राथमिकता का आधार है। उनका यह भी कहना था कि मानव विवेक यदि हमारी रूढ़ियों परम्पराओं, मान्यताओं, शास्त्र, रीति-रिवाज आदि को आज के लिए उपयोगी नहीं मानता तो उसे त्यागने में हमें संकोच नहीं करना चाहिये ।
- राममोहन राय बुद्धिवाद के समर्थक थे। वे न केवल हिन्दू धर्म को बौद्धिक आधार देना चाहते थे, वरन वे ईसाई धर्म को भी बौद्धिक बनाना चाहते थे। उन्होंने 'ईसा मसीह के सिद्धान्त' नामक पुस्तक में लिखा कि ईसाई धर्म प्रशासनीय ढंग से मनुष्य के विचारों को ईश्वर की उच्च एवं उदार भावनाओं के स्तर तक ऊँचा उठाने में समर्थ था। इन्होंने पवित्र धार्मिक पुस्तक बाइबिल के अन्तर्निहित भावनात्मक सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि ईसा मसीह की दिव्य वार्ता का मुख्य उद्देश्य दैविक भावनाओं से अनुप्राणित है।
- राजा राममोहन राय का भारतीय समाज को योगदान यदि किसी में है तो वह है सामाजिक क्षेत्र। सामाजिक क्षेत्र में सुधारों की नींव आपने ही रखी। राष्ट्र को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया का सूत्रपात भी आपने ही किया। इन दोनों कार्यों के लिए जो आधार अपनाया गया वह एक दिशा-निर्देश या भविष्य के लिए हैं।
- भारतीय समाज की बहुत सारी बुराइयों को धार्मिक मान्यता मिली हुई थी। धार्मिक आधार किसी भी कुरीति का एक ऐसा संबल होता है कि उसे तोड़ना आसान नहीं होता। एक ऐसी ही सामाजिक धार्मिक तथा मानवता के लिए अभिशप्त प्रथा थी- 'सती प्रथा' । उसे सामाजिक और धार्मिक स्वीकृति प्राप्त थी।
- राजा राममोहन राय ने तर्क और प्रमाणों से यह सिद्ध किया कि किसी भी प्राचीन धर्म ग्रन्थ में सती प्रथा को मान्यता नहीं है। इसके अलावा उन्होंने इस प्रथा को मानवता पर कलंक बताकर भी समाप्त करने की बात कही और अपने प्रयासों से सरकारी सहयोग एवं ब्रह्म समाज के माध्यम से इस प्रथा को समाप्त करने के लिए कानून बनाया गया।
- 19वीं शताब्दी में पुनर्जागरण और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार का घनिष्ठ सम्बन्ध था। राममोहन राय ने इस तथ्य को समझा और अंग्रेजी शिक्षा के समर्थन में सन् 1823 में लार्ड एमहर्स्ट को एक मेमोरेडम दिया और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार में अपना योगदान दिया, क्योंकि वे जानते थे कि अंग्रेजी के माध्यम से भारतीय नए विचारों तथा ज्ञान विज्ञान की बातों से परिचित होंगे। सम्पूर्ण विश्व के सम्बन्ध में जिनका ज्ञान बढ़ेगा।
- भारतीय अपनी परम्परागत रूढ़ियों की सीमा से बाहर निकलेंगे तभी भारत का विकास सम्भव होगा। अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ बांग्ला साहित्य के विकास में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है उन्होंने वेदांत और उपनिषदों का बांग्ला में अनुवाद किया और पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त पहली बार बांग्ला भाषा को प्रोत्साहित किया।
ब्रह्म समाज की स्थापना और विकास
- राजा राममोहन राय ईश्वर की उपासना के लिए किसी मध्यस्थ की आवश्यकता महसूस नहीं करते थे। एक बार वे अपने कुछ साथियों के साथ चर्च से लौट रहे थे। उन्होंने यह विचार उस समय दिया। इस सुझाव के आधार पर उन्होंने एक मकान किराए पर लिया। इस मकान में 20 अगस्त, 1828 ई. को उनके समर्थकों की पहली बैठक हुई। इस सभा का नाम ‘ब्रह्म समाज' रखा गया।
- इसका मुख्य उद्देश्य हिन्दू धर्म को शुद्ध करना तथा एकेश्वरवाद की उपासना का प्रचार करना था। प्रत्येक वह व्यक्ति जो एक ईश्वर में निष्ठा और आस्था रखता था बिना किसी भेदभाव के इस समाज की सदस्यता ग्रहण कर सकता था। प्रत्येक शनिवार शाम को इस सभा की बैठक में वैदिक रचनाओं का पहले संस्कृत और फिर बंगला में पाठ होता था। जनवरी 1930 में एक मकान क्रय किया गया और यहाँ ब्रह्म समाज के मुख्य कार्यालय की स्थापना हुई। इस भवन के न्यास पत्र में कहा गया था कि इस भवन का प्रयोग केवल निराकार ब्रह्म की उपासना के लिए ही किया जाएगा।
- ब्रह्म समाज आंदोलन पूर्णत: वेदों एवं उपनिषदों से प्रेरित था। इस आंदोलन में पूजा के नाम पर सिर्फ वेदों तथा उपनिषदों के मंत्रों का उच्चारण तथा राममोहन राय द्वारा रचित कुछ कविताओं का पाठ मात्र होता था। उपासना में ईश्वर के किसी विशिष्ट नाम रूप को आधार नहीं बनाया गया और न ही किसी मूर्ति को प्रवेश दिया गया।
राजा राममोहन राय के बाद ब्रह्म समाज
- राजा राममोहन राय की मृत्यु 1833 ई. में ब्रिस्टल में हुई थी। उनकी मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज की कार्यों में कुछ शिथिलता आ गई, परन्तु देवेन्द्रनाथ टैगोर ने जब इसे अपनी सेवाएं दी तो यह फिर से जीवन्त हो उठी। 1843 में देवेन्द्रनाथ ने ब्रह्म समाज का नेतृत्व संभाला। इसको पुनर्गठित किया। अपने सिद्धान्तों के प्रचार साथ-साथ इस संगठन ने विधवा विवाह का समर्थन किया तथा स्त्री शिक्षा के पक्ष में सक्रिय आंदोलन चलाया। इसने बहुविवाह भी समाप्त करने का प्रयत्न किया।
- कुछ समय पश्चात् देवेन्द्रनाथ ने केशवचंद्र सेन को ब्रह्म समाज का आचार्य । नियुक्त किया। केशवचंद्र की वाकपटुता तथा उदारतावादी विचारों ने इस आंदोलन को। लोकप्रिय बना दिया।
- ब्रह्म समाज के सिद्धांतों और विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य ब्से उन्होंने समस्त भारत की यात्रा की। इनके प्रभाव में समाज ने हिन्दू धर्म को सर्वोत्तम विश्वासों एवं नैतिक आचरणों को बनाए रखने की कोशिश की। इनके समय में ही बंगाल से बाहर इसकी शाखाएँ उत्तरप्रदेश, पंजाब एवं मद्रास में खोली गई।
- सन् 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र से आचार्यत्व की पदवी छीन ली। केशवचन्द्र काफी उदारवादी विचारों के व्यक्ति थे। वे कई मायनों में हिन्दू धर्म को संकीर्ण मानते थे। उनकी सभाओं में सभी धर्मों का पाठ होने लगा था। इन सब कारणों से उनकी पदवी छीन ली गई।
आदि ब्रह्म समाज
- केशवचन्द्र से पदवी छीनने के परिणामस्वरूप इस समाज में फूट पड़ गई। उन्होंने एक नई शाखा का गठन किया जो ‘आदि ब्रह्म समाज' नाम से जाना गया। इस नई शाखा में एक बार पुनः विभाजन हुआ। इस विभाजन का कारण था केशव सेन का अपनी 13 वर्षीय पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजा के साथ करना। चूँकि वे बाल-विवाह का विरोध करते थे और स्वयं बाल विवाह करा रहे थे। इस अन्तर्विरोध के कारण विभाजन हुआ। केशव सेन ने इस नई शाखा से अलग होकर पुन: एक शाखा “साधारण ब्रह्म समाज" के नाम से खोली ।
- उन्नीसवीं सदी के बंगाल के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग इस आन्दोलन से प्रभावित हुए थे। सम्पूर्ण बंगाल के सामाजिक जीवन पर इस समाज का प्रभाव पड़ा था। इसके माध्यम से समाज में धर्मान्धता तथा रूढ़िवादिता को कम किया गया। इसकी अपनी कुछ कमजोरियाँ थी, अन्तर्विरोध थे, जिनके कारण यह जन-जन का आंदोलन नहीं बन सका तथा समाज में एक आमूल-चूल परिवर्तन लाने में असमर्थ रहा। सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह था कि इसने पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित बहुत से लोगों को ईसाई धर्म में परिवर्तित होने से रोका।
- केशव चंद्र सेन के प्रयासों से 1872 में नेटिव (सिविल) मैरिज एक्ट पारित किया गया, जिसके तहत ब्रह्म विवाह को कानूनी मान्यता मिली। इसके तहत वर एवं वधू की न्यूनतम आयु क्रमश: 18 और 14 वर्ष कर दी गयी। विधवा पुनर्विवाह के किए ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने लम्बा संघर्ष चलाया। विद्यासागर की प्रेरणा से एवं उनकी देख रेख में उच्च जातियों में पहला कानूनी हिंदू विधवा पुनर्विवाह कलकत्ता में 7 दिसंबर 1856 में निभाई। हुआ। इस प्रकार ब्रह्म समाज ने भारतीय पुनर्जागरण में एक अहम भूमिका निभाई
भारतीय पुनर्जागरण के पिता राजा राममोहन राय को क्यों कहा जाता है
- संक्षेपतः राजा राममोहन राय के कार्यों और दर्शन के कारण उन्हें "भारतीय पुनर्जागरण के पिता” तथा “आधुनिक भारत के प्रथम नेता" के रूप में जाना जाता है। राजा जी बांग्ला गद्य के जनक, बांग्ला में ध्रुपद गीतों के रचयिता, प्रवर्तक, पत्रकार, ब्रह्म सभा और ब्रह्म समाज के संस्थापक, महान समाज सुधारक नवयुग के भविष्य दृष्टा तथा आधुनिक भारतीय साहित्य में एक नवीन युग के निर्माता थे। भारतीय समाजसुधार आन्दोलन में अग्रणी भूमिका रखने वाले राजा राममोहन राय के कर्म योग की गंध युगों तक महसूस की जाती रहेगी।
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