गौतम बुद्ध का नीति नीतिशास्त्र |गौतम बुद्ध की नैतिक शिक्षाएँ | बुद्ध नीतिशास्त्र | Budha Ethics in Hindi
गौतम बुद्ध का नीति नीतिशास्त्र
गौतम बुद्ध का जीवन परिचय
- गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी के समकालीन थे। उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके पिता शुद्धोधन शाक्यवंश के राजा थे। कपिलवस्तु इनकी राजधानी थी। सिद्धार्थ का जन्म 563 ई.पू. कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान में हुआ था। में उनके जन्म के कुछ दिन बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया।
- जब सिद्धार्थ पैदा हुए उस समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो बहुत बड़ा सम्राट बनेगा या संसार छोड़कर संन्यासी हो जायेगा। बचपन में सिद्धार्थ की खेलकूद में अधिक रुचि न थी। वे सोच विचार में लगे रहते थे। सिद्धार्थ का विवाह, यशोधरा नाम की सुन्दर स्त्री से हुआ जिससे उन्हें राहुल नाम का एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। सिद्धार्थ ने चार दृश्य देखे जिनसे उनका हृदय परिवर्तन हो गया। एक दिन उन्होंने बूढ़े आदमी, दूसरे दिन एक रोगी, तीसरे दिन एक मरे हुए व्यक्ति और चौथे दिन एक संन्यासी को देखा। उनके मन पर इन दृश्यों का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वे एक रात सब कुछ छोड़कर घर से निकल गये।
- इसके बाद पूरे छ: वर्षों तक गौतम सांसारिक दुःखों कष्टों का समाधान खोजने में लीन रहे। इस अवधि में उन्होंने समकालीन धार्मिक विचारधाराओं का अध्ययन, अनुशीलन और विश्लेषण किया । अन्ततः 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा के दिन प्रातः काल उन्हें बिहार के बोधगया नामक स्थान पर संबोधि (आत्म-ज्ञान) की प्राप्ति हुई। बुद्ध ने सारनाथ में अपना पहला धर्मोपदेश उन पाँच भिक्षुओं को दिया जो तपश्चर्या के दौरान उनके साथ रह चुके थे। तदुपरान्त पैंतालीस वर्षों तक भगवान बुद्ध ने दुःखी मानवता के कल्याण के लिए आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार करते हुए उत्तर भारत के विभिन्न भागों में परिभ्रमण किया। 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पू. में कुशीनगर में उनका देहान्त या महापरिनिर्वाण हुआ।
गौतम बुद्ध की नैतिक शिक्षाएँ
गौतम बुद्ध ने अपने सम्पूर्ण संन्यासी जीवन में महत्वपूर्ण नैतिक उपदेश दिए जो व्यक्ति और समाज का नैतिक पथ पर मार्गदर्शन करते हैं। संक्षेप में गौतम बुद्ध कीशिक्षाएँ इस प्रकार हैं -
(1) वैदिक धर्म का विरोध
- महावीर स्वामी की भाँति बुद्ध ने भी यह नहीं माना कि वेद ईश्वर के रचे हुए हैं। उन्होंने वैदिक यज्ञों का खण्डन किया। यज्ञों के लिए पशु-वध किया जाता था, वह उन्हें बहुत बुरा लगता था।
(2) क्षणिकवाद-
- बुद्ध का कहना था कि संसार में जो कुछ भी है, बहुत थोड़े समय के लिए रहता है। कोई चीज स्थायी अर्थात् सदैव रहने वाली नहीं है। चीजें सदैव बदलती रहती हैं। इसे क्षणिकवाद का सिद्धांत कहते हैं।
(3) दुःखवाद -
- बुद्ध का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह था कि “संसार दु:खों से भरा हुआ है। सब कुछ दु:खमय है। सुख क्षण भर के लिए रहता है। हर चीज में दुःख छिपा हुआ है।
(4) जीवन का उद्देश्य निर्वाण-
- जीवन का उद्देश्य सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना है, इसी को निर्वाण कहते हैं। निर्वाण का अर्थ है बुझ जाना, जस- दीपक का बुझना। निर्वाण का अर्थ हुआ वह स्थिति जिसमें सुख-दुःख कुछ शेष नहीं रह जाता।
(5) चार आर्य सत्य-
दुःख से मुक्ति पाने तथा निर्वाण प्राप्त करने के लिए बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये हैं। वास्तव में आर्य सत्य हा बुद्ध की शिक्षाओं का सार है।
चार आर्य सत्य हैं-
(i) दु:ख,
(ii) समुदय (कारण),
(iii) निरोध,
(iv) मार्ग
पहला सत्य
दु:ख है, दूसरा सत्य है
दु:ख का समुदय (कारण), तीसरा सत्य है
दुःख से छुटकारा तथा इसे प्राप्त करने का उपाय (मार्ग) भी बुद्ध ने बताया।
(6) गौतम बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग
बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त करने का जो मार्ग
बताया वह आष्टांगिक मार्ग कहलाता है। उसमें आठ नियम हैं, इसलिए वह
आष्टांगिक (आठ नियमों वाला) कहलाता है। आठ नियम इस प्रकार हैं
(i) सम्यक दृष्टि- अन्धविश्वासों तथा भ्रान्तियों से मुक्त सही दृष्टि
(ii) सम्यक् संकल्प- सही विचार, उच्च प्रबुद्ध उत्साही व्यक्ति।
(iii) सम्यक् वाक- सम्यक वाणी, उदार, मुक्त एवं सत्यपूर्ण हो ।
(iv) सम्यक कर्मान्त- सम्यक कार्य, जो शान्तिपूर्ण, सुन्दर और शुद्ध हों।
(v) सम्यक आजीव- उपयुक्त जीविका, जो किसी भी प्राणी को क्षति या कष्ट पहुँचाए बिना अर्जित की जाए।
(vi) सम्यक व्यायाम- आत्म प्रशिक्षण और आत्म नियंत्रण की दिशा में सम्यक प्रयास।
(vii) सम्यक स्मृति - सही सचेतनता, सक्रिय एवं सतर्क मना ।
(viii) सम्यक समाधि- सही एकाग्रता एवं जीवन के गहन
रहस्यों पर गंभीर चिन्तन।
यदि आदमी इस मार्ग पर
चलकर शुद्ध जीवन बिताए तो वह दु:खों से बच सकता है।
(7) अहिंसा-
- महावीर की भाँति बुद्ध ने भी अहिंसा पर अधिक बल दिया। उन्होंने यह भी सिखाया कि मनुष्य को किसी से बैर और घृणा नहीं करनी चाहिए। उनका कहना था कि बैर को बैर से, घृणा को घृणा से नहीं जीता जा सकता। बैर को प्रेम और बुराई को भलाई से जीतने का प्रयत्न करना चाहिए।
(8) वर्ण-व्यवस्था का विरोध-
- बुद्ध ने आर्यों की वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया। वर्ण-व्यवस्था में ऊँच-नीच का भेद था। प्रायः शूद्रों को लोग नीच समझते थे और उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। बुद्ध का कहना था कि कोई जन्म से ब्राह्मण या शूद्र नहीं होता। आदमी कर्म से ब्राह्मण या शूद्र होता है।
(9) स्वावलम्बन पर जोर
- बुद्ध के उपदेशों की एक बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि, उन्होंने सिखाया कि निर्वाण प्राप्त करने के लिए हर आदमी को प्रयत्न करना चाहिए। इसमें कोई उसकी सहायता नहीं कर सकता। उसे स्वयं अपने अच्छे कर्मों से ही आगे बढ़ना है। बुद्ध यह भी मानते थे कि किसी देवी-देवता की प्रार्थना करने से आदमी का कल्याण नहीं हो सकता है। स्वावलम्बन बुद्ध के उपदेशों का सार था।
(10) गौतम बुद्ध के दस शील-
बुद्ध के नैतिक उपदेशों में शील पर बहुत जोर दिया गया है। नैतिक आचरण के लिए निम्नलिखित दस शीलों का पालन करना आवश्यक बताया गया है-
(i) दूसरों की सम्पत्ति की चाह न करना।
(ii) हिंसा न करना।
(iii) झूठ न बोलना।
(iv) मादक द्रव्यों का सेवन न करना
(v) व्यभिचार न करना।
(vi) गाने-बजाने में भाग न लेना।
(vii) सुगन्धित पदार्थों, फूलों का प्रयोग न करना।
(vii) कुसमय भोजन न करना।
(ix) आराम देने वाली चारपाई पर न सोना।
(x) रुपया-पैसा न ग्रहण करना और न रखना।
बौद्ध धर्म की भारत को देन
गौतम बुद्ध द्वारा भारतीय
समाज को प्रदान की गई नैतिक और आध्यात्मिक देन को हम निम्न बिन्दुओं में देख सकते
हैं-
(i) करुणा तथा अहिंसा-
- हमारे देश में अहिंसा की भावना हजारों वर्षों से बड़ी प्रबल रही है। यह बौद्ध धर्म की प्रमुख देन है। भारत ही ऐसा देश है, जहाँ पशु-पक्षियों और कीड़े-मकोड़ों तक को मारना पाप माना जाता है। जीव मात्र के लिए इतनी करुणा बौद्ध धर्म की मुख्य देन है।
(ii) सहिष्णुता-
- सहिष्णुता का अर्थ है दूसरों की भावनाओं और विचारों का आदर करना, दूसरों पर अपने विचारों और विश्वास को बलपूर्वक न थोपना । धार्मिक सहिष्णुता इस देश की संस्कृति की विशेष देन रही है। बौद्ध धर्म ने इस भावना को दृढ़ करने में बड़ा योग दिया है।
(iii) सामाजिक समानता-
- बौद्ध धर्म ने वर्ण-व्यवस्था का खण्डन किया। बौद्ध संघ में हर वर्ण के लोग सम्मिलित हो सकते थे। यद्यपि वर्ण-व्यवस्था हमारे देश में अब तक समाप्त नहीं हुई है, फिर भी बौद्ध धर्म ने उसके विरुद्ध वातावरण बनाया।
(iv) विश्व बंधुत्व का आदर्श-
- हमारे देश में अत्यन्त प्राचीनकाल से भावना चली आयी है कि संसार के सभी देशों के लोग परस्पर भाई-भाई है। बौद्ध धर्म इस भावना को दृढ़ किया है। बौद्ध धर्म से प्रभावित हो कर ही अशोक ने युद्ध की ने नीति सदैव के लिए त्याग थी।
(v) सदाचार पर जोर-
- बौद्ध धर्म की मुख्य देन यह है कि उसने पूजा-पाठ के बजाय अच्छे कर्मों पर अधिक जोर दिया। उसने सिखाया कि पूजा-पाठ और प्रार्थना से मोक्ष नहीं मिल सकता, बल्कि आदमी को अच्छे कर्म करने चाहिए।
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म: समानता और असमानता
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म दोनों का उदय ब्राह्मण धर्म की बुराइयों की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था। दोनों ही धर्मों का उद्देश्य ब्राह्मण धर्म की बुराइयों को दूर करके सरल, पवित्र तथा व्यावहारिक धर्म का प्रचार करना था। जैन तथा बौद्ध धर्म में समानताएँ तथा विषमताएँ दोनों ही विद्यमान हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में समानताएँ
(1) सुधारवादी सम्प्रदाय -
- जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म सुधारवादी थे। जैसे आचार - तत्व, सत्य, क्षमा, अहिंसा, सत्कर्म, वासनाओं का दमन और नैतिक आचरण के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल दोनों ही धर्मों की विशेषता है।
(2) मूल सिद्धान्त और लक्ष्य में समानता-
- दोनों धर्मों का मूल सिद्धांत है, सांसारिक कष्टों और जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पाना तथा निर्वाण प्राप्त करना।
(3) कर्मकाण्ड का विरोध
- दोनों धर्मों ने ब्राह्मण धर्म की धार्मिक क्रिया विधियों, कर्मकाण्ड, यज्ञ अनुष्ठान और पशुबलि आदि का विरोध किया।
(4) बहुदेववाद का विरोध-
- दोनों ही धर्मों ने ब्राह्मण धर्म के बहुदेववाद का विरोध किया। निर्वाण प्राप्ति के लिए इन देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ आदि अनुष्ठानों को व्यर्थ बताया। उनका विचार था कि सत्कर्म और शुद्ध आचरण से ही निर्वाण प्राप्त हो सकता है।
(5) जातिवाद का विरोध और सामाजिक समानता पर बल-
- जैन तथा बौद्ध दोनों ही धर्मों ने जाति प्रथा, ऊँच-नीच तथा छूआछूत का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया। उन्होंने सभी वर्ग, स्त्री-पुरुष को समान समझा और सभी के लिए अपने धर्म के दरवाजे खोल दिये।
(6) मानववादी, बुद्धिवादी और जनवादी धर्म-
- दोनों ही धर्म मानववादी थे। दोनों ही धर्मों ने सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। दोनों ही धर्मों ने तर्क, विवेक और बुद्धि के आधार पर सत्य और ज्ञान के सिद्धान्तों का प्रचार किया।
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म असमानताएँ
जैन तथा बौद्ध धर्म में
समानताओं के अलावा कुछ असमानताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं, जिनका विवरण इस
प्रकार हैं
(1) अहिंसा की अवधारणा में अन्तर-
- जैन तथा बौद्ध धर्म में अहिंसा पर बल दिया गया है। लेकिन जहाँ जैन धर्म पेड़-पौधों, वनस्पति, छोटे-बड़े सभी जीवों में प्राण मानता है और उनको आघात पहुँचाना पाप समझता है, वहीं दूसरी ओर बौद्ध धर्म में विशेष परिस्थितियों में जीव-हत्या, तथा मांस का उपयोग उचित माना गया है।
(2) निर्वाण की धारणा में मतभेद-
- दोनों धर्मों के निर्वाण के सिद्धान्त में अन्तर है। जैन धर्म के अनुसार निर्वाण का अर्थ मानव शरीर से मुक्ति पाना और सांसारिक कष्टों से मुक्ति है, जबकि बौद्ध धर्म में निर्वाण का अर्थ अस्तित्व में मुक्ति, व्यक्तित्व का पूर्णरूप से नाश है।
(4) निर्वाण प्राप्ति के साधनों में अन्तर-
- जैन धर्म में कठिन तपस्या, व्रत, उपवास, काया- क्लेश, आदि को निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक माना गया है जबकि बौद्ध धर्म में शारीरिक यातनाओं और कठोर तपस्या का विरोध किया गया है।
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