चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा।तत्त्वमीमांसा की समीक्षा । Chaarvak Tatv Meemansha
चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा, तत्त्वमीमांसा की समीक्षा
Chaarvak Tatv Meemansha
चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा
चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा उसकी ज्ञानमीमांसा की ही उपसिद्धि है। अपने प्रत्यक्षवादी ज्ञान सिद्धांत के आधार पर चार्वाक केवल उन्हीं तत्त्वों की सत्ता स्वीकार करते हैं जिनका प्रत्यक्ष होता है। वे इस ज्ञान-सिद्धांत की पृष्ठभूमि में केवल जड़ तत्त्व या भौतिक पदार्थ की ही सत्ता को स्वीकार करते हैं, क्योंकि केवल उसी का प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से जड़वादी या भौतिकवादी है।
इनके ज्ञात तत्त्वमीमांसीय तथ्य इस प्रकार हैं-
- (1) चार भूतों से सृष्टि की उत्पत्ति।
- (2) शरीरेतर नित्य आत्मतत्त्व का निषेध
- (3) ईश्वर तत्त्व का निषेध।
(1) चार भूतों से सृष्टि की उत्पत्ति-
- चार्वाक के तत्त्वचिन्तन में चार महाभूतों की ही स्वीकृति है पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। आकाश का अनुमान होता है, अतः चार्वाक उसे तत्त्व नहीं मानते। पुनः वह इन महाभूतों को केवल स्थूलरूप मानता है। वह उनके अणुरूपत्व का निषेध करता है, क्योंकि उनका प्रत्यक्ष नहीं होता। वह इन जड़ तत्त्वों के तन्मात्रत्व को भी नहीं स्वीकार करता क्योंकि तन्मात्रत्व के विचार का भी आधार अनुमान है।
- चार्वाक दार्शनिकों की मान्यता है कि सम्पूर्ण चराचर जगत् की सृष्टि इन्हीं चारों भूतों से हुई है। ये ही जगत् के उपादान कारण हैं। इन भूतों का विभिन्न अनुपातों में सम्मिश्रण होने से बाह्य जगत्, भौतिक शरीर, चेतना, बुद्धि और इन्द्रियाँ आदि उत्पन्न होती हैं। रूप, रस, गन्ध आदि गुणों की उत्पत्ति भी इन्हीं के संयोग से होती है। इनके संयोग के लिए किसी निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं होती। जड़ तत्त्व अपने स्वभाव के अनुसार ही संयुक्त होते हैं और उनके स्वतः सम्मिश्रण से संसार की उत्पत्ति होती है।
( 2 ) शरीरेतर नित्य आत्मतत्त्व का निषेध
- चार्वाक का मानना है कि चैतन्य भी भौतिक तत्त्वों के सम्मिश्रण होने से जीवित शरीर में उत्पन्न होता है। अतः जीवित शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है।
- चार्वाक दर्शन के अनुसार शरीर से भिन्न किसी पृथक् आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। शरीर का चेतना से युक्त होना ही आत्मतत्त्व कहलाने के लिए पर्याप्त है। चैतन्य का प्रत्यक्ष भी शरीर के अन्तर्गत होता है। अतः 'चेतना से विशिष्ट शरीर' ही आत्मा है।
- व्यक्ति प्रत्यक्ष के आधार पर भी शरीर और आत्मा के तादात्म्य का अनुभव करता है। मैं कृश हूँ, मैं स्थूल हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ.- ये कथन मैं (आत्मा) और शरीर के तादात्म्य का ही बोध कराते हैं।
- इस प्रकार चार्वाक जड़ तत्त्वों के आधार पर आत्मा की भी व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार जड़तत्त्वों से शरीर भी उत्पन्न होता है और उसमें पाया जाने वाला चैतन्य भी। यद्यपि जड़तत्त्वों में चैतन्य का अभाव है, तथापि उनके सम्मिश्रण से चैतन्य की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार मदिरा के विभिन्न घटकों में से किसी में भी मादकता नहीं है लेकिन उनमें विशेष प्रक्रिया से विकार उत्पन्न होने पर मादकता उत्पन्न होती है उसी प्रकार जड़तत्त्वों के विशेष सम्मिश्रण से चेतना उत्पन्न होती है किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् विज्ञानम्। इस प्रकार चेतन शरीर से भिन्न आत्मा का कोई प्रमाण नहीं है।
- साथ ही चेतन शरीर के आत्मत्व के कारण आत्मा की अमरता भी सम्भव नहीं है। आत्मा की अनित्यता यह सिद्ध करती है कि आत्मा से जुड़ी सभी अवधारणाएँ- पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक एवं कर्मयोग-निराधार हैं।
(3) ईश्वर तत्त्व का निषेध-
- चार्वाक दर्शन ईश्वर की सत्ता का निषेध करता है। प्रायः आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों के रक्षक तथा सृष्टि के कर्त्ता, नियामक एवं संरक्षक के रूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जाती है। चार्वाक आध्यात्मिक, धार्मिक, एवं नैतिक मूल्यों को मानसिक भ्रान्ति कहता है।
- वह सृष्टि की व्याख्या के लिए भी ईश्वर को आवश्यकता नहीं मानता। वह ईश्वर की कल्पना को एक धार्मिक भ्रान्ति कहता है। चूँकि ईश्वर का कोई प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः ईश्वर का अस्तित्व भी नहीं है। उसके लिए ईश्वर जैसे किसी निमित्त कारण की भी आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार, चूँकि जड़तत्त्वों के आन्तरिक स्वभाव से ही संसार की उत्पत्ति होती है। अतः वह स्वभाववादी या यदृच्छावादी है।
चार्वाक दर्शन तत्त्वमीमांसा की समीक्षा -
चार्वाक दर्शन के जड़वादी सिद्धांत के विरुद्ध आस्तिक दर्शनो में तीव्रतम प्रतिक्रिया हुई। जैन एवं
बौद्ध सदृश नास्तिक दर्शनों ने भी चार्वाकों की तत्त्वमीमांसा को पूर्णरूपेण
स्वीकार नहीं किया। भारतीय दर्शनों में चार्वाक तत्त्वमीमांसा के विरुद्ध
निम्नलिखित आक्षेप प्राप्त होते हैं-
- (1) चार्वाक दर्शन की यह मान्यता अनुचित है कि एकमात्र जड़तत्त्व सृष्टि की व्याख्या के लिए पर्याप्त है। जड़तत्त्व सृष्टि का उपादान कारण मात्र हो सकता है, किन्तु सृष्टि के उद्भव कारण न। जिस प्रकार कुम्भकार की सहायता के बिना मिट्टी से घड़ा नहीं बन सकता उसी प्रकार चेतन निमित्त कारण (ईश्वर) के बिना ये सृष्टि नहीं हो सकती।
चार्वाक दर्शन के आत्म सिद्धांत की आलोचनाएँ
(2) चार्वाक
दर्शन के आत्म सिद्धांत के विरुद्ध अन्य भारतीय दर्शनो ने प्रबल प्रहार किया। उसके
आत्म सिद्धान्त के विरुद्ध अधोलिखित आक्षेप प्राप्त होते हैं
- (क) चैतन्य विशिष्ट शरीर को आत्मा कहना अनुचित है। आत्मा में चेतना और शरीर का तादात्म्य मानना भी अनुचित है। यदि चैतन्य का अर्थ स्वचैतन्य है जो मनुष्यों में है तो इसका तादात्म्य जीवित शरीर से नहीं किया जा सकता। यदि चेतना और शरीर के साहचर्य को नित्य भी मान लिया जाय तो भी यह नहीं सिद्ध होता है कि चेतना शरीर का धर्म है।
- (ख) यदि चेतना शरीर का आवश्यक गुण होती तो उसे शरीर से अवियोज्य होना चाहिए तथा उसे शरीरपर्यन्त उसके साथ सम्बद्ध होना चाहिए। किन्तु यह यथार्थ है कि मूर्च्छा या स्वप्नरहित निद्रा में शरीर चेतना से शून्य दिखाई देती है।
- (ग) यदि चेतना वस्तुतः शरीर का धर्म होती तो उसका वैसा ही ज्ञान दूसरों को भी होना चाहिए जैसा हमें होता है। किन्तु एक व्यक्ति की चेतना उसका निजी गुण है। अतः उसका जैसा ज्ञान उस व्यक्ति को होता है वैसा दूसरों को नहीं हो सकता।
- (घ) शरीर स्वयं भी एक साधन है, अतः उसे वश में रखने वाले चेतन की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि चेतना शरीर में नहीं, अपितु शरीर के नियन्त्रणकर्त्ता में है। इस प्रकार भौतिकवादी की स्थिति स्वयं उसके विरुद्ध जाती है।
- (ङ) चेतना शरीर का गुण नहीं हो सकता। यदि चेतना शरीर का गुण होगी तो शरीर का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर, जो स्वयं चेतना का आधार है, चेतना द्वारा नहीं जानी जा सकती। अतः चेतना शरीर का गुण नहीं हो सकती।
- (च)
जड़तत्त्वों से चेतना की उत्पत्ति नहीं दिखाई देती। जड़तत्त्व से चेतना के उत्पन्न
होने का अर्थ है कि असत् से सत् की उत्पत्ति । किन्तु ऐसा होता नहीं। वस्तुतः
शून्य से शून्य ही उत्पन्न होता है, कोई
वस्तु नहीं।
- (छ) यदि चेतना शरीर का गुण है तो अन्य भौतिक गुणों के समान चेतना का भी प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता।
- (3) मैं स्थूल हूँ. मैं कृश हूँ- इन कथनों से चार्वाक दर्शन शरीर को ही आत्मा सिद्ध करना चाहता है।
इन कथनों से केवल यह सिद्ध होता है कि शरीर के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि आत्मा का अस्तित्व नहीं है तो 'शरीर आत्मारहित है' इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इन दोषों के बावजूद चार्वाक तत्त्वमीमांसा का प्रचलित विश्वासों पर पर्याप्त प्रभाव रहा। इसने भूतकाल के प्रति लगाव और भविष्य के आकर्षण को भंग किया। किन्तु, जब वह गंभीर चिंतन करता है तो वह भौतिकवाद से दूर चला जाता है। आश्चर्य है कि चार्वाक दर्शन ने यही कार्य नहीं किया।
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