उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंश । विदिशा का विश्वामित्र स्वामिन् । एरण का धर्मपाल । Gardbhill Vansh Ujjain
उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंश ,विदिशा का विश्वामित्र स्वामिन्, एरण का धर्मपाल
एरण का धर्मपाल
- एरण से प्राचीनतम अभिलेख युक्त एक भारतीय मुद्रा सूचित है। इस ब्राह्मी लिपि में अंकित मुद्रा लेख 'ध (र) म पालम' से धर्मपाल नामक किसी शासक के अस्तित्व का पता चलता है।
- कुछ विद्वानों के अनुसार इन मुद्रा लेखों की लिपि अशोक से भी पहले की प्रतीत होती है 35 किन्तु मौर्य शासकों ने अपने नाम से किसी को मुद्रा प्रचलन का अधिकार दिया, यह अज्ञात है।
- मौर्य या प्राक् मौर्य युग में शासकों के नाम पर प्रचलित मुद्राएँ अज्ञात हैं। अतएव धर्मपाल को मौर्य या प्राक् मौर्ययुगीन नहीं माना जा सकता।
- धर्मपाल के अतिरिक्त 'एरकन्य' लेखयुक्त कुछ ताम्र मुद्राएँ भी प्राप्त हुई हैं। एरण के अतिरिक्त उज्जयिनी एवं विदिशा से भी नगर नाम युक्त मुद्राएँ मिली है जिनका समय तृतीय शती ई. पूर्व एवं द्वितीय शती ई. पूर्व के मध्य रखा गया है। इनके निर्माताओं का प्रश्न विवादास्पद है।.
विदिशा का विश्वामित्र स्वामिन्
- विदिशा या बेसनगर से प्राप्त एक मुहर लेख में महाराज विश्वामित्र स्वामिन् का उल्लेख हुआ है। इस लेख से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि विश्वामित्र पारिवारिक या व्यक्तिगत नाम था 'परमभट्टारिका महाराजाधिराज परमेश्वरी दण्डी महादेवी' के लेख में काण्व शाखा के विश्वामित्र गोत्रीय एक छात्र का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में रायचौधरी की धारणा है कि विश्वामित्र का काण्व शाखा से सम्बन्ध विचारणीय है। यद्यपि केवल इसी आधार पर विश्वामित्र स्वामिन् काण्व था, यह स्पष्ट नहीं होता।
- औदुम्बर मुद्राओं पर भी विश्वामित्र अंकित है।वायुपुराण में भी औदुम्बरों का घनिष्ठ सम्बन्ध विश्वामित्र से स्थापित किया गया है किन्तु यह विश्वामित्र तद्नामधारी प्राचीन पौराणिक ऋषि प्रतीत होता है।
- पुराणों के अनुसार शुंगों के अंत के समय विदिशा में नाग शासक शिशुनंदी शासन कर रहा था। (शुंगानाम् तु कुलस्यान्ते शिशुनन्दिरभविष्यति ।)
- विदिशा के नाग वंशीय शासकों का उल्लेख नागशासकों के सन्दर्भ में किया जायेगा। यहाँ केवल यह उल्लिखित करना उपयुक्त होगा कि पुराणों के अनुसार यहाँ पर नाग राजाओं ने 31 ई. पूर्व तक राज्य किया, जिनमें नागराजशेष भोगिन, सदाचन्द्र, धनवर्मा, भूतनंदि शिशुनंदि तथा यशनंदि प्रमुख थे। ये शासक शुंग एवं काण्वकालीन नाग शासक थे।
- डॉ. जायसवाल इन नाग शासकों को 31 ई. पूर्व के पूर्व रखते हैं किन्तु ऐसा करने में सबसे बड़ी कठिनाई विदिशा पर शुंग प्रभुत्व की है। शुंगों का अंत लगभग 72 ई. पूर्व में हुआ।
- देवभूति शुंग के विदिशा पर अधिकार के सम्बन्ध में संदेह किया जा सकता है किन्तु बेसनगर अभिलेख से विदिशा पर भागभद्र तक शुंगों का प्रभाव अविच्छिन्न रहा। यह समय लगभग 114 ई. पूर्व से 82 ई. पूर्व के बीच 32 वर्षो का था।
- यदि डॉ. जायसवाल के उपरोक्त मत को मान लिया जाय तो विदिशा में एक साथ शुंगों एवं नागों का शासन कैसे स्वीकार्य हो सकता है? किन्तु ज्ञान की वर्तमान अवस्था में विवाद रहित एवं निश्चित निष्कर्ष निकालना अंभव है।
उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंश
- पुराणों में आन्ध्रों के पतन के पश्चात् उदित अनेक वंश, यथा ( सात श्री पर्वतीय आन्ध्र (52 वर्ष), दस आभीर (67 वर्ष) सप्त गर्दभिल्ल (72 वर्ष) अठारह शक (183 वर्ष) आठ यवन (87 वर्ष) इत्यादि सभी आन्ध्रों के सेवक कहे गये हैं।
- राजवंशों में सप्त गर्दभिल्लों का उल्लेख है। जैनाचार्य मेरुतुंग रचित थेरावलि में उल्लेख मिलता है कि गर्दभिल्ल वंश का राज्य उज्जयिनी में 153 तक रहा।
- गर्दभिल्ल ने 13 वर्ष तक शासन किया बाद में इसी गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को परास्त कर उज्जयिनी का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया एवं सुदर्श पुरुष की सिद्धि प्राप्त करके समस्त विश्व को ऋणमुक्त किया एवं विक्रम संवत् प्रचलित किया।
- विक्रमादित्य ने 60 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद विक्रमचरित्र उपनाम धर्मादित्य ने 40 वर्ष तक, भाइल्ल ने 11 वर्ष तक, नाइल्ल ने 14 वर्ष तक तथा नाहद्र ने 10 वर्ष तक शासन किया। इस प्रकार कुल मिला कर उसके चार वंशजों ने 75 वर्षों तक शासन किया अर्थात् गर्दभिल्ल वंश का उज्जयिनी पर 153 वर्ष तक शासन रहा।
- इसके बाद शकों ने पुनः उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया और शक संवत् प्रारम्भ किया।
- जैन ग्रंथ 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' में शुंगों के पश्चात् लगभग सौ वर्ष तक 'गंधव्वाणं' को राज्य करते हुए बताया गया है।
- जैन हरिवंशपुराण में सम्भवतः इसी गंधव्वाणं के स्थान पर 'गर्दभानां' पाठ है। इस ग्रंथ में 'रासभ शासकों' (रासभानां) के द्वारा अवन्ति पर सौ वर्ष तक शासन किये जाने का उल्लेख मिलता है। संभवतः ये सभी उल्लेख गर्दभिल्ल वंश को ही इंगित करते हैं।
- गर्दभिल्ल से सम्बन्धित जैन आचार्य कालकाचार्य की कथा का उल्लेख थेरावलि नामक ग्रंथ में मिलता है। कथा के अनुसार कालक मूलतः एक राजकुमार था। उसने जैन धर्म की दीक्षा ली और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो गया। उसकी बहिन सरस्वती भी दीक्षा लेकर भिक्षुणी बन गई थी। धर्म प्रचार करते हुए दोनों उज्जयिनी पहुँचे। उस समय वहाँ गर्दभिल्ल का शासन था।
- साध्वी सरस्वती परिव्राजिका होते हुए भी अपूर्व सुन्दरी थी। गर्दभिल्ल उसके रूप पर मोहित हो गया और साध्वी सरस्वती का अपहरण कर अपने प्रासाद के अन्तःपुर में बंद कर दिया।
- कालकाचार्य ने अपनी बहिन को छुड़ाने के सभी उपाय किये पर राजा गर्दभिल्ल नहीं माना। तब क्रोधित कालक ने गर्दभिल्ल के विनाश की प्रतिज्ञा की और वह सिंध नदी के पश्चिम में 'सगकुल' पहुँचा जहाँ 'साहानुसाहि' के सामन्त 95 साहि निवास करते थे। कालक ने वहाँ एक साहि से मैत्री कर ली। किसी कारणवश 'साहानुसाहि' साहियों से अप्रसन्न हो गया था। कालक ने भयभीत साहियों को हिन्दुगदेश' (उज्जयिनी) चलने का सुझाव दिया।
- कालक की सहायता से साहियों ने गर्दभिल्ल पर आक्रमण कर दिया। अंततः गर्दभिल्ल की हार हुई उसे अपमानित कर निर्वासित कर दिया और शक साहि राजाओं ने उज्जयिनी के राज्य को आपस में बाँट लिया। इस प्रकार कालकाचार्य अपनी बहिन को छुड़ा कर प्रतिष्ठान के सातवाहन राज्य की राजसभा में चला गया।
- इसी वंश में विक्रमादित्य नामक शासक हुआ। ऐसे उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। गर्दभिल्ल के पराजित होने की घटना के 17 वर्ष बाद उसके पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को उज्जयिनी से निकाल कर अपने राज्य पर फिर से अधिकार किया।
- विक्रमादित्य द्वारा शंकों का उन्मूलन एवं विक्रम संवत् की स्थापना की पुष्टि प्रबन्धकोष एवं धनेश्वरसूरि रचित 'शत्रुंजय महात्म्य' से भी होती है। अलबेरुनी ने अपने ग्रंथ में भी इस बात का उल्लेख किया है।
- विक्रमादित्य के अस्तित्व को सिद्ध करने का सबसे सबल आधार उसके द्वारा चलाया गया विक्रम संवत् है, जिससे प्रथम शती ई. पूर्व में विक्रमादित्य के उज्जैन के राजा होने की बात सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त 'विक्रमचरित्र', 'सिंहासनबत्तीसी', 'कथा सरित्सागर', 'गाथा सप्तशती', मेरुतुंग की 'थेरावलि' आदि अनेक ऐसे ग्रंथ हैं जो उक्त तथ्य को प्रमाणित करते है।
- भारतीय अनुश्रुतियों एवं साहित्यिक कृतियों में उल्लिखित होने पर भी फर्ग्युसन, कीलहार्न, कनिंघम, फ्लीट, मार्शल, जायसवाल और भण्डारकर जैसे विद्वानों ने इस विषय में अनेक परस्पर विरोधी मतों की स्थापना की है।
- राजबली पाण्डेय ने विक्रमादित्य पर लिखी गई अपनी महत्वपूर्ण कृति 'विक्रमादित्य ऑफ उज्जयिनी' में विभिन्न विद्वानों के मतों का खण्डन करते हुए विक्रमादित्य को ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध किया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि विक्रमादित्य मालवों की गर्दभिल्ल नामक शाखा में जन्मा था।
- विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता स्थापित करने के लिए कुछ शर्तों का पूरा करना आवश्यक है जिनमें (1) मालव प्रदेश और उज्जयिनी का राजधानी होना (2) शकारि होना (3) 57 ई. पूर्व में संवत् का प्रवर्तक होना (4) कालिदास का आश्रयदाता होना ।
- इन सभी शर्तों की पूर्ति में विक्रमादित्य को एक स्वर में डॉ. काले, शारदा रंजनराय, के चट्टोपाध्याय, राजबली पाण्डेय, नलिन विलोचन शर्मा, उज्जयिनी के आचार्य सूर्य नारायण व्यास, पं. केशव भाई ध्रुव जैसे अनेक भारतीय मनीषियों एवं सर विलियम जोन्स, पीटरसन, एच. एच. विल्सन जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार किया है।
- विक्रमादित्य का सबसे प्रमुख कार्य उज्जयिनी से शकों का निष्कासन था। अपनी इस सफलता को चिरस्थायी बताने के लिए उसने 58-57 ई. पूर्व में एक नवीन संवत् की स्थापना की जो कृत, मालव एवं विक्रम संवत् नाम से अलग-अलग कालों में पुकारा जाता रहा और आज भी यह परम्परा जीवित है।
विक्रमादित्य की शक विजय की स्मृति
- अब प्रश्न उठता है कि यदि विक्रमादित्य की शक विजय की स्मृति में इस संवत् का प्रचलन किया गया तो इसका प्राचीनतम नाम विक्रम संवत् क्यों नहीं पड़ा। इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना सम्भव नहीं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली के प्रति अपने उत्कट प्रेम के कारण मालवों द्वारा राजा के महत्व को जाति के महत्व से कम आँकने के कारण उसे कृत संवत् (कृत अर्थात् वध या शत्रु का नाश) या मालव संवत् के नाम से भी पुकारा गया।
- राजनीति में शत्रुवध के लिए 'कृत्या' शब्द का प्रयोग प्राचीन धर्मग्रन्थों में हुआ है। उसी का रूप 'कृत्य' या कृत है। इसका सम्बन्ध सतयुग या कृतयुग से स्थापित करना उचित नहीं, क्योंकि कृत् शब्द युगवाचक है जबकि 'कृत' नहीं इसी तरह संवत् का नाम 'कृतसंवत्' है, कृत्संवत नहीं।
- कालान्तर में गणतन्त्र के प्रति जनमानस की आस्था हट गई तब इस संवत् के प्राचीन नामों का परित्याग कर लोगों ने इसके जन्मदाता के नाम पर इसे विक्रम संवत् कहना प्रारम्भ कर दिया और आज भी यह इसी नाम से जाना जाता है।
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