गुरुनानक की नैतिक शिक्षाएँ ,उपदेश ,नीतिशास्त्र |गुरु नानक की शिक्षाओं का प्रभाव | Guru Nanak Ethics in Hindi

 गुरुनानक की नैतिक शिक्षाएँ ,उपदेश ,नीतिशास्त्र

गुरुनानक की नैतिक शिक्षाएँ ,उपदेश ,नीतिशास्त्र  |गुरु नानक की शिक्षाओं का प्रभाव



नाम गुरुनानक - जन्म सन् 1469 

जन्म स्थान तलवण्डी ननकाना साहिब (पाकिस्तान) - 

गुरुनानक की नैतिक शिक्षाएँ - 

1. एक ईश्वर में विश्वास 

2. सतनाम की अलौकिक शक्ति 

3. कर्मकाण्ड का विरोध 

4. अंधविश्वास का विरोध 

5. मूर्तिपूजा का खण्डन 

6. जातिप्रथा का परित्याग 

7. गुरु का महत्व

 

गुरुनानक का जीवन परिचय - 


  • गुरु नानक का जन्म तलवण्डी में सन् 1469 ई. में हुआ। (तलवण्डी ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है जो आजकल पाकिस्तान में है ) उनके पिता का नाम मेहता कालूचन्द था, जो बेदी जात के खत्री थे। वह पटवारी के पद पर कार्य करते थे। इन्हें गाँव के आय लेखा लिपिक के नाम से सभी जानते थे।


  • गुरु नानक की माता का नाम त्रिपता था। नानक को गाँव के स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया तब उनकी उम्र 7 वर्ष की थी। उसके अध्यापक ने बच्चे की बहुत तारीफ की थी। नानक स्कूल में अधिक नहीं टिकते थे। उन्होंने बहुत कुछ साधु और संन्यासियों से सीखा था जो कि उनके गाँव और अड़ोस-पड़ोस में आया करते थे। नौ वर्ष की आयु में उन्होंने पवित्र जनेऊ पहनने से इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा कि जब तक आदमी इन्द्रियों का गुलाम है तब तक जनेऊ पहनना व्यर्थ है। उन्होंने कहा कि मैं तो उस धागे को पहनना चाहता हूँ जो मनुष्य मन को ईश्वर से जोड़ता है।

 

  • अपने बच्चे के चरित्र निर्माण की दृष्टि से नानक के पिता अत्यन्त दुःखी थे। उन्होंने उसको बदलने के लिए विभिन्न धंधों में लगाया। जैसे अपनी जमीन पर भैंस चराना और व्यापार करना परन्तु सब कुछ व्यर्थ गया। नानक तो अधिक से अधिक समय ध्यान एकाग्रता में लगाते थे। 
  • चौदह वर्ष की आयु में नानक का ध्यान दुनियादारी में लगाने हेतु उनके पिता ने उनकी शादी सुलखबी के साथ कर दी। समय के नियमानुसार नानक को दो पुत्रों की प्राप्ति भी हुई। उनके नाम थे श्रीचन्द और लक्ष्मीदास। नानक अधिक समय संतों की संगत में ही गुजारते रहे। अंत में नानक के पिता ने नानक को सुल्तान लोदी के पास भेजने का निर्णय लिया जहां उनके दामाद नवाब दौलत खाँ की फौजदारी के क्षेत्र में नियुक्त थे।


  • यहां उनको भण्डारी का कार्य करने को दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी सरकार की प्रतिष्ठा के अनुकूल निर्वाह किया। मगर नानक कभी भी अपने मुख्य लक्ष्य को भूले नहीं। उन्हें आत्म साक्षात्कार यहीं पर उस समय हुआ जब नानक सुल्तानपुर के पास बहती नदी 'बाईन' में स्नान कर रहे थे। इसी समय और इसी स्थान पर उन्होंने अपनी भगवान के साथ एकात्मकता होने की अनुभूति की। इस पावन अवसर के समय उनकी आयु 30 वर्ष की थी।

 

  • आत्म साक्षात्कार के पश्चात् उन्होंने उदासी जीवन (यात्री जीवन) आरम्भ कर दिया। अपने सहयोगियों से वे कहा करते थे, “यहां कोई हिन्दू नहीं यहां कोई मुसलमान नहींइन शब्दों का प्रयोग करने के पीछे उनकी भावाभिव्यक्ति यह थी कि भगवान की दृष्टि में सभी मानव समान है। हिन्दू और मुसलमान के मध्य कोई भेदभाव नहीं है। मगर बहुत कम लोगों के समझ में यह बात आई कि नानक के कथन में सब दु:खों को मिटाने वाली रामबाण औषधि है तथा उनके द्वारा दिखाया मार्ग ही सबके लिए सुखदायी होगा।

 

उदासियाँ या  गुरुनानक की यात्राएँ :

 

  • गुरुनानक ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपना संदेश जगत को देने हेतु निकल पड़े। उन्होंने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया। उन्होंने पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण पूरे देश की यात्रा की। नानक तो लंका, मक्का, मदीना और बगदाद भी गए। जहां कहीं भी वे गये वहां उन्होंने पवित्र जीवन, जो आडम्बर व अंधविश्वास से शून्य हो, जीने की सलाह दी। वे चाहते थे कि सभी जाति-पाँति के बंधन से मुक्त हो तथा उन्होंने विश्व बंधुत्व का मार्गदर्शन किया। उन्होंने उन्हें भगवान की एकात्मकता का उपदेश भी दिया। उन्होंने लोगों को अपने उपदेश उन्हीं की भाषा में दिए। उन्होंने श्रम की महानता का संदेश भी लोगों को बतलाया।

 

  • सुल्तानपुर छोड़ने के तुरन्त बाद ही गुरु नानक ने अपनी प्रथम यात्रा आरम्भ कर दी। उनके साथ यात्रा में उनका भक्त शिष्य मरदाना भी साथ था। वह लोगों के इकट्ठे हो जाने पर उनके सम्मुख अपने गुरु के गीतों को गाकर सुनाता था। उनकी प्रथम यात्रा सईदपुर की थी जिसे अमीनाबाद के नाम से भी जाना जाता था। यही पर उनको 'लालो' खाती मिला जो उनका शिष्य बन गया। गुरु नानक लालो से प्रभावित हुए क्योंकि वह अपनी रोजी-रोटी कठिन परिश्रम से कमाता था। कस्बे के मुखिया 'भागो' की तुलना में नानक ने लालो के यहां भोजन करने को प्राथमिकता समझी क्योंकि मुखिया 'भागो' भ्रष्ट साधनों के माध्यम से भाग्यवान बना था। उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति का प्रथम केन्द्र सईदपुर को ही बनाया तथा इस केन्द्र का संचालक लालो को ही बनाया।


  • की बुराइयों से हटाकर ईश्वर में संलग्न कर सकता है। सतनाम सभी बुराइयों और बीमारियों का इलाज है। 

 

  • वास्तविक शक्ति दृष्टिगोचर हुई। अपने दो लड़कों की तुलना में उन्हें लहना ही पसन्द आया। इस उत्तराधिकारी का नाम उन्होंने अंगद रखा क्योंकि वे उसे अपने शरीर का ही एक अंग या भाग मानते थे। गुरु के शिष्य सिक्ख कहलाने लगे अतः सिक्ख धर्म की उत्पत्ति हुई। गुरु नानक ने ही खालसा पंथ की नींव डाली थी। इसके बाद दूसरे गुरुओं ने इस पर चिनाई का काम किया तथा दसवें गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ या कॉलन वेल्थ (सार्वजनिक सम्पत्ति) रूपी इमारत का निर्माण कार्य पूर्ण किया। गुरुनानक की मृत्यु 22 सितम्बर1539 में करतारपुर (पाकिस्तान) में हुई। 


गुरु का महत्व :

 

  • सच्चे गुरु की कृपा से ही सतनाम की प्राप्ति सम्भव है। बिना गुरु कृपा के किसी ने भी प्रभु प्राप्ति नहीं की है। गुरु तो एक लिफ्ट है या सीढ़ी है जो उसे अपने प्रभु के द्वार पर पहुंचा देती है। परन्तु सच्चे गुरु की प्राप्ति के लिए भी प्रभु की कृपा होना आवश्यक है। जैसे ही किसी को सच्चा गुरु मिल जाता है वैसे ही उसको बड़ी लगन से अपने गुरु द्वारा दर्शाये पथ पर चलना चाहिए।



गुरु नानक के उपदेश

 

दुनिया के साधु-संतों के मध्य गुरु नानक का बहुत बड़ा स्थान है। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उनका नाम बुद्ध, ईश और अल्लाह के पैगम्बर मोहम्मद साहब के साथ आता है। उनके उपदेशों ने जनता के मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ी है। सच तो यह है कि उनका दर्शन समझने व क्रियान्वित करने में सरल था। उनके मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित है

 

एक ईश्वर में विश्वास :

 

  • गुरुनानक ने एक ईश्वर के अस्तित्व पर ही बहुत जोर दिया। उन्होंने कहा कि वही एकमात्र शक्ति है और उसके मुकाबले और कोई दूसरी शक्ति दुनिया में नहीं है । वह परमात्मा सर्व शक्तिमान है तथा सर्वत्र है। मगर हिन्दू अनेक भगवानों की पूजा करते हैं। हिन्दू उस प्रेम को आदमी के रूप में राम, कृष्ण और शंकर कहकर पूजते हैं। परन्तु नानक के अनुसार भगवान तो दोनों गुण रखता है- (1) वह अन्तवर्ती अवस्था में तो भीतर रहता ही है (2) परन्तु अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने हेतु बाहर भी प्रकट हो जाता है। नानक के अनुसार परमात्मा दयालु है। वह अपने भक्तों से दूर नहीं होता। उसे किसी मंदिर या अन्य धार्मिक स्थलों में सीमित नहीं किया जा सकता है। वह प्रत्येक मानव के दिल में निवास करता है। भक्त को भगवान प्राप्त करने के लिए स्वयं को प्रभु इच्छा प्रति समर्पित कर देना पड़ता है। स्वयं समर्पण का अभिप्राय है- पाँचों बड़े दुश्मनों (इन्द्रियों) का समग्र खात्मा। ये पाँच दुश्मन हैं (1) काम (2) क्रोध (3) लोभ (4) मोह (5) अहंकार । इन दुश्मनों से जब मस्तिष्क मुक्त होता है तभी प्रभु साक्षात्कार हो जाता है। 


सतनाम में अलौकिक शक्ति :

 

  • गुरुनानक ने जोर देकर कहा कि प्रभु के 'सतनाम' जप ही पूर्ण समर्पण की प्राप्ति सम्भव है। जो मस्तिष्क इन पांच दुश्मनों में से किसी एक से ग्रस्त है वह सतनाम की ओर उन्मुख नहीं हो सकता है। सतनाम का उच्चारण ही किसी मस्तिष्क को दुनिया


मूर्ति पूजन का खण्डन :

 

  • परमात्मा के किसी रूप या स्वरूप में उनका विश्वास नहीं था। उनका भगवान तो अन्तर्निष्ठ नारायण है और वह श्रेष्ठता प्रकट करने हेतु नर रूप भी धारण करता है उनका भगवान किसी मंदिर या अन्यत्र धार्मिक स्थान तक ही सीमित नहीं है। वह तो सर्वशक्तिमान है। उन्होंने कहा कि प्यारा प्रभु तुम्हारे से दूर नहीं है, उनको अपने मन व दिल में ही तलाश करो। अत: वह मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे और केवल 'सतनाम' जप पर ही अधिक जोर देते थे।

 

क्रियाकर्मों एवं अंधविश्वास का परित्याग :

 

  • गुरुनानक ने जोरदार शब्दों में थोथे धार्मिक क्रियाकर्मों का विरोध किया है। इसके साथ ही उन्होंने तपस्यातीर्थस्थल तथा सभी प्रकार के अंधविश्वासों का परित्याग करने को भी कहा है। ये सब रीति-रिवाज झूठे और बेकार हैं। परमात्मा की अनुकम्पा केवल उन्हीं पर होती है जो केवल सच्ची परम्पराओं को निर्वाह करते हैं। अपने अनुयायियों को नानक का संदेश था "दुनिया की विषमताओं का परित्याग कर पवित्रता को अपनाओ।’’ नानक की इच्छा थी कि उनके अनुयायी वैराग्य और संन्यास को छोड़ दें। इसके बदले उन्होंने कहा कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि दुनियादारी में भी सम्पूर्ण शुद्धता के जीवन का अनुसरण करना चाहिए। मनवचनकर्म से उसे शुद्ध ही रहना चाहिए । 'कर्मवादमें उनका अटूट विश्वास था। भाग्यशाली वही है जिसने उस समाज के लिये कल्याणकारी कार्य किए हैंजिस समाज में वह रहता है। नानक का कहना है कि बिना अच्छे कर्मों के मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती हैं। जब तक समाज के संदर्भ में कार्य नहीं होते उनके औचित्य की धारणा का कोई तात्पर्य नहीं है।

 

 गुरुनानक द्वारा जातिप्रथा का बहिष्कार :

 

  • भगवान से प्रेम का अभिप्राय है सम्पूर्ण मानव समाज से प्रेम। मगर हिन्दू समाज में व्याप्त जाति प्रथा तो इस अवधारणा के बिल्कुल विपरीत थी। गुरु नानक ने कड़े शब्दों में असमानता के इस सिद्धान्त का विरोध कियाजो जाति प्रथा में व्याप्त था। उन्होंने तो वर्ण व्यवस्था तक का भी विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट एवं प्रभावोत्पादक शब्दों में कहा कि हिन्दू और मुसलमान दोनों एक ही भगवान की संतान है। अत: उन्हें चाहिए कि वे आपस में प्यार व भाईचारे से रहें। गुरु नानक ने विश्व बंधुत्व के सिद्धान्त को भी प्रतिपादित किया।

 


गुरु नानक की शिक्षाओं का प्रभाव :

 

  • गुरुनानक की शिक्षाओं को ध्यान से अध्ययन करने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता कि इनकी शिक्षाएँ अन्य मध्यकालीन संतों की शिक्षाओं से अधिक भिन्न न थी। परन्तु इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि उन्होंने कठोरता के साथ तत्कालीन हिन्दू धर्म की परम्पराओं का खण्डन किया। 
  • उन्होंने न केवल जातिप्रथा का बहिष्कार किया बल्कि उस बुराई को समाज से हटाने के लिए रचनात्मक कदम भी उठाए। उन्होंने लंगर प्रथा (निःशुल्क रसोई) भी शुरू की, जहाँ प्रत्येक जाति के लोग साथ बैठकर भोजन करते थे। ऐसे सामूहिक भीड़ भरे अवसरों पर सभी तबके के आदमियों का स्वागत था। 
  • उन्होंने पूर्ण रूप से संन्यास एवं वैराग्य वृत्ति का बहिष्कार किया तथा स्वयं ने गृहस्थ प्रणाली अपनाई। हिन्दू धर्म में अनेक देवी-देवताओं को पूजने की प्रथा प्रचलित थी और गुरु नानक की शिक्षाएँ भी रामानुज, रामानन्द तथा अन्य भक्तों से मेल नहीं खाती थी। इसका कारण यह था कि वे मूर्तिपूजा, थोथे कर्मकाण्ड तथा अन्धविश्वासों के खिलाफ बोलते थे। इस प्रकार नानक एक क्रांतिकारी सुधारक थे। 
  • उनके सिद्धान्तों का समाज पर बहुत बड़ा असर पड़ा। उन्होंने बतलाया कि इन सब बुराइयों का कारण यह है कि आदमी का नैतिक पतन हो चुका है। उन्होंने कहा कि उन्हें अच्छी तरह अहसास हो गया कि जब तक लोग अज्ञान और भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं तब तक उनके कल्याण के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। जो कुछ सुधार नानक सुझाते थे, वे उन्हें स्वयं अपने जीवन में करके दिखाते थे। 
  • नानक ने भय से मुक्ति प्राप्त कर ली थी। उन्होंने विदेशी हमलावरों के जुल्मों की खुलकर आलोचना की थी। नानक नारी मुक्ति के लिए भी सदा तैयार रहते थे। उन्होंने पर्दा प्रथा और सती प्रथा का विरोध किया। केवल इतना ही नहीं था कि उनकी शिक्षाएँ केवल उस समय अद्वितीय प्रभाव दर्शाती थी वरन् आज की परिस्थितियों में भी उनके उपदेश प्रासंगिक हैं। उनके सिद्धान्तों के समाज पर प्रभाव को इंगित करते हुए गोकुल चन्द नारंग ने लिखा है
  • गुरु नानक पंजाब के हिन्दुओं को उनकी पूर्व दशा के मुकाबले बहुत ही अच्छी हालत में छोड़कर सिधारे थे। उनकी विचारधारा महान बन गई। उनकी पूजा पद्धति पवित्र हो गई, उनकी जातीय कट्टरता बहुत कुछ नरम गई, उनके मस्तिष्क बंधनमुक्त हो गये तथा अब वे अपने प्राकृतिक विकास पथ पर चरित्र निर्माण हेतु सुयोग्य बन गये थे। अब उन्हें गुरु नानक के उत्तराधिकारियों का मार्गदर्शन प्राप्त करने का सुअवसर भी मिलेगा।

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