महाभारतकालीन ग्वालियर, मौर्यकालीन ग्वालियर , मौर्यकाल के बाद ग्वालियर
महाभारतकालीन ग्वालियर
ग्वालियर से वासुदेव कृष्ण का सम्बन्ध महाभारत द्वारा स्थापित होता है।
कृष्ण के पिता वासुदेव और पितामह शूरसेन थे।
शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा को अपने फुफेरे भाई कुंतीभोज को गोद दी थी।
यही पृथा कुंतीभोज की दत्तक पुत्री कुंती के नाम से जानी गई।
कुंतीभोज की राजधानी वर्तमान में कुतवार (मुरैना जिला) के रूप में बसी है, जो प्राचीन काल में कुंतलपुरी कही जाती थी।
यह बाद में कभी कांतिपुरी और फिर कुतवार के नाम से जानी गई।
कुंती ने कर्ण को मंजूषा में रखकर जिस नदी में प्रवाहित किया था वह आसन नदी थी।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से किए जा रहे उत्खनन में भू गर्भ की परतों में इसके प्रमाण मिलते जा रहे हैं।
1982 में सम्पन्न गिलौलीखेड़ा उत्खनन (जिला मुरैना) से चित्रित धूसर मृद्भाँड के अवशेष मिलेहैं जो इस क्षेत्र की महाभारतकालीन घटनाओं से सम्बद्ध होने की पुष्टि करते हैं।
इस क्षेत्र के महाकवि विष्णुदास ने 15वीं शताब्दी में लिखित अपनी कृति 'पांडव चरितु' में इसका उल्लेख किया है।
मौर्यकालीन ग्वालियर
ग्वालियर क्षेत्र पर मौर्य शासकों का 324 ई. पूर्व से 180 ई. पूर्व तक अधिकार था, इसके प्रमाण मुरार के पास धनेली ग्राम में पहाड़ी पर बने मौर्यकालीन दुर्ग के अवशेष से तथा उसी काल की कमलहस्ता लक्ष्मी की मूर्ति से मिलते हैं।
गुलाब खाँ गौरी द्वारा व्यक्त मौर्य काल सम्बन्धी अभिमत पुरातात्विक साक्ष्यों की दृष्टि से सम्यक् प्रतीत नहीं होते।
इस क्षेत्र में पवाया से 'आहत' सिक्के एवं ढले हुए सिक्के प्राप्त हुए हैं जो मौर्यकालीन हैं।साथ ही साथ सोरों, जड़ेरुआ के मौर्यकालीन स्तरों के उत्खनन से भी ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है, जो ग्वालियर क्षेत्र पर मौर्य आधिपत्य की पुष्टि करती है।
चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार और अशोक के समय यह क्षेत्र मौर्यों के अधीन रहा। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा अवन्ति पर शासन की तिथि के विषय में जैन लेखकों में एकमत नहीं हैं।
हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्वन तथा भद्रेश्वर की कहावली में चन्द्रगुप्त की राज्यारोहण तिथि वीरसंवत् 155 है।
मेरुतुंग इस घटना को 60 वर्ष बाद अर्थात् 215 में बताता है, अतएव मेरुतुंग के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की राज्यारोहण तिथि 313 ई. पूर्व है जबकि मान्य धारणा के अनुसार 325 ई. पूर्व में सिकन्दर के प्रत्यावर्तन के तुरन्त बाद ही 320 ई. पूर्व के पहले संभवत: 324 ई. पूर्व में ही चन्द्रगुप्त ने नंदों का विनाश कर राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था।
मेरुतुंग द्वारा अवन्ति में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि 313 ई. पूर्व उल्लिखित करना संभवतः इस बात का घोतकहै कि उसने मगध पर अधिकार करने के लगभग 10-11 वर्ष बाद मालवा पर अधिकार किया था। इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कह पाना कठिन है।
अशोक ने विदिशा में एक प्रासाद बनवाया था। दतिया जिले के गुजर्रा नामक गाँव से एक अशोककालीन शिलालेख मिला है।
पद्मावती (पवाया) से बुद्ध प्रतिमाओं जैसे अनेक शिरोभाग (मृणमूर्तियाँ) सूचित हैं। इससे यह धारणा बनती है कि अशोक मथुरा से चल कर ऐसाह फिर, चम्बल पार करके कांतिपुरी, गोपाचल, पद्मावती होते हुए गुजर्रा पहुँचा तथा वहाँ से चन्द्रपुर (चन्देरी) और फिर चन्द्रपुर से विदिशा पहुँचा होगा।
साहित्यिक साक्ष्यों में भी अशोक के ग्वालियर क्षेत्र पर अधिकार होने के प्रमाण मिलते हैं। पाली ग्रंथों से ज्ञात होता है कि अशोक अपने पिता के जीवन काल में ही उज्जयिनी का 'उपराजा' था।
दीपवंश के अनुसार बिन्दुसार ने पुत्र प्रियदर्शन अर्थात् अशोक को वित्त संचय हेतु अवन्ति प्रदेश भेजा था बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि युवराज अशोक ने विदिशा की श्रेष्ठ पुत्री 'देवी' से विवाह किया था।
महावंश टीका में इस अद्वितीय सुन्दरी के पिता का नाम देव बताया गया है। बौद्ध ग्रंथों में देवी से उत्पन्न पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा का भी उल्लेख मिलता है तथा यह भी उल्लेख मिलता है कि अशोक के राज्याभिषेक के समय उसकी सहभागिनी संभवत: वेदिश महादेवी ही थी।
तुमैन, जड़ेरुआ, कुतवार, सोरों और मेहरा बुजुर्ग (जिला भिण्ड) आदि स्थलों से मौर्यकालीन सन्निवेशों के प्रमाण सूचित हैं।
तुमैन के पुरातात्विक उत्खनन के फलस्वरूप तीन बौद्ध स्तूप मिले हैं, जिनमें एक विशाल स्तूप की तिथि के. डी. बाजपेयी ने मौर्यकाल निर्धारित की है।
वाकणकर ने तो मोहना के पास स्थित टीकला के एक शैलाश्रय में अंकित शब्द दम्बुक को एक चित्रकार बताते हुए इसकी तिथि मौर्यकालीन निर्धारित की है। परन्तु यह तिथि लिपि लक्षणों के आधार पर मौर्यकालीन ब्राह्मी से सर्वथा भिन्न है। अतः इसे मौर्यकालीन मानने में कठिनाई है।
यह लगभग तय है कि ग्वालियर क्षेत्र, अशोक के शासनकाल तक मौर्य साम्राज्य का अभिन्न अंग था जिसकी पुष्टि गुजर्रा लघु शिलालेख (जिला दतिया) से स्वत: होती है, जिसमें वह स्वयं को एक राजा के रूप में अभिहित करता है।
यदि पौराणिक उल्लेखानुसार ग्वालियर को आटविक क्षेत्र मानें तो भी यह भू-भाग उसके साम्राज्यान्तर्गत सिद्ध होता है क्योंकि अशोक अपने एक लघु शिलालेख में आटविकों को अनुशासन में रहने की चेतावनी देते हुए उल्लिखित है।
अशोक की मृत्यु के बाद साक्ष्यों में एकरूपता के अभाव के कारण मौर्य वंश का उत्तरवर्ती इतिहास अंधकार से घिरा हुआ है। पुराण, जैन एवं बौद्ध ग्रंथ तथा कल्हण एवं तारानाथ जैसे परवर्ती इतिहासकारों नेविभिन्न साक्ष्यों के
आधार पर अशोक के बाद का मौर्य वंशीय इतिहास प्रस्तुत किया है, किन्तु इसमें
वांछित सफलता नहीं मिल सकी है।
जैन एवं बौद्ध ग्रंथ एकमत से सम्प्रति को अशोक का
उत्तराधिकारी सिद्ध करते हैं, किन्तु पुराणों के अनुसार अशोक एवं सम्प्रति के पश्चात् क्रमशः
कुणाल 8 वर्ष, बंधुपालित 8 वर्ष, इन्द्रपालित 10 वर्ष, दशोन 7 वर्ष और दशरथ ने
8 वर्ष शासन किया।
वस्तुस्थिति
चाहे जो रही हो पर जहाँ तक मालवा और तत्कालीन ग्वालियर क्षेत्र का प्रश्न है तो
अशोक के बाद संप्रति ही मौर्य वंश का अकेला शासक था
जिसका साहित्य में अवन्ति से सीधा सम्बन्ध बताया गया है, अन्य के संबंध में या अभिलेख
सर्वथा मौन हैं।
जैन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि सम्प्रति के पितामह अशोक ने जो कार्य जैन
धर्म और बौद्ध धर्म के लिए किये वही कार्य सम्प्रति ने भी किये। सम्प्रति ने
पाटलिपुत्र के अतिरिक्त उज्जयिनी को भी द्वितीयक राजधानी बनायी थी।
अशोक के पश्चात् मौर्य
साम्राज्य की निर्बलता के कारण इस क्षेत्र पर शुंग (184-72 ई. पूर्व) एवं
क्षत्रप साम्राज्यवादियों का आधिपत्य हो गया। इसी श्रृंखला में काण्व (75 ई. पू. से 30 ई. पू. तक), सातवाहन, शक, शक क्षत्रप कुषाण, नागवंश, वाकाटक वंश और
गुप्त वंश का आधिपत्य रहा।
पुराणों से जानकारी मिलती
है कि मौर्य शासकों के 137 वर्ष शासन करने
के बाद अंतिम सम्राट बहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग के हाथों हुई ।
पुष्यमित्र सेनापति नियुक्त होने से पहले अवन्ति में 30 वर्षों तक
गवर्नर रहा था। उसे प्रशासन और सैन्य संचालन का पर्याप्त अनुभव था।
मौर्यकाल के बाद ग्वालियर
पुष्यमित्र
शुंग ने मौर्य साम्राज्य को समाप्त कर पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी तथा विदिशा को
उपराजधानी बनायी थी। उसने अग्निमित्र को विदिशा का प्रशासक बनाया। उसके राज्यकाल
में विदिशा से अटेर तक का समस्त प्रदेश शुंग वंश के अधिकार में रहा।
इस क्षेत्र से
प्राप्त शुंगकालीन प्रमाण टुण्डाभरका खोह अभिलेख (जिला शिवपुरी), तुमैन, कुतवार से सूचित
पुरास्थलों के उत्खनन में मिले भवनावशेष एवं मृद्भाँड तथा जड़ेरुआ उत्खनन में
प्राप्त शुंग शैली में निर्मित दो मृण मूर्तियाँ जिनमें एक पद्महस्ता लक्ष्मी की
है, आदि उल्लेखनीय
हैं। इस क्षेत्र से प्राप्त मृण मूर्तियों पर कोई अभिलेख नहीं होने से उनका काल
निर्धारण नहीं हो सका है।
टुण्डाभरकाखोह अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र उस
समय भागवत् धर्म का प्रमुख केन्द्र था। इस अभिलेख में भदनक नामक जाति तथा शिवरखित
और किनरखित नामक शासकों के उल्लेख मिलते हैं।
शिवपुरी जिलान्तर्गत चोरपुरा स्थित
शैलाश्रयों में भी बाह्मी लिपि का एक अभिलेख मिला है जो लगभग पहली दूसरी शती ईस्वी
का है।
मेरुतुंग के
अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने 30 वर्ष तक अवन्ति पर शासन किया और उसकी मृत्यु के बाद भी
शुंगवंशीय भानुमित्र एवं बालमित्र अवन्ति पर शासन करते रहे।
शुंग वंश का अंतिम
शासक देवभूति था जिसने दस वर्षों तक शासन किया। उसके अमात्य वसुदेव काण्व ने उसकी
हत्या कर काण्व वंश की स्थापना की। इस बात की पुष्टि पुराणों तथा बाणभट्ट के हर्षचरित
से भी होती है।
काण्वायन शासकों की अवधि अल्पकालिक रही। इस कुल में मात्र चार शासक
हुए जिन्होनें कुल 45 वर्ष तक शासन
किया जिनमें वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण तथा
सुशर्मण थे।
देवभूति शुंग की मृत्यु के उपरान्त मुख्य शुंगवंशीय शाखा का
अंत हो गया, किन्तु शुंग वंश
से सम्बन्धित अन्य शासकों के बाद के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता
क्योंकि पुराणों के अनुसार काण्वायन सुशर्मण एवं शेष शुंगों का विनाश आन्ध-
सातवाहन सिमुक के द्वारा हुआ।
मेरुतुंग ने पुष्यमित्र, भानुमित्र एवं
बालमित्र को अवन्ति का शासक बताया है। भरहुत लेख में रेवातिमित्र और वेणीमित्र का
उल्लेख हुआ है। पुराणों से यह ज्ञात होता है कि काण्वायन राजा भी शक्तिशाली थे।
अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्य शुंग शाखा की समाप्ति के बाद भी शुंग वंश से
सम्बन्धित कुछ व्यक्तियों ने काण्वों के आधीन मालवा के विभिन्न भू–भागों में शासन
किया हो।
इन शेष शुंगों का तथा उनके स्वामी काण्वों का अंत कर आन्ध्र- सातवाहन
सिमुक ने उत्तर भारत में अपनी शक्ति को मजबूत किया ।
जिस समय शुंगों का पतन
तथा सातवाहनों के उत्थान की गतिविधियाँ चल रही थीं, उन्हीं दिनों मालवा के विभिन्न भागों, जैसे एरण, विदिशा तथा
उज्जयिनी में अनेक नई शक्तियों का उदयास्त हुआ । इन शक्तियों का सम्बन्ध
ग्वालियर क्षेत्र से था अतः इनका अध्ययन यहाँ श्रेयस्कर होगा।
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