कबीर के दार्शनिक विचार | Kabir Das Ke Darshnik Vichar
कबीर के दार्शनिक विचार। Kabir Das Ke Darshnik Vichar
कबीर के दार्शनिक विचार
- मनुष्य के समक्ष सृष्टि हमेशा कौतूहल का विषय रही है। सृष्टि को लेकर कई प्रश्न उसके मानव को झकझोरते रहते हैं यथा- -सृष्टि क्या है? इसका रचनाकार कौन है ? सृष्टि कैसे बनी? जीव क्या? ब्रह्म क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? आदि-आदि।
- इन जिज्ञासाओं का दार्शनिक अपने-अपने ज्ञानानुसार समाधान करने का प्रयास करते रहते हैं।
- कबीर ने दर्शनशास्त्र विषयक पुस्तकों के अध्ययन के आधार पर नहीं अपितु साधना एवं चिंतन के आधार पर ब्रह्म, जीव, जगत, माया एवं सहज साधना पर अपने विचार व्यक्त किए हैं।
कबीरदास के निर्गुण ब्रह्म
- कबीरदास निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं जिसे उन्होंने राम, मोहन, केशव, हरि, रहीम आदि अनेक नामों से संबोधित किया। उन्होंने ईश्वर विषयक कुछ सम्बोधन इस्लाम धर्म के और अधिकांश सम्बोधन हिन्दू धर्म से लिए हैं। उन्होंने अव्यक्त, अनिर्वचनीय, निराकार ब्रह्म को 'राम' नाम से अधिक सम्बोधित किया है।
- कबीर के राम सगुण साकार नहीं हैं वे तो अव्यक्त, निर्गुण और निराकार हैं। समस्त प्राणियों में उनका निवास है। वह देश और काल से परे है किन्तु घट-घट में समाये हुए हैं। कबीर के राम कुछ अंश में वेदान्त के निर्गुण ब्रह्म के समान है, किन्तु कबीर ने उसे विश्व से परे और विश्वव्यापी दोनों कहकर वेदान्त के ब्रह्म से अलग बताया है। कबीर म हैं कि भक्ति, उपासना तथा साधना से भक्त परम ब्रह्म को प्राप्त कर उसमें विलीन होकर एकमेव हो जाता है।
- कबीर ने जीव और ब्रह्म के सम्बन्धों को पति-पत्नी के सम्बन्धों का रूपक लेकर व्यक्त किया है। कबीर ने ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सहज साधना को सर्वोपरि माना है।
- कबीर की साधना में उपनिषदों के ज्ञान, योग और प्रेम का अद्भुत एवं मनोरम समन्वय है।
कबीर के अनुसार आत्मा-
- कबीर ने जीव को ब्रह्म का अंश माना है। वे जीव और ब्रह्म अथवा आत्मा और परमात्मा को एक मानते हैं, उन्होंने कहा भी है कि “आत्मा राव अवर नहिं दूजा” जिस प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापक है उसी प्रकार आत्मा केवल शरीर न होकर सर्वत्र है। क्योंकि वह ब्रह्म का हा दूसरा स्वरूप है।
- आत्मा को ब्रह्म से अलग जानना केवल अज्ञान आधारित है। जब गुरु के द्वारा आत्मा ज्ञान से चेतनशील हो जाती है तब परमात्मा मिलते हैं और जीव और ब्रह्म में 'अद्वैत' भाव स्थापित हो जाता है। इस स्थिति में दोनों एकाकार हो जाते हैं और जीव को अपने जीवन का महत्व व उद्देश्य अर्थात् ब्रह्म दर्शन प्राप्त हो जाता है।
- कबीर ने जीव को अपना वास्तविक स्वरूप पहचानने की बात कही है और जीव जब अपना और परमात्मा का एक ही स्वरूप जान जाता है तब वह सांसारिकता एवं त्रिविध दुःखों- दैहिक, दैविक, भौतिक से मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है, ऐसी आत्मा अजर-अमर हो जाती है।
कबीर के अनुसार जगत-
- कबीर ने जगत को परमब्रह्मा परमेश्वर की सत्ता माना है। उन्होंने जगत को सत्य, नित्य, शाश्वत एवं चिन्तन माना है, लेकिन वे संसार और जीवन को असत्य और क्षणभंगुर मानते हैं। कबीर के अनुसार संसार के विषयों से सुख प्राप्ति की अभिलाषा मात्र भ्रम है। मनुष्य संसार में आकर विषय-वासनाओं एवं सांसारिकता में रहकर दुःख जाग्रत करता है। इसलिए उनका आग्रह है कि संसार को नश्वर जानकर मनुष्य को समय रहते जाग्रत होकर जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए। वे मानते हैं कि मनुष्य को यह मुक्ति स्वयं को ब्रह्म में लीन कर देने से मिलती हैं।
कबीर के अनुसार माया-
- कबीर के अनुसार मनुष्य को राम में मिलाने में सबसे बड़ी बाधा माया है। कबीर ने माया को अविद्या कहा है। जो जीवों को मोहित करती है, सत्य और ज्ञान को ढक लेती है, मनुष्य के भीतर काम, वासना तथा तृष्णा को जन्म देती है। माया के विभिन्न प्रकारों पर कबीर ने विशेष बल दिया है। वह काम, कामिनी, अहंकार, लोभ, मोह आदि विविध रूपों से मनुष्य को अपने जाल में फँसाती है। कबीर ने माया को विचित्र मोहिनी शक्ति कहा है जो बरबस जीव को अपनी ओर सम्मोहित करती है, यथा-
माया ऐसी पापिणी, फन्दा ले बैठी हाट ।
सब जग तो फन्दा परया, कबीरा आया काट ॥
माया मन में आशा, तृष्णा, मान, सम्मान, लोभ-मोह, क्रोध आदि को जन्म देती है। वह मन को अपने वशीभूत कर जीव को ब्रह्म की ओर उन्मुख नहीं होने देती य मन को प्रभावित कर साधना- पथ से विचलित कर देती है। कबीर ने ऐसे मन की निंदा की भर्त्सना करते हुए कहा है कि
कोटि करम पल मैं करै, यह मन विषिय स्वादि।
सतगुरु सब्द न मानई, जनम गंवाया बादि ।
ऐसे विषय आसक्त मन को ईश्वर की ओर उन्मुख करने के लिए कबीर ने उसे मार डालने की बात कही क्योंकि तभी जीव को ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है यथा-
मैं मंता मन मारि रे, नान्हा करि-करि पीसि।
तब सुख पावै सुन्दरी, ब्रह्म झलकै सीसि ॥
माया को वशीभूत करने के लिए कबीर ने भक्ति का मार्ग सुझाया है। भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण करने से माया का अन्धकार विलीन हो जाता है और जीव को मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
कबीर के अनुसार सहज साधना-
- कबीर ने अपने उपदेशों में सहज शब्द का यत्र-तत्र जिक्र किया है। कबीर ने सहज शब्द कहीं ब्रह्म और कहीं उसे प्राप्ति की साधना के रूप में प्रयुक्त किया है। जो ब्रह्म वाणी द्वारा वर्णित नहीं हो सके जो कल्पना से परे है, जो विश्वातीत है उसे उन्होंने सहज कहा है। यही सहज भाव अंतरात्मा रूप में विद्यमान है।
- कबीर का सहज ज्ञान एवं प्रेम दोनों ही काव्य का विषय है। सहज की परम प्रिय राम है जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। कबीर ने इस सहज की प्राप्ति के लिए विषय वासनाओं का त्याग आवश्यक माना है।
- कबीर ने सहज को साधना की अवस्था के रूप में प्रयुक्त किया है । वे मानते हैं कि सहज वह अवस्था है जिसमें मनुष्य सरलता से विषय वासनाओं का त्याग कर सके, पाँचों इन्द्रियों को वश में कर सके, ऐसी पवित्र आत्मा राम में एकाकार होकर समा जाती है यथा-
सहज, सहज सब कोई कहें, सहज- चीन्हें कोइ ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कही जै सोइ ।।
कबीर की साधना में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। कबीर ने सहज साधना को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनकी साधना में ज्ञान, योग और प्रेम की महती भूमिका है। कबीर की साधना में तीर्थ-व्रत, संन्यास, धूनी रमाना, शारीरिक आसन, प्राणायाम और ब्रह्म आडम्बरों के लिए कोई स्थान नहीं है वे तो नाम स्मरण, ब्रह्म में चित्त को स्थापित करने, अजपाजाप, तथा सहज शून्य में समाधि को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हैं।
कबीर की सामाजिक चेतना
- कबीर की साधना आध्यात्मिक होते हुए भी समाज के प्रति संवेदनशील है। वे भक्त, समाज सुधारक एवं युग नेता हैं, जिन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से सामाजिक न्याय एवं समरसता की बात की है। उन्होंने अपने युग में व्याप्त अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, साम्प्रदायिक एवं धार्मिक कट्टरताओं तथा कर्मकाण्ड के बाहरी आडम्बरों का डटकर विरोध किया।
- वे समाज को सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक शोषण से दिलाने वाले समाजसेवी हैं। कबीर मानते हैं कि समाज की एकरूपता तभी सम्भव है। जबकि समाज में जाति, वर्ण एवं वर्ग भेद न हों। इसलिए कबीर ने जाति, वंश, अधर्म, संस्कार और शास्त्रगत रूढ़ियों का मायाजाल तोड़ने का प्रयास किया और “जाति-पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई" कहकर मानव मात्र के लिए समानता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। कबीर द्वारा प्रचारित धर्म, मानवधर्म और विश्वधर्म है।
- कबीर विश्व बंधूत्व के प्रबल समर्थक हैं। वर्तमान परिदृश्य में व्याप्त वर्ग विद्वेष रूपी विष से ग्रस्त तथा मानवता के रक्त पिपासु मनुष्य के लिए कबीर की यह घोषणा कि सांई के सब जीव हैं, निश्चय रूप से नव मार्ग प्रदर्शक है।
कबीरदास : एक सामाजिक विश्लेषण
जिन दिनों कबीरदास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिंदुओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार की साधनाएं प्रचलित थी। कोई वेद का दीवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान-पुण्य में लीन था। कई व्यक्ति ऐसे थे,. मदिरा सेवा में ही सब कुछ पाना चाहते थे तथा कुछ लोग तंत्र-मंत्र, औषधादि करामात को अपनाए हुआ था। यथा -
इक पठहिर पाठ, इक भी उदास,
इक नगन निरन्तर रहे निवास,
इकं जीग जुगुति तन खनि,
इक राम नाम संग रहे लीना।
कबीर ने अपने चारों-ओर जो कुछ भी देखा-सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया:
ऐसा जो जोग न देखा भाई, भुला फिरे लिए गफिलाई
महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो महंत कहावै ।.
कबीर दास जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित आडम्बर देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया -
पंडित देखहु मन मुँह जानी।
कछु धै छूति कहाँ ते उपजी, तनहि छूति तुम मानी।
समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन । किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को संबोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी-
तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद,
हम कत लौहू तुम कत दूध,
जो तुम बामन बामनि जाया,
आन घाट काहे नहि आया।
- महात्मा कबीर ब्राह्मण अभिमान यह कहकर तोड़ते हैं कि अगर तुम उच्च जाति के खुद को मानते हो, तो तुम किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आए? इस प्रकार कबीर ने समाज व्यवस्था पर नुकीले एवं मर्मभेदी अंदाज से प्रहार किया।
- समाज में व्याप्त आडंबर, कुरीति, व्यभिचार, झूठ और पाखंड देखकर वे उत्तेजित हो जाते हैं और चाहते हैं कि जन-साधारण को इस प्रकार के आडम्बर एवं विभेदों से मुक्ति मिले और उनके जीवन में सुख-आनंद का संचार हो। महात्मा कबीर के पास आध्यात्मिक ज्ञान था और इसी ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे-
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।
- अपने कर्त्तव्य के अनुसार हर व्यक्ति को फल मिलना निश्चित है। हर प्राणी को यहाँ से जाना है। समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने और जन समुदाय में सुख-शान्ति लाने के लिए कबीर एक ही वस्तु को अचूक औषधि मानते हैं, वह है अध्यात्म से चाहते हैं कि मानव इसका नियमित सेवन करे।
- आधुनिक संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है। आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है, जो कबीर काल में थी। सामाजिक आडंबर, भेद-भाव, ऊँच-नीच की भावना आज भी समाज में व्याप्त है। व्यभिचार और भ्रष्टाचार का बाजार गर्म है। इस नाजुक परिस्थिति से आध्यात्मिकता तथा नैतिकता ही हमें उबार सकती है। कबीर साहित्य ऐसे ही विचारों, भावनाओं और शिक्षाओं की गठरी है। उन्होंने मानव जीवन के सभी पक्षों को स्पर्श किया है। अतः आज की स्थिति में कबीर साहित्य हमारा मार्गदर्शन करने में पूर्ण रूप से सक्षम है। कबीर का उपदेश सार्वभौम, सार्वजनिक, मानवतावादी तथा विश्वकल्याणकारी है। उन्होंने सामान्य मानव धर्म अथवा समाज को प्रतिष्ठा के लिए जिस साधन का प्रयोग किया था, वह सांसारिक न होकर आध्यात्मिक था।
- आधुनिक संदर्भ में कबीर का कहा गया उपदेश सभी दृष्टियों से प्रासंगिक है। जिस ज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज के चिंतक और संत कर रहे हैं, वही उद्घोषणा कबीर ने पंद्रहवीं शताब्दी में की थी। अतः आज भी कबीर साहित्य की सार्थकता और प्रासंगिकता बनी हुई है। आज के परिवेश में जरूरी है कि इसका प्रसार किया जाए ताकि देश और समाज के लोग इससे लाभान्वित हो सकें।
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