वेदान्त का शाब्दिक अर्थ | वादरायण का ब्रह्मसूत्र | Meaning of Vedant in Hindi

 वेदान्त का शाब्दिक अर्थ , वादरायण का ब्रह्मसूत्र Meaning of Vedant in Hindi

वेदान्त का शाब्दिक अर्थ | वादरायण का ब्रह्मसूत्र | Meaning of Vedant in Hindi



 

वेदान्त का अर्थ- प्रस्तावना

 

  • भारतीय दर्शन में विभिन्न दार्शनिक विचार पद्धतियों में वेदान्त दर्शन सर्वाधिक जीवित दर्शन के रूप में अपना स्थान रखता है। ऐसा इसलिए माना जाता है, क्योंकि हिन्दू विचारकों का जगत् के विषय में जो दृष्टिकोण है, उसका निर्णय करने में वेदान्त का ही किसी न किसी रूप में प्रमुख भूमिका रही है। वास्तविकता यह है कि भारतीय दर्शन में वेदान्त को दर्शन शिरोमणि का स्थान दिया जाता है, क्योंकि 'वेदान्त ज्ञान' को अन्य सभी ज्ञानों का पराकाष्ठा माना गया है। सभी दर्शनों का समन्वय वेदान्त में ही होता है। वेदान्त ही परागति है, क्योंकि उसके बाद कोई ज्ञान नहीं है। अब तक वेदान्त के जितने भी सम्प्रदाय विकसित हुए हैं, उन सभी शास्त्रों की प्रवृत्ति आत्मज्ञान को प्रकट करने के लिए है। अतएव यह कहा जा सकता है कि 'आत्मविद्या' ही वेदान्त है और सभी शास्त्रों का प्रयोजन इसी वेदान्त को साधित करना है।

 

वेदान्त का शाब्दिक निहितार्थ

 

शाब्दिक दृष्टि से 'वेदान्त' शब्द का अर्थ है- वेद का अन्त । प्रारम्भ में 'वेदान्त' शब्द से उपनिषदों का बोध होता था । वस्तुतः 'वेदान्त' वह सिद्धान्त है, जो वेदों के अन्तिम भाग के रूप में प्रतिपादित किये गये हैं। वेदों के अन्तिम भाग के रूप में उपनिषदों का वर्णन किया गया है। यही कारण है कि उपनिषदों के आधार पर जिन विचारों का विकास हुआ, उसके लिए वेदान्त' शब्द व्यवहृत होने लगा। अतएव उपनिषदों को ही भिन्न-भिन्न अर्थों में वेद का अन्त कहा जा सकता है-

 

  • (i) उपनिषद वैदिक युग के अन्तिम साहित्य हैं। वैदिक काल में तीन प्रकार का साहित्य देखने में आता है। सर्वप्रथम वैदिक मंत्र आते हैं जो भिन्न-भिन्न संहिताओं (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) में संकलित हैं। वैदिक मंत्रों के पश्चात् ब्राह्मण भाग आता है, जिसमें वैदिक कर्मकाण्ड की विवेचना है। वेद के अन्त में उपनिषदों का भाग आता है, जिसमें दार्शनिक तथ्यों का व्यवस्थित वर्णन हुआ है। वैदिक काल के इन तीन प्रकार के साहित्य को समन्वित रूप में 'श्रुति' या 'वेद' कहा जाता है।

 

  • (ii) वैदिक साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से उपनिषदों का क्रम सबसे अन्त में आता है। वैदिक साहित्य का अध्ययन करते समय लोगों को आरम्भ में संहिता भाग का अध्ययन करना पड़ता था। संहिता भाग के अध्ययन के पश्चात् लोगों को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर गृहस्थोचित कर्म ( यज्ञादि) करने लिए 'ब्राह्मण' ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ता है। वानप्रस्थ या संन्यास लेने पर आरण्यक' का अध्ययन करना पड़ता था। इन्हें 'आरण्यक' इसलिए कहा जाता था, क्योंकि अरण्य या वन में एकान्त जीवन व्यतीत करते हुए लोग जगत का रहस्य और जीवन का उद्देश्य समझने की चेष्टा करते थे। उपनिषदों का विकास इसी आरण्यक साहित्य से हुआ है।

 

  • (iii) उपनिषद् को इस अर्थ में भी वेद का अन्त माना जाता है, क्योंकि उपनिषद में वैदिक विचारधारा की पराकाष्ठा पायी जाती है। वेदों में सन्निहित विचारों का परिपक्व चिन्तन उपनिषदों में मिलता है। स्वयं उपनिषदों में ही कहा गया है कि- वेद, वेदांग आदि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी मनुष्य का ज्ञान तब तक परिपक्व नहीं होता, जब तक वह उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त नहीं करता।

 

  • उपनिषदों के विषय में अधिकांश विचारकों का यह कहना है कि उपनिषदों में वेद का गूढ़ रहस्य अन्तर्निहित है, इसलिए उपनिषदों को 'वेदोपनिषद्' भी कहा जाता है। विभिन्न कालों एवं स्थानों में भिन्न-भिन्न वैदिक शाखाओं में अनेक प्रकार की उपनिषदें मिलती है। यद्यपि वैदिक शाखाओं में विभिन्न उपनिषदें मिलती हैं, उन सभी में मूलतः विचार सादृश्य है, तथापि भिन्न-भिन्न उपनिषदों में जिन प्रश्नों की विवेचना की गयी है और उनके जो समाधान दिये गये है, उनमें कुछ विभिन्नता भी पायी जाती है।

 

वादरायण का ब्रह्मसूत्र

 

  • विभिन्न कालों में वेद के भिन्न-भिन्न शाखाओं में जो उपनिषद् साहित्य मिलता है, उनके बीच पाये जाने वाले विचारगत भिन्नता एवं विरोध के परिहार के लिए ऐसा अनुभव किया जाने लगा कि किसी ऐसे ग्रन्थ का संकलन किया जाएँ, जिसमें विभिन्न उपनिषदों के बीच वैचारिक सामन्जस्य स्थापित हो सके। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर सर्वप्रथम वादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' की रचना की। 


  • ब्रह्मसूत्र को वेदान्तसूत्र, शारीरिकसूत्र, शारीरिक मीमांसा या उत्तरमीमांसा भी कहते हैं । 'ब्रह्मसूत्र' में कुल चार अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में कुल चार पाद है। 
  • ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय में ब्रह्म विषयक समस्त वाक्यों का समन्वय, द्वितीय में उन वाक्यों का तर्क, स्मृति आदि से अविरोध प्रदर्शित किया गया है, तृतीय अध्याय में वेदान्त के विभिन्न साधनों के विषय में और चतुर्थ अध्याय में उनके फल के विषय में विचार किया गया है। 
  • वेदान्त के ब्रह्मसूत्र में वर्णित सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त और सारगर्भित हैं। वास्तविकता यह है कि वे उपनिषदों से भी अधिक गूढ़ है। यद्यपि वादरायण के ब्रह्मसूत्र के पूर्व भी कुछ ऐसे विद्वान, मनीषी रहे हैं, जिन्होंने उपनिषदों की व्याख्या के द्वारा वेदान्त दर्शन के विकास के भूमिका तैयार कर दी थी, किन्तु वादरायण का ब्रह्मसूत्र ही उपनिषदों में सन्निहित विचारों का ऐसा सर्वप्रथम ग्रन्थ था, जिसमें वेदान्त के विरूद्ध जो भी आरोप किये गये हैं या किये जा सकते हैं, उनका समुचित समाधान मिलता है।


  • वादरायण के ब्रह्मसूत्र पर विभिन्न भारतीय विचारकों ने अनेक भाष्य लिखे, जिनमें उनके द्वारा अपनी-अपनी दृष्टि से वेदान्त की व्याख्या की गयी है। प्रत्येक भाष्यकार यह सिद्ध करने के प्रयास किया है कि केवल उनके द्वारा किया गया भाष्य ही श्रुति एवं मूलग्रन्थ (ब्रह्मसूत्र) की वास्तविक व्याख्या है। इसका परिणाम यह हुआ कि वेदान्त में भी विभिन्न सम्प्रदायों का विकास हुआ, जिसमें शंकर, रामानुज, मध्वाचार्य, बल्लभाचार्य, निंबार्क आदि ने विशेष भूमिका निभायी।

 

  • वेदान्त दर्शन को उपनिषदों का सार कहा जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वादरायण के 'ब्रह्मसूत्र' के पूर्व उपनिषद् दर्शन का गम्भीर अनुशीलन उपनिषद् के भाष्यकारों द्वारा किया गया था, किन्तु प्राचीनतम उपनिषदों पर जो प्राचीनतम भाष्य उपलब्ध हैं, वे शंकराचार्य के ही हैं और शंकराचार्य वादरायण के बाद हुए हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि शंकराचार्य ने वादरायण के ब्रह्मसूत्र के विषय में यह कहा है कि वह उपनिषद् के वाक्यों को सूत्रवत् ग्रथित करता है। 


  • परन्तु शंकराचार्य के भाष्यों में सुन्दर पाण्ड्य, भर्तृप्रपंच, तथा द्राविड़ाचार्य के मत का उल्लेख मिलता है, जिससे इस बात की स्पष्ट पुष्टि होती है कि शंकराचार्य के पूर्व भी उपनिषद भाष्यकार थे। शंकराचार्य के पूर्व भाष्यकारों में गौडपादाचार्य का नाम अग्रगण्य है। गौडपाद का ग्रन्थ आगमशास्त्र' या 'माण्डूक्यकारिका' है, जो उपलब्ध है और जिस पर शंकराचार्य का भाष्य भी है। यह ग्रन्थ माण्डूक्यउपनिषद् का स्वतंत्र भाष्य है।

 

वादरायण के ब्रह्मसूत्र पर जो प्राचीनतम भाष्य उपलब्ध है, वह शंकराचार्य का 'शारीरकभाष्य' है वादरायण के ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषद् पर भाष्य लिखकर तथा उपनिषद् के सार को सूत्रवत् पृथक ग्रन्थ में अभिव्यक्त कर आचार्य शंकर ने अद्वैत वेदान्त का प्रवर्तन किया है। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि 


  • (1) वेद का अन्त उपनिषद् है, क्योंकि उपनिषद् वेद के अन्तिम भाग है। अतएव वेद का अन्तिम भाग होने के कारण उपनिषद को ही वेदान्त कहा जाता है।

 

  • (2) 'वेदान्त' शब्द का एक दूसरा अर्थ यह भी किया जाता है जिसमें 'वेद' का अर्थ ज्ञान किया गया तथा अन्त का अर्थ पराकाष्ठा किया गया। इससे वेदान्त' का एक दूसरा अर्थ यह निकला कि वेदान्त वह अन्तिम या चरम ज्ञान है या ज्ञान की पराकष्ठा है या वह ज्ञान है, जिसके पश्चात् अन्य कोई कोई ज्ञान नहीं है।

 

  • (3) 'वेदान्त' का एक तीसरा अर्थ यह भी किया गया कि वेदान्त परम पुरुषार्थ 'मोक्ष' का ज्ञान कराने वाला शास्त्र है, क्योंकि वेदान्त मोक्ष को ही परम पुरूषार्थ मानता है। इसीलिए वेदान्त के विषय में कहा जाता है कि वेदान्त में 'अन्त' शब्द से तात्पर्य उस ज्ञान से है (जिसमें जरामरण के चक्र का अन्त) जिसमें ज्ञान से इस देह का सर्वदा के लिए अन्त हो जाता है।

 

  • (4) वेदान्त का एक चौथा अर्थ भी किया गया है, जिसके अनुसार वेदान्त तत्वज्ञान है। उसके तत्वज्ञान का वर्णन इस अर्द्धश्लोक में करते हुए यह कहा गया है कि ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवों ब्रह्मैव नापरः अर्थात् ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है जीव ब्रह्म ही है दूसरा नहीं। शंकराचार्य ने मिथ्या की परिभाषिक संज्ञा माया दी है। अतएव आचार्य शंकर ने यह प्रतिपादित किया केवल एक तत्व है, और वह ब्रह्म पर वेदान्त का अर्थ- ब्रह्मवाद, ब्रह्मविद्या या अध्यात्मविद्या भी किया जाता है।

 


 

  • उपनिषद तथा वादरायण के ब्रह्मसूत्र के अतिरिक्त वेदान्त दर्शन का एक अन्य आधार 'श्रीमद्भगवद्गीता है। व्यासकृत, 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वारा भी वेदान्त के सत्य का पोषण एवं समर्थन होता है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन के तीन आधार है- उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता । 


  • वेदान्त दर्शन इन तीनों ग्रन्थों को समन्वित रूप से प्रस्थानत्रयी' कहा जाता है। उपनिषद् को श्रुति- प्रस्थान', 'ब्रह्मसूत्र' को 'न्याय प्रस्थान तथा श्रीमद्भगवद्गीता को स्मृति प्रस्थान कहा जाता है। शंकराचार्य से प्रेरणा प्राप्त करके उनके पश्चात् अनेक आचार्यों ने इन तीन ग्रन्थों पर या इनमें से किसी दो या किसी एक पर भाष्य लिखे और उनका दर्शन भी 'वेदान्त' कहलाया, क्योंकि उनका भी मूल आधार प्रस्थानत्रयी ही था।

 

  • वेदान्त की अब तक की गयी विभिन्न व्याख्याओं से भी वेदान्त का अर्थ व्यापक है। प्रस्थानत्रयी के अनेक भाष्यों का तत्वज्ञान शंकराचार्य के तत्वज्ञान से भिन्न है, यद्यपि वे भी ब्रह्मवाद का प्रतिपादन करते हैं। अतएव अब वेदान्त का अर्थ मात्र 'ब्रह्मवाद' नहीं किया जाता है।

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