बिरसा मुंडा आंदोलन विद्रोह कारण विस्तार एवं प्रभाव | Munda Vodroh ke Karan evam Prabhav
बिरसा मुंडा आंदोलन विद्रोह कारण विस्तार एवं प्रभाव
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इस आर्टिकल में आंदोलन के कारणों, स्वरूप, इसके विस्तार क्षेत्र तथा इसे दबाने के लिए सरकार की कार्रवाईयों एवं आंदोलन के परिणामों की चर्चा की गई है-
बिरसा मुंडा आंदोलन विद्रोह कारण
- जब-जब जनजाति क्षेत्रों में प्रशासकों, जमींदारों तथ दिकूओं (बाहरी लोग) के द्वारा जनजाति लोगों के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया गया, तब तब इन जनजाति लोगों ने अपनी आजादी के लिए आवाज उठाई; विद्रोह का रास्ता अख्तियार किया बिरसा मुंडा के द्वारा चलाए गए इस आंदोलन को इसी पृष्ठभूमि में देखनी चाहिए । इस संदर्भ में आदिवासी और स्त्री मुद्दों पर अपने काम के लिए चर्चित साहित्यकार रमणिका गुप्ता अपनी किताब आदिवासी अस्मिता का संकट में लिखती है कि आदिवासी इलाकों के जंगलों और जमीनों पर राजा, नवाब या अंग्रेजों का नहीं, जनता का कब्जा था। राजा नवाब थे तो जरूर, वे उन्हें लूटते भी थे, पर वे उनकी संस्कृति और व्यवस्था में दखल नहीं देते थे। जब इन क्षेत्रों में दखल दिया जाने लगा, तब तीव्रता के साथ जनजातियों के द्वारा इसका विरोध भी शुरू हुआ।
- बिरसा मुंडा के द्वारा चलाए गए इस आंदोलन का आधार 1859-1881 के बीच चलाए गए पुनरुत्थानवादी आंदोलन / सरदारी आंदोलन बना । सरदारी आंदोलन अर्थात् भूमि के लिए लड़ाई, जिसे 'मुल्की लड़ाई' भी कहते थे, लगभग 40 वर्षों तक चला।
- इस आंदोलन का नेतृत्व रैयतों के द्वारा किया गया और उन्होंने यह दिखला दिया कि वे जमींदारों पर भी आक्रमण कर सकते हैं सरदारी आंदोलन के नेताओं ने भी दावा किया कि वे वास्तव में उनलोगों के वंशज थे, जिसके साथ सबसे शुरू में भूमि-बंदोबस्त की गई थी। उनका उद्देश्य जमींदारों को बाहर करना था। एक समय ऐसा भी आया, कि जब आदिवासियों ने मांग की कि उन्हें प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रखा जाए और छोटानागपुर के राजा से उन्हें मुक्त करा दिया जाए।
- यह एक नई बात थी, क्योंकि शुरू में न तो वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ थे और न ही छोटानागपुर के राजाओं के खिलाफ बिरसा मुंडा ने ब्रिशि सरकार एवं उसके समर्थकों के इसी शोषणकारी चरित्र को लोगों के समक्ष तार्किक ढंग से रखने का प्रयास किया। जब से इन क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था या जमींदारी बंदोबस्त व्यवस्था को लागू किया गया, तब से मालिक और दास की स्थिति बनती गई ये जनजाति केवल जंगलों पर ही निर्भर नहीं थे, बल्कि एक किसान भी थे। इनलोगों को कई तरह के परंपरागत अधिकार मिले हुए थे, लेकिन जब ब्रिटिश सरकार ने जमींनों पर से इनके अधिकारों को छीनने की कोशिश की, तब इनलोगों ने इसका विरोध किया।
- मुंडा जनजातियों के बीच भी परंपरागत खुतकुँटी व्यवस्था प्रचलित थी। यह व्यवस्था सामूहिक भू-स्वामित्व से संबंधित व्यवस्था थी । इस व्यवस्था को ब्रिटिश सरकार ने समाप्त कर दिया और यहाँ निजी भू-स्वामित्व पर आधारित नवीन व्यवस्था को लागू किया, जो शोषणवादी व्यवस्था पर आधारित थी। इसके साथ ही भू-राजस्व की दर को बढ़ा दिया गया। इससे आदिवासियों की स्थिति दयनीय होती गई।
- जमींदारों और ठीकेदारों ने उनसे नियमित कर उगाहना शुरू किया और समय पर लगान जमा नहीं करने के कारण उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया। अपनी जमीन को बचाने के लिए इनलोगों को धूर्त साहूकारों की शरण लेनी पड़ती थी साहूकारों ने भी इनकी विवशता का अधिक से अधिक लाभ उठाने का कार्य किया। मुंडा जनजाति के शोषण के संदर्भ में अंग्रेजी साम्राज्य की मौन स्वीकृति के कारण इस जनजाति में असंतोष की भावना ने जन्म लिया तथा दीकू शब्द का प्रयोग सभी प्रकार के बाहरी लोगों के लिए होने लगा । यह असंतोष धीरे-धीरे बढ़ता गया, जिसने अंततः विद्रोह का रूप अख्तियार कर लिया।
- दिकुओं के द्वारा मुंडा जनजाति के सामाजिक व्यवस्था में भी हस्तक्षेप करना, विद्रोह का एक कारण बना इनका सामाजिक व्यवस्था बहुत ही बुनियादी और सरल थी। लेकिन धीरे-धीरे इनके समाज में भी कई तरह के दोष समाहित हो गए थे। पुरोहितों के कर्मकांड ने समाज को संकुचित और तर्कहीन बना डाला था। बिरसा को यह समझते देर नहीं लगी कि आदिवासी सामाजिक व्यवस्था में अनेक दोष है, जो आदिवासियों के कष्ट के लिए जिम्मेवार थे, उनकी गरीबी के लिए जिम्मेवार थे और लोग दाने-दाने के लिए मोहताज थे। एक बार स्वयं बिरसा ने एक औरत का कब्र खोदकर मृतक महिला का आभूषण चुरा लिया और उसे बेचकर पेट भरना चाहा; लेकिन इससे कुछ नहीं हो सका था बिरसा इन परिस्थितियों से लोगों को निकालने के बारे में सोचना शुरू किया।
- जब 1894 में अकाल और महामारी छोटानागपुर क्षेत्र में फैली, तब इस समय बिरसा अपने सामाजिक दायित्व का जिस तरह से निर्वाह किया, उससे ये इन पीड़ित लोगों के लिए धरती आवा (भगवान) हो गए और इसी का लाभ उठाते हुए बिरसा ने इन लोगों को शोषणकारियों के खिलाफ एकजुट किया, जो अंततः मुंडा विद्रोह के रूप में सामने आया ।
- दिकुओं के प्रभाव में आने के बाद मुंडा जनजाति के धार्मिक विश्वासों को भी ठेस पहुँची थी । ये लोग अपने कुल देवता का निवास स्थान पेड़, पशु, पक्षी या किसी भी प्रकृति संबंधित वस्तु पर मानते थे, परंतु जब शोषकों के द्वारा विभिन्न कानूनों और नीतियों के द्वारा इन पर भी अपना कब्जा करने का प्रयास किया, तब इन्हें काफी दुःख हुआ, जो अंततः विद्रोह का कारण बना। शुरुआती दौर में मुंडा सरदारों ने हिन्दू पुरोहितों को संरक्षण देकर उन्हें दान में भूमि देना प्रारंभ कर दिया किन्तु, धीरे-धीरे इन पुरोहितों का भी व्यवहार जमींदारों जैसा हो गया।
- इसी तरह, जब कई मुंडा जनजाति के लोग परेशान होकर ईसाई मिशनरियों की शरण ली। अपने अधिकारों के वापस मिलने तथा अपने हितों की रक्षा होने के आश्वासन पर इनलोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार करना शुरू कर दिया। परंतु, इनकी आशाओं के विपरीत आवश्यकता पड़ने पर इनका साथ नहीं दिया। अब मुंडा लोगों को किसी पर विश्वास नहीं रहा तथा पूर्ण रूप से उनका मोह भंग हो चुका था। इसी समय बिरसा ने मुंडा जनजाति के लोगों को एकेश्वरवाद की ओर आकृष्ट किया और बताया कि सिंगबोंगा की दया से समाज में पुनः एक आदर्श व्यवस्था आएगी और शोषण एवं उत्पीड़न का काल समाप्त हो जाएगा । इन विचारों से प्रभावित होकर वे इन क्षेत्रों से दिकुओं को बाहर निकालने के लिए उन पर आक्रमण करना शुरू कर दिया ।
आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक असंतोष के अलावा राजनीतिक क्षेत्रों में भी किया गया हस्तक्षेप भी मुंडा विद्रोह का कारण बना मुंडा जनजाति मुंडा मानकी प्रथा के तहत् शासित होते थे। मुंडा मानकी शासन व्यवस्था में प्रमुख पदाधिकारी होते थे :
मुंडा मानकी शासन व्यवस्था में प्रमुख पदाधिकारी
- (i) मुंडा : मुंडा गाँव का प्रधान होता था। यह प्रशासन का कार्य स्थानीय स्तर पर करता था । परती जमीन का भी यह बंदोबस्ती कर सकता था
- (ii) डाकुआ- डाकुआ मुंडा का सहायक होता था। डाकुआ के द्वारा ही मुंडा गांव वालों को बैठक की सूचना देता था ।
- (iii) मानकी- 15-20 गाँवों के मुंडाओं के ऊपर एक मानकी होता था। यह पंचायतों का प्रभुत्व होता था। यह मुंडाओं से लगान वसूलता था तथा इनकी शिकायतों को सुनता था ।
- (iv) तहसीलदार : यह मानकी का सहायक होता था। तहसीलदार के माध्यम से ही मुंडाओं से मालगुजारी वसुलता था.
- जब इन क्षेत्रों में अंग्रेजों, जमींदारों अन्य बाहरी लोगों का हस्तक्षेप बढ़ा, तब मुंडा राजनीतिक व्यवस्था भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगी । जो नई प्रशासन इन क्षेत्रों में लागू किया गया, वे इनके लिए शोषणकारी था, जिसका परिणाम अंततः विद्रोह के रूप में सामने आया ।
मुंडा आंदोलन का स्वरूप एवं विस्तार :
- यह आंदोलन विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया गया था, इसलिए इसका स्वरूप भी मिश्रित था इस आंदोलन का उद्देश्य आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक परिवर्तन तथा धार्मिक पुनरुत्थान जैसे विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करना था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि यह आंदोलन एक नया धर्म, नवीन दर्शन, नवीन आचार संहिता और उन्होंने जो खो दिया था, उसे फिर से प्राप्त करने का एक कार्यक्रम था। इसलिए इसे पुनरुत्थानवादी आंदोलन के रूप में भी देखा जाता है.
- सरदारी आंदोलन के विपरीत बिरसा मुंडा का आंदोलन उग्र और हिंसक था। प्रारंभिक बिरसा अहिंसक था, किन्तु बाद का बिरसा क्रांतिकारी तथा विद्रोही था। इसने अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए धर्म का भी सहारा लिया और अपने आपको एक ईश्वर के रूप में भी प्रस्तुत किया, जो आर्शीवाद एवं श्राप भी देने का काम करता था.
- इसने आंदोलन को जनांदोलन का स्वरूप देने का प्रयास किया, जिसमें महिलाओं, बुजुर्गों तथा नवयुवकों की प्रमुख रही । नवयुवकों की शक्ति को बिरसा ने पहचान कर आंदोलन की विभिन्न जिम्मेवारियाँ उसे प्रदान की। इसी तरह गया मुंडा की पत्नी माकी ने डोम्बारी पहाड़ के समीप उपायुक्त स्ट्रीटफिल्ड की सेना का सामना जिस वीरता से किया, उसकी प्रशंसा कई विद्वानों ने किया है.
- बिरसा के नेतृत्व में चलाए गए आंदोलन का विस्तार जल्दी ही छोटानागपुर क्षेत्र के कई हिस्से में हो गया शोषकों से आजादी के लिए मुंडा जनजाति को कई अन्य शोषितों से भी सहयोग मिला । बिरसा सेना के सदस्य खूँटी, राँची, चक्रधरपुर, बुंडु, तमाड़, कर्रा, तोरपा, बयिा तथा सिसई आदि क्षेत्रों में फैले हुए थे। इसकी सेना का मुख्यालय खूँटी में था.
- विद्रोह की विकरालता तथा इसके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ब्रिटिश प्रशासन ने कठोर कार्रवाई इसके खिलाफ करनी शुरू कर दी। 8 जनवरी, 1900 को राँची के आयुक्त, उपायुक्त एवं अन्य अधिकारी सैनिकों की दो कंपनियों के साथ खूंटी पहुँचे सरवदा के निकट कैप्टन रोच के द्वारा विद्रोही पराजित हुए, लेकिन वे सैलरकाब में जमा होने लगे। ब्रिटिश सेना ने उनका पीछा किया 19 जनवरी को उपायुक्त स्ट्रीटफिल्ड ने विद्रोहियों को समर्पण करने का आदेश दिया, लेकिन विद्रोहियों ने ऐसा न कर संघर्ष किया, जिससे लगभग 200 पुरुष, औरतें और बच्चे मारे गए। करीब 300 लोग बंदी बना लिए गए धीरे-धीरे आंदोलन कमजोर पड़ता गया ।
- कई आंदोलन के नेताओं ने आत्म-समर्पण कर दिया या उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अंततः बिरसा को भी धोखे से अंग्रेजों ने 3 मार्च, 1900 ई० को गिरफ्तार कर लिया और अंततः जेल में ही बिरसा की मृत्यु हैजा की बीमारी से राँची के जेल में हो गया, हालांकि कुछ अन्य लोगों का मानना है कि इन्हें जहर देकर जेल में मार डाला गया ।
मुंडा आंदोलन का विस्तार :
- यह सही है, कि आधुनिक हथियारों एवं कूटनीति के सामने परंपरागत हथियार नहीं टिक पाए और अंग्रेजों ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर बिरसा आंदोलन को कुचल दिया, लेकिन इस आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने इस आंदोलन की प्रशंसा की और देशवासियों को बिरसा के त्याग से प्रेरणा लेने को कहा। इंगलिशमैन, पायोनियर एवं स्टेट्समैन जैसे अखबारों में इस आंदोलन को कुचलने की आलोचना की गई ।
- ब्रिटिश सरकार भी आंदोलन की विकरालता को देखकर सहमी हुई थी । अतः इसने विद्रोह के मुख्य कारणों की समीक्षा कर इसे समाप्त करने का प्रयास किया। छोटानागपुर के आयुक्त फोबेर्स ने इस आंदोलन के पीछे सदियों का अत्याचार देखा और इसलिए उसने राँची जिला में जमीन की पूर्ण पैमाइश और बंदोबस्त करने तथा बेठ बेगार को समाप्त करने के लिए अनुशंसा की।
- इसी तरह, जब छोटानागपुर में जॉन रीड के नेतृत्व में सर्वे एवं सेटलमेंट रिपोर्ट तैयार किया गया, जिसमें सामंतवादी चर्च तथा अंग्रेजी नौकरशाही की मिलीभगत का पर्दाफाश हुआ ।
- इस आंदोलन के परिणामस्वरूप प्रशासन को और संगठित रूप से संचालित करने का प्रयास इन क्षेत्रों में किया गया । गुमला एवं खूँटी दो नये अनुमंडलों का निर्माण किया गया । उसका उद्देश्य या प्रशासन को लोगों तक ले जाना और मुंडा एवं अन्य जनजातीय लोगों के बीच पैदा हुए असंतोष को दूर करने के लिए ठोस व्यवस्था करना बिरसा आंदोलन के ही परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों के काश्तकारी अधिनियम में भी परिवर्तन किया गया।
- अब इन क्षेत्रों में बंगाल काश्तकारी अधिनियम के स्थान पर नवंबर, 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी कानून लागू किया गया। इसमें स्थानीय परंपरागत अधिकारों का समावेश किया गया तथा जनजातियों के पुश्तैनी भूमि के अधिकार को मान्यता दी गई अर्थात् खुंटकूटी कृषि व्यवस्था को कानूनी मान्यता मिल गई ।
- इस आंदोलन से आदिवासियों ने पहली बार यह अनुभव किया कि वे अपने सभी आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं का समाधान तभी निकाल सकते हैं, जब उन्हें राजनतिक स्वतंत्रता भी प्राप्त हो जाए । दूसरे शब्दों में, यह भी कहा जा सकता है, कि बिरसा आंदोलन ने छोटानागपुर के क्षेत्र में जनजातियों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन का आधार तैयार किया। इसका प्रभाव ताना भगत आंदोलन पर भी जबर्दस्त रूप से पड़ा।
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