नाटक का अर्थ ।नाटक के तत्व अर्थ व्याख्या । Natak Ka Arth Tatv Vaykhya
नाटक का अर्थ , नाटक के तत्व अर्थ व्याख्या
नाटक क्या है ?
नाटक अत्यंत प्राचीन विधा है, इसलिए हम सर्वप्रथम इस पर विचार करेंगे ।
- आपने बचपन में अपने मोहल्ले, गाँव था शहर में कुछ नाटक देखे होंगे। और नहीं तो त्यौहार के दिनों में रामलीला, रासलीला आदि को देखा ही होगा। ये भी नाटक के पुराने प्रकार हैं। रामलीला, रासलीला आदि को देखकर यह बात तो आपकी समझ में आयी ही होगी कि इनमें किसी महापुरुष के जीवन की घटनाओं का अनुकरण किया जाता है। जो कलाकार इन घटनाओं का अनुकरण कर इन्हें हमारे सामने पेश करते हैं, उन्हें 'अभिनेता' कहते हैं।
- वास्तव में नाटक के मूल में अनुकरण या नकल का भाव है। यह शब्द 'नट्' धातु से बना है। 'नाटक' रूपक का एक भेद है। संस्कृत के आचार्यों ने 'रूपक' को भी 'काव्य' के अन्तर्गत रखा है। पर उन्होंने 'काव्य' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया है। आज जिस अर्थ में हम 'कविता' शब्द का प्रयोग करते हैं, 'काव्य' शब्द का प्रयोग प्राचीन आचार्यों ने ठीक उसी अर्थ में नहीं किया है। उनके अनुसार 'काव्य' में कविता ही नहीं, नाटक भी सम्मिलित है ।
क्या नाटक दृश्य-काव्य है
- कान से सुनने (श्रवण ) और आँख से देखने (दृष्टि) के आधार पर काव्य के दो भेद किये गये हैं श्रव्य-काव्य और दृश्य-काव्य । जिन रचनाओं का आनंद मुख्य रूप से सुनकर लिया जाता है वे श्रव्य काव्य के अन्तर्गत आती है। इस दृष्टि से कविता, कहानी, उपन्यास आदि श्रव्य-काव्य है । जिन रचनाओं की रचना प्रमुख रूप से धड़ (आँख) के आधार पर की जाती है और जिनका आनंद देखकर लिया जाता है उन्हें दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक इसी वर्ग की रचना है, अतः यह दृश्य-काव्य है ।
नाटक में इन सात बातों का होना आवश्यक है
दृश्य-काव्य होने के कारण नाटक की वास्तविक सफलता मंच पर खेले जाने में है। किसी नाटक को मंच पर देखकर या पढ़कर आप पाते हैं कि-
1) उस नाटक में किसी घटना का चित्रण है।
2) यह घटना कुछ व्यक्तियों के जीवन में घटित हुई है
3) यह घटना किस काल अर्थात् समय में घटित हुई है ।
4) जिन व्यक्तियों की कथा नाटक में है, वे आपस में या स्वयं से वार्तालाप करते हैं और वार्तालाप का आधार है भाषा
5) नाटक के लिखने का कोई स्थान या देश है।
6) नाटक लिखने का कोई न कोई कारण है।
7) लिखा हुआ नाटक रंगमंच पर खेला जाता है जिसे 'अभिनय' कहते हैं ।
किसी भी नाटक में इन सात बातों का होना आवश्यक है। इन्हें हम नाटक के तत्व कहते हैं। इनके निम्नलिखित नाम हैं :
नाटक के तत्व
1) कथावस्तु
2) पात्र या चरित्र चित्रण
3) देशकाल या परिवेश
4) संवाद और भाषा
5) शैली
6) अभिनेता
7) उद्देश्य
नाटक के इन तत्वों के आधार पर अब हम नाट्य विधा का विवेचन करेंगे, किन्तु अंतर यह है कि संवाद, भाषा और शैली को हमने एक ही नाम दिया है "संरचना शिल्प" । साथ ही, उद्देश्य के लिए हमने प्रतिपाद्य शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझा है इस पाठ में हम नाटक के तत्वों को निम्नलिखित नाम से विवेचित कर रहे हैं
नाटक के तत्व और उनके अर्थ
1) कथावस्तु
2) चरित्र चित्रण
3) परिवेश
4) संरचना शिल्प
5) अभिनेयता और
6) प्रतिपाद्य
नाटक के तत्वों के विषय में विस्तृत जानकारी
कथावस्तु का अर्थ एवं व्याख्या
- कथावस्तु का अर्थ है नाटक में प्रस्तुत घटनाचक्र यह घटनाचक्र विस्तृत होता है और इसकी सीमा में नाटक की स्थूल घटनाओं के साथ पात्रों के आचार-विचारों का भी समावेश है।
- आपने शायद प्रसाद जी के चंद्रगुप्त नाटक का अध्ययन किया होगा। इस नाटक में तीन प्रमुख घटनाएँ है। अलकेंद्र का आक्रमण, नंदवंश का उन्मूलन और सिल्यूकस का पराभव । इस प्रकार उस नाटक की कथावस्तु घटनाबहुल है। "चंद्रगुप्त" नाटक में नंद-वंश के उन्मूलन से चंद्रगुप्त के राज्याभिषेक तक बहुत सारी घटनाएँ घटती है। नाटक में स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार की घटनाएँ होती है।
- जो घटनाएँ मंच पर दिखायी जाती हैं, उन्हें "दृश्य" तथा जिनकी केवल सूचना दी जाती है उन्हें "सूच्य" कहते हैं। नाटक की कथावस्तु ठोस और सुसंबद्ध होनी चाहिए।
- इस नाटक की घटनाएं, प्रसंग या स्थितियाँ, परस्पर सुसंबद्ध है और नाटक के मूलभाव एवं चरित्र को उजागर करने में सहायक हैं। घटनाक्रम के द्वारा इतिहास की संगति एवं नाटक के पात्रों के चरित्र विकास का सामंजस्य होता चला है।
- नाटक के पहले अंक में ही तक्षशिला के गुरूकुल में युवकों की मंडली द्वारा राजनीतिक क्रांति का प्रयत्न दिखाया गया है। वहीं से मैत्री, प्रेम और विरोध का आरंभ होता है। फिर विपक्षी दल का परिचय मिलता है। क्रमानुसार विरोधी दलों का सामना होता है और विरोध की जटिलता बढ़ती है।
नाटक की कथावस्तु के विकास की दृष्टि से डॉ० गोविन्द चातक ने इसके पाँच भाग स्वीकार किये हैं वे है :
1) प्रारंभ
2) नाटकीय स्थल
3) बन्द्र
4) चरम सीमा
5) परिणति
1) प्रारंभः
- नाटककार को प्रारंभ पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इस भाग में नाटक की कथावस्तु हमारे सामने आती है। इसका प्रारंभ कौतूहल एवं जिज्ञासा युक्त होना चाहिए। चंद्रगुप्त नाटक का आरंभ भन्द एवं कौतुहलपूर्ण है। पाठक नाटक को पढ़ने के लिए आकर्षित होता है। नाटक का प्रारंभ तक्षशिला से हुआ है। तक्षशिला की प्रकृति मनोरम है और सांस्कृतिक दृष्टि से इसका महत्व है। गुरुकुल के भव्य वातावरण ने आरंभ को आकर्षक बना दिया है। चाणक्य जैसे आचार्य, सिंहरण एवं चंद्रगुप्त जैसे वीर राजकुमार छात्रों का योग, उनके ओजस्वी संवाद तलवार की लपक झपक देखते ही बनती है ।
2) नाटकीय स्थल
- कथा के वे भाग जिनमें घटनाएँ ऐसा मोड़ लेती कि जिनकी दर्शक को पहले से कल्पना नहीं होती और जिनसे वह कौतूहल का अनुभव करता है, नाटकीय स्थल कहलाते है। कथावस्तु के इस भाग में नाटक के पात्र परिस्थिति विशेष में उलझ जाते हैं। नंद की सभा में चंद्रगुप्त की आँखों के सामने चाणक्य का तिरस्कार और अपमान होता है। चंद्रगुप्त की भी निंदा होती है। यहीं से नाटकीय स्थल प्रारंभ होता है ।
3) द्वंद
- नाटक में द्वंद का विशेष महत्व है। द्वंद्व बाह्य भी हो सकता है और आंतरिक भी । प्रसाद ने "चंद्रगुप्त" में इन दोनों प्रकार के द्वंद्धों की सुंदर योजना की है। नंद द्वारा तिरस्कृत चाणक्य एवं चंद्रगुप्त मिलकर नंद वंश को समाप्त करने की योजना बनाते हैं। यही से पात्रों में संघर्ष शुरू होता है और द्वंद्व का जन्म होता है । नाटकीय स्थल और द्वंद्व का समावेश कुछ आलोचकों ने "विकास " के अंतर्गत किया है ।
4) चरम सीमा
- द्वंद्व के परिणामस्वरूप नाटक चरम सीमा पर पहुँचता है। चन्द्रगुप्त में चाणक्य की कूटनीति से नंद वंश का नाश होता है। सिल्यूकस और चन्द्रगुप्त की मैत्री से युद्ध समाप्त हो जाता है और भारतीय शांति का अनुभव करते हैं। चंद्रगुप्त को प्रजा राजा बना लेती है। यही इस नाटक की चरम सीमा है ।
5) परिणति
- नाटक के अंतिम भाग में परिणति की योजना की जाती है। अंत में नायक फल की प्राप्ति करता है और कोई जिज्ञासा शेष नहीं रह जाती। "चंद्रगुप्त को राज्य और नायिका की प्राप्ति तो होती ही है, वह भारत को शत्रुओं के भय से मुक्त कराने में भी सफल होता है ।
नाटक में चरित्र चित्रण
- नाटक में यों तो पात्रों की संख्या अधिक होती है, किंतु सामान्यतः एक-दो पात्र ही प्रमुख होते हैं । किसी नाटक के प्रधान पुरुष पात्र को नायक और प्रधान अथवा मुख्य स्त्री-पात्र को नायिका कहते हैं। चरित्र प्रधान नाटक में नाटक की कथावस्तु एक ही पात्र के इर्दगिर्द घूमती है। उदाहरण के लिए प्रसाद के नाटक "ध्रुवस्वामिनी" में प्रधान पात्र ध्रुवस्वामिनी एवं चंद्रगुप्त हैं। नाटक का सारा कार्य व्यापार उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता है और अंत में फल की प्राप्ति भी उन्हीं को होती है। यों नायिका प्रधान नाटक होने के कारण "ध्रुवस्वामिनी" को इस नाटक का प्रमुख पात्र स्वीकार किया जाता है ।
- नाटक में चरित्र के विकास के लिए नाटककार पात्रों के अनुरूप संवादों योजना करता है। पात्रों के वार्तालाप द्वारा उनके चरित्र को उजागर किया जाता है। पुराने नाटकों में पात्रों के मानसिक सोच विचार के लिए एक विधि अपनाई जाती थी, जिसे "आकाश भाषित" कहा जाता था। पात्र दर्शकों के सुभीते के लिए स्वयं ही ज़ोर से पूछ लेता था "क्या कहा" ? अमुक बात फिर स्वयं ही उस प्रश्न का उत्तर भी दे देता था। समकालीन नाटकों में वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से इसे भिन्न रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जो अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
- पात्रों के कार्यों एवं उनके पारस्परिक वार्तालाप से उनके चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। जब कोई पात्र किसी अन्य पात्र के विषय में कोई बात कहता है तो उससे भी चरित्र चित्रण में सहायता मिलती है। आप "चंद्रगुप्त नाटक में चंद्रगुप्त के चरित्र को देखें। उसके कार्य से ही नहीं, उसके विषय में अन्य पात्रों के कथनों से भी उसकी वीरता पर प्रकाश पड़ता है। द्वंद्व के लिए वह सदैव प्रस्तुत रहता है, वह स्वाभिमानी है, वह दृढ़ प्रतिज्ञ है, अपने इष्ट साधन के लिए वह सिंकदर जैसे यशस्वी की सहायता भी स्वीकार नहीं करता । शत्रु-पक्ष भी उसकी वीरता की प्रशंसा करता है ।
नाटक में परिवेश
- परिवेश से मतलब है देश काल । किसी भी नाटक में वर्णित घटनाओं का संबंध किसी स्थान एवं काल से होता है । नाटक में यर्थाथता, सजीवता एवं स्वभाविकता लाने के लिए यह जरूरी है कि नाटककार घटनाओं का यथार्थ परिवेश चित्रित करे। ग्राम से संबंधित नाटक में ग्राम के परिवेश का चित्रण आवश्यक है, जैसे घर, नदी-नाले, खेत-खलिहान, प्रकृति, लोगों का पहनावा, चाल-ढाल आदि गाँव के अनुसार होने चाहिए। इसी प्रकार यदि घटना शहर की हो तो वहाँ के वास्तविक परिवेश का चित्रण अधिक स्वाभाविक होगा ।
- नाटककार के लिए समय या काल का ध्यान रखना भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए "चंद्रगुप्त" नाटक को ही लें। इसमें सिकंदर के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक स्थिति का यथार्थ चित्रण हुआ है। उस समय छोटे-छोटे राज्यों में परस्पर शत्रुता थी। नंद ही शक्तिशाली राजा था। नाटक में तत्कालीन धार्मिक स्थिति का भी यथार्थ चित्रण हुआ है। तक्षशिला उस समय का सिद्ध शिक्षा केंद्र था। उसका भी इसमें यथार्थ चित्रण है ।
- निष्कर्ष यह है कि नाटककार के लिए अपने नाटक में वर्णित घटना के समय एवं परिवेश की सही जानकारी रखना आवश्यक है, अन्यथा नाटक में अस्वाभाविकता आ जाएगी ।
नाटक में संरचना - शिल्प
इसमें हम नाटक की शैली, भाषा और संवाद की चर्चा करेंगे ।
शैली
रंगमंच की दृष्टि से नाट्य की कई शैलियाँ हैं जैसे भारतीय शास्त्रीय नाट्य शैली, पाश्चात्य नाट्य शैली। इसके अतिरिक्त विभिन्न लोक-नाट्य शैलियौं भी हैं जैसे स्वांग, जात्रा, रामलीला, रासलीला आदि ।
- प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से भी नाटक की कई शैलियाँ होती हैं—जैसे गली-मुहल्लों में, बिना रंगमंचीय उपकरणों की सहायता से खेले जाने वाले नाटकों की नुक्कड़ शैली कविताओं पर आधारित नाटक या ऐसे नाटक जिनमें काव्य या गीति तत्व की प्रमुखता हो गीतिनाट्य शैली ।
- आजकल नाटक और रंगमंच में विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यशैलियों के सम्मिश्रण के प्रयोग भी किए जाते हैं, जिन्हें किसी एक शैली में रखना संभव नहीं है ।
- वास्तव में नाट्यशैली का निर्धारण उसी समय हो जाता है जब नाटककार नाट्यालेख की रचना करता है, क्योंकि नाटककार की रचना प्रक्रिया में रंगमंच भी शामिल रहता है। स्पष्टतः नाटक लिखते समय नाटककार उसे अपने मन के रंगमंच पर अभिनीत होते हुए देखता भी है ।
नाटक में संवाद
- नाटक के विभिन्न पात्र एक दूसरे से जो वार्तालाप करते हैं, उन्हें संवाद कहते हैं। संवादों के द्वारा नाटक की कथा आगे बढ़ती है; नाटक के चरित्रों पर प्रकाश पड़ता है। नाटक में स्वगत-कथन भी होते हैं। स्वगत कथन में पात्र स्वयं से ही बात करता है। इनके द्वारा नाटककार पात्रों की मानसिक स्थिति का चित्रण करता है। किन्तु आवश्यकता से अधिक लंबा स्वगत-कथन नाटक में शिथिलता ला देता है हमने आरंभ में ही बताया है कि नाटक दृश्य विधा है। दर्शक रंगमंच पर नाटक का अभिनय होते हुए देखते हैं, इसलिए नाटक के संवाद रंगमंच की विशेषताओं से युक्त होने चाहिए ।
- "चंद्रगुप्त" नाटक की संवाद योजना देखने पर लगता है कि इस नाटक के संवादों से कथावस्तु आगे बढ़ती है । अर्थशास्त्र से लेकर तक्षशिला की राजनीति पर दृष्टि रखने तक की बात बढ़ती चली गयी है। आइए, एक उदाहरण देखें :
उदाहरण
आरंभ के दृश्य
- चाणक्य- "केवल तुम्ही लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ठहरा था।" सिंहरण "आर्य, मालवों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी शस्त्रज्ञान की हैं, चाणक्य "अच्छा तुम अब मालवा में जाकर क्या करोगे ?" सिंहरण-"अभी तो मैं मालवा नहीं जाता । मुझे तो तक्षशिला की राजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।"
- संवाद पात्रों के अनुकूल एवं स्वाभाविक हो । काल, परिस्थिति एवं पात्रों की स्थिति को ध्यान में रखकर संवादों की योजना करनी चाहिए। ऐतिहासिक नाटकों में उस युग के अनुकूल भाषा होनी चाहिए। अगर मुग़ल काल की कथा है तो उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग होना चाहिए और यदि गुप्तकाल की कथा है तो संस्कृत-निष्ठ भाषा का प्रयोग होना चाहिए ।
नाटक में भाषा
- नाटककार के लिए यह जरूरी है कि अपनी रचना में वह ऐसी भाषा का प्रयोग करे कि जिसमें स्वाभाविकता, रोचकता तथा सजीवता हो । विषय के अनुरूप भाषा का प्रयोग आवश्यक है। उदाहरण के लिए "चंद्रगुप्त" नाटक में संस्कृतनिष्ठ भाषा स्वाभाविक है। नाटक में स्वाभाविक बातचीत के रूप में भाषा का प्रयोग अपेक्षित है ।
नाटक में अभिनेता
- कोई भी नाटककार नाटक की रचना रंगमंच पर खेले जाने के लिए ही करता है। रंगमंच पर खेला जाकर ही एक नाटक पूर्ण होता है। रंगमंच पर नाटक की प्रस्तुति जिस व्यक्ति के निर्देशन में संपन्न होती है, उसे निर्देशक कहते हैं । निर्देशक रंगमंचीय उपकरणों एवं अभिनेताओं के द्वारा उस नाटक को प्रेक्षकों (नाट्य-दर्शकों) के सामने प्रस्तुत करता है। इस प्रकार एक नाटक की यात्रा नाटककार से आरंभ होकर निर्देशक एवं अभिनेताओं से होती हुई प्रेक्षकों तक पहुँच कर पूर्ण होती है ।
- रंगमंचीयता अथवा अभिनेयता को नाटक का प्राण माना जाता है। पात्रों की आकृति, आयु, वेशभूषा, चाल-ढाल, हाव-भाव आदि का उल्लेख नाटककार कोष्ठक में करता चलता है-इसे 'रंग-निर्देश' कहते हैं। नाटक की मंचीय प्रस्तुति में रंग-निर्देशों से सहायता मिलती है ।
नाटक में प्रतिपाद्य
सफल नाटककार अपने नाटक के द्वारा गंभीर प्रतिपाद्य या उद्देश्य को हमारे सामने रखता है । नाटक की कथावस्तु पात्र परिवेश, शिल्प आदि तत्वों से महत्वपूर्ण है उसका प्रतिपाद्य । अनेक नाटककारों ने स्वयं अपने नाटकों के प्रतिपाद्य अथवा दृश्य की चर्चा की है। उदाहरण के लिए प्रसाद जी ने "चंद्रगुप्त", "विशाख" आदि ऐतिहासिक नाटकों के लिखने के उद्देश्य पर प्रकाश डाला. है। उन्होंने "विशाख" (प्रथम संस्करण) की भूमिका में कहा है :
- 'इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है. 'मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। " निःसंदेह किसी नाटक के लिए प्रतिपाद्य का महत्व बहुत अधिक है। प्राचीन आचार्यों ने प्रतिपाद्य के स्थान पर "रस" शब्द का प्रयोग कर नाटक में उसी को सर्वोपरि माना था ।
- नाटक में नाटककार जो कहना चाहता है, उसे प्रतिपाद्य या उद्देश्य कहते हैं। किसी भी नाटक के प्रतिपाद्य को समझने के लिए यह जरूरी है कि पहले हम नाटक को अच्छी प्रकार समझें, फिर उसके संदेश को पहचाने और उसके बाद नाटक के साहित्यिक एवं सामाजिक मूल्य का निर्णय करें ।
1) सुखांत वे नाटक जिनका अन्त सुख में होता है ।
2) दुखांत नाटक जिनका अंत दुःख में होता है ।
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