मध्य प्रदेश के प्राचीन नगर। ऐतिहासिक भूगोल की दृष्टि मध्यप्रदेश के महत्वपूर्ण नगर ।Old City of MP
मध्य प्रदेश के प्राचीन नगर, ऐतिहासिक भूगोल की दृष्टि मध्यप्रदेश के महत्वपूर्ण नगर
ऐतिहासिक भूगोल की दृष्टि से निम्नलिखित नगरों का विशेष महत्व है।
मध्य प्रदेश के प्राचीन नगर- सामान्य परिचय
- महेश्वर -मालवा एवं नर्मदा का घाटी नगर (प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक)
- विदिशा -ईसा पूर्व लगभग पांचवी शताब्दी का विख्यात नगर
- उज्जयिनी - ईसा पूर्व लगभग पांचवी छठी शताब्दी का विख्यात नगर
- एरण -ईसा पूर्व लगभग दूसरी शताब्दी का नगर (मालवा का सीमान्त नगर)
- धार- दसवीं ईस्वी लगभग का नगर
- दशपुर- दसवीं ईस्वी लगभग का नगर
- मांडू -दसवीं ईस्वी लगभग में प्रारंभ किंतु पंद्रहवीं शती में पुर्नस्थापित
- इंदौर- अठारहवीं शताब्दी में विकसित नगर
- भोपाल- अठारहवीं शताब्दी में विकसित नगर
- मालवा की समृद्ध भूमि के सभी कालखण्डों के सभी नगरों के वर्णन संभव नहीं है। उपर्युक्त तालिका में दिये गये नगरों में से अधिकतर मालवा के किसी न किसी राजवंश की राजधानी रहे हैं पर ये नगर शिक्षा और व्यापार इत्यादि के भी बड़े केन्द्र थे। मालवा में बहुत से ऐसे नगर हुये हैं जिन्हें पुरातत्वविद् अपने समय के महानगर में गिनते है उदाहरण के लिये मालवा का भोजपुर ( 23°6' उत्तरी अक्षांश एवं 70°38' पूर्वी देशांश) जिसे उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाता है। यहाँ का शिवमंदिर (दसवीं शती) प्रसिद्ध है।
- भोपाल से भोजपुर होते हुये एक अन्य परमार कालीन नगरी आशापुरी पहुंचा जा सकता है यह भोजपुर से मात्र छह किलोमीटर दूर है। यहाँ पर स्थित मंदिरों के भग्नावशेषों से पता चलता है कि यह एक प्राचीन नगर था। विदिशा के समीप स्थित कागपुर भी एक प्राचीन नगर था, अब यह एक ग्राम है जहाँ पर परमार कालीन मंदिरों के खंडहर हैं। इस तरह मालवा के नगरों की संख्या बहुत अधिक है।
विदिशा का इतिहास
विदिशा दशार्ण की राजधानी विदिशा वेत्रवती (बेतवा) नदी के तट पर बसी है।
कालिदास 'मेघदूत' में लिखते है:
'तेशां दिक्षु, प्रथित विदिशा लक्षणां राजधानी
गत्वा सद्यः फलम विकलं कामुकत्वस्य लब्धा'
- (उसी दशार्ण की सारी दिशाओं में प्रसिद्ध विदिशा नाम की राजधानी है, वहाँ पहुंचते ही तुम्हारा रसिया रूप (हे मेघ) सफल हो जायेगा)। प्राचीन भारत में विदिशा विशिष्ट नगरी थी। यह नाम उसकी विशिष्ट भौगोलिक दिशा में स्थित होने कारण मिला था। 'वि-दिशा' की दिशा विशिष्ट तो थी ही प्रथित विदिशा दक्षणा उसे होना ही था। विदिशा उत्तराखण्ड से उज्जयिनी आने वाले मार्ग में बसी थी। पाटलिपुत्र जो शताब्दियों तक उत्तराखण्ड की राजधानी रहा, विदिशा से स्थल मार्ग द्वारा जुड़ा था। विदिशा पाटलिपुत्र से दक्षिण पश्चिम में था। उज्जयिनी से मथुरा और काशी जाने वाले मार्ग मालवा के इस प्रसिद्ध नगर से होकर ही जाते थे इतना ही नहीं पश्चिम समुद्रतट पर बसा भृगुकच्छ और उत्तराखण्ड के सभी प्रमुख नगर चाहे वे काशी, मथुरा या पाटलिपुत्र हों इसी नगर के माध्यम से जुड़े थे। विदिशा के प्राचीन व्यापारिक महत्व का आकलन उसकी भौगोलिक स्थिति से किया जा सकता है।
- वाल्मीकि रामायण, महाभारत और पुराणों में बिदिशा की समृद्धि का उल्लेख है। शत्रुघ्न ने अपने पुत्र सुबाहु को यह नगरी शासन के लिये सौंपी। विदिशा की बनी तलवारों की ख्याति बौद्ध ग्रंथों में है (दस्सणकं तिरिवणधारम्) हाथी दांत की बेशकीमती वस्तुयें यहाँ से तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय बाजारों, यरूशलम एवं मैम्फिस तक बेची जाती थीं। अज्ञातनामा ग्रीक मिस्री सौदागर पेरिप्लस उनका बखान करते नहीं थकता। हाथी दाँत की वैदिश कारीगरी विश्वविख्यात थी। ऐसा कहा जाता है कि इन्हीं कारीगरो की देखरेख में साँची, भरहुत के स्तूप द्वारों में सुंदर उत्कीर्णन किये गये थे। इन स्तूपों के रूपायित दृश्य अद्भुद रूप से महीन कारीगरी के नमूने हैं।
- मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र और बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने अवन्ति का शासन केन्द्र सम्हालने विदिशा में डेरा डाला जहाँ उसका विवाह हुआ, कालांतर में अशोक के पुत्र पुत्री यहाँ रूके। इस घटना को अमर बनाने के लिये निकट सांची तथा अन्य स्थानों पर स्तूपों का निर्माण किया गया।
- विदिशावासी सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने मगध जाकर क्रान्ति कर नया इतिहास बनाया। उसके अश्वमेध यज्ञ के अश्व की संरक्षिणी सेना की हरावल विदिशा के युवराज वसुमित्र ने सम्हाली। बीस वर्ष के वसुमित्र ने समर विजयी यवनों की दुर्दान्त सेना को भारत की सिन्धु तट की सीमा तक पराजय झेलते हुये पीछे हटने को विवश किया। 'अतिघोरे खलपुत्रक: सेनापतिना नियुक्तः' (सेनापति सम्राट पुष्यमित्र ने अत्यंत संकट का कार्य अपने पौत्र को सौंपा) । वसुमित्र ने खड्ग से यवनों की पीठ पर भारतीय वीरों की शूरता की कीर्तिगाथा लिखी। शुंग सम्राट पुष्यमित्र ने अपने पुत्र अग्निमित्र को अवन्ति का राज्यपाल नियुक्त किया जिसकी राजधानी विदिशा ही थी। अग्निमित्र को विदिशा का शासक बनाते समय पूरी स्वायत्ता प्रदान की गई, जिसे सभी अधिकार प्राप्त थे, यहाँ तक कि वैदेशिक नीति के संचालन में भी स्वतंत्रता । शुंग काल में विदिशा की इतनी महिमा बढ़ी कि इसी वंश के राजा कौत्सी पुत्र भागभद्र की राजसभा में यवन (ग्रीक) राज अन्तलिखिद् (अन्ति आल्किदस) का राजदूत दियपुत्र हेलियोदोर तक्षशिला से विदिशा आया था। यहाँ की धर्मप्राण शासन और प्रजा से प्रभावित होकर वह स्वयं वैष्णव हो गया तथा उसने विष्णु की अभ्यर्थना हेतु 'गरुड़' स्तंभ खड़ा किया जो अशोक के स्तंभ के बाद भारत का प्राचीनतम स्तंभ है।
- यह स्तंभ आज भी बेसनगर में बाईस शताब्दियों से खड़ा है, उस पर शुंग ब्राह्मी में प्राकृत भाषा में एक आलेख उत्कीर्ण है।
- विदिशा का प्राकृत नाम वेदिस नगर था। लगभग उसी समय जब हेलियोदोर में गरूड़ स्तंभ खड़ा किया था, तभी भारतीय मूर्तिकला के प्राचीनतम प्रतिमानो में बेसनगर की वह विशाल यक्षी की मूर्ति भी निर्मित की गई जो बड़ोदा, परखम, पटना, आदि की यक्ष मूर्तियों की समकालीन हैं।
- इतिहास में शक विध्वंसक सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयों की गाथा उदयगिरि की गुफायें कहती हैं। ये गुफायें विदिशा के निकट हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय का युद्ध मंत्री शाब शैव था किंतु उसने पृथ्वी के उद्धारकर्ता विष्णु वराह की ओजस्वी मूर्ति शिल्प भित्ति पर उभार कर उस भारतीय मानसिकता का परिचय दिया जो तुलसीदास की रामकथा में शिववन्दना के रूप में मिलती है।
- विदिशा के सामान्य नागरिकों ने अपने सर्वधर्म सहिष्णु शुंग राजाओं की परम्परा का निर्वहन करते हुये सांची और भरहुत के स्तूपों और बिहारों के निर्माण में आर्थिक योगदान दिया।
उज्जयिनी का भौगोलिक इतिहास
- वर्तमान उज्जैन नगर समुद्र सतह से 7,678 फीट की ऊँचाई पर बसी हुई है। इसकी स्थिति 23°11' : उत्तरी अक्षांश एवं 75°50' पूर्वी देशांश है।
- उज्जैन प्राचीनतम काल से खगोल विज्ञान, ज्योतिष तथा अन्य अनेक विद्याओं का केन्द्र था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वासुदेव कृष्ण और बलराम ने यहाँ शिक्षा ग्रहण की थी। विद्याकेन्द्र के रूप में इस नगर की परंपरा अक्षुण्ण रही।
- मुगल काल में भी जब उज्जैन मालवा सूबे की राजधानी थी तब 18वीं शती के तीसरे दशक के आरंभ में, सवाई जयसिंह जो मुगलों की ओर से मालवा के सूबेदार थे, ने यहाँ एक विशाल वेधशाला बनवाई।
- भारत के सर्वाधिक मान्य संवत् विक्रम एवं शक यहाँ से ही प्रारंभ किये गये थे। उज्जयिनी सदा से विद्वानों की नगरी रही है।
- उज्जैन का प्राचीन नाम उज्जयिनी है जिसका अर्थ उत्जयनी अर्थात् उत्कर्ष के साथ विजय करने वाली होती है।
- डॉ. भंडारकर के अनुसार उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी थी तथा दक्षिण की माहिष्मती।
- स्कंदपुराण के अनुसार उज्जयिनी के प्रत्येक कल्प मे अलग नाम थे, इनकी संख्या 6 है। उज्जैन में सिंहस्थ महापर्व मनाने की अत्यंत प्राचीन परंपरा है।
- उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ कब से हो रहा है इसका ठीक-ठीक संवत् अथवा वर्ष बतलाना दुष्कर है, परन्तु 1732 ईस्वी में वह शुभ घड़ी उपस्थित हुई जब साधनो की कमी होते हुये भी मराठा शासक राणोजी शिन्दे की आज्ञा से सिंहस्थ सुचारू रूप से मनाने की व्यवस्था हुई।
- उज्जैन ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर स्वयंभू माने गये से हैं। उज्जैन महाकाल की नगरी है। प्राचीन आहत सिक्कों पर वे अंकित हैं। ईस्वी पूर्व छठी सदी में उनका एक विशाल मंदिर अवन्तिका में होने के साक्ष्य है।
- परमार काल में वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया था, किंतु दुर्भाग्यवश सन् 1235 ईस्वी में दिल्ली के गुलामवंश के सुल्तान शमशुद्दीन इल्तुतमश ने अपने उज्जैन आक्रमण के समय उसे तुड़वा दिया।
- महाकालेश्वर का वर्तमान मंदिर उज्जैन के प्रथम मराठा शासक राणोजी शिन्दे के धर्मप्राण दीवान रामचन्द्र बाबा शेणवी द्वारा प्राचीन स्थल पर ही अठारहवीं सदी के चतुर्थ दशक में निर्मित कराया गया।
- उज्जयिनी ईसा पूर्व शताब्दियों में ही एक विकसित नगर के रूप में विख्यात हो चुकी थी। बौद्ध युग में यह चण्डप्रद्योत की नगरी थी। उज्जयिनी के प्रारंभिक सिक्के दूसरी तीसरी शती के हैं जिन पर दण्डधारी शिव, लक्ष्मी, नंदी, चक्र कमल, सूर्य, वृक्ष, चैत्य का अंकन मिलता है। यहाँ से अनेक गुप्तकालीन तथा परमारकालीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
- उज्जयिनी का वर्णन अनेक प्राचीन संस्कृत कवियों ने किया है जिनमें कालिदास भी हैं। 'रघुवंश' एवं 'मेघदूत' में उज्जयिनी के मनोहारी वर्णन हैं। प्राचीन काल में उज्जयिनी देश की सभी प्रमुख राजधानियों से जुड़ी थी।
धार का भौगोलिक इतिहास
- धार परमार शासकों की कुल राजधानी थी। भोज ने इसकी तुलना ब्रह्मलोक से करते हुये लिखा है कि वहाँ पर खिल निगम का पाठन तथा पुराण, इतिहास, श्रुति एवं स्मृतियाँ पर व्याख्यान होते रहते हैं। मदन कवि ने धारा नगरी को संसार के अज्ञानान्धकार को शरद चंद्रिका के समान विनाश करने वाली कहा है। भोज ने यहाँ भोजशाला नाम की पाठशाला का निर्माण कराया था।
- यहाँ भोज ने विक्रम सम्वत 1091 मे वाग्देवी की जो प्रतिमा स्थापित कराई थी वह अब ब्रिटिश म्यूजियम में है। यहाँ से भोज द्वारा रचित कूर्मशतक के दो प्राकृत काव्य, दो खण्ड काव्य और खड्ग शतम् के शिलाखण्ड प्राप्त हुये। दोनों काव्यों के तीन तीन शिलाखण्ड शासकीय संग्रहालय धार में रखे गये हैं।
- पारिजातमंजरी नाटिका को भी इसी सरस्वती मंदिर की शिलाओं पर खोदा गया था, यह शिलाखण्ड अब भी सुरक्षित है। वाग्देवी की प्रतिमा के सामने एक स्तंभ पर वर्णमाला एवं व्याकरण के नियम खुदे हैं तथा बाई ओर के स्तंभ पर एक दूसरा सर्पबन्ध है जिसमें दो सर्पों का अंतगुंथन है, उसमें संस्कृत व्याकरण की धातु प्रत्ययमाला अंकित है।
दशपुर का इतिहास
- मालवा में प्रवाहित शिवना नदी के किनारे यह नगर स्थित था। वर्तमान में यह मंदसौर नगर है।
- मंदसौर में अलाउद्दीन खिलजी का बनवाया 14वीं शती का एक किला है, किले में पांचवी शती के मंदिरों के अवशेषों को देखा जा सकता है। इन खंडित मूर्तियों से इस नगर की प्राचीनता का पता चलता है।
मांडू
- माण्डू प्रथमतः परमार काल का नगर था, उस समय यह नगर मण्डप दुर्ग' शिक्षा का बड़ा केन्द्र था किंतु चौदहवीं सदी के पश्चात् मुस्लिम शासकों ने उसे नया रूप दिया। बाजबहादुर ने यहाँ पर महल बनवाये।
इंदौर:
- वर्तमान में इंदौर मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा नगर है। यह नगर केवल जनसंख्या की दृष्टि से ही नहीं वरन् अपने नगरीय प्रभाव क्षेत्र के विस्तार तथा औद्योगिक वाणिज्यिक स्तर की दृष्टि से भी एक महानगर है।
- इस नगर की नींव अठारहवीं शती के आरंभिक दशकों में पड़ी। पश्चिम मालवा का विशाल दक्षिणी भाग, मराठी सरदार मल्हारराव होल्कर प्रथम के आधिपत्य में जैसे ही आया वैसे ही पुराना इन्द्रपुर तेजी से बढ़ने लगा।
- 1767 ईस्वी में होल्कर वंश की राजगद्दी पर देवी अहिल्याबाई के आसीन होने के पश्चात् इस नगर का चौमुखी विकास हुआ। परन्तु संपूर्ण होल्कर राज्य की राजधानी उसे 1818 ईस्वी में ही बनाया गया।
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भोपाल:
- यह नगर मध्यप्रदेश की राजधानी है। यह नगर बेतवा नदी की प्रारंभिक शाखाओं के बीच एक विशाल झील के तट पर है।
- भोपाल की स्थापना मालवा के परमार राजा भोज ने 11वीं शती के आरंभ में की थी, परन्तु उस मूल बस्ती के अवशेष अब लुप्त प्राय है। बहुत बाद में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों के एक अफगान सेनापति के दोस्त मुहम्मद खाँ वर्तमान भोपाल के उत्तर में बैरसिया एवं इस्लामनगर (पूर्वनाम जगदीशपुर) का जागीदार बना इस समय भोपाल की शासक रानी कमलावती के आग्रह पर वह भोपाल राज्य का कार्यपालक बना तथा रानी के बाद स्वयं वहाँ का शासक बन गया। अपने राज्य की राजधानी के रूप में उसने भोपाल नगर की पुर्नस्थाना की तथा 1720 से 1726 ईस्वी के बीच इस नगर के चारों ओर प्राचीर खड़ी थी। कुछ समय को छोड़कर यह नगर भोपाल राज्य की राजधानी रहा।
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