राजा राममोहन राय का विचार दर्शन। राजा रामोहन राय का नीतिशस्त्र । Raja Ramohan Rai Vichar Darshan
राजा राममोहन राय का विचार दर्शन
राजा राममोहन राय के विचार दर्शन को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत देख सकते हैं-
1. राजा राममोहन राय का एकेश्वरवाद -
- राजा राममोहन राय के धार्मिक विचारों का निर्धारण हिन्दू धर्म ग्रन्थों के ब्रह्म ज्ञान के द्वारा हुआ था। वे केवल एक ईश्वर में श्रद्धा रखते थे। वे बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और धर्म की शुद्धता से उन्हें अटूट प्रेम था।
- धर्म में जो दूषित परम्पराए आ गई थी, उनका विरोध करते थे। उन्होंने तुहकात् उलमुवाहिदीन' अर्थात् “एकेश्वरवादियों को एक उपहार” नामक निबन्ध फारसी में लिखा, जिसकी भूमिका अरबी में थी। इस निबन्ध में राममोहन ने धर्मो और धार्मिक अनुभव के प्रश्न पर विवेक- पूर्ण विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर बल दिया। वहीं एकेश्वरवाद की विशेषताओं की तरफ संसार का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने अलौकिक शक्ति और चमत्कार के सिद्धान्त को नकार दिया। मूर्ति पूजा को उन्होंने किसी भी आधार पर स्वीकार नहीं किया क्योंकि उनका निश्चित मत था कि मूर्तिपूजक के मन में जो श्रद्धा होती है, वह अन्धविश्वास ही होता है। उसमें विवेक का कोई स्थान नहीं होता, अन्धी श्रद्धा के कारण वह इतना पथभ्रष्ट हो जाता है कि ईश्वर को भूलकर पत्थर को ही पूजने लगता है। अतः उनका आग्रह था कि उपनिषदों में बताई गई “आत्मन पूजा" ही शुद्ध पूजा है।
2. राजा राममोहन राय और धार्मिक सहिष्णुता-
- राजा राममोहन राय के धार्मिक विचारों में धर्मान्धता या कट्टरपन का कहीं लेश भी नहीं था। वे धार्मिक सहिष्णुता को सर्वाधिक महत्व देते थे। उनके मन में साम्प्रदायिक द्वेष का तनिक भी स्थान नहीं था। वे सभी धर्मों का समान आदर करते थे तथा सभी धर्म को एक सा सम्मान देते थे। ब्रह्म समाज की स्थापना के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य सर्व समन्वय था। वे नैतिकता, पवित्रता, सहानुभूति एवं दया के भावों को सर्वोपरि धर्म मानते थे और उनका प्रयत्न यही रहा कि मनुष्य मन में ये भाव जागृत हो । धार्मिक मतभेदों को प्रकट करने के लिये वे अति शालीनता से काम लेते थे।
13. सार्वभौम धर्म का समर्थन-
- राजा राममोहन राय ने सभी धर्मों के अच्छे सिद्धान्तों को स्वीकार किया। वे किसी एक धर्म के अन्धानुकरण के पक्ष में नहीं थे। वे सर्व धर्म समभाव के प्रवर्तक बने। मोनियर विलियम्स के अनुसार राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान किया। उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि धार्मिक विभेद और विषमताएँ मिट जाएँ। डॉ. शिवनाथ शास्त्री ने ब्रह्म समाज के इतिहास में लिखा है कि एक सच्चे ईश्वर का सिद्धान्त सभी धर्मों का सामान्य तत्व है और इसीलिये मानव जाति में सार्वभौम धर्म का मूलभूत अंश है। नए युग के अग्रदूत के रूप में उन्होंने मनुष्यों के सामने एक नया धर्म रखा, जिसकी सहानुभूति सार्वभौमिक थी, जिसका मूलभूत सिद्धान्त यह था कि मनुष्य की सेवा ही ईश्वर सेवा है। के. पी. करुणाकरण का मत है कि राजा राममोहन राय विश्व धर्म मानने लगे तथा उनके दृष्टिकोण में विश्व की व्यापकता समाहित हो गई।
4. राजा राममोहन राय का मानवतावाद -
- राजा राममोहन राय की सच्ची मान्यता थी कि जो मानवमात्र की सेवा करता है, वह ईश्वर की ही सेवा करता है। इस प्रकार वे सच्चे मानवतावादी थे। वे एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे जिसके आधार दया, सहानुभूति, सहयोग, प्रेम, सहनशीलता तथा बन्धुत्व हो। वही समाज दृढ़ हो सकता है। ऐसे समाज की रचना हेतु ही उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत किया जो अधिकारों और स्वतंत्रता के सम्बन्ध में थी। उन्होंने मुख्य रूप से मानवतावादी दृष्टिकोण को ही अपनाया और इसे जीवन दिया। इस हेतु राजा राममोहन राय ने साहसपूर्वक ऐसे ठोस कदम उठाए, जिससे धर्म अमानुषिक प्रवृत्तियों से मुक्त हो सके। मानवता की उपासना करने को ही वे सर्वोपरि धर्म मानते थे। अपने मानवतावादी दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्होने धर्म में उत्पन्न हो गई ऐसी कुप्रथाओं एवं निरर्थक परम्पराओं का विरोध किया जैसे कि मूर्ति पूजा, सती प्रथा, बलि प्रथा, 'शिशु हत्या आदि।
5. राजा राममोहन राय द्वारा मूर्ति पूजा का विरोध-
- राजा राममोहन राय के अनुसार मूर्ति पूजा का मुख्य कारण है कि भक्तों को इससे कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलता बल्कि केवल अन्धी श्रद्धा समर्पित करना। इस प्रकार पूजा का राजा राममोहन राय वेदों, उपनिषदों के सन्दर्भों के आधार पर विरोध करते थे। मूर्ति पूजा के आरम्भ होने का कारण यह था। राजा राममोहन राय का उपनिषद् कि ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान को असम्भव जानकर मूर्ति पूजा का सहारा लिया गया था और इसे आवश्यक समझा गया था। परन्तु इसके उत्तर सम्मत तर्क यह था कि केवल आत्मन की पूजा करनी चाहिए। उनका कहना था कि उपनिषद् किसी भी दशा में असम्भव बात करने की प्रेरणा नहीं देते। मूर्ति पूजा के स्थान पर शुद्ध पूजा का उन्होंने सदैव समर्थन किया है। श्रद्धा विचार के प्रति उचित है। मूर्ति के प्रति श्रद्धा से कोई लाभ नहीं।
6. जातिगत संकीर्णताओं का विरोध-
- आर्यों ने कर्म के आधार पर समाज को जातीय वर्गों में विभाजित किया था। कालान्तर में जन्म से ही जाति का निर्धारण होने लगा। इस विभाजन का समाज के लिए बड़ा विनाशकारी परिणाम हुआ। कुछ लोग श्रेष्ठ बन बैठे तथा अन्य वर्गों में से कोई हेय निकृष्ट समझे जाने । राजा राममोहन राय को इसके हानिकारक फल स्पष्ट दिखाई पड़े और उन्होंने जातीय भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना का डटकर विरोध किया। उनका निश्चित मत था कि जाति के आधार पर किसी को श्रेष्ठ अथवा हेय मानना पूर्णतया अनुचित और अन्यायपूर्ण है। कोई व्यक्ति अपनी उपलब्धियों, गुणों एवं मान्यताओं के आधार पर ही श्रेष्ठ माना जाना चाहिए। वी. वी. मजूमदार ने राममोहन राय से दयानन्द तक के राजनीतिक विचार का इतिहास में बताया है कि राजा राममोहन राय ने 1829 में लिखा था- "मुझे यह बात कहते हुए दुख होता है कि हिन्दुओं की वर्तमान धर्म व्यवस्था ऐसी है जिससे कि उनके राजनीतिक हितों की पूर्ति में सहायता नहीं मिल सकती। उनके बीच अगणित विभाजनों और उप-विभाजनों को जन्म देने वाली जाति व्यवस्था ने उनको राजनीतिक भावना से पूर्णतया वंचित कर दिया है और असंख्य धार्मिक संस्कारों तथा शुद्धिकरण के नियमों ने उनको किसी भी कठिन और साहसपूर्ण कार्य करने के लिए अयोग्य बना दिया है। मेरे विचार में यह आवश्यक है कि कम से कम उनके राजनीतिक तथा सामाजिक कल्याण के लिए उनके धर्म में कुछ परिवर्तन होने चाहिये।” स्पष्ट ही राजा राममोहन राय का तात्पर्य धर्म सम्बन्धी कुरीतियों और प्रथाओं से था, सिद्धांतों एवं दर्शन से नहीं।
7. परम्पराओं के अन्धानुकरण का विरोध -
- प्राय: सभी समाजों में जो कोई कार्य एक समय किसी विशेष परिस्थिति में हो जाता है, आगे भी बिना विचार किए लोग तदनुसार आचरण करने लगते हैं। यही है अन्धानुकरण, हिन्दू समाज भी इस सम्बन्ध में कोई अपवाद नहीं था। हिन्दुओं में अनेक बे सिर-पैर की परम्पराएँ पनप रही थी।
- राजा राममोहन राय को इस अन्धानुकरण का विनाशक फल स्पष्ट दिखाई दिया और उन्होंने इसका प्रबल विरोध किया। यह न आवश्यक है और न उचित। पिछली पीढ़ियाँ जिस बात को मानती थीं, उसे हम अब भी मानते रहें। कई बार तो यह भी देखा जाता है कि जिन बातों को उनकी प्राचीनता की दुहाई देकर रूढ़िवादी लोग समाज पर थोपे रहना चाहते हैं वे वास्तव में उतनी पुरानी नहीं होती और अनेक बार उनमें उनके मानने वालों के स्वार्थ निहित रहते हैं। विवेक के आधार पर जो श्रद्धा होती है, वही उचित होती है। जो लोग अन्धे होकर श्रद्धा करते हैं उनमें विवेक रहता ही नहीं और फलत: ये सही रूप में कार्य करने में सफल नहीं हो पाते। राजा राममोहन राय को यह तर्क एकदम सत्य प्रतीत हुआ था और इसी पर उनका अन्धानुकरण का विरोध आधारित था। या तो हमें अतीत की भक्ति त्यागकर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना होगा, या अतीत की परम्पराओं को शुद्ध रूप देना होगा, तभी हमारा वर्तमान सुखी होगा, और सुखी भविष्य की नींव पड़ेगी। राजा राममोहन राय ने केवल कह कर ही अनुचित बातों का विरोध नहीं किया वरन् अपने कार्यों से भी सिद्धांतों को सहारा दिया। समुद्र पार जाने की अनुचित वर्जना की पूर्ण अवहेलना करके वे इंग्लैण्ड गए और वहाँ भारतीय हित साधन में कार्य किया।
8.राजा राममोहन राय द्वारा नारी के उत्थान का समर्थन-
- सभी अच्छे धर्मों की यह मान्यता है कि देश और समाज के पूर्ण निर्माण के लिए समाज में नारियों को सम्मानित तथा बराबर का स्थान मिलना चाहिए। आर्य काल में ऐसा ही था। इसे सिद्ध करने के लिए अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जहाँ नारी की पूजा हो वहाँ देवताओं का वास बताया गया है। कालान्तर में नारी के समाज में स्थान में गिरावट आई और परदा तथा सती प्रथा जैसी अमानुषिक परम्पराएँ समाज में व्याप्त हो गई। राजा राममोहन राय इस प्रकार की बातों के विरुद्ध तो थे ही कि उनके परिवार में उनके बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् बड़े भाई की पत्नी की अनिच्छा होते हुए भी उनको सती किए जाने से राजा मोहन राय के हृदय पर भारी आघात पहुँचा। इस अमानुषिक घटना ने राजा राममोहन राय को प्रेरित किया कि वे इस प्रथा को बन्द कराने का प्रयत्न करें। राजा राममोहन राय ने इस ओर प्रयास करते हुए लार्ड विलियम बैटिक की सरकार से इस प्रथा को अवैध तथा गैर कानूनी घोषित कर करवाया। उन्होंने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही पति की सम्पत्ति में स्त्रियों के अधिकार को भी उन्होंने पूर्ण समर्थन दिया।
9. प्रेस तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार
- राजा राममोहन राय विचारों की अभिव्यक्ति तथा प्रेम की स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से आवश्यक मानते थे। उन्हें इन पर कोई बंधन स्वीकार नहीं था। प्रथम बंगलापत्र “संवाद कौमुदी” का सम्पादन 1819 में स्वयं उन्होंने ही किया था। तदनंतर 1822 में उन्होंने "मिरात उल-अखबार' नाम से एक फारसी पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। परन्तु 1823 में यह घोषणा की गई कि बिना सरकार की पूर्वाज्ञा के कोई भी समाचार पत्र नहीं प्रकाशित किया जा सकता। इस पर राजा राममोहन राय ने कलकत्ता के प्रतिष्ठित लोगों के हस्ताक्षर द्वारा एक स्मरणपत्र तैयार कर उसे ब्रिटिश सम्राट के पास भेजा परन्तु उस पर सकारात्मक जवाब नहीं मिल पाया। इस प्रकार राजा राममोहन राय ने भारतीय पत्रकारिता की नीव डाली। उन्होंने इस हेतु लगातार प्रयत्न किये कि भारत में प्रेस की तथा विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हो ।
10. राजा राममोहन राय के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार-
- पाश्चात्य प्रभावों में फ्रांस की राज्य क्रान्ति का प्रभाव राजा राममोहन राय पर सबसे अधिक पड़ा। उनका दृढ़ विश्वास था कि व्यक्ति को स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय पाने का जन्मसिद्ध अधिकार है। व्यक्ति की स्वतंत्रता उसके विचार से स्वतंत्र है। उन्होंने धार्मिक के समान ही सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी स्वतंत्रता का समर्थन किया। उनका मत था कि राजनीतिक क्षेत्र में पुरुष एवं नारी के अधिकार समान होने चाहिए। वे मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। जब स्पेन के संवैधानिक शासन की स्थापना के समाचार मिले तो राजा राममोहन राय इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने कलकत्ता के टाउनहॉल में एक सार्वजनिक भांज दिया और जब यह समाचार मिला कि नेपिल्स के नागरिकों पर शासक ने प्रतिबन्ध लगा दिया है तो उन्हें बड़ी खिन्नता हुई।
11. राजा राममोहन राय के प्रशासन सम्बन्धी विचार -
- राजा राममोहन राय के मन में समाज सुधार एवं पुनर्जागरण से संबंधित कई विचार थे परन्तु वे मानते थे कि केवल एक व्यक्ति ही सब कुछ नहीं कर सकता। भले ही उसे समाज का पूरा सहयोग भी प्राप्त हो । वे उदारवादी व्यक्ति थे और इस पर बल देते थे कि व्यक्ति को स्वतंत्रता एवं अन्य आवश्यक अधिकार मिलने चाहिये परन्तु वे इस सब कार्य में राज्य की सक्रियता को आवश्यक समझते थे। वे चाहते थे कि राज्य ऐसे कार्य करे जिनसे नागरिकों के जीवन में आने वाली बाधाएँ दूर हों। तभी जनसाधारण का जीवन सुखी बन सकता था।
राजा राममोहन राय ने अपने इन्हीं को 1831 ईस्ट इण्डिया कम्पनी के 'बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल” के समक्ष प्रशासन सुधार की दृष्टि से निम्नलिखित प्रस्ताव रखे-
- 1. शिक्षित भारतीयों को प्रशासनिक तथा उच्च पदों पर नियुक्त किया जाय।
- 2. न्याय और प्रशासन विभागों को अलग-अलग रखा जाय।
- 3. सदर दीवानी अदालत को “हैवियस कार्पस रिट’ देने का अधिकार देकर नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा की जाय
- 4. न्याय विभाग में पंचायत और जूरी पद्धति का प्रयोग किया
- 5. जमींदारों से लगान की दरें कम कराई जावे।
- 6. किसानों को कृषि सुधार की शिक्षा दी जाय और उनको भूमि पर मौरूजी अधिकार प्रदान किया जाय।
- 7. फारसी के स्थान पर अंग्रेजी को राजभाषा बनाया जाय।
- 8. भारत सरकार का प्रशासनिक व्यय कम किया जाय।
- 9. नया कानून बनाने से पूर्व जनमत जान लिया जाय।
12. न्याय एवं समानता सम्बन्धी विचार
- इस सम्बन्ध में राजा राममोहन राय ने बहुत कार्य किया। पहले तो वे अंग्रेजों के न्याय का विरोध ही करते थे परन्तु कुछ समय पश्चात वे उससे प्रभावित हुए और समर्थन करने लगे। परन्तु इस विचार परिवर्तन का यह अर्थ नहीं था कि वे पूर्ण रूप से अंग्रेजों के न्याय को स्वीकार कर बैठे थे। 1827 का जूरी एक्ट ही पक्षपातपूर्ण था एवं भेदभाव को बढ़ावा देता था। इसके अनुसार किसी हिन्दू या मुसलमान जज को किसी ईसाई के मुकदमे को सुनने के अधिकार से वंचित किया गया था। राजा राममोहन राय ने इस एक्ट का विरोध किया। उन्होंने इस संबंध में ब्रिटिश संसद के समक्ष स्मरण पत्र प्रस्तुत किया। 1833 के चार्टर एक्ट के निर्माण के समय उन्हें इंग्लैण्ड की संसद की प्रवर समिति के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया।
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