रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
परमात्मा को विश्व की सर्वोच्च शक्ति के रूप में मानकर संसार के समस्त प्राणियों
में अद्वैत-भावना का संचार किया। समस्त विश्व को उन्होंने एक दृष्टि से देखा।
इन्होंने अपने बचपन में ही वेद और उपनिषद पढ़ डाले थे।
उपनिषदों के तत्व ज्ञान का
इन पर गहरा प्रभाव पड़ा। मूलतः वे उपनिषदों के पृष्ठपोषक थे, परन्तु इन्होंने
उपनिषदीय चिन्तन को मानवीय दृष्टि से देखा समझा और उसी के अनुरूप उसकी व्याख्या
की।
इनका विश्वास था कि संसार के समस्त प्राणियों में परमात्मा व्याप्त है। इनके
विचार से अपने और संसार के अन्य समस्त प्राणियों में उस परमात्मा की व्याप्ति का
अनुभव करने से विश्व के अन्य समस्त प्राणियों में उस परमात्मा की व्याप्ति का
अनुभव करने से विश्व के समस्त प्राणियों में एकात्मभाव उत्पन्न हो सकता है और यही
आत्मानुभूति का सर्वोत्तम मार्ग है। इनकी इस विचारधारा को विद्वानों ने विश्वबोध
दर्शन की संज्ञा दी है।
विश्वबोध दर्शन की तत्व
मीमांसा :
गुरूदेव संसार को ईश्वर
के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मानते थे। इसलिए उनके अनुसार ईश्वर द्वारा निर्मित यह
जगत उतना ही सत्य है जितना ईश्वर अपने आप में सत्य है। ईश्वर को इन्होंने निराकार
और साकार, दोनों ही रूपों में स्वीकार किया है। इनके अनुसार बीज रूप
में वह निराकार है और सृष्टि (प्रकृति) के रूप में साकार है।
गुरूदेव को प्रकृति
के कण-कण में ईश्वर की अनुभूति होती थी। आत्मा को गुरूदेव ने उपनिषदों के आधार पर
तीन रूपों में स्वीकार किया है। अपने प्रथम रूप में यह मनुष्यों को आत्मरक्षा में
प्रवृत्त करती है, दूसरे रूप में ज्ञान-विज्ञान की खोज और अनन्त
ज्ञान की प्राप्ति की ओर प्रवृत्त करती है, और तीसरे रूप में
अपने अनन्त रूप को समझने की ओर प्रवृत्त करती है।
गुरूदेव के अनुसार ये
तीनों कार्य आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। इसमें आत्मानुभूति को गुरूदेव मनुष्य
जीवन का अन्तिम उद्देश्य मानते थे।
विश्वबोध दर्शन की ज्ञान
मीमांसा :
ज्ञान प्राप्ति के साधनों
के समंबन्ध में गुरूदेव ने स्पष्ट किया कि आध्यात्मिक तत्वों का ज्ञान सूक्ष्म
माध्यमों द्वारा तथा भौतिक वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान भौतिक माध्यमों द्वारा
प्राप्त होता है। सूक्ष्म माध्यमों में इन्होंने प्रेम योग के महत्व को स्वीकार
किया है। इन्होंने स्पष्ट किया कि आध्यात्मिक तत्व के ज्ञान के लिए सबसे सरल मार्ग
प्रेम मार्ग है, प्रेम ही हमें मानव मात्र के प्रति संवेदनशील बनाता है, यही हमें एकात्म
भाव की अनुभूति कराता है और यही हमें आत्मानुभूति अथवा ईश्वर की प्राप्ति कराता
है। टैगोर अन्य भारतीय दर्शनों की तरह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों को महत्व
देते हैं, इस मत का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि जो लोग केवल
अविद्या अर्थात् संसार की ही उपासना करते हैं वे तमस् में प्रवेश करते हैं और उससे
अधिक अंधकार में वे प्रवेश करते हैं जो केवल ब्रह्म विद्या में ही निरत हैं।
अतः
टैगोर भौतिक जगत के ज्ञान को उपयोगी ज्ञान और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को विशुद्ध
ज्ञान कहते थे। इनकी दृष्टि से संसार की समस्त जड़ वस्तुओं और जीवों में एकात्म भाव
ही अंतिम सत्य है और इसकी अनुभूति ही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
विश्वबोध दर्शन की आचार
मीमांसा :
गुरूदेव मानवतावादी
व्यक्ति थे। ये मनुष्य को पहले अच्छा मनुष्य बनाने पर बल देते थे, ऐसा मनुष्य जो
शरीर से स्वस्थ हो, मन से निर्मल और संवेदनशील हो, समस्त मानव जाति
के प्रति उसके हृदय में प्रेम हो और जो प्रकृति के कण-कण से प्रेम करता हो। ये
प्रेम को मनुष्य के आचार-विचार का आधार बनाना चाहते थे। इनका तर्क था कि प्रेम ही
वह भावना है जो मनुष्य को मनुष्य के प्रति संवेदनशील बनाती है और मनुष्य को मनुष्य
की सेवा की ओर प्रवृत्त करती है।
इनका विश्वास था कि प्रेम से भौतिक जीवन भी सुखमय
बनाया जा सकता है और आध्यात्मिक पूर्णता भी प्राप्त की जा सकती है। यही कारण है कि
गुरूदेव के सभी कार्यक्रम ग्राम सेवा समाज सेवा, राष्ट्र सेवा और
अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध, प्रेम पर ही आधारित रहते थे। इनका तर्क था कि
प्रेम के अभाव में मानव सेवा की बात तो मानव सेवा का भाव भी जागृत नहीं हो सकता।
मानव सेवा को गुरूदेव ईश्वर सेवा मानते थे।
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