शंकराचार्य का दर्शन :अद्वैत का निहितार्थ |ब्रहम के दो रूप |Shankaracharya ka vedant darshan
शंकराचार्य का दर्शन :अद्वैत का निहितार्थ
अद्वैत का निहितार्थ
- वेदान्त दर्शन के विभिन्न शाखाओं में अद्वैत वेदान्त का विशिष्ट स्थान है।
- अद्वैत वेदान्त में परम सत्ता के रूप में केवल एक तत्व ब्रह्म या आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया गया है।
- शंकराचार्य के पूर्व प्राचीन अद्वैत वेदान्तियों का यह तर्क था कि समस्त प्रपंच का विलय ब्रह्म या आत्मा में होता है।
- प्रपंच का विलय उस साधक को प्राप्त होता है, जो अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ का अनुभव करता है। इस प्रकार प्रपंचविलयवाद आत्मा को ब्रह्म सिद्ध करता है। माण्डूक्य उपनिषद् कहा गया है कि 'अयमात्मा ब्रह्म' अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।
अद्वैत' शब्द का शाब्दिक अर्थ
- 'अद्वैत' शब्द का शाब्दिक अर्थ है, जहाँ द्वैत नहीं है या द्वैत का अभाव है। गौडपाद ने कहा है कि 'द्वैत' माया मात्र है और अद्वैत परमार्थ है 'मायामात्रमिदंद्वैतमद्वैत परमार्थतः ।
- संसार की सभी वस्तुएँ अवास्तविक हैं, क्योंकि सभी सांसारिक वस्तुएँ मायिक हैं। अतः सम्पूर्ण सांसारिक वस्तुओं के वास्तविक अस्तित्व के अभाव में आत्मा और ब्रह्म की एकता सिद्ध होती है। यदि ब्रह्म ही एक मात्र सत् है उसी की एकमात्र सत्ता है और वह अद्वैत है, संसार की अन्य सभी वस्तुएँ मिथ्या है, नानात्व मिथ्या है।
- अतएव शंकराचार्य के अद्वैतवाद से ब्रह्मवाद की स्थापना होती है, जो ब्रह्म को एक और अद्वितीय तथा अद्वय मानता है। आचार्य शंकर अद्वैत को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि 'आत्मव्यतिरेकाभावात्' अर्थात् आत्मा के बिना प्रत्येक विषय का अभाव है।
- इस प्रकार प्रत्येक विषय आत्मा में अन्वित है क्योंकि उसका ज्ञान होना और आत्मा से अन्वित होना एकार्थक है या अद्वय की अवस्था का द्योतक है।
- आचार्य शंकर के ही मत का समर्थन करते हुए आचार्य सुरेश्वर कहते हैं कि- अनात्मा सर्वत्र आत्मपूर्वक है। यदि सभी विषय आत्मपूर्वक हैं, तो आत्मा ही एक मात्र सत् है। अतः आत्मा ब्रह्म है।
- मण्डन मिश्र का कहना है कि भेद का जो भी अस्तित्व हो वह अभेद तत्व अर्थात् ब्रह्म के अस्तित्व को सिद्ध करता है।
- अद्वैत वेदान्त के अनुसार यदि मूल सत्ता पर दृष्टिपात किया जाएँ, तो यह स्पष्ट होता है कि प्रक्रिया भेद से कभी आत्मा को ब्रह्म सिद्ध किया जाता है और कभी ब्रह्म को आत्मा वादरायण ने ब्रह्मसूत्र में ब्रह्म की परिभाषा देते हुए यह कहा है कि ब्रह्म वह है, जिससे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय होते हैं।
- शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र की इस परिभाषा की व्याख्या करते हुए कहा है कि ब्रह्म अनुमानगम्य नहीं है, किन्तु तैत्तिरीय उपनिषद् से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्म जगत् का आधार, स्रोत एवं अन्त है। ब्रह्म की इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्म की यह परिभाषा एक ओर ब्रह्म का लक्षण है, तो दूसरी ओर ब्रह्म के अस्तित्व के लिए प्रमाण है। वास्तविकता यह है कि जगत् के जन्मादि का मूल कारण ब्रह्म है, क्योंकि जगत् उससे अनन्तिम है।
- आचार्य शंकर के वेदान्त में अद्वय रूप ब्रह्म को उपनिषदों की ही भाँति दो लक्षणों से युक्त माना गया है, जिसे ब्रह्म का स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण कहा जाता है। ब्रह्म का स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण ब्रह्म के ही दो रूप हैं- पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म। पर ब्रह्म को निर्गुण ब्रह्म और अपर ब्रह्म को सगुण ब्रह्म कहा जाता है।
- कुछ लोगों का कहना है कि 'जन्माद्यस्ययतः' सगुण ब्रह्म का लक्षण है और 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म निर्गुण ब्रह्म का लक्षण है। परन्तु ब्रह्म के स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण एक सत् के दो लक्षण हैं। वे ब्रह्म के अस्तित्व को द्विविध नहीं सिद्ध करते, क्योंकि सत् तो एक ही है, जो अद्वय स्वरूप है।
- आचार्य शंकर स्वयं कहते हैं कि- जगतश्ययन्मूलंतत्परिज्ञानात्परंश्रेय इति सर्वोपनिषदां निश्चितोऽर्थः अर्थात् सभी उपनिषदों का यह मत है कि जो जगत का मूल है, उसी के परिज्ञान से श्रेय होता है। इस प्रकार जगत् का मूल और निःश्रेयस्, सृष्टिकर्त्ता और परमार्थ कार्य ब्रह्म और कारण ब्रह्म पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म दोनों एक और अद्वय है।
ब्रहम के दो स्वरूप क्या हैं?
ब्रहम के दो रूप
- आचार्य शंकर का यह कहना है कि पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म एक ही ब्रह्म के दो रूप हैं। ब्रह्म के इस दोनों रूपों के ज्ञान से मोक्ष होता है। उनका यह मानना है कि उस पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म को देखने पर हृदय- ग्रन्थि नष्ट हो जाती है, संशय दूर हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। अर्थात् परापर ब्रह्म एक और अद्वय है।
- ब्रह्म के ज्ञान से ही मोक्ष होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में भी पहले ब्रह्म को सृष्टिकर्ता के रूप में परिभाषित किया गया है और अन्त में उसी को आनन्द कहा गया है। इससे भी सिद्ध होता है कि तटस्थ लक्षण उसी ब्रह्म की प्राथमिक परिभाषा है जिसकी अन्तिम परिभाषा स्वरूप लक्षण है। वास्तविकता तो यह है कि ब्रह्म के स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण एक ही सत् के लक्षण हैं।
चैतन्य ही एकमात्र तत्व
- अद्वैत वेदान्ती सभी प्रकार के भेद का खण्डन करके अद्वैत तत्व की स्थापना करते हैं। उनका यह मानना है कि ब्रह्म ही एकमात्र तत्व है, जिसका चैतन्य गुण नहीं, स्वभाव है। चैतन्य का कोई विस्तार नहीं होता, इसीलिए ब्रह्म या चैतन्य अनन्त कहा जाता है। बृहमत्वात् ब्रह्म या बृहणात् ब्रह्म' अर्थात् जो बृहत्तम है वही ब्रह्म है अथवा जो वृद्धि या विकास करता है, वह ब्रह्म है। ब्रह्म को कभी-कभी आत्मा के नाम से पुकारा जाता है। आत्मा का शाब्दिक अर्थ है व्यापक।
- व्याप्ति अर्थ वाले 'आप' धातु से आत्मा शब्द निष्पन्न होता है। अतएव आत्मा या ब्रह्म चेतन स्वरूप सार्वभौम शाश्वत व नित्य है। अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि चैतन्य को ही एक मात्र तत्व क्यों माना जाएँ? जड़ को हम तत्व क्यों न मानें? इस विषय में तत्व का लक्षण स्पष्ट करते हुए शंकराचार्य कहते हैं कि "जिस विषय के सम्बन्ध में बुद्धि का व्यभिचार ( परिवर्तन) नहीं होता है, वह सत् है, पर जिस विषय के सम्बन्ध में बुद्धि का व्यभिचार होता है, वह असत् है ।" तत्व की इस कसौटी पर चैतन्य ही ऐसा है जो खरा उतरता है। संसार की सभी वस्तुएँ जो हमारे ज्ञान के विषय हैं, उनका व्यभिचार होता है या हो सकता है, किन्तु उसके ज्ञाता या चैतन्य का कभी व्यभिचार नहीं हो सकता। अतएव चैतन्य ही एकमात्र तत्व है। ज्ञाता के ज्ञान का निराकरण नहीं किया जा सकता। द्रष्टा के दृष्टि का विपरिलोप नहीं हो सकता। इसलिए आत्मा या ब्रह्म चैतन्य स्वरूप अद्वैत तत्व है।
भेद रहित
- शंकराचार्य के वेदान्त को अद्वैत वेदान्त इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि उनका यह मानना है कि परम तत्व ब्रह्म की सत्ता सभी प्रकार के सजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेदों से रहित सत्ता है। इसलिए जब ब्रह्म या आत्मा में किसी प्रकार का भेद है ही नहीं तो वह निश्चय ही अद्वैत होगा।
सामान्य सत्ता
- शंकराचार्य ने अपने अद्वैत वेदान्त में 'ब्रह्म' को इसलिए भी 'अद्वैत' कहा है, क्योंकि ब्रह्म ही संसार के सभी वस्तुओं में आन्वित है। प्रत्येक विशिष्ट वस्तु एक सत्ता सामान्य के विभेदीकरण से ही उद्भूत होती हैं। अतएव सभी विशिष्ट वस्तुएँ अपने अस्तित्व के लिए किसी न किसी सामान्य सत्ता पर आश्रित हैं और वह सामान्य सत्ता अद्वय स्वरूप ब्रह्म है।
निमित्त उपादान कारण
- आचार्य शंकर का यह कहना है कि चेतन और अचेतन का द्वैत तर्कतः सिद्ध नहीं है, क्योंकि यदि द्वैत को स्वीकार कर लिया जाय तो प्रथम चेतन एवं अचेतन के बीच किसी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं हो सकता तथा इस सम्बन्ध के अभाव में अचेतन तत्व का न तो कोई प्रवर्तक हो सकता है और न ही प्रवर्तित ही। इस कारण से चैतन्य स्वरूप ब्रह्म ही जगत् का निमित्त एवं उपादान कारण दोनों है और इस निमित्त एवं उपादान कारण को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। इसीलिए शंकराचार्य का ब्रह्म अभिन्न निमित्तोपादान कहलाता है। ब्रह्म और जगत् के बीच तादाम्य सम्बन्ध माना जाता है।
आत्मा ब्रहम की एकता
- आचार्य शंकर के अनुसार ब्रह्म या आत्मा दो सत्ताएँ न होकर एक ही सत्ता हैं। उनका कहना है कि ब्रह्म ही जगत् का मूल कारण या अधिष्ठान है। ब्रह्म एक निरपेक्ष सत्ता है, क्योंकि निरपेक्ष सत्ता वही हो सकता है जो बृहत्तम सत्ता हो । ब्रह्म या आत्मा एक ही सत्ता होने के कारण ब्रह्म की सर्वव्यापी सत्ता भी है। अतएव सत्ता केवल परिमार्थिक दृष्टि से एक ही सत् हो सकती है, वह ब्रह्म या आत्मा है।
- आचार्य शंकर का यह मानना है कि ब्रह्म एवं आत्मा की एकता का प्रतिपादन 'श्रुति' भी करती है। श्रुति के ये महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, ब्रह्मवेद् ब्रह्मैव भवति तत्वमसि आदि आत्मा एवं ब्रह्म की एकता का ही प्रतिपादन करते हैं।
ब्रह्म, ईश्वर और जीव
- शंकराचार्य का कहना है कि श्रुति, स्मृति एवं न्याय से सिद्ध है कि परब्रह्म ही जगत् का मूल अधिष्ठान है। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म वास्तव में निर्विकल्प एवं सभी विशेषों से रहित है, किन्तु उपाधिवश उपासना का विषय होने के कारण उपास्य-उपासक के रूप प्रकट होता है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि ब्रह्म या ईश्वर वास्तव में दो नहीं वरन् एक ही हैं।
- ब्रह्म को जब हम सृष्टि शक्ति से सम्पन्न देखते हैं, तो वह ईश्वर रूप में व्यक्त होता है और ईश्वर रूप में ब्रह्म माया के सत्व गुण से अवच्छिन्न है। ब्रह्म आत्मा के रूप में नित्य साक्षी के रूप में जीवों के सुख-दुःख को देखता है, पर वह स्वयं उससे प्रभावित नहीं होता।
- आचार्य शंकर ब्रह्म की शक्ति को 'माया' कहते है। यद्यपि शंकराचार्य का ब्रह्म माया के सत्वगुण से अवच्छिन्न है, पर वह उससे बिल्कुल ही प्रभावित नहीं होता। शंकराचार्य का कहना है कि जिस प्रकार कोई जादूगर अपने जादू से दूसरे लोगों को प्रभावित करता है, परन्तु स्वयं अपने जादू से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म अज्ञानियों को अपनी माया से प्रभावित करता है किन्तु वह स्वयं उससे प्रभावित नहीं होता, क्योंकि 'माया' स्वयं ब्रह्म की ही शक्ति है।
- अतएव यह कहा जा सकता है कि शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म कारण ब्रह्म है और ईश्वर कार्य ब्रह्म है। ब्रह्म निष्क्रिय है पर ईश्वर सक्रिय है। अद्वैत वेदान्त में अवच्छेदवाद, प्रतिबिम्बवाद और आभासवाद द्वारा ब्रह्म एवं ईश्वर के अद्वैत स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
- शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदान्त के रूप में इसलिए भी लोप्रियता मिली, क्योंकि उनका यह स्पष्ट मानना था जगत् ब्रह्म का परिणाम न होकर ब्रह्म का विवर्तमात्र माना है। वास्तविक अन्यथाभाव को तो परिणाम कहते हैं, किन्तु अवास्तविक या अतात्विक अन्यथाभाव को विवर्तवाद कहते हैं।
- यदि ब्रह्म या ईश्वर जगत् रूप में परिणत हो जाता है तो जगत् की उत्पत्ति के बाद उसकी सत्ता समाप्त हो जानी चाहिए, जो असंभव है। यदि केवल वह आंशिक रूप में ही परिणत हो जाता है, तो वह विभाज्य हो जाएगा और इस प्रकार वह शाश्वत नहीं रह जाएगा। पुनः ब्रह्म अद्वय, अमिश्रित, अयौगिक और चेतन तत्व है, उसका परिणाम कभी भी नहीं हो सकता। परिणाम उन्हीं वस्तुओं का होता है, जो यौगिक होती हैं तथा जिनका संस्थान होता है।
- अमिश्रित तथा अयौगिक तत्व होने के कारण ब्रह्म का केवल विवर्त हो सकता है परिणाम नहीं। अतएव यह कहा जा सकता है कि जगत् ब्रह्म का विवर्त है। जगत् के मिथ्या होने के कारण ब्रह्म में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। जगत् केवल नामरूपात्मक है, उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। शंकर के अनुसार ब्रह्म पूर्ण और आप्तकाम है। इसलिए सृष्टि ईश्वर की लीला है उसके सभी कार्य लीलावत् स्वभावतः होते रहते हैं।
तादात्म्य सम्बन्ध
- आचार्य शंकर के अनुसार ईश्वर एवं जगत् के बीच तादात्म्य या अनन्यत्व का सम्बन्ध है। अद्वैत वेदान्त में अनन्यत्व का एक विशिष्ट अर्थ है। जिस प्रकार कारण से कार्य अन्य नहीं है, वैसे ही जगत् ईश्वर से अन्य नहीं है। कारण और कार्य एक दूसरे से अनन्य हैं अर्थात् कार्य कारण के बराबर है, पर कारण कार्य के बराबर नहीं है। यही अनन्य का वास्तविक अर्थ है। अनन्य का सम्बन्ध कोई अभेद सम्बन्ध नहीं है। इसी बात को दृष्टि में रखकर वाचस्पति मिश्र ने कहा था कि आचार्य शंकर ईश्वर एवं जगत् के बीच अभेद का प्रतिपादन नहीं कर रहें हैं, अपितु भेद का निराकरण कर रहें हैं।
नेति नेति
- शंकराचार्य ने अपने दर्शन को अद्वैत वेदान्त की संज्ञा इसलिए दिया, क्योंकि उनका यह स्पष्ट रूप से अभिमत था कि निर्गुण, निर्विशेष तथा निर्विकल्प ब्रह्म का निर्वचन वाणी द्वारा संभव नहीं है। अतएव उनका यह कहना था कि 'नेति नेति' के द्वारा जो सभी भावों का निवर्तन या निषेध करता है और उस निषेध की प्रागपेक्षा के रूप में जो अवशिष्ट रहता है तथा जो सर्वथा अवाग्ङमनस गोचर है, वह अद्वैत है।
- इस प्रकार अद्वैत एक तर्क प्रणाली है जो सिद्ध करती है कि आत्मा ही अद्वैत है और अद्वैत ही आत्मा है क्योंकि आत्मा ही निषेध का आश्रय है और आत्मा के लिए ही अनात्मा का निषेध किया जाता है। अतएव शंकराचार्य 'नेति नेति' के द्वारा अद्वैतवाद को सिद्ध करते हैं।
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