उच्चारण सम्बन्धी दोषों का निराकरण।Solutions of Pronunciation Related Defect In Hindi
उच्चारण सम्बन्धी दोषों का निराकरण Solutions of Pronunciation Related Defect
उच्चारण सम्बन्धी दोषों का निराकरण
उच्चारण अंगों की चिकित्सा
- अगर उच्चारण करने वाले अंगों में कोई दोष हो, तो चिकित्सक से चिकित्सा करानी चाहिए। उच्चारण करने में श्वास नलिका, कण्ठ, जीभ, वर्ल्स, नाक, ओष्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत आदि की सहायता ली जाती है। इन अंगों में दोष आने पर उच्चारण के प्रभावित होने की सम्भावना रहती है। इसलिए इन अंगों में दोष आने पर तत्काल चिकित्सा करानी चाहिए।
शुद्ध उच्चारण वाले लोगों का साथ
- बालक में अनुकरण की अपूर्व क्षमता होती है। वह अनुकरण के माध्यम से कठिन से कठिन तथ्य समझ लेता है। अगर उसे शुद्ध उच्चारण करने वाले लोगों, विद्वानों आदि के साथ रखा जाए, तो उसमें उच्चारण दोष का भय नहीं रहेगा। उसका उच्चारण रेडियो, ग्रामोफोन, टेपरिकॉर्डर आदि के माध्यम से इसी पद्धति पर सुधारा जा सकता है।
पुस्तकों के शुद्ध वाचन (पाठ) पर बल
- उच्चारण सम्बन्धी दोषों के निवारण के लिए पुस्तकों का शुद्ध वाचन आवश्यक है पहले अध्यापक आदर्श वाचन प्रस्तुत करे, इसके उपरान्त वह छात्रों से शुद्ध वाचान कराए। वाचन में सावधानी रखे . तथा अशुद्धियों का सम्यक् निवारण कराए।
उच्चारण प्रतियोगिताएँ
- कक्षा शिक्षण में मुख्यतया भाषा के कालांश में उच्चारण की प्रतियोगिताएँ करानी चाहिए। कठिन शब्द श्यामपट्ट पर लिखकर उनका उच्चारण कराना चाहिए। सर्वथा शुद्ध उच्चारण करने वाले छात्रों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
भाषा एवं संवाद प्रतियोगिताएँ
- भाषण एवं संवाद प्रतियोगिताओं से उच्चारण शुद्ध होते हैं। निर्णायक मण्डल को पुरस्कार देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि शुद्ध उच्चारण करने वाले छात्रों को ही पुरस्कार या प्रोत्साहन मिले।
नागरी ध्वनि तत्त्व को समझाना
- अध्यापक को ध्वनि तत्त्वों का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसे बालकों को वर्णमाला के स्वर, व्यंजन से लेकन कठिन उच्चारणों की शिक्षा विधिवत् देनी चाहिए ताकि उनका उच्चारण सुधर जाए। उसे अर्द्ध-स्वरों एवं अर्द्ध-व्यंजनों, संयुक्ताक्षरों, संयुक्त ध्वनियों आदि का विशेष ध्यान रखकर उच्चारण सीखना चाहिए।
ध्वनि यन्त्रों का सम्यक ज्ञान कराना
- बालकों को यह बताना अनिवार्य है कि ध्वनियाँ कैसे बनती हैं? ध्वनियों के उच्चारण में जीभ, ओष्ठ, कण्ठ, काकली आदि का क्या योगदान है? अल्पप्राण एवं महाप्राण ध्वनियों में क्या अन्तर हैं? स्वर और व्यंजन में क्या अन्तर है? इन तथ्यों को उसे उदाहरण देकर शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
हिन्दी ध्वनियों का वर्गीकरण सिखाना
- हिन्दी ध्वनियों के वर्गीकरण की सच्ची शिक्षा दिए बिना छात्रों का उच्चारण दोष कदापि दूर नहीं किया जा सकता है। बालकों को वही अध्यापक इनका स्पष्ट विवरण दे सकता है, जिसे स्वयं इनके बारे में शत-प्रतिशत जानकारी हो । इनकी शिक्षा बालकों 12-13 वर्ष की उम्र से 18 वर्ष की उम्र तक देनी चाहिए। इसके उपरान्त उनमें उच्चारण सम्बन्धी दोष नहीं आ पाएगा।
हिन्दी की कतिपय विशेष ध्वनियों का अभ्यास
- प्रायः हिन्दी भाषा में स, श एवं ष, न एवं ण, व तथा ब ड तथा ड़, क्ष तथा छ आदि का उच्चारण दोष बालकों में पाया जाता है जैसे- विकास का उच्चारण 'विकाश' महान का उच्चारण 'महाण', वन का उच्चारण 'बन' आदि। अध्यापक को इस सन्दर्भ में विशेष जागरूक रहना चाहिए और इस सन्दर्भ में भूल होते ही निराकरण कर देना चाहिए।
बल, विराम तथा सस्वर पाठ का अभ्यास
- अक्षरों या शब्दों का उच्चारण ही पर्याप्त नहीं है, वरन् पूरे वाक्य को उचित बल, विराम तथा सुस्वर वाचन के आधार पर पढ़ने का अभ्यास डालना भी आवश्यक है। शब्दों पर उचित बल देकर पढ़ने से अर्थ भेद एवं भाव भेद का ज्ञान होता है। विराम के माध्यम से लय, प्रवाह एवं गति का पता लगता है। इसलिए इन पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। इससे उच्चारण सम्बन्धी दोषों का निवारण भी होता है।
विश्लेषण विधि का प्रयोग
- कठिन एवं बड़े-बड़े शब्दों व ध्वनियों के उच्चारण में विश्लेषण विधि का प्रयोग किया जाए। इससे अशुद्ध उच्चारण की सम्भावना कम हो जाती है। पूरे शब्दों को अक्षरों में विभक्त करने से संयुक्ताक्षारों व कठिन शब्दों को सहज एवं सहजग्रह्य बनाया जा सकता जैसे सम्मिलित शब्द को सम्+मि+लि+त, उत्तम शब्द को उत्+त+म आदि-आदि।
अनुकरण विधि का प्रयोग
- उच्चारण का सुधार अनुकरण विधि से किया जा सकता है। अध्यापक कठिन शब्दों का उच्चारण स्वयं पहले करे तथा पुनः कक्षा के बालकों को उसका अनुकरण करने को कहे। अनुकरणशील छात्रों के हाव-भाव, जिह्वा संचालन, मुखावयव तथा स्वरों के उतार-चढ़ाव का पूर्ण ध्यान रखा जाना आवश्यक है, ताकि उच्चारण में प्रत्याशित सुधार लाया जा सके।
मानसिक सन्तुलन हेतु प्रयास
- जो छात्रा भय व संकोच के कारण अशुद्ध उच्चारण करने लगें, उन्हें पूर्ण प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि उनमें आत्मविश्वास का भाव जगे और उनका मानसिक सन्तुलन बना रहे। ऐसे छात्रों को प्रेरणा एवं सहानुभूति चाहिए। उनकी भूलों पर बिगड़ने या डाँटने की आवश्यकता नहीं है। इस विधि से क्रमशः धीरे-धीरे उनका उच्चारण सुधरने लगेगा।
सभी विषयों के शिक्षण में उच्चारण पर ध्यान
- उच्चारण पर ध्यान देना केवल भाषा शिक्षक का ही कार्य नहीं है। सभी विषयों के शिक्षण में उच्चारण पर अगर ध्यान दिया जाए, तो उच्चारण में सुधार शीघ्रता से होगा। प्रायः यह कार्य भाषा के अध्यापक का ही माना जाता है। जो एक भूल है। सभी विषयों के अध्यापकों को इस पहलू पर बल देना चाहिए।
वैयक्तिक एवं सामूहिक विधि का प्रयोग
- उच्चारण सुधार के लिए विधियाँ प्रयुक्त की जाएँ। बालक विशेष के उच्चारण सम्बन्धी दोष के परिष्कार के लिए वैयक्तिक विधि उपयोगी है। जब कक्षा के अधिक छात्र कठिन शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाते हैं, तो ऐसी स्थिति में सामूहिक विधि द्वारा निराकरण किया जाना चाहिए, जैसे–स्कूल कहने की आदत का परिष्कार, स्त्री को इसी कहने की आदत का परिष्कार ।
स्वराघात पर बल
- कब किस शब्द पर बल देना है? इसका उच्चारण में बड़ा महत्त्व है। यह भाव भेद एवं अर्थ भेद की जानकारी कराता है। इसलिए उच्चारण में स्वराघात पर विशेष ध्यान देना चाहिए। स्वराघात का अभ्यास वाचन के समय, संवाद, नाटक, सस्वर वाचन व भावानुकूल वाचन के रूप में कराया जा सकता है। स्वर के उतार-चढ़ाव पर ध्यान देने से स्वराघात का अभ्यास हो जाता है।
ध्वनियों का वर्गीकरण Classification of Sounds
ध्वनियों का वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया है
1. बाह्य प्रयत्न के आधार पर इस आधार पर सभी वर्ण, श्वास तथा नाद तथा अल्पप्राण एवं महाप्राण में विभक्त हैं।
2. आन्तरिक प्रयत्न के आधार पर इस आधार पर वृत, अर्द्ध-वृत, अर्द्ध-विवृत के रूप में ध्वनियाँ विभक्त हैं।
3. उच्चारण की प्रकृति के आधार पर उच्चारण की प्रकृति के आधार पर स्वर, ह्रस्व, दीर्घ में तथा अन्य वर्ण, स्पर्श, पार्श्विक, अनुनासिक, ऊष्म, अन्तस्थ लुण्ठित एवं उत्क्षिप्त स्वरूप में विभक्त हैं।
4. उच्चारण स्थल के आधार पर इस आधार पर वर्ण-कण्ठ्य, तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य, ओष्ठ्य, दन्तोष्ठ्य एवं वर्त्स्य के रूप में विभक्त हैं।
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