इस प्रसंग में भाषा के विकास के तीन चरणों की ओर भी पर्याप्त निश्चय के साथ संकेत किया जा सकता है। डार्विन ने हमें बताया है कि हम बंदरों के विकसित रूप हैं। इसका आशय यह हुआ कि कभी हमारी भाषा बंदरों के समीप रही होगी और कभी उससे भी पिछड़ी।
बंदरों में उच्चारित वा वाचिक भाषा के साथ-साथ आंगिक संकेतों की भी भाषा मिलती है और दूसरी और असभ्य आदिम जातियों की तुलना में शिक्षित लोगों में भाषा का लिखित रूप मिलता है।
इनके आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य में भाषा का प्रारंभिक रूप विभिन्न प्रकार के पशुओं की तरह आंगिक रहा होगा।
वनबिलाव गुस्सा प्रकट करने के लिए अपने बालों को खड़ा कर लेता है, तो बंदर ओठों को अजीब ढंग से फैलाकर दाँत निकाल देता है और कुत्ता प्यार प्रदर्शन के लिए मालिक के शरीर को चाटता है, तो कभी पूँछ हिलाता है। ये आंगिक भाषा के ही रूप हैं।
भाषा का दूसरा रूप वाचिक हुआ। इसमें उच्चरित ध्वनियों का प्रयोग हुआ। आरंभ में मानव-भाषा में आंगिक संकेत अधिक थे और वाचिक कम, किंतु धीरे-धीरे पहले का प्रयोग सीमित होता गया और दूसरे का बढ़ता गया। यों आज का सभ्य मानव भी अपनी भाषा के उस आदिम आंगिक रूप को पूर्णतः भूल नहीं सका है, इसी कारण वाचिक भाषा के साथ-साथ विभिन्न अंगों को हिला, उठा, तान आदि कर वह अपनी अभिव्यक्ति को सशक्त बनाता है। भाषा का तीसरा रूप लिखित है। इसने भाषा की उपयोगिता बहुत बढ़ा दी है।
आंगिक भाषा बड़ी स्थूल और सीमित थी। प्रेम, क्रोध, भूख आदि के सामान्य भाव ही वह प्रकट कर सकती थी। साथ ही उसके लिए दूसरे की आंगिक चेष्टाओं को देखना भी आवश्यक था। बिना दिखाये अभिव्यक्ति संभव न थी। इसका आशय यह हुआ कि इसके लिए प्रकाश अनिवार्यतः आवश्यक था। वाचिक भाषा के प्रयोग से तीनों कठिनाइयाँ दूर हो गई।
सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव एवं विचार व्यक्त होने लगे तथा प्रत्यक्षता या प्रकाश भी अनावश्यक हो गये। किंतु वाचिक भाषा इन तीनों दृष्टियों से आगे बढ़कर भी देश काल की सीमा से बँधी थी। इसका प्रयोग उतनी ही दूरी (देश) तक हो सकता था, जहाँ तक सुनाई पड़े और उसी समय (काल) इससे अभिव्यक्ति संभव थी, जब यह बोली जा रही हो। मनुष्य ने भाषा को लिखित रूप देकर ये दोनों बंधन समाप्त कर दिये। अपने लिखित रूप में भाषा देश-काल से बँधी नहीं है। आज लिखकर दो-चार दस वर्ष बाद भी उसे पढ़ा जा सकता है, या इसी प्रकार यहाँ लिखकर उसे सात समुन्दर पार भी पहुँचाया जा सकता है।
भाषा के दो आधार
भाषा के दो आधार हैं- एक मानसिक (psychical aspect) और दूसरा भौतिक (physical aspect) मानसिक आधार भाषा की आत्मा है तो भौतिक आधार उसका शरीर मानसिक आधार या आत्मा से आशय है, वे विचार या भाव जिनकी अभिव्यक्ति के लिए वक्ता भाषा का प्रयोग करता है और भाषा के भौतिक आधार के सहारे श्रोता जिनको ग्रहण करता है।
भौतिक आधार या शरीर से आशय है- भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ (वर्ण, सुर और स्वराघात आदि) जो भावों और विचारों की वाहिका है, जिनका आधार लेकर वक्ता अपने विचारों या भावों को व्यक्त करता है और जिनका आधार लेकर श्रोता विचारों या भावों ग्रहण करता है। उदाहरणार्थ, हम 'सुन्दर' शब्द लें। इसका एक अर्थ है। इसके उच्चारण करने वाले के मस्तिष्क में वह अर्थ होगा और सुनने वाला भी उसे सुनकर अपने मस्तिष्क में उस अर्थ को ग्रहण कर लेगा। यही अर्थ 'सुन्दर की आत्मा है।
दूसरे शब्दों में, यही है मानसिक पक्ष। पर साध ही मानसिक पक्ष सूक्ष्म है, अतः उसे किसी स्थूल का सहारा लेना पड़ता है। यह स्थूल हैं स् + उ + न् द् + अ र् सुन्दर के भाव या विचार को व्यक्त करने के लिए वक्ता इन ध्वनि समूहों का सहारा लेता है, और इन्हें सुनकर श्रोता 'सुन्दर' अर्थ ग्रहण करता है, अतएव ये ध्वनियाँ उस अर्थ की वाहिका, शरीर या भौतिक आधार हैं। भौतिक आधार तत्वतः अभिव्यक्ति का साधन है, और मानसिक आधार साध्य दोनों के मिलने से भाषा बनती है। कभी-कभी इन्हीं को क्रमशः बाह्य भाषा (outer speech) तथा आन्तरिक भाषा (inner speech) भी कहा गया है। प्रथम को समझने के लिए शरीर विज्ञान तथा भौतिक शास्त्र की सहायता लेनी पड़ती है, और दूसरे को समझने के लिए मनोविज्ञान की।
कुछ लोग वक्ता और श्रोता के मानसिक व्यापार को भी भाषा का मानसिक आधार मानते हैं और इसी प्रकार बोलने और सुनने की प्रक्रिया को भी भौतिक आधार एक दृष्टि से यह भी ठीक है। यों तो उच्चारणावयवों एवं ध्वनि ले जाने वाली तरंगों को भी भौतिक आधार तथा मस्तिष्क को मानसिक आधार माना जा सकता है, किन्तु परम्परागत रूप में भाषा विज्ञान में केवल ध्वनियाँ, जो बोली और सुनी जाती हैं, भौतिक आधार मानी जाती हैं; और विचार, जो वक्ता द्वारा अभिव्यक्त किये जाते हैं और श्रोता द्वारा ग्रहण किये जाते हैं मानसिक आधार माने जाते हैं।
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