टैगोर के राज्य विषयक विचार। टैगोर का राष्ट्रवाद एवं अंतर्राष्ट्रीयवाद। Tagore Ke Rajya Vishyak Vichaar
टैगोर के राज्य विषयक विचार, टैगोर का राष्ट्रवाद एवं अंतर्राष्ट्रीयवाद
टैगोर के राज्य विषयक विचार
- टैगोर का राज्य एवं उसकी संस्थाओं में घोर अविश्वास था और वे इसके प्रभाव को परिसीमित किए जाने के पक्षधर थे। उनके मतानुसार प्रभावी मानव विकास केवल राजनीतिक कार्यों के माध्यम से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। टैगोर का मानना था कि राज्य द्वारा जनमानस को शक्ति एवं प्रेरणा दी जानी चाहिए, परन्तु इसे अपने ऊपर उन कार्यों को नहीं लेना चाहिए, जिन्हें करने का उत्तरदायित्व जनमानस का है।
- टैगोर प्राचीन भारत में विद्यमान व्यवस्था के प्रशंसक थे, जिसमें राज्य पर अतिरिक्त भार डाले बिना जनमानस स्वतः समुदाय के कल्याण के दायित्वों को पूरा करता था। इस प्रकार उन्होंने राज्य और समाज के मध्य स्पष्ट अन्तर किया है और समाज को राज्य की तुलना में अधिक महत्व दिया है।
- टैगोर मानव अधिकारों के पक्के हिमायती थे। वे अपने अधिकार के लिए याचना करने के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि व्यक्ति को अधिकार रचनात्मक पीड़ा तथा धैर्ययुक्त आत्म-त्याग के द्वारा स्वत: अपने लिए पैदा करना चाहिए। टैगोर अधिकार का संबंध आत्मा से मानते थे।
- टैगोर का मत था कि भारत में स्वराज्य की आधारशिला जनता की आत्मनिर्भरता, उनके पुरुषार्थ पर और उनको प्रदान किए जाने वाले न्याय पर निर्भर करती है। विशेष रूप से गांवों की आत्मनिर्भरता पर ही देश का भविष्य निर्भर है। उनका मानना था कि राज्य का भला तभी संभव है जब देश की निर्धनता से दबी जनता में आशा की किरण जाग्रत हो ।
टैगोर का राष्ट्रवाद एवं अंतर्राष्ट्रीयवाद
- टैगोर एक राष्ट्रवादी होने के साथ साथ एक अन्तर्राष्ट्रवादी भी थे। वे संकुचित राष्ट्रवाद में विश्वास नहीं करते थे बल्कि उनका विश्वास विश्व-भातृत्व में था। वह | साम्राज्यवाद से घृणा करते थे, इसी क्रम में अंग्रेजों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर उन्होंने स्वदेशी भण्डार प्रारम्भ किया। जिसका उद्देश्य भारत के उद्योगों तथा कला प्रदर्शन एवं प्रोत्साहन मात्र था।
- वे राष्ट्रवाद का अर्थ, किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने देश की सभ्यता, संस्कृति, कलाओं, संगीत, साहित्य तथा पूर्वजों की गौरवमयी परम्पराओं के प्रति श्रद्धापूर्ण समर्पण को मानते थे।
- टैगोर आध्यात्मिक मानवतावाद की अवधारणा के प्रशंसक थे।
- वे राष्ट्रवाद के उस रूप को अस्वीकार करते थे जिनमें सामाजिक संघर्ष, जातीय उग्रता, धार्मिक उन्माद एवं राजनैतिक संकीर्णता तथा सांप्रदायिकता फैलती हो। इन्हीं कारणों से वे खिलाफत आंदोलनों के विरुद्ध थे।
- वह विश्व बंधुत्व की भावना से ओत-प्रोत एक सच्चे अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे। उन्होंने एक विश्व - सरकार की परिकल्पना की थी। उनका मत था कि यदि प्राच्य व पाश्चात्य सभ्यताओं को मिश्रित कर दिया जाए तो विश्व-शांति, विश्व-एकता तथा विश्व सरकार की स्थापना संभव है।
- अपनी इसी आदर्श कल्पना को साकार करने हेतु उन्होंने विश्व-भारती की नींव रखी थी। अन्तत: टैगोर का यही सपना संयुक्त राष्ट्र संघ के रूप में पटल पर उभरा।
- टैगोर का विचार था कि प्रत्येक देश तथा व्यक्ति को अपने गौरवशाली व्यक्तित्व के विकास के लिए कुछ न कुछ एकाधिकार मिलना चाहिए और उनमें इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें। उनका मानना था कि राष्ट्र को राज्य की जनता के हित में कार्य करना चाहिए।
- टैगोर का सपना था कि अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के माध्यम से विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का संगम कराके एक ऐसी नवीन संस्कृति की धारा प्रवाहित की जाए जो सभी के लिए पूज्यनीय हो तथा विश्व मानवता के समग्र विकास में सहायक हो। इस प्रकार टैगोर ने अपने अंतर्राष्ट्रीयतावाद में मनुष्य की सार्वभौमिक सत्ता को केन्द्रीय सत्य के रूप में स्थापित किया जिसका स्वरूप विशुद्ध रूप में सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक है।
- वस्तुत: टैगोर मानवता के पुजारी थे। उनके विचारों की संवेदना समस्त विश्व की मानव जाति के प्रति एक समान थी अर्थात वे पक्षपात की भावना से परे थे। उन्हें अपने राष्ट्र भारत से हृदय की गहराइयों तक प्रेम था तथा भारत की गुलामी की जंजीरे उन्हें शूल के समान बेंधती थी। परंतु साथ ही उन्हें विश्व की किसी जाति द्वारा दूसरी किसी जाति का अपमान भी बर्दाश्त नहीं था।
- टैगोर इस मान्यता के कायल थे जिसमें मानव अस्तित्व के खुशहाल और गौरवपूर्ण अस्तित्व की भावना सर्वोपरि हो। वे भावनात्मक स्तर पर अपने देश भारत से जुड़े थे परंतु संवेदना के स्तर पर उन्होंने समूचे विश्व को एक परिधि के अन्दर ला दिया था जिसमें नस्लवाद के लिए कोई जगह नहीं थी। अत: वे भारत के ही नहीं, समस्त विश्व के नागरिक थे अर्थात् एक सच्चे अंतर्राष्ट्रवादी थे।
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