तुलसी दास भक्ति भावना-रामचरित मानस और नीतिशास्त्र । Tulsi Das Ramchit Manas Ethics

तुलसी दास भक्ति भावना-रामचरित मानस और नीतिशास्त्र 

तुलसी दास भक्ति भावना-रामचरित मानस और नीतिशास्त्र । Tulsi Das Ramchit Manas Ethics


तुलसी दास की भक्ति भावना

 

  • तुलसी का युग व्यक्ति आंदोलन का युग था। देश की स्थिति ऐसी थी कि निराश जनता भगवान के अतिरिक्त अपना कोई भी अन्य सहारा नहीं देख रही थी। समाज में भक्तों के दो वर्ग थेजो भक्ति के स्रोतआराध्य के स्वरूपसाधना आदि के आधार पर बने थे।
  • एक वर्ग सगुण भक्ति धारा का था जिसकी दो प्रमुख शाखाएं हुई रामभक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा तथा दूसरा वर्ग निर्गुण भक्ति धारा का हुआ जिसकी दो प्रमुख शाखाएँ हुई- ज्ञानमार्गी शाखा और प्रेममार्गी भाषा। 
  • ज्ञानमार्गी शाखा को संत काव्यधारा नाम से जाना जाता है और प्रेममार्गी शाखा को सूफी काव्य धारा पहचानते हुए उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया। 
  • उन्होंने अनुभव किया कि दिशाहीन भ्रमित समाज के लिए निर्गुण ब्रह्म का उपदेश व्यर्थ है। मर्यादाहीन दिशाहीन समाज को राह पर लाने के लिए उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ति का साधन अपनाया और लोकमंगलकारी उपदेश दिया। 
  • उन्होंने यह अनुभव किया कि व्यथित समाज को किसी निर्गुण ब्रह्म की नहीं अपितु दुखियों की पुकार सुनने वालेतत्काल पहुँचकर उनकी रक्षा करने वालेअधर्म का नाश करके धर्म की प्रतिष्ठा करने वाले किसी सगुण-साकार ईश्वर की आवश्यकता है। जनता को लोकरक्षक वर्णाश्रम-धर्मपालक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवलंबन ही अपेक्षित है। अत: तुलसीदास जी ने राम की दास्यभक्ति की।

 

रामचरित मानस में शाश्वत मूल चेतना

 

  • शक्तिशीलसौंदर्य के समन्वित प्रतीक राम में मर्यादा की स्थापना और उसके व्यावहारिक रूप पर दृढ़ता से टिकने की भावना रामचरित मानस में अभिव्यंजित की गई है। पारिवारिकसामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के मधुर आदर्श तथा उत्सर्ग की भावना रामचरितमानस’ में सर्वत्र बिखरी पड़ी है। 
  • तुलसी की काव्य चेतना में जीवन मूल्यों एवं मानव मूल्यों का समन्वय है और यह मूल्य निरूपण भारतीय संस्कृति के उदात्त मूल्यों एवं नैतिकता के आदर्शों से अनुप्राणित है। 
  • कर्त्तव्य परायणताशिष्टाचारसदाचरणकर्मण्यतानिष्कपटताकृतज्ञतासच्चाईन्यायप्रियताउत्सर्ग की भावना समदृष्टिक्षमा आदि नैतिक मूल्यों का इस भक्ति काव्य में अग्रस्थान हैताकि समाजराजनीति एवं लोकजीवन उन्नत बने । 
  • रामचरित मानस में जीवन मूल्यों का क्षेत्र सीमित नहीं है। उनमें वैश्विक दृष्टि है। मानव मात्र के कल्याण की कामना है। जीवन मूल्यस्थानकाल के बंधनों से मुक्त स्वस्थ समाज एवं कल्याणकारी राजनीति की स्थापना में सहायक एवं मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं। 
  • रामचरित मानस में धार्मिक दार्शनिकसामाजिक एवं राजनैतिक जीवन मूल्यों का निरूपण सुंदर ढंग से हुआ है। धर्म का उद्देश्य हैमनुष्य को शुभत्व एवं शिवत्व की राह दिखा कर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर करना। इसके लिए तप और त्याग आवश्यक है। तप की महत्ता बताने वाली अनेक उक्तियाँ रामचरितमानस में मिलती हैं जैसे-

 

तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा। 

तप के अगम न कुछ संसार।

 

  • तुलसीदास जी ने तप का महत्व निरूपित करने के लिए ही वाल्मीकिअत्रिभारद्वाज, , नारद आदि को तपस्यालीन चित्रित किया है। त्याग का मूर्तिमंत उदाहरण यह है - बंधुत्रय - रामलक्ष्मण एवं भरत । चक्रवर्ती होने वाले राम वनवासी हो जाते हैं। लक्ष्मण अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का त्यागदीप्त जीवनमार्ग अपनाते हैं और भरत महल में प्राप्त राज्य में लक्ष्मी को तृणवत् मानकर भाई को ढूंढने निकल पड़ते हैं। तुलसीदास ने भारत के इस त्यागपूर्ण व्यक्तित्व को प्रशंसित करते हुए कहा है-

 

चलत पयादे खात फलपिता दीन्ह तजि राजु ।

जात मनावन रघुवंरहिभरत सरसि को आजु ।। 


सत्य को धर्म का पर्याय मानकर तुलसीदास कहते हैं-

 "धरमु न दूसर सत्य समाना"

 

इसी प्रकार परहित और अहिंसा की भावना का निरूपण करते हुए वे कहते हैं- 

परहित सरिस धर्म नहीं भाई पर पीड़ा सम नहिं अधमाई । "

 

  • रामचरितमानस’ में राजनीतिपरक मूल्यों का भी तुलसीदास जी ने विशद् निरूपण किया है। रामचरितमानस’' में तुलसी ने तत्कालीन मुगल प्रशासन तंत्र का चित्रण कलियुग के वर्णन के रूप में उत्तरकांड में किया है। उन्होंने नृपतंत्र के रूप में दशरथ के शासनतंत्र की मर्यादा बताई है तो दूसरी ओर जनक जैसे दार्शनिक तथा त्यागी सम्राट के राज्य संचालन को वर्णित किया है। किन्तु तुलसीदास राम के शासनतंत्र के समर्थक और रावण के शासनतंत्र के विरोधी हैं। तुलसी ने राजा को प्रजा का प्रतिनिधि माना है। राजा की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने उसकी निरंकुशता को सही नहीं माना है। उन्होंने उसी शासक को सच्चा शासक माना है जो पद को प्रजा की सेवा का निमित्त मानता है ।

 

  • रामचरित मानस’ उन आदर्शों की उर्वर भूमि हैजिसको अपनाने से किसी युग की प्रजा अपने कल्याण की साधना कर सकती है। वैसे तो रामराज्य का वर्णन रामचरितमानस के अलावा भी अन्य ग्रंथों में मिलता हैजैसे भागवत महापुराणपद्मपुराण इत्यादि में। किन्तु 'रामचरितमानसके 'उत्तर-कांडमें तुलसी ने राम-राज्य अथवा कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की है- पारस्परिक स्नेहस्वधर्म पालनधर्माचरण और आत्मिन उत्कर्ष का संदेशप्रजा एवं प्रवेश की आत्मीयता और आदर भावप्रीति एवं नीतिपूर्ण दाम्पत्य जीवनउदारता एवं परोपकारपूजा कल्याण एवं सुराज्य का संतोषप्रद वातावरण ये है उस धर्मयुक्त कल्याणमय राज्य की विशेषताएँ। रामराज्य के इस चित्रण के साथ तुलसी के आदर्श अथचा कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना शामिल है।। 

तुलसीदास की वर्तमान प्रासंगिकता 

  • तुलसीदास की वर्तमान प्रासंगिकता के संदर्भ में 'युगेश्वरकहते हैं कि राज्य की भावात्मक एकता के लिए जिस उदात्त चरित्र की आवश्यकता हैवह रामकथा में है। राम चरित मानस एक ऐसा वागद्वार है जहाँ समस्त भारतीय साधना और ज्ञान परम्परा प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है। इसमें (मानस में) देशकाल से परेशानदु:खी और टूटे मनों को सहारा तथा संदेश देने की अद्भुत क्षमता है। आज भी करोड़ो मनों का यह सहारा है। रामचरित मानसके संदेश को केवल भारत तक सीमित स्वीकृत करना इस महान ग्रंथ के साथ अन्याय होगा। 'रामचरित मानसयुगवाणी है। विश्व का एक ऐसा विशिष्ट महाकाव्य जो आधुनिक काल में भी ऊर्ध्वगामी जीवनदृष्टि एवं व्यवहारधर्म तथा विश्वधर्म का पैगाम देता है। 'रामचरितमानसअनुभवजन्य ज्ञान का अमरकोष है।

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