अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद । Arvind Ghosh's Nationalism in Hindi
अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद (Arvind Ghosh's Nationalism in Hindi)
अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद
श्री अरविन्द को भारत की महानता पर गर्व था। वह मानते थे कि अतीत में भारत एक महान् देश रहा है तथा भविष्य में उनका विश्व में एक गौरवशाली स्थान निश्चित है। उसे फिर से गौरवशाली स्थान पर प्रतिष्ठित करना हर भारतीय का उद्देश्य होना चाहिए। इस सम्बन्ध में श्री अरविन्द ने राष्ट्रवाद सम्बन्धी अपने विचार प्रकट किए जिनका वर्णन इस प्रकार है-
अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद की व्याख्या
- (1) राष्ट्रवाद की नई व्याख्या- अरविन्द के चिन्तन की विशेषता यह है कि उन्होंने राष्ट्रवाद को एक नया रूप प्रदान किया। वे भारत को केवल एक देश अथवा कोई भौगोलिक इकाई ही नहीं मानते थे। अरविन्द, भारत को एक दैविक रूप में माँ के रूप में देखते थे। वे कहते हैं, भारत पराधीन है, इसका अर्थ है हमारी माँ पराधीन है। हमें अपनी इस देवी माँ को मुक्त कराना है। अरविन्द, मातृभूमि को मुक्त कराना एक राजनीतिक अभियान ही नहीं वरन् एक पवित्र धर्म भी मानते थे।
- श्री अरविन्द ने "वन्दे मातरम्" में लिखा था- “राष्ट्रवाद क्या है? राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रवाद तो एक धर्म है जो ईश्वर के पास से आया है और जिसे लेकर आपको जीवित रहना है। हम सभी लोग ईश्वरीय अंश के साधन हैं। अत: हमे धार्मिक दृष्टि से राष्ट्रवाद का मूल्यांकन करना है।”
- इस प्रकार, अरविन्द ने राष्ट्रवाद को आध्यात्मिक रूप प्रदान किया। देश की स्वतंत्रता को राजनीतिक कार्य के स्थान पर आध्यात्मिक कार्य घोषित किया। अत: श्री अरविन्द आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के प्रणेता थे।
(2) राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद -
- श्री अरविन्द निःसन्देह राष्ट्रवाद के प्रबल प्रवक्ता थे। परन्तु साथ ही वह अन्तर्राष्ट्रवाद में भी विश्वास करते थे। वह मानते थे कि प्रत्येक राज्य को स्वतंत्र होना चाहिये और विश्व समुदाय में रचनात्मक भूमिका निभाई जाना चाहिये। श्री. अरविन्द ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व में आने से पूर्व ही एक विश्व समुदाय और विश्व राज्य की कल्पना की थी। श्री अरविन्द ने अपनी पुस्तक The Ideal of Human Unity में इस विश्व राज्य का दार्शनिक रूप प्रतिपादित किया और इसकी आवश्यकता पर बल दिया।
(3) राष्ट्रवाद और मानवतावाद-
- श्री अरविन्द का विचार है कि हमें भारतीयता पर गर्व करना चाहिए। उनके शब्दों में "सर्वप्रथम हम भारतीय बनें। हम अपने पूर्वजों की ख्याति को पुनः प्राप्त करें। हम आर्य विचार, आर्य चरित्र और आर्य अनुशासन टो पुन: प्राप्त करें।’’ लेकिन साथ ही वे भारतीयता को मानवता से भी जोड़ते हैं। वे मानते ये कि संसार के सभी मनुष्य एक ही विशाल विश्व चेतना के अंश हैं। इसलिये सभी मनुष्यों में एक आत्मा की अंश है। फिर उनमें संघर्ष या विरोध कैसा? अरविन्द के शब्दों में एक रहस्यमयी चेतना सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। यह एक दैवी वास्तविकता है। इसने हम सबको एक कर रखा है।
(4) राष्ट्रवाद और इसकी प्राप्ति के साधन
- श्री अरविन्द एक राष्ट्रवादी के रूप में भारत को राजनीतिक रूप से मुक्त कराना चाहते थे। इसके लिये वे उग्रवादी साधनों के उपयोग के पक्ष में थे। यद्यपि अरविन्द स्वयं क्रांतिकारी साधनों का पालन नहीं करते थे, परन्तु क्रान्तिकारियों से उनका निरन्तर सम्बन्ध बना रहता था और वे उनके प्रशंसक भी थे। अरविन्द अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध को “धर्म युद्ध" की संज्ञा देते हैं।
- तिलक के समान ही अरविन्द भी “स्वदेशी और "निषेधात्मक प्रतिरोध" के समर्थक थे। बंग-भंग का विरोध करने के लिये अरविन्द ने इन्हीं दो शस्त्रों का अंग्रेजों के विरुद्ध प्रयोग करने का आग्रह किया था। डॉ. लक्ष्मणसिंह के शब्दों में- 'सरकारी अदालतों और न्यायालयों के बहिष्कार को भी अरविन्द ने निष्क्रिय प्रतिरोध के
- बहिष्कार कार्यक्रम में सम्मिलित किया था। अरविन्द भी तिलक की तरह विदेशी संस्थाओं और कानूनों का विरोध करने का आग्रह करते थे।
- इस प्रकार श्री अरविन्द एक महान दार्शनिक के साथ राष्ट्रवादी भी थे। उन्होंने राष्ट्रवाद को एक नया आध्यात्मिक रूप प्रदान किया। साथ ही उनके राष्ट्रवाद में मानवतावाद और अन्तर्राष्ट्रवाद भी समाहित थे। डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में श्री अरविन्द हमारे युग के सबसे महान बुद्धिजीवी थे। राजनीति व दर्शन के प्रति उनके अमूल्य कार्यों के लिए भारत उनका सदा कृतज्ञ रहेगा'।
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