स्वामी दयानन्द राजनीतिक न होकर एक
उच्च श्रेणी के समाज सुधारक थे। लेकिन उन्होंने सामाजिक एवं
राजनीतिक दोनों ही विचारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उनके राजनीतिक प्रभाव
के मुख्यतः दो कारण हैं- पहला, उन्होंने
हिन्दी में वेदों का सार प्रस्तुत करके, दलितों
एवं नारी उद्धार हेतु संघर्ष करके पुरातन कुप्रथाओं और संकीर्णताओं का विरोध करके
स्वराज्य का नारा बुलन्द करके भारतीय जनजीवन में नवचेतना का संचार किया। जिससे
भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार हुई। इस पृष्ठभूमि पर ही चलकर
भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की। दूसरे, स्वामी
दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की, जो
एक शक्तिशाली संस्था के रूप में भारतीय जगत पर स्थापित हुई। इसके द्वारा उन्होंने
समस्त भारत में समानता एवं स्वतंत्रता का सन्देश घर-घर पहुँचाया। उनके राजनीतिक
विचार“सत्यार्थ प्रकाश” तथा “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” दोनों
ग्रन्थों में मिलते हैं।
स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं-
स्वराज्य का उद्घोष -
'स्वशासन' तथा 'स्वराज्य' की पुकार सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द के
द्वारा उठाई गई थी। उन्होंने यह उद्घोष उस समय किया था जब कोई भी व्यक्ति यह साहस
नहीं कर सकता था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध कुछ कहे। उनका यह शक्तिशाली
तथा निर्भीक कथन ही सर्वप्रथम भारत के वायुमण्डल में गूँजा था। विदेशी सरकार चाहे
सब प्रकार से धार्मिक, पक्षपातों से मुक्त तथा देशी व विदेशी
लोगों के प्रति निष्पक्ष ही क्यों न हो, लोगों
को पूर्ण रूप से प्रसन्नता प्रदान नहीं कर सकती।
स्वामीजी के यह सभी विचार राष्ट्रवादी
थे। भारत पर गर्व करो, प्राचीन वैदिक संस्कृति का अनुसरण करो
तथा भारत को फिर से उन्नत करने का प्रयास करो। इन्हीं विचारों का स्वामी दयानन्द
ने सम्पूर्ण जनता में प्रचार किया जिससे लोगों के मन में विदेशी शासन के प्रति
आक्रोश उत्पन्न हुआ और आगे चलकर स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार हुई।
राष्ट्रीय चेतना की भावना को जाग्रत करने में भारत के प्राचीन वैभव एवं शौर्य के
प्रति जनता को शिक्षित करके स्वामी दयानन्द ने महत्वपूर्ण कार्य किया था।
भारतीय राष्ट्रवाद-
1857 के स्वंतत्रता संग्राम की असफलता के
पश्चात की दशा तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के कार्य कलाप और शासन की ओर से उनकी
सहायता के फलस्वरूप समाज और धर्म की जो हानि हो रही थी उसे देखकर स्वामीजी ने
अनुभव किया कि धर्म ही सब प्रकार की विपत्तियों से रक्षा कर सकता है, अत: उनके धार्मिक पुनर्जागरण के प्रयास
में राष्ट्रीय पुनर्जागरण का दूरगामी प्रभाव भी था। भारतीय सामाजिक तथा राष्ट्रीय
भावना एवं चरित्र की स्वामीजी के द्वारा चतुर्दिक उन्नति को लक्ष्य करके ही गांधी
ने उन्हें बारम्बार आदर एवं श्रद्धा के साथ प्रणाम किया। स्वामीजी के लिए रवीन्द्रनाथ
टैगोर का यह कथन अक्षरशः सत्य है- वे ऐसा बौद्धिक जागरण चाहते थे, जो
आधुनिक युग की प्रगतिशील भावना के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और साथ ही साथ देश
के उस गौरवशाली अतीत के साथ अटूट सम्बन्ध बनाए रख सके। जिसमें भारत ने अपने
व्यक्तित्व का कार्य तथा चिन्तन का स्वतंत्रता में और आध्यात्मिक साक्षात्कार के
निर्मल प्रकाश के रूप में व्यक्त किया था।
स्वदेशी वस्तुओं से प्रेम
स्वामी
दयानन्द ने ही उस राष्ट्रीय भावना को उभारा था जिसे आगे चलकर गांधीजी ने आगे
बढ़ाया। स्वामीजी का मत था कि स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्तम है। स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी वस्तुएँ और स्वभाषा आदि सभी के
सम्बन्ध में उनके जो विचार थे उनसे समाज में स्वराज्य की भावना पुष्ट हुई।
उन्होंने जनता को इस बात के लिए समझाया एवं प्रोत्साहित किया कि सब लोग विदेशी
वस्त्रों का बहिष्कार करें और देश में बने खादी के कपड़े पहनें। जोधपुर के
तत्कालीन नरेश, स्वामी दयानन्द के विचारों से इतने
प्रभावित हुए थे कि उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ कर दिया तथा विदेशी
वस्तुओं का परित्याग किया।
लोकतन्त्र का समर्थन
अपने प्रसिद्ध
ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उस लोकतंत्र के
निर्माण, स्वरूप, शासन तथा न्याय सम्बन्धी धारणाओं की विवेचना की है जिसकी वे भारत में
स्थापना करना चाहते थे। वह उनका आदर्श लोकतन्त्र था। स्वामीजी के चिन्तन मनन और
व्यवहार में वे तीन आदर्श समान रूप से देखे जाते हैं जिन पर वर्तमान लोकतंत्र
आधारित है। वे हैं, स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व। स्वामीजी ने जिस
लोकतन्त्र की कल्पना की थी उसमें यह व्यवस्था है कि जनसाधारण स्वतन्त्रता को समान
आधार पर भोग सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपने सभी उचित कार्यों के लिए पूर्ण
स्वतन्त्रता है। कोई शक्ति इसमें बाधक नहीं सकती। स्वामीजी ने एकाधिकारवाद एवं
विशेषाधिकारवाद की प्रवृत्तियों को स्वीकार नहीं किया जिससे कि समानता आ सके। उनका
लोकतंत्र प्रत्येक वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति तथा लिंग के लिए समान है उसमें यह
नितान्त आवश्यक है कि समानता के आदर्श पर सभी आचरण करें। स्वामीजी भ्रातृत्व की
भावना को आवश्यक मानते थे जिससे सामाजिक जीवन गतिशील बना रहे। उनके लोकतन्त्र के
प्रारूप का मूल स्रोत 'मनुस्मृति' है जिसकी शिक्षा के अनुसार ही उन्होंने
यह व्यवस्था रखी है कि राज्य व्यवस्था में सभासदों तथा मन्त्रियों का आचरण मर्यादित
हो । नैतिकता के आधार पर धार्मिक मान्यताओं का समर्थन भी मनुस्मृति के अनुकूल ही
है।
राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन-
स्वामी
दयानन्द का जन्म गुजरात में हुआ था। स्वाभावत: उन्हें अपनी प्रान्तीय भाषा, गुजराती विशेष प्रिय थी। परन्तु उनकी
दृष्टि में केवल प्रान्त नहीं, पूरा
राष्ट्र था। वे सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रतिनिधि थे तथा उनका दृष्टिकोणसंकुचित न होकर बड़ा व्यापक था। अपने
राष्ट्रवादी सिद्धान्त के अनुसार वे स्वराज्य, स्वदेशी, स्वधर्म और स्वभाषा सभी को पूरे भारत
के परिवेश में देखते थे। अत: उन्होंने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर तथा
राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करने हेतु अपनी समस्त टीकाएँ तथा ग्रन्थ राष्ट्रभाषा
हिन्दी में ही लिखे।
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