मध्य प्रदेश के भौगोलिक प्रदेशों की ऐतिहासिक पहचान राजनीतिक सीमायें । Historical Geographical regions of Madhya Pradesh

मध्य प्रदेश के  भौगोलिक प्रदेशों की ऐतिहासिक पहचान

मध्य प्रदेश के भौगोलिक प्रदेशों की ऐतिहासिक पहचान राजनीतिक सीमायें । Historical Geographical regions of Madhya Pradesh


 

मध्य प्रदेश के  भौगोलिक प्रदेशों की ऐतिहासिक पहचान

  • मध्यप्रदेश के अनेक क्षेत्रों को आज भी उनके ऐतिहासिक नामों से जाना जाता है। मालवाजेजाकभुक्तिबुन्देलखण्डबघेलखण्ड और गोंड़वाना कुछ ऐसे ही बहुप्रचलित नाम हैं। इनमें से अंतिम चार भौगोलिक दृष्टि से विन्ध्यांचल तथा ऊपरी नर्मदा घाटी के क्षेत्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से ये चारों प्राचीन चेदि की ही परवर्ती राजनैतिक इकाइयाँ हैं। प्राचीन चेदि राज्य का विवरण महाभारत में मिलता हैपरन्तु ऐतिहासिक चेदि की पहिचान कलचुरियों के शासन काल में मिलती है।

मालवा भौगोलिक प्रदेश मध्यप्रदेश

  • मालवा मध्यप्रदेश के सबसे सम्पन्न भौगोलिक प्रदेश का मालवा नाम कब से प्रचलित हुआठीक नहीं कहा जा सकता। आधुनिक मालवा का प्राचीन नाम अवन्ति था। 
  • प्राचीन काल में भारत में अनेक गणराज्य थे जो तत्कालीन जातियों के नाम से जाने जाते थे। कहा जाता है 'मालवजाति का प्रसार प्राचीन अवन्ति प्रदेश में था। भारत का प्राचीन विक्रम संवत् मालव जाति के नायक 'विक्रमादित्यकी शकों पर विजय के उपलक्ष्य में प्रारंभ किया गया था। यही विक्रम संवत् परवर्ती काल में मालव संवत् के नाम से भी प्रचलित रहा (पाण्डे, 1988 ) । समझा जा सकता है कि किसी जाति विशेष के नाम पर प्रचलित यह मालवा भौगोलिक प्रदेश मध्यप्रदेश का ही नहींभारत के प्राचीनतम भौगोलिक प्रदेशों में से एक है।

बुन्देलखण्ड भौगोलिक प्रदेश

  • बुन्देलखण्ड विन्ध्यांचल के पश्चिमी कुछ जिले जो मध्यप्रदेश एवं उत्तर प्रदेश की सीमा तक फैले हैंबुन्देलखण्ड-कहलाते हैं। 
  • वर्तमान बुन्देलखण्ड का अस्तित्व ईस्वी सन् 1531 में आया जब बुन्देला राजा रूद्रप्रताप सिंह ने ओरछा (जिला टीकमगढ़) को राजधानी बनाकर अपने राज्य का विस्तार किया।
  •  बुन्देलखण्ड वीरसिंह जूदेव के काल तक स्वतंत्र राज्य थाउन्होंने मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली थी। बुन्देलखण्ड एक बार पुनः चम्पतराय के पुत्र छत्रसाल के समय स्वतंत्र राज्य बना। मुगल सेनापति बंगश खाँ के आक्रमण से निपटने के लिये वृद्ध छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा की मदद ली। इस आपदा के टल जाने पश्चात् छत्रसाल ने अपना एक तिहाई राज्य बाजीराव को दे दिया। 
  • ओरछा घराने का ही शासन वर्तमान दतिया-निवाड़ी पर था। दतिया राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व 1626 ईस्वी में हुआ। वीरसिंह बुन्देला का पुत्र भगवानदास राव इस राज्य का संस्थापक राजा हुआ।

 

बघेलखण्ड भौगोलिक प्रदेश

  • विन्ध्यांचल के पूर्वी भाग के एक बड़े क्षेत्र को बघेलखण्ड कहा जाता है। बघेल मूलतः गुजरात के सोलंकी शासकों (10वीं सदी से 13वीं सदी) के वंशज थे। अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सामना न कर पाने के फलस्वरूप गुजरात के इस क्षत्रियवंश ने सर्व प्रथम कालिंजर में शरण ली और फिर उन्होंने पूर्व की ओर प्रवेश किया। समझा जाता है ईस्वी सन् 1233 में राजा व्याघ्रदेव ने जो गुजरात के तत्कालीन शासक के भाई थेइस क्षेत्र में प्रवेश किया था। इस वंश के राजाओं ने अकबर के काल में मुगलों की आधीनता स्वीकार कर ली थी। इस वंश की अठारह पीढ़ियों ने इस क्षेत्र में राज्य किया।

 

गोंड़वाना भौगोलिक प्रदेश

  • नर्मदाघाटी के कलचुरियों की सत्ता समाप्त हो जाने के पश्चात् उन जनजातीय गोंड़ों ने ऊपरी नर्मदा घाटी के उर्वर क्षेत्रों में अपना अधिकार जमाया जो मूलतः दक्षिण भारत के राजाओं की सेना में सैनिक रह चुके थे तथा जो गोदावरी की घाटी से उत्तर की ओर नर्मदा की घाटी तक अलग-अलग कालखण्डों में यहाँ तक पहुँचे थे। राजगोड़ों का यह राज्य गोंड़वाना कहलाया।

 

  • उत्तर मध्यकाल में यह क्षेत्र भूराजनीति का वृष्टिछाया प्रदेश गया जहाँ नर्मदाघाटी के चारों ओर दूर-दूर तक वनाच्छादित पर्वत थे। इस स्थिति में गोंड़ों ने राजगोंड़ वंश के राज्य की नींव प्राचीन त्रिपुरी के निकट गढ़ा में डाली यदुराय इसका पहला राजा था परन्तु इस राज्य का सबसे प्रतापी राजा संग्रामशाह था जो राजनीति में भी अत्यंत कुशल था। उसने पड़ोसी बघेलों से उत्तम संबंध बनाये तथा केन्द्रीय मुस्लिम शक्ति को अपना विरोधी नहीं बनने दिया। इस स्वतंत्र राजगोंड़ राज्य का अंत अकबर के शासनकाल में हुआजब गढ़ा-मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती ने विदेशियों की सत्ता स्वीकार करने के स्थान पर युद्ध करने का निर्णय ले आत्मबलिदान करना उचित समझा। 
  • इसके बाद राजगोंड़ों के राज्य या गोंड़वाना का बड़ा हिस्सा मालवा सूबा में मिला दिया गया। राजगोंड़ मुगलों के करद राजाओं के रूप में निरंतर सिकुड़ती सीमाओं के साथ अपना अस्तित्व बनाये रखने में सफल रहे किंतु मराठों से युद्ध पश्चात् इस राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। अंतिम निर्वासित गोंड़ राजा शंकरशाह और उसके पुत्र रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ते हुये वीरगति पाई। 


मध्यप्रदेश की ऐतिहासिक राजनीतिक सीमायें और सुरक्षा

 

  • दुर्गों का क्षेत्रीय महत्व मध्यकाल तक राजाओं के राज्य का विस्तार उनके द्वारा जीते गये दुर्गो से पता चलता था। दुर्ग राजधानियोंव्यापारिक नगरों तथा सीमान्त क्षेत्रों से संबंधित होते थे। कभी पूरा नगर ही दुर्ग में होता तो कभी कोई समीपवर्ती दुर्ग नगर की सुरक्षा के लिये होता। 
  • यद्यपि दुर्ग मैदानी इलाकों पर भी होते थेपर मध्यप्रदेश के अधिकांश दुर्ग 'गिरि दुर्गवर्ग के हैं। अन्य वर्गों में 'जलदुर्गऔर 'वनदुर्गइत्यादि भी होते थे।
  • मध्यप्रदेश में राजगोंड़ों का मंडला दुर्ग 'जलदुर्गही तथा 'सिंगौरगढ़' 'वनदुर्गथा। 
  • भारत में दुर्गों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। मध्यप्रदेश के सभी पहाड़ी स्थानों पर दुर्ग मिलते हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विन्ध्य क्षेत्र में मध्ययुगीन चन्देलों से पूर्व पाण्डुवंशियोंप्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के आधिपत्य का पता चलता है। ऐसी ही स्थिति में नगरों का महत्व बढ़ा तथा इन नगरों में से जो नगर सामरिक महत्व के थे उन्हें दुर्गीकृत किया जाने लगा। 
  • मध्यप्रदेश के अत्यंत प्रसिद्ध दुर्गो में ग्वालियर दुर्ग तथा असीरगढ़ है जो मध्यप्रदेश के एकदम उत्तरी और एकदम दक्षिणी भागों में स्थित हैं। दोनों दुर्ग विन्ध्यपर्वत पर स्थित नहीं हैंपरन्तु सामरिक दृष्टि से दोनों का बड़ा महत्व है।


मध्य प्रदेश के इतिहास में दुर्गो का महत्व 

  • भौगोलिक प्रदेश की दृष्टि से विन्ध्य क्षेत्र के दुर्गो का विशेष महत्व है। विन्ध्य क्षेत्र का कुछ भाग मध्यप्रदेश की सीमा के बाहर है अतः वहाँ के दुर्ग भी मध्यप्रदेश की भूराजनीति के लिये महत्वपूर्ण रहे हैं। ऐसे दुर्गों में झांसी का किला महत्वपूर्ण है जिसका आधुनिक काल की भूराजनीति में महत्वपूर्ण स्थान था। 
  • परन्तुपूर्वमध्यकाल से उत्तरमध्यकाल तक मध्यप्रदेश की राजनीति में कालिंजर दुर्ग का नाम उल्लेखनीय है। 
  • चंदेलो के काल में अनेक नये दुर्ग बनाये गये थे तथा पुराने दुर्गों को मजबूत किया गया था। 
  • कालंजर (उत्तरप्रदेश)अजयगढ़खजुराहोगोपगिरि (ग्वालियर)कीर्तिगिरि (देवगढ़) मदनपुर और महोबा (उत्तरप्रदेश) के दुर्गों पर चंदेलों ने विशेष ध्यान दिया था। विन्ध्यक्षेत्र के दुर्गों में कालंजर का विशेष महत्व था। 
  • अनुश्रुतियों के अनुसार चंदेल वंश के प्रारंभिक राजा चन्द्रवर्मन ने इस दुर्ग का निर्माण किया किंतु अभिलेखीय साक्ष्यों में इस दुर्ग के संस्थापक का नाम 'नन्नुकमिलता है। कालंजर के साथ भारतीय इतिहास की अनेक महत्वपूर्ण घटनायें जुड़ी हैं। 
  • दुर्गों का भूराजनीतिक महत्व इसी से समझा जा सकता है कि जब तक दुर्ग राजा के हाथ में रहता तभी तक वह उस क्षेत्र का शासक रहता था। 


  • प्रत्येक दुर्ग के साथ ऐतिहासिक कहानियाँ जुड़ी रहती हैं। यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि दुर्गों का उपयोग सदा ही व्यक्ति सापेक्ष्य रहा है उदाहरण के लिये कालिंजर दुर्ग का उपयोग चंदेल राजा विद्याधर ने रणचातुरी से किया और इसके फलस्वरूप महमूद गजनवी जैसे दुर्दात लुटेरे को असफलता हाथ लगी और वह विद्याधर से संधि कर वापस लौट गया। किंतु कुछ वर्षों बाद ही परवर्ती शासक परमर्दिदेव ने यह दुर्ग कुतुबुद्दीन ऐबक को समर्पित कर दिया। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस दुर्ग में पानी की कमी का उपयोग विद्याधर ने रणकौशल के लिये किया था परन्तु इसी कमी के कारण परमर्दिदेव दुर्ग खो बैठा। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 16वीं सदी तक यदि दुर्ग आक्रान्ताओं द्वारा जीते भी गये तो उनकी यह जीत अस्थाई होती थी। यही कालंजर के साथ भी हुआ कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालंजर विजय के पश्चात् किले की बागडोर हजबरूद्दीन अर्गल के हाथ सौंपीपरंतु कुछ वर्षों बाद ही त्रैलोक्यवर्मन ने मुस्लिम आक्रान्ताओं को खदेड़ कर 'कालंजराधिपतिका विरूद्ध धारण किया। 

 

  • यह भी उल्लेखनीय है कि चंदेलो ने दुर्गों का महत्व समझा था उन्हीं के राजस्वकाल में कच्छपघात् क्षत्रियों को चंबल क्षेत्र का सूबेदार बनाकर ग्वालियर दुर्ग सौंपा गया था। ईस्वी सन् 1394 में वीरसिंह तोमर के हाथ ग्वालियर का किला आ गया। इन दिनों भारत की केन्द्रीय सत्ता में लोदी सुल्तान थे। इस वंश के प्रतापी राजा मानसिंह तोमर के जीवनकाल में दिल्ली के सुल्तानो के सारे आक्रमण विफल रहेउसकी मृत्यु के पश्चात् ही 1517 ईस्वी में इब्राहीम लोदी ग्वालियर पर विजय प्राप्त कर सका।


नगरों की स्थापना में भौगोलिक स्थितिका महत्व 

  • नगरों की स्थापना में भौगोलिक स्थितिका बड़ा महत्व है। अधिकतर प्राचीन नगर और राजधानियाँ नदियों के तट पर बसाये गये। राजधानियों के बदलाव या परिवर्तन में राज्य विस्तार और संकुचन प्रमुख कारण रहे हैं। 
  • ऐतिहासिक भूगोल का यह निष्कर्ष स्मरण रखने योग्य है कि भौगोलिक कारक इतिहास को बनाने में सहायक होते हैंपरन्तु इतिहास तो मनुष्य ही सदा से बनाता आया है।


मध्यप्रदेश प्रादेशिक नामों की उत्तर जीविता

 

मालवा (ईसा की तीसरी सदी से नाम का प्रचलन का संभावित) 

बुन्देलखण्डबघेलखण्डगोंडवाना, (ईसा की 10-11वीं सदी से नाम का प्रचलन संभावित)

 

  • बुन्देलखण्ड की राजधानियाँ -ओरछापत्रा
  • बघेलखण्ड की राजधानियाँ -बान्धवगढ़रीवा 
  • गोंडवाना की राजधानियाँ -गढ़ामण्डलारामनगर 
  • मालवा की राजधानियाँ -महेश्वरउज्जयिनीधार




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