मालवा के उत्कर्ष का काल खण्ड।ऊन के परमार कालीन मंदिर। Malwa Ka Kalkhand

 मालवा के उत्कर्ष का काल खण्ड,ऊन के परमार कालीन मंदिर

मालवा के उत्कर्ष का काल खण्ड।ऊन के परमार कालीन मंदिर। Malwa Ka Kalkhand



मालवा के उत्कर्ष का काल खण्ड

 

  • दसवीं सदी के लगभग मालवा में परमारों ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया। 
  • मुंज ने त्रिपुरी के कल्चुरियों, राजस्थान के चौहानों, गुजरात और कर्नाटक के चालुक्यों से संघर्ष किया। 
  • मुंज, भोज व उदयादित्य का काल परमार कला का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस काल के राजा केवल प्रशासक ही नहीं थे, वरन् इनकी ख्याति कलामर्मज्ञ व साहित्यकार के रूप में भी थी।
  • परमार नरेश भोज द्वारा रचित शिल्पशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ समरांगण सूत्रधार में भूमिज शैली के मंदिर स्थापत्य के निर्देशक सिद्धांत दिये हैं। परमार राजाओं द्वारा विकसित इस शैली ने भारत भर में प्रसिद्धि प्राप्त की। 
  • मध्यकालीन इतिहास से पता चलता है कि इस युग में कला के विकास में धर्म एक प्रमुख आधार रहा है। इसी कारण प्रतिमालक्षण निर्धारण के लिये इस काल में शास्त्रों की रचना की गई। समरांगणसूत्रधार व रूपमण्डन परमार शिल्प के प्रमुख आधार रहे हैं।

 

ऊन के परमार कालीन मंदिर

  • ऊन में परमार कालीन स्थापत्य का कला वैभव उल्लेखनीय है ऊन के अनेक मंदिर विक्रम संवत् 1218 के बने हुये कहे जाते हैं। यहाँ के मंदिर समूह अपेक्षाकृत सुरक्षित अवस्था में हैं। ये मंदिर ब्राह्मण और जैन धर्मो के है। उनके मंदिरों का निर्माण परमार राजाओं ने कराया था किंतु उनके जीर्णोद्धार तथा कुछ नये मंदिरों का निर्माण राजा बल्लाल ने कराया। 
  • बल्लालेश्वर का मंदिर एवं उसका स्पष्ट एवं अपठनीय लेख यह सिद्ध तो करता है कि बल्लाल ने इस क्षेत्र में निर्माण कार्य कराया था किंतु यह सिद्ध नहीं होता कि सारा निर्माण कार्य उसी ने कराया।
  • बल्लाल से पूर्व इस क्षेत्र के जिन परमार शासकों ने उनके विशाल मंदिरों का निर्माण किया उनमें एक उदयादित्य की भी गणना की जाती है। 
  • ऊन के विशाल हिन्दू चौबारा डेरा में एक लेख उत्कीर्ण है। ऐसा लेख उदयपुर के नीलकण्ठेश्वर मंदिर और उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में भी विद्यमान है जिसका संबंध परमार राजा उदयादित्य (1070-1080 ईस्वी) से है। 
  • कहा जाता है ऊन का चौबारा डेरा नम्बर एक मंदिर पाठशाला के रूप में प्रयोग होता था। इस मंदिर से प्राप्त लेख में संस्कृत व्याकरण के नियम तथा धारा की भोजशाला के समान ही एक सर्पबंध लेख है जिसमें स्वर एवं व्यंजन सहित वर्णमाला अंकित है। 
  • परमार राजाओं में भोज अत्यंत प्रतापी राजा था, उसने कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष में सफलता प्राप्त की, त्रिपुरी के कल्चुरी नरेश गांगेयदेव को भी परास्त किया। लाट, कोंकण, कन्नौज आदि स्थानों के शासकों से उसने युद्ध किया। चित्तौड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, भेलसा और भोपाल से गोदावरी तक का क्षेत्र उसके अधिकार में था। भोज स्वयं अत्यंत वीर एवं विद्वान राजा था।

 

ऊन में परमार कालीन स्थापत्य का कला वैभव उल्लेखनीय है ऊन के अनेक मंदिर विक्रम संवत् 1218 के बने हुये कहे जाते हैं।

  • परमार कालीन मालवा में शिक्षा संस्थायें राज्य एवं प्रजा दोनों के द्वारा संगठित की जाती थीं। परमार शासकों ने ब्राह्मणों के लिये नई बस्तियाँ बनाई थीं तथा उनके रहने की व्यवस्था की थी। इस प्रकार की बस्तियाँ को अग्रहार ग्रामों के नाम से पुकारा जाता था। 
  • विक्रम संवत् 1331 के मान्धाता लेख से ज्ञात होता है कि साधनिक अनयसिंह ने जयसिंह जयवर्मन की अनुमति से ब्रह्मपुरी मे ब्राह्मणों को बसाने के लिये ग्राम दान दिये थे। मण्डपदुर्ग में यह ब्रम्हपुरी दान प्राप्त ब्राह्मणों के निवास स्थान के रूप में वर्णित है। 
  • परमार काल में मठ शिक्षा संस्थाओं के रूप में प्रयोग होते थे जहाँ सम्पन्न व्यक्ति गुरु एवं शिष्य को योग्यता के आधार पर भोजन, वस्त्र तथा अन्य वस्तुएँ देते थे। उपेन्द्रपुर, मत्तमयूरपुर, कदम्बगुहा, तेरम्बि, आमर्दकतीर्थ, रणोद, सियदोनि, विल्हरी, सर्वय, चन्देरी और कुण्डलपुर के मत्तमयूर सम्प्रदाय के शैव मठ एवं मंदिर ऐसी ही संस्थाएं थी। बाहर से आने वाले छात्रों के लिये छात्रावास थे। 
  • भोज ने मण्डपदुर्ग (मांडू) में कई सौ छात्रों के लिये एक छात्रावास बनवाकर गोविन्दभट्ट को उसका अध्यक्ष नियुक्त किया था। 
  • विक्रम सम्वत् 1078 में भोज के दानपत्र में वर्णित वीराणक ग्राम को पाने वाला इसी गोविन्दभट्ट का पुत्र कहा जाता है। 
  • भोज, उदयादित्य, नरवर्मन, अर्जुनवर्मन आदि शासकों के समय इस पाठशाला में अनुमानतः चार हजार श्लोकों को पत्थरों पर खुदवाया गया था। 
  • भोज के समय से ही धारा नगरी विद्याध्ययन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था जहाँ भारत के विभिन्न भागों से छात्र आते थे। परमार काल में भी उज्जयिनी मालवा की ही नहीं भारत की साहित्यिक राजधानी बनी रही मालवा का नालच्छा जैन शिक्षा का केन्द्र था।
  • मालवा का अन्य नगर गोनन्द भी जैन धर्म और शिक्षा का केन्द्र था। 'णेमिणह चरिउ' (नेमिनाथ चरित्र) का लेखक लक्ष्मणदेव इसी गोनन्द नगर का निवासी था। 


भोजेश्वर शिवमंदिर

  • परमारों की कलाप्रियता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भोज द्वारा बनवाया गया बेतवा के दक्षिणी तट पर भोजेश्वर शिवमंदिर है। पश्चिमाभिमुखी यह मंदिर भारत के सबसे विशाल मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का गर्भ प्रवेश द्वार अब तक ज्ञात सभी हिन्दू मंदिरों में सबसे अधिक विशाल है, यह पैतीस फीट ऊँचा और पन्द्रह फुट चौड़ा है। मंदिर के स्तंभों की बनावट और नक्काशी अत्यंत कलापूर्ण है। मंदिर के गर्भगृह में 3.5 मीटर ऊँचे एवं 5.338 मीटर व्यास की पीठिका के ऊपर एक विशाल शिवलिंग है। यह शिवलिंग भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग कहा जाता है।

 

  • इस मंदिर के समीप ही बहुत से उत्कीर्ण पत्थर एवं अधबने छोटे मंदिर का ढांचा है, इससे उस काल के शिल्पियों की कार्यशैली का ज्ञात होता है। यह संभव है कि यहाँ पर और भी मंदिरों के निर्माण की योजना रही हो किन्तु वह किसी कारणवश पूर्ण न हो सकी।

 

  • मध्यप्रदेश में एक कहावत मशहूर है कि 'ताल है भोपाल ताल, और सब तलैया', यह अक्षरशः सत्य है। इस कहावत में कहे गये तालाब का आशय उस विशाल झील से है जिसे राजा भोज ने भोजपुर ग्राम के समीप निर्माण किया था। यह प्राचीन तालाब वर्तमान तालाब से कई गुना बड़ा था। लोक कथाओं के अनुसार इस तालाब के स्थान पर 365 नदी नालों का पानी एकत्रित किया गया था। 
  • यह भी कहा जाता है कि राजा भोज ने गोंड़ सरदार वालिया की सलाह मानते हुये एक नदी का मार्ग परिवर्तित कर यहाँ अवरुद्ध करा दिया था। 
  • डबल्यू. किनकेड (1888) के अनुसार यह जलाशय भोपाल के दक्षिण में स्थित दुभखेड़ा ग्राम तक और दक्षिण में कालियाखेड़ी तक फैला था तथा इसका क्षेत्रफल 250 वर्ग किलोमीटर था। 


  • इतिहासकारों के अनुसार माण्डू के शासक होशंगशाह ने सन् 1430 में इस जलाशय की पाल तुड़वा दी। किवदंतियों के अनुसार इसे तोड़ने में तीन माह का समय लगा, इसके लिये गोंड़ों की एक पूरी सेना को लगाया गया था। इसके एक विशाल हिस्से को खाली होने में तीन वर्ष का समय लगा और कृषि प्रारंभ होने में 30 वर्ष । किनकेड ने इस ताल की अधिकतम गहराई 100 फुट (30 मीटर) मानी थी।

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