मध्यप्रदेश के अभिलेख और उनसे संबन्धित राजवंश । MP Ke Abhilkeh Aur Rajvansh
मध्यप्रदेश के अभिलेख और उनसे संबन्धित राजवंश
मध्यप्रदेश के अभिलेख और उनसे संबन्धित राजवंश
काले-और-लाल पात्रों का लोहे से सम्बन्ध और उसके बाद, म.प्र. के विभिन्न स्थलों की पुरातात्त्विक खुदाई में निकले उत्तरी काली पालिश वाले बर्तनों को ई.पू. आठवीं और छठवीं सदी के मध्य का माना गया है। यह मध्यभारत में इतिहास के काल का प्रारंभ करता है।
मध्यप्रदेश इतिहास स्त्रोत के रूप में अभिलेख
पत्थरों और ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण शिलालेख मध्यप्रदेश के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के पुनर्निर्माण का एक प्रमुख पुरातात्विक स्रोत है। अब तक प्राप्त अभिलेखों की कालक्रमानुसार रूपरेखा निम्नाकिंत है:
मौर्य काल के अभिलेख मध्यप्रदेश :
- अशोक के समय के तीन राजाज्ञा पाषाण लेख जो रूपनाथ, गुजर्रा और पानगुड़ारिया से मिले हैं, और एक धमदिश साँची में है, म.प्र. में उपलब्ध सबसे प्रारम्भिक पुरालेखीय अभिलेख हैं। इसके साथ मौर्य ब्राह्मी लिपि के मिले-जुले शिलालेख जो कारीतलाई, खरबई, तालपुरा, भीयांपुर, सांची, नलपुरा और पानगुड़ारिया से मिले हैं, इस ओर संकेत करते हैं कि मध्यप्रदेश मौर्य साम्राज्य का अभिन्न भाग था।
सातवाहन वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- दक्षिण के सातवाहनों ने अपने राज्य को दूर-दूर तक फैलाया था उसमें म.प्र. का कुछ भाग भी सम्मिलित था। इस काल से संबन्धित एक अभिलेख साँची में उत्कीर्ण पाया गया है।
इन्डो-ग्रीक के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- बेसनगर (विदिशा) स्थित गरुड़-स्तम्भ लेख में भागभद्र को शासनकाल में यवन शासक अन्तिलिकित के राजदूत हेलियोदोर द्वारा गरुड़-ध्वज स्थापना का उल्लेख मिला है।
शक क्षत्रप के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- इन्डो-ग्रीक शासकों के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के बड़े भाग पर शक क्षत्रप शासक हुए। शक क्षत्रपों का म.प्र. में प्रवेश उज्जैन और मालवा के कई स्थानों से मिले बहुत से सिक्कों से पुष्ट हुआ है। क्षत्रपों से सम्बंधित एक छोटा सा अभिलेख उज्जैन से मिला है। एरण और कानाखेड़ा में शक श्रीधरवर्मन के दो अभिलेख मिले हैं।
कुषाण वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- म.प्र. में दो कुषाण अभिलेख अलग से मिले हैं। इनमें से एक वासिष्क का साँची से और दूसरा जबलपुर में भेड़ाघाट से मिला है। इन दो अभिलेखों और कुछ सिक्कों के आधार पर, मध्यप्रदेश में कुषाण राज्य का कितना विस्तार हुआ, यह बता पाना कठिन है।
गुप्त वंश के मध्य प्रदेश में अभिलेख
- समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख से ज्ञात होता है कि अपने विजय अभियान के अन्तर्गत उसने मध्यप्रदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था। एरण से मिले एक अभिलेख के अनुसार शहर के आस-पास का क्षेत्र "स्वभोग-नगर" कहलाता था जहां समुद्रगुप्त विश्राम करने के लिये आता था।
- गुप्तों के इतिहास में एक अन्य विवादास्पद व्यक्ति था रामगुप्त। लेकिन विदिशा में मिले तीन जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों के पादपीठ पर लिखे उसके शासन काल के अभिलेख ने उसकी पहचान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उसके सिक्के भी विदिशा के उत्खनन में मिले हैं।
- उदयगिरी की पहाड़ियों में प्राप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के सांधिविग्रहिक, वीरसेन का अभिलेख भी एक महत्वपूर्ण लिखित साक्ष्य है। इसी क्षेत्र में चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामंत सनकानिक महाराज का भी एक अभिलेख मिला है। इसे गुप्त संवत् 82 (401-2ई.) का माना गया है।
- गुप्त संवत् 93 का एक अभिलेख साँची से भी प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में चन्द्रगुप्त के एक कर्मचारी, आम्रकार्दव का उल्लेख है, जिसने काकनादबोट (साँची) में स्थित महाविहार को कुछ दान दिया था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारी, कुमारगुप्त प्रथम के गुप्त संवत् 116 का एक शिलालेख तुमैन में मिला है जिसमें तुम्बवन के शासक घटोत्कचगुप्त का उल्लेख है। इसी तरह से कुमारगुप्त प्रथम के शासन की जानकारी मंदसौर में मिले मालव संवत् 493 के एक शिलालेख में भी है। इसमें सामंत सेनापति बंधुवर्मन का उल्लेख है जो मंदसौर पर शासन कर रहा था। मंदसौर में बंधुवर्मन से पहले के दो शासकों के भी अभिलेख मिले हैं जिन्हें मालब संवत् 461 और 476 का माना गया है। गुप्त संवत् 106 का उदयगिरी शिलालेख भी कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का है।
- कुमारगुप्त के उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त ने राज्यपाल नियुक्त किये थे जिनमें से कुछ म.प्र. के भागों पर शासन कर रहे थे। इस प्रकार से मालव संवत् 524 का मंदसौर का शिलालेख स्कंदगुप्त का है। इसी प्रकार सूपिया का स्तंभ लेख जिसे गुप्त संवत् 141 का माना जाता है, स्कंदगुप्त के विंध्यप्रदेश पर शासन को दर्शाता है।
- स्कंदगुप्त के बाद क्रमशः पुरुगुप्त, बुधगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय (या तृतीय) और विष्णुगुप्त उनके उत्तराधिकारी बने। बुधगुप्त के शासन काल का एक स्तंभ लेख एरण में पाया गया है जिसमें मातृविष्णु और धन्यविष्णु का उल्लेख है, जो गुप्त संवत् 165 का माना जाता है। शंकरपुर (सीधी जिले) से मिले एक ताम्रपत्र, जिसे गुप्त संवत् 166 का माना गया है, से संकेत मिलता है कि गुप्त साम्राज्य तब तक अखंड था। लेकिन एरण से मिले एक शिलालेख के अनुसार ऐसा लगता है कि गुप्त संवत् 191 तक इस साम्राज्य का पतन हो गया था क्योंकि इस शिलालेख में एक राजकुमार भानुगुप्त का उल्लेख है जो इस साम्राज्य पर स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था। उसके कर्मचारी गोपराज की मृत्यु संभवतः हूण शासक तोरमाण के विरूद्ध हुये युद्ध में हुई थी।
- इसके अतिरिक्त पूरे मध्यप्रदेश से गुप्त लिपि के कुछ अभिलेख मिले हैं जिन पर तिथि नहीं है।
वाकाटक वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- सिवनी, दुडिया, तिरोडी, इन्दौर, पट्टण, पाण्ढुर्ना और बालाघाट से मिले वाकाटक प्रवरसेन के 7 ताम्रपत्र संकेत देते हैं कि उसके राज्य का विस्तार म.प्र. के कई भागों पर था।
- नरेन्द्रसेन का एक ताम्रपत्र जो दुर्ग (छत्तीसगढ़) में मिला है पद्मपुर से प्रचलित किया गया था। संभवत: नलों के आक्रमण के कारण नरेन्द्रसेन ने अपनी राजधानी कुछ दिनों के लिये स्थानांतरित कर ली थी। उसके उत्तराधिकारी पृथ्वीषेण और सामंत व्याघ्रसेन के दो अभिलेख नचना और गंज से प्राप्त हुये हैं। बालाघाट से मिले अभिलेख से पता चलता है कि वह फिर से शक्तिशाली हो गया था।
हूण वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- एरण से मिले तोरमाण के शासन के प्रथम वर्ष के वराह प्रतिमा अभिलेख से यह पता चलता है कि हूण, मध्य भारत में बहुत अन्दर तक प्रवेश कर गये थे और सागर तक पहुँच गये थे। मिहिरकुल के शासनकाल के 15वें वर्ष का ग्वालियर अभिलेख, म.प्र. में हूणों की उपस्थिति का एक अन्य प्रमाण है।
औलिकर वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- मन्दसौर, राजगढ़, मोरेना जिलों एवं सीतामऊ से प्राप्त इस वंश के बारह अभिलेखों से यह संकेत मिलता है कि प्रारंभिक औलिकर शासन गुप्तों के सामंत थे। मालव संवत् 589 के मंदसौर शिलालेख से और बिल्कुल ऐसे ही एक अन्य अभिलेख से, जिसे मंदसौर से ही पाया गया है, और जो दो स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं, से पता चलता है कि यशोधर्मन् के शासन के दौरान ये स्वतंत्र हुये। ये अभिलेख यशोधर्मन् द्वारा हूण शासक मिहिरकुल की पराजय का विवरण देते हैं।
वल्ख के महाराज के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- वल्ख के महाराजाओं के परिवार के बारे में उनके सिरपुर (पूर्वी खानदेश), इन्दौर और बाघ ताम्रपत्रों से पता चलता है। हाल ही में तीन और अभिलेख इन्दौर से प्रकाश में आए हैं। धार जिले के बाघ क्षेत्र से हाल ही (1982) में मिले इस वंश के 27 अभिलेखों का भंडार, एक महत्वपूर्ण खोज साबित हुआ है। ये अभिलेख, भुलुण्ड ( 13 ), स्वामीदास (5), रूद्रदास (5), भट्टारक (3) और नागभट्ट (1) नामक पाँच अलग-अलग शासकों के शासनकाल के हैं। इन्हें गुप्त संवत् 47 - 134 के बीच का माना गया है। ऐसा लगता है कि ये शासक गुप्तों के सामंत थे !
परिव्राजक महाराज के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- बुंदेलखण्ड पर शासन कर रहे परिव्राजक गुप्तों के सामंत थे। इस वंश का पहला अभिलेख खोह से पाया गया था। इसे गुप्त संवत् 156 का माना गया है और यह महाराज हस्तिन के शासनकाल का है। इन राजाओं के तीन और लेखों को गुप्त संवत् 163, 170 और 191 का माना गया है और ये क्रमश: खोह, जबलपुर ओर मझगंवा से प्राप्त हुये हैं। हस्तिन् का एक अन्य स्तंभ अभिलेख भूमरा से मिला है। इन्हें क्रमश: गुप्त संवत् 199 और 209 का माना गया है। ये अभिलेख इस वंश के शासकों द्वारा जीते गये राज्यों के सीमा निर्धारण में सहायता करते हैं। संक्षोभ के बाद इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
- उच्चकल्प महाराज उच्चकल्प महाराज, परिव्राजक के समकालीन तथा पड़ोसी थे और उन्हीं की तरह गुप्तों के सामंत भी थे। इस वंश का पहला अभिलेख महाराज जयनाथ का है जिसे गुप्त संवत् 174 का माना गया है।
- इस शासक का दूसरा अभिलेख खोह से प्राप्त हुआ है और इसे गुप्त संवत् 177 का माना गया है। गुप्त संवत् 182 का उसका तीसरा अभिलेख उचहरा से मिला है। उसका उत्तराधिकारी सर्वनाथ था, जिसका गुप्त संवत् 193 का ताम्र लेख खोह से पाया गया है। उसके शासनकाल के तीन अन्य अभिलेख खोह से मिले हैं जिनमें से दो गुप्त संवत् 197 और 214 के हैं जबकि तीसरे की तिथि नहीं है। ये सभी अभिलेख उच्चकल्प से प्रचलित किये गये थे और इन सभी से एक ही वंशावली मिलती है। सर्वनाथ के बाद इस वंश के विषय में कोई जानकारी नहीं मिली है।
मेकल के पांडुवंशी के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- शहडोल जिले में वर्तमान अमरकंटक के आस-पास के क्षेत्र को पुराने समय में मेकल के नाम से जाना जाता था। पाँचवी शताब्दी ई. में मेकल पर शासन कर रहे पांडुवंशियों की वंशावली और कालक्रम का विवरण हमें बम्हनी से प्राप्त भरतबल के राज्यकाल के दूसरे वर्ष के ताम्रपत्र से मिलता है। इस वंश का एक अन्य अभिलेख बूढ़ीखार से प्राप्त हुआ है।
वलभी के मैत्रक के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- वलभी के मैत्रक शासक ध्रुवसेन द्वितीय बालादित्य ने अपने राज्य को पश्चिमी मालवा तक बढ़ा लिया था और यह म.प्र. के रतलाम जिले के नोगवां से मिले उसके शासनकाल के दो अभिलेखों से प्रमाणित होता है। गुप्त संवत् 320 और 321 के इन अभिलेखों में पश्चिमी मालवा में कुछ गांवों को दान में दिये जाने का विवरण है।
वर्धन वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- यद्यपि हर्ष सहित इस वंश का कोई भी अभिलेख म.प्र. से नहीं मिला है, तथापि खजुराहो की एक प्रतिमा पर हर्ष संवत् 218 का अभिलेख इस बात की पुष्टि करता है कि यह क्षेत्र हर्ष साम्राज्य के क्षेत्राधिकार में था।
शैलवंश वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- आठवीं शताब्दी के दौरान शैल वंश आधुनिक महाकोसल के पश्चिमी भाग पर शासन कर रहा था। इसकी पुष्टि बालाघाट जिले में राघोली से मिले ताम्र लेख में वर्णित वंशावली और काल-क्रम से होती है।
राष्ट्रकूट वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- 7वीं-8वीं शताब्दी के दौरान राष्ट्रकूटों की प्रारंभिक शाखाओं में से एक बैतूल-अमरावती क्षेत्र में शासन कर रही थी। इस वंश के नन्नराज युद्धासुर के शक काल 553 और 631 के दो ताम्रपत्र क्रमशः तिवरखेड़ और मुलताई (दोनों ही बैतूल जिले में स्थित ) से प्राप्त हुए हैं। संभवत: आठवीं शताब्दी के अंत में दक्षिण में शासन कर रहे राष्ट्रकूटों की मुख्य शाखा ने इस शाखा का दमन किया था।
- मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंश के शक्तिशाली शासक थे दन्तिदुर्ग, कृष्ण प्रथम, गोविन्द द्वितीय, ध्रुव और गोविन्द तृतीय। इनमें से अंतिम शासक ने राष्ट्रकूट गुर्जर प्रतिहार और पालो के बीच कन्नौज के लिए हुए त्रिपक्षीय संघर्ष में प्रभावी भागीदारी निभाई। मध्यप्रदेश से होकर राष्ट्रकूट सेना ने उत्तर भारत के लिए प्रस्थान किया। इन्द्रगढ़ (मन्दसौर) के शिालालेख में उसका और इन्द्र तृतीय का उल्लेख है। उसके उत्तराधिकारियों ने उत्तर भारत पर आक्रमण की नीति को जारी रखा।
- म. प्र. के बुंदेलखंड क्षेत्र पर कृष्ण तृतीय ने विजय प्राप्त की, यह सतना जिले में मैहर के निकट जूरा से प्राप्त शिलालेख से स्पष्ट होता है। छिन्दवाड़ा जिले में नीलकंठी से मिले दो शिलालेखों में भी कृष्ण तृतीय के शासन का उल्लेख है।
- राष्ट्रकूटों के कुछ सामंतों के शिलालेख म. प्र. से भी मिले हैं। ये हैं महासामंताधिपति गोल्हनदेव का बहुरी बंद जैन प्रतिमा शिलालेख, पिपरिया (दमोह) के महामांडलिक राणक जयसिंह का पाषाण-स्तंभ शिलालेख, राष्ट्रकूट परवल का पठारी (विदिशा) शिलालेख, और शक संवत् 708 की राष्ट्रकूट रानी का जेठवा (निमाड़) ताम्रपत्र लेख। इन अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि पूर्ववर्ती राष्ट्रकूटों ने म.प्र. के राजनैतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- आठवीं शताब्दी ई. के पूर्व एक चौथाई भाग में गुर्जर प्रतिहारों की एक शाखा उज्जैन में स्थापित हो गई थी। गुर्जर-प्रतिहारों की इस शाखा के शासक नागभट्ट प्रथम, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, अपने समकालीन राष्ट्रकूट जो समय-समय पर उत्तरी भारत पर आक्रमण करते रहते थे, टकराए और हार गए। नागभट्ट द्वितीय के शासन के दौरान, इस वंश की राजधानी उज्जैन से कन्नौज स्थानांतरित कर दी गई।
- ग्वालियर से मिले एक अभिलेख से पता चलता है कि नागभट्ट द्वितीय के उत्तराधिकारी रामभद्र के शासन के दौरान यह क्षेत्र गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्य में सम्मिलित था। ग्वालियर से ही मिले, रामभद्र के उत्तराधिकारी, मिहिरभोज के तीन अभिलेख इस बात की पुष्टि करते हैं कि संबंधित क्षेत्र उसके राज्य का एक भाग था। उज्जैन पर अपने अधिकार को बनाए रखने के लिये मिहिरभोज को राष्ट्रकूट अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। गुना के आस-पास के क्षेत्र गुर्जर प्रतिहारों के साम्राज्य का भाग बने रहे, इसका संकेत रखेतरा (गुना) से मिले विनायकपालदेव के अभिलेखों से मिलता है।
- कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों की मुख्य शाखा के पतन के बाद भी तीन छोटी प्रतिहार शाखाओं ने गुना, शिवपुरी, जबलपुर और दमोह में शासन करना जारी रखा। अभिलेखों से पता चलता है कि वे चंदेरी और खंडवा, कुरैठा और जबलपुर दमोह क्षेत्र पर राज कर रहे थे।
चंदेल वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- बुन्देलखण्ड क्षेत्र में चंदेल, गुर्जर-प्रतिहारों के उत्तराधिकारी बने। उनके राज्य में केवल बुंदेलखंड बल्कि उत्तरप्रदेश के भाग भी सम्मिलित थे, जहां उनके बहुत से अभिलेख पाए गए हैं। उन्होंने नौवीं शताब्दी के पहले चौथाई भाग से लेकर तेरहवीं शाताब्दी ई. के अंत तक शासन किया। इस वंश का सबसे प्रारंभिक अभिलेख ई (916-925ई.) का है जिसमें उसके द्वारा शत्रुओं को परजित करने का उल्लेख है। इसके बाद के तीन अभिलेख धंग (950-1002ई.) के हैं जो खजुराहो से मिले हैं। विक्रम संवत् 1011 और 1059 के अभिलेखों के साथ ये दर्शाते हैं कि धंग इस वंश का पहला शासक था जिसने प्रतिहारों की अधीनता को अस्वीकार कर खुद को स्वंतत्र घोषित कर दिया था।
- अगला अभिलेख कुंडेश्वर से प्राप्त विद्याधर का ताम्रपत्र है जिसे विक्रम संवत् 1060 (1004 ई.) का माना गया है। चरखारी से मिला विक्रम संवत् 1108 के देववर्मा का ताम्रपत्र लेख, अगला लिखित अभिलेख है। एक और ताम्रपत्र ननौरा से मिला है जो वि. सं. 1107 का था। उसका काल विपत्तियों से भरा हुआ था क्योंकि त्रिपुरी के कलचुरियों ने उसे हरा दिया था। जयवर्मा के शासन का खजुराहो से प्राप्त एक अभिलेख, जिसे वि. सं. 1173 का माना गया है, अगला लिखित अभिलेख है।
- चन्देल इतिहास में मंदनवर्मा का शासनकाल तेजस्वी रहा। उसके शासकाल के तेरह अभिलेखों में से 6 अजयगढ़, छतरपुर, खजुराहो औपपरा से मिले हैं अन्य उत्तरप्रदेश से साम्राज्य की प्रतिष्ठा को उसके उत्तराधिकारी परमर्दिदेव ने बनाए रखा। उसके शासन काल के बारह अभिलेख अब तक मिल चुके हैं। इनमें से सात म. प्र. में अजयगढ़, अहाड़, चरखारी, मदनपुर, सेमरा और कुंडेश्वर तथा अन्य उ. प्र. से प्राप्त हुए हैं।
- त्रैलोक्यवर्मा परमर्दिदेव का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके शासनकाल के आठ अभिलेख अब तक मिले हैं। इनमें से सात म. प्र. में रीवा, अजयगढ़, सागर, गर्रा और रामवन से मिले। अगला शासक उसका पुत्र वीरवर्मा था जिसके दस में से आठ अभिलेख म.प्र में अजयगढ़, गुड़हा, चरखारी और दाही से प्राप्त हुए हैं। वीरवर्मा का उत्तराधिकारी बना भोजवर्मा। उसके शासनकाल के तीन अभिलेख अजयगढ़, और एक ईश्वरमऊ में पाए गए हैं। इन अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि उसका अधिकार अपने राज्यों के साथ डाहल मंडल पर भी था। उसके उत्तराधिकारी हम्मीरवर्मा के तीन अभिलेख अजयगढ़, चरखारी और बम्हनी से मिले हैं। वीरवर्मा द्वितीय का एक अभिलख लडवारी से मिला है। यह अभिलेख क्षतिपूर्ण हैं। 14वीं शताब्दी के पहले दशक तक जेजाकभुक्ति के चंदेल वंश के साम्राज्य का पतन हो चुका था।
परमार वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- मालवा के परमार चंदेलों से समकालीन थे। इस वंश का प्रारंभ उपेन्द्र ने किया था और उसके उत्तराधिकारी बने वैरीसिंह प्रथम, सियक प्रथम, वाक्पति प्रथम, वैरीसिंह द्वितीय, सियक द्वितीय और मुंज। मुंज के शासनकाल क 6 अभिलेख उज्जैन, गाँवरी और धरमपुर से प्राप्त हुए हैं। उसका उत्तराधिकारी सिन्धुराज था फिर भोज प्रथम आये जिनके बारह अभिलेख, जिन्हें विक्रम संवत् 1074-1092 के बीच का माना गया है, उज्जैन, देपालपुर, धार, बेटमा, भोजपुर और महन्दी से प्राप्त हुए हैं। ये भारतीय इतिहास के इस पौराणिक चरित्र के ऐतिहासिक और संस्कृतिक उपलब्धियों पर काफी प्रकाश डालते हैं।
- भोज का उत्तराधिकारी बना जयसिंह जिसका विक्रम संवत् 1112 का ताम्रपत्र लेख मान्धाता से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में शासक द्वारा किये गये कुछ दानों का विवरण है। जयसिंह का उत्तरधिकारी था उदयादित्य जिसके शासनकाल के बारह अभिलेख उज्जैन, उदयपुर, ऊन, धार और भोपाल से मिले हैं। उसने उदयपुर में नीलकंठेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। उसकी स्वर्ण मुद्राएँ इन्दौर से मिली हैं।
- लक्ष्मदेव, उदयादित्य का उत्तराधिकारी था। अपने भाई नरवर्मन् के लिए उसने शीघ्र ही सिंहसन त्याग दिया। नरवर्मन का शासन काल विपत्तियों से भरा हुआ था और यह उसके समय के उज्जैन, उदयपुर, धार, भोजपुर, देवास और इन्दौर से प्राप्त अभिलेखों से पता चलता है। यशोवर्मन, नरवर्मन् का उत्तराधिकारी था। विक्रम सम्वत् 1192 का एक ताम्रपत्र उज्जैन से मिला है। गुजरात के चालुक्य जयसिंह सिद्धराज के आक्रमणों के कारण उसे बहुत सी विपत्तियों का सामना करना पड़ा। सिद्धराज ने न केवल मालवा पर अधिकार किया, बल्कि यशोवर्मन् को गिरफ्तार भी कर लिया। मालवा पर विक्रम संवत् 1195 तक चालुक्यों का अधिकार उज्जैन में पाए गए सिद्धराज के एक अभिलेख से प्रमाणित होता है।
- यशोवर्मन् के पुत्र जयवर्मन् ने सिद्धराज के अंतिम दिनों में मालवा पर दोबारा अधिकार कर लिया लेकिन यह अधिकार थोड़े समय के लिए ही था, क्योंकि मालवा पर चालुक्यों का अधिकार बारहवीं शताब्दीं के सातवें दशक तक कायम रहा। इसकी जानकारी उदयपुर से प्राप्त कुमारपाल के विक्रम संवत् 1229 के अभिलेख से होती है। परमार, चालुक्यों के सामंतों के रूप में शासन कर रहे थे और यह उज्जैन, पिपलियानगर, भोपाल और होशंगाबाद से मिले उनके अभिलेखों से पता चलता है।
- मालवा पर परमारों का दोबारा अधिकार जयवर्मन् के पुत्र विन्ध्यवर्मन् के शासन काल में हुआ लेकिन उसका शासनकाल कठिनाइयों से भरा हुआ था। उसके उत्तराधिकारी थे सुभटवर्मन् और अर्जुनवर्मन् अब तक अर्जुनवर्मन् के शासनकाल का एक शिलालेख धार से, एक ताम्रपत्र पिपलियानगर से और दो ताम्रपत्र भोपाल से मिले हैं। अर्जुनवर्मन् का उत्तराधिकारी देवपाल था। उज्जैन, उदयपुर, ओखला, करनावद, मान्धाता और हरसूद से मिले उसके अभिलेख संकेत देते हैं कि ये क्षेत्र अब भी उसके राज्य के राज्याधिकार में थे। अर्जुनवर्मन् के दो उत्तराधिकारी जैतुगिदेव और जयवर्मन् द्वितीय थे। जयवर्मन् द्वितीय के शासनकाल के चार अभिलेख गोदरपुरा, मोड़ी, राहतगढ़ और बमई से मिले हैं।
- जयसिंह द्वितीय जयवर्मन् द्वितीय का उत्तराधिकारी बना। उसके समय के उदयपुर, वलीपुर, और पठारी से मिले चार अभिलेख उसके शासनकाल में घटी घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। इस वंश के अंतिम तीन शासक क्रमश: अर्जुनवर्मन् द्वितीय, भोज द्वितीय और महलकदेव थे। चौदहवीं शताब्दी ई. के पहले दशक तक मालवा पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।
माहिष्मति के कलचुरि वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- कलचुरियों की प्राचीन राजधानी माहिष्मति थी जहाँ वे छठीं शताब्दी में शिखर पर पहुँचे।इस वंश के तीन शासक कृष्णराज, शंकरगण और बुद्धराज थे जिनके ताम्रलेख महाराष्ट्र और गुजरात में अभोना, संखेड़ा, वड़नेर और सरसवणी से प्राप्त हुए हैं। दक्षिण के चालुक्यों के आगमन से इनकी शक्ति को ग्रहण लग गया।
त्रिपुरी के कलचुरि वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- कलचुरि वंश की इस शाखा की स्थापना वामराज ने की थी। उसकी तीन पीढ़ियों के बाद शंकरगण प्रथम शासक बना, जिसके शासनकाल के दो अभिलेख छोटी देवरी और सागर से मिले हैं जिनके आधार पर उसके शासन काल का समय आठवीं शताब्दी ई. का निश्चित किया गया है।
- अगला कलचुरि शासक लक्ष्मणराज प्रथम था जिसका कारीतलाई से मिला अभिलेख कलचुरि संवत् 593 का है। उसके क्रमश: उत्तराधिकारी बने कोकल्ल प्रथम, शंकरगण द्वितीय, बालहर्ष और युवराजदेव प्रथम । यद्यपि इसके शासनकाल का कोई भी अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि उनके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके शासन के दौरान कलचुरि साम्राज्य दूर-दूर तक फैल गया था। लक्ष्मणराज द्वितीय युवराजदेव प्रथम का उत्तराधिकारी बना जो अपने पिता की ही तरह एक शक्तिशाली शासक था। कारीतलाई से प्राप्त एक अभिलेख और अन्य साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि उसने कई राज्यों पर अधिकार कर लिया था। उसका उत्तराधिकारी पहले शंकरगण तृतीय और फिर युवराज द्वितीय बना। उसके शासनकाल के शिलालेखों से पता चलता है कि जब वह शासन कर रहा था तब त्रिपुरी को बुरे दिन देखने पड़े। उसके उत्तराधिकारी कोकल्लदेव का गुर्गी शिलालेख इस बात की ओर संकेत करता है कि साम्रज्य की खोई हुई समृद्धि को वापस लाने के लिए नए सिरे से प्रयास किए गए थे। 1015 ई. में गांगेयदेव कलचुरि सिहांसन पर बैठा। उसके शासनकाल के दो अभिलेख मकुंदपुर और पियावन से मिले हैं। उसके उत्तराधिकारी के अभिलेखों से मिले प्रमाण यह बताते हैं कि कलचुरि वंश के तब तक ज्ञात सभी शासकों में वह सबसे अधिक शक्तिशाली था।
- गांगेयदेव का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी कर्ण, अपने पिता से अधिक योग्य निकला। अपनी राजनैतिक उपलब्धियों के कारण उसे हिन्दू नेपोलियन कहा जाता है। उसके समय के नौ अभिलेखों में से चार म.प्र. में रीवा, सिमरा और सिमरिया से मिले हैं। 1073 ई. में कर्ण ने अपने पुत्र यश: कर्ण के लिए सिंहासन छोड़ दिया। अन्य प्रमाणों के साथ खैरहा, जबलपुर और बरही के तीन अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि उत्तराधिकार में पाए अपने साम्राज्य को अखंड रखने में वह असफल रहा।
- तेवर और बहुरीबंद से ही उसके उत्तराधिकारी गयाकर्ण के अभिलेख, आल्हाघाट, भेड़ाघाट और लाल पहाड़ से मिले। अगले शासक नरसिंह के शासनकाल के तीन अभिलेख और उसके उत्तराधिकारी जयसिंह के छ: अभिलेख जो करनबेल, तेवर, जबलपुर और रीवा से प्राप्त हुये, से स्पष्ट होता है कि संबंधित शासकों द्वारा सभी प्रयास करने के बावजूद कलचुरि साम्राज्य की समृद्धि फिर लौटाई नहीं जा सकी। विजयसिंह के शासन में स्थिति और बदतर हो गयी। उसके समय के दस अभिलेख करनबेल, तेवर, भेड़ाघाट, कुम्भी, रीवा, उमरिया और झूलपुर से प्राप्त हुये हैं। त्रिपुरी के कलचुरियों का अंतिम जाना-माना शासक त्रैलोक्यमल्ल था। उसके तीन अभिलेख धुरेटी और रीवा से मिले हैं। उसका शासन कब और कैसे समाप्त हुआ इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है।
देवगिरी के यादव वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- 11वीं-12वीं शताब्दी में राज्य कर रहे देवगिरी के यादवों ने अपना अधिकार म.प्र. के कुछ भागों पर भी कर लिया था। बालाघाट से प्राप्त अभिलेख से यादव सिंघण द्वारा किए गए विस्तार का पता चलता है और लांजी के स्तंभ अभिलेख से रामचन्द्र के द्वारा किए गए फैलाव की जानकारी मिलती है। कोठा, देवास और परसाडीह से उनके सिक्के मिले हैं।
अणहिलपाटक के चालुक्य वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- अपने राज्य को बढ़ाने की गतिविधियों के दौरान अणहिलपाटक के चालुक्यों ने अपने अभिलेख म.प्र. में छोड़े। उज्जैन, उदयपुर और बिलपांक से मिले उनके शासकों के पाँच अभिलेख, देश के इस भाग में हो रही उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हैं।
मंदसौर के गुहिल:
- मंदसौर जिले में जीरण में मिले 6 अभिलेखों से 10वीं शताब्दी में मंदसौर में शासन कर रहे गुहिल वंश की उपस्थिति का पता चलता है। इन अभिलेखों से इस वंश के शासकों की उपलब्धियों का विवरण मिलता है।
कच्छपघात् वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- 10वीं और 12वीं शताब्दी के मध्य में ग्वालियर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में कच्छपघात् शक्तिमान हुए। उनकी तीन शाखाएँ ग्वालियर, दुबकुण्ड और नरवर में शासन कर रहीं थी। ग्वालियर के कच्छपघातों के राजनीतिक इतिहास पर इंग्नोद, कुलवर, ग्वालियर, तिलोरी, नरवर और शिवपुरी से प्राप्त इस वंश के अभिलेखों से प्रकाश पड़ता है। दुबकुण्ड से मिले एक अभिलेख से, इस वंश की दुबकुण्ड शाखा का पूर्ण विवरण मिलता है। नरवर से मिले एक अन्य ताम्रपत्र से कच्छपघात् की नरवर शाखा के शासकों की राजनैतिक घटनाओं का विवरण मिलता है।.
नरवर के यज्वपाल वंश के मध्यप्रदेश में अभिलेख
- 13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नरवर में शासन कर रहा यज्वपाल वंश उभरकर सामने आया। इस वंश को चाहड़ ने स्थापित किया था जिसके अभिलेख उदयपुर और भक्तर से प्राप्त हुये हैं। उसने सिक्के भी चलाए जिन्हें 1237 और 1254 ई. के मध्य का माना जा सकता है। अगला शासक आसल्लदेव था, जिसके शासनकाल की घटनाओं की जानकारी नरवर, बड़ौदी, भीमपुर और बूढ़ीराई के अभिलेखों से उपलब्ध होती है। उसके सिक्कों को 1254-1279 ई. के मध्य का माना गया है। गोपालदेव उसका उत्तराधिकारी था और उसके तेरह अभिलेख नरवर, बंगला, बलारपुर, पचराई और बढ़ोतर से मिले हैं। इस वंश का अंतिम शासक था गणपति और उसके शासनकाल के ग्यारह अभिलेख तिलोरी, नरवर, पहाड़ो, बलारपुर, भेसरवास सुरवाया और मुखवासा से मिले हैं जो उसकी उपलब्धियों का ब्यौरह देते हैं। उसे संभवतः अलाउद्दीन खिलजी ने परास्त किया था।
मध्य प्रदेश के विविध अभिलेख :
- इन सबके अतिरिक्त पूरे म.प्र. से 450 से भी अधिक विविध प्रकार के अभिलेख मिले हैं। म.प्र. के प्राचीन काल के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास के छोटे से छोटे विवरण के लिये इन सबसे महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है। पहली दूसरी शताब्दी ई.पू. से 10वीं शताब्दी के मध्य शंख लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख भी म.प्र. में प्रचुर मात्रा में पाए गये हैं। हाल ही में हुई खोज से म.प्र. के विभिन्न भागों में ऐसे 303 अभिलेख प्रकाश में आए हैं। इन अभिलेखों का अध्ययन जारी है।
MP-PSC Study Materials |
---|
MP PSC Pre |
MP GK in Hindi |
MP One Liner GK |
One Liner GK |
MP PSC Main Paper 01 |
MP PSC Mains Paper 02 |
MP GK Question Answer |
MP PSC Old Question Paper |
Post a Comment