अरविन्द घोष के राजनीतिक दार्शनिक विचार। Political Philosophical Thoughts of Arvind Ghosh in Hindi

 अरविन्द घोष के राजनीतिक दार्शनिक विचार

अरविन्द घोष के राजनीतिक दार्शनिक विचार। Political Philosophical Thoughts of Arvind Ghosh in Hindi



अरविन्द घोष के राजनीतिक विचार

 

  • श्री अरविन्द एक महान दार्शनिक थे। अपना सम्पूर्ण जीवन धर्म और अध्यात्म को समर्पित करने से पूर्व उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया थासाथ ही राजनीतिक विचार भी व्यक्त किये थे ।
  •  इन्दु प्रकाश" और 'वन्दे मातरम्में प्रकाशित उनके ओजस्वी लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि अरविन्द एक उच्च कोटि के दार्शनिक थे। एक जर्मन प्रोफेसर स्पीलबर्ग के शब्दों में "हमारे सामने अरस्तूकाण्टस्पिनोजा और हीगल आते हैं। परन्तु इनमें से किसी की भी दार्शनिक प्रणाली उतनी सर्वांगीण नहीं हैकिसी की भी ऐसी दृष्टि नहीं हैजैसी अरविन्द की ।” 


अरविन्द के मुख्य राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं-

 

(1) आध्यात्मिक राष्ट्रवाद- 

  • अरविन्द महान राष्ट्रवादी थे। वे मानते थे कि राष्ट्र हित में सभी व्यक्तियों का हित है। राष्ट्र के उत्थान और प्रगति में सभी व्यक्तियों की उत्थान और प्रगति निहित है। अरविन्द मानते थे कि भारत की मुक्ति और स्वाधीनता आवश्यक है। सभी व्यक्तियों को जागरूक होकर इसके लिये प्रयास करना चाहिए। अरविन्द ने राष्ट्रवाद का एक नई और मौलिक व्याख्या की।
  • उन्होंने कहा कि भारत  केवल एक देश नहीं है। यह हमारी माँ हैदेवी है। इसकी मुक्ति का प्रयास करना हमारा धर्म है। 
  • रविन्द ने कहा- राष्ट्रवाद क्या हैराष्ट्रवाद केवल राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रवाद तो एक धर्म हैजो ईश्वर के पास से आया है और जिसे लेकर आपको जीवित रहना है। हम सभी लोग ईश्वर के अंश हैं। अतः हमे धार्मिक दृष्टि से राष्ट्रवाद का मूल्यांकन करना है।"

 

(2) मानवतावाद सम्बन्धी विचार

  • श्री अरविन्द केवल राष्ट्रवादी ही नहीं थे बल्कि वे एक अन्तर्राष्ट्रीयतावादी भी थे। उनका राष्ट्रवाद उदात्त और व्यापक राष्ट्रवाद या। जिस तरह अरविन्द एक राष्ट्र के व्यक्तियों को ईश्वर का अंश मानते थे उसी तरह वह सम्पूर्ण मानव जाति को ईश्वर का अंश मानते थे । 
  • विश्व के सभी मनुष्य एक ही विशाल चेतना का अंश होने के कारण उनमें एक ही चेतना है। वह सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। 
  • डॉ. नागपाल के शब्दों में- "अरविन्द विश्व एकता में विश्वास करते थे। वे मानते थे कि संसार की विभिन्न जातियों और राज्यों के बीच होने वाले संघर्ष समाप्त होने चाहिये।” इन संघषों को समाप्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपायअरविन्द की दृष्टि मेंएक विश्व संघ की स्थापना है। संसार के सभी राज्य आपस में मिलकर एक विश्व संगठन का निर्माण करें जो राज्यों के बीच विवादों का समाधान करे और उनमें सहयोग बढ़ाये। इस विश्व संघ को वह अनिवार्य मानते थे और उनका विश्वास था कि ऐसा अवश्य होगा।
 

(3) स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार

  • अरविन्द मानव स्वतंत्रता के अनन्य उपासक धे। वे मानते थे कि स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है। वे मानव स्वतंत्रता के दो पक्ष मानते थेआन्तरिक स्वतंत्रता तथा बाह्य स्वतंत्रता । आन्तरिक स्वतंत्रता वह है जिसमें मनुष्य भयलाभवासना आदि विका मुक्त रहता है। बाह्य स्वतंत्रता वह है जब व्यक्ति अपनी इच्छानुसार आचरण करने के लिये मुक्त हो दोनों प्रकार की स्वतंत्रताओं के लिए आवश्यक है कि राज्य का मनुष्य पर नियंत्रण कम हो । 
  • अरविन्द राज्य द्वारा शक्तियों के केन्द्रीकरण के विरुद्ध थे। राज्य अधिक शक्तियों द्वारा तथा शक्तियों के दुरुपयोग के द्वारा व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाता है। अतः राज्य का कार्य क्षेत्र बहुत विस्तृत नहीं होना चाहिए। परन्तुसाथ ही आंतरिक स्वतंत्रता को बाह्य स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण मानना आवश्यक है।

 

(4) लोकतंत्र सम्बन्धी विचार - 

  • श्री अरविन्द लोकतंत्र शासन प्रणाली के प्रशंसक थेपरन्तु उसकी कमियों के प्रति भी जागरूक थे। उनके अनुसार इस प्रणाली में बहुमत की तानाशाही हो जाती है। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है। 
  • लोकतंत्र में धनवान और संभ्रांत वर्ग शासन में स्थान प्राप्त कर लेता है। साधारण जनता के नाम पर यही वर्ग शासन करता है। इससे समाज में असमानता बढ़ती है। व्यवसायी और व्यापारी वर्ग धन के कारण शासन पर अपना दबाव डालने में समर्थ होता है। साधारणजन के हित उपेक्षित रहते हैं। इन सब कमियों को दूर करने के लिए श्री अरविन्द का विचार था कि लोकतंत्र शासन प्रणाली में राजनीतिक शक्तियाँ विकेन्द्रित होनी चाहिए। शासकीय शक्तियाँ यदि एक स्थान पर अधिक केन्द्रित होगी तो व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होगा। श्री अरविन्द स्वतंत्रता और समानता के उच्च आदर्शों को सर्वाधिक महत्व देते थे।

 

(5) साम्यवाद सम्बन्धी विचार 

  • श्री अरविन्द यद्यपि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थेलेकिन वे आर्थिक व्यक्तिवाद में विश्वास नहीं करते थे। उनके अनुसार समाज में आर्थिक समानता होनी चाहिये। राज्य व समाज का यह प्रमुख कार्य है कि वह आर्थिक समानता की व्यवस्था करे राज्य द्वारा आर्थिक क्षेत्र में किये जाने वाले सेवा कार्य को वे एक आवश्यक कार्य मानते थे परन्तु साथ ही साम्यवाद की आध्यात्मिकता और धर्म विरोधी विचारधारा से वे सहमत नहीं थे। डॉ. वी. पी. वर्मा के अनुसार वे साम्यवाद को आध्यात्मिक बन्धुत्व का सन्देश देकर साम्यवाद और व्यक्तिवाद में समन्वय स्थापित करने का स्वप्न देखते थे। 


अरविन्द घोष के दार्शनिक विचार

 

  • श्री अरविन्द ने जीवात्मा और मानस का अति सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने मानसिक स्तर की अनेक श्रेणियाँ मानी हैजैसे उच्चतर मानसज्योतिर्मय मानसअवरोध अनुभूति का मानस और अतिमानस। इस संबंध में इनका वर्णन इस प्रकार है-

 

(1) जीवात्मा - 

  • श्री अरविन्द के अनुसार बाह्य जड़प्राण एवं मन के पीछे अन्तरंग जड़प्राण और मानस हैं। इसी प्रकार पुरुष भी दो हैं- बाह्य पुरुष अथवा इच्छा पुरुषजो हमारी वासनाओं और शक्ति में ज्ञान तथा प्रसन्नता प्राप्त करने के प्रयत्नों में कार्य करते हैंऔर अन्तरंग पुरुष अथवा वास्तविक चैत्य पुरुष प्रेमजो प्रकाशप्रसन्नता और सत्ता के परिष्कृत सत्य की एक शुद्ध शक्ति है। 
  • अंतरंग पुरुष जड़प्राण और मानस नहीं हैपरन्तु वह है इन सब का उनके विशेष आत्मानन्दप्रकाशप्रेमप्रसन्नतासौन्दर्य और सत्ता के परिष्कृत तत्व में प्रस्फुटित एवं पुष्पित होना।" जिस प्रकार अतिमानसमानस के द्वारा और शुद्ध सत्ता जड़ के द्वारा कार्य करती है उसी प्रकार आनन्द का दैवी तत्व पुरुष के द्वारा कार्य करता है। इसका जागरण ही हमारे आध्यात्मिक जीवन का मूलमंत्र है। 
  • सदात्मा के दो रूप हैं- एक आत्मा और दूसरा अन्तरात्माजिसे हम अन्तरंग पुरुष भी कहते हैं। सदात्मा की अनुभूति इनमें से किसी एक रूप में अथवा इन दोनों ही रूपों में हो सकती है। इन दोनों अनुभूतियों में अन्तर यही है कि आत्मा विश्व भर में व्याप्त प्रतीत होता है और अन्तरात्मा व्यक्ति विशेष के मनप्रण और शरीर को धारण करने वाले व्यक्ति पुरुष के रूप में प्रतीत होता है।

 

(2) अतिमानस- 

  • उस असीम चेतना से इस सीमित जगत की रचना के लिए एक मध्यस्थ तत्व की आवश्यकता हैएक चुने हुए ज्ञान का सिद्धान्त जो असीम तत्व से सीमित वस्तुओं का सृजन कर सके। यह मध्यस्थ तत्व मानस नहीं हो सकता क्योंकि इससे मायावाद की दृष्टि होगी। वह ज्ञान का एक ऐसा रूप होना चाहिए जो सत्ता के यथार्थ सत्य को लिए हो। वह परम सत्य चैतन्य है। श्री अरविन्द ने इस सत्य चैतन्य को सीमित प्राणी और जगत के सृष्टा को अतिमानस की संज्ञा दी है।

 

(3) अधिमानस- 

  • मानस और अधिमानस में एक सूत्र की खोज में हम अपरोक्षानुभूति पर आते है। अनुभूति वास्तव में हमें एक ऐसा ज्ञान देती है जो साधारणतया बुद्धिगम्य नहीं है। परन्तु मानसिक दोषों से प्रभावित होने के कारण अनुभूति मानस और अतिमानस में संबंध नहीं स्थापित कर सकती। उसका मूल स्रोत अंतिमानस चेतना के प्रत्यक्ष सम्पर्क में एक अतिचेतन विश्वमानस हैं। यह अतिचेतन विश्वमानस ही मानस और अतिमानस के बीच की कड़ी है। श्री अरविन्द ने इसको अधिमानस" की संज्ञा दी है।

 

  • इस प्रकार श्री अरविन्द के अनुसार वर्तमान मानसिकता युक्त व्यक्तिविकास का चरम लक्ष्य नहीं है। विकास का लक्ष्य मानसिकता का अतिक्रमण करके मनुष्य को वहाँ ले जाना है जो संस्कृतिजन्म-मृत्यु और काल से परे हो । अतिमानसिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आंतरिक तीव्र अभीप्सादैहिकप्राणिक और मानसिक अंगों का दिव्य के प्रति पूर्ण समर्पण और दिव्य द्वारा उनका रूपान्तरण नितांत आवश्यक है। यही श्री अरविंद के सर्वांगयोग की पूर्व भूमिका है। मानसिक से अतिमानसिक ज्ञान पर एकाएक नहीं पहुँचा जा सकता है। आध्यात्मिक विकास क्रमिक अभिव्यक्ति के तर्क पर आधारित है। अतः आत्मरूपान्तरण के सोपानों को पार करके ही अतिमानस अथवा दिव्यविज्ञान तक पहुँचा जा सकता है। ये सोपान या श्रेणियाँ इस प्रकार हैं- सामान्य मानसिकताउच्चतर मानसप्रदीप्त मानससम्बोधिअधिमानराअतिमानस।

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