स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार। Political Thoughts of Swami Vivekananda
स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार
Political Thoughts of Swami Vivekananda
स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि धर्म का राजनीति से गहरा सम्बन्ध है। वे सामाजिक जीवन से विरक्त होकर केवल निजी मोक्ष प्राप्ति के लिए तपस्या तथा समाधि में लीन नहीं हो गए। वे एक सक्रिय संन्यासी थे। उनके कार्यों से तत्कालीन राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ा।
स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचारों को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
1. सांस्कृतिक राष्ट्रीयता-
- भारत, विदेशी साम्राज्य के अधीन था तथा औपनिवेशिक सत्ता का उद्देश्य भारत के गौरव और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को नष्ट करना था। देश के लिए इस कठिन घड़ी में स्वामी विवेकानंद का अभ्युदय हुआ।
- स्वामीजी ने धर्म तथा संस्कृति की महानता को जनता के सम्मुख स्पष्ट किया और भारतीयों को उनके अतीत गौरव से परिचित करा कर उनमें जागृति का मन्त्र फूँका।
- अपनी पुस्तक "भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास' में वी. एन. लूनिया ने लिखा है- "देश में ही नहीं, उन्होंने (स्वामी विवेकानन्द ने) विदेशों में वेदों और उपनिषदों के प्राचीन आत्म ज्ञान का उद्देश्य गूँजा दिया। विश्व के सम्मुख भारतीय संस्कृति और सभ्यता की श्रेष्ठता की घोषणा से उन हिन्दुओं में नवीन प्रेरणा एवं शक्ति का संचार हुआ जो पाश्चात्य सभ्यता से अपने को हेय समझते थे। इससे भारतीयों के मन में आत्म-गौरव का एक सशक्त भाव उदित हुआ, जिससे राष्ट्रीय उत्थान का मार्ग प्रशस्त होने में सहायता प्राप्त हुई।
- स्वामी विवेकानंद भारतीय सभ्यता और संस्कृति के दृढ़ अनुयायी थे परन्तु उन्होंने सुदूर देशों की यात्रा करके भारी अनुभव भी प्राप्त किया था। पाश्चात्य देशों में विज्ञान की उपलब्धियों को देखकर उन्हें विज्ञान के महत्व का भी अनुभव हुआ था। अतः वे इसे उचित मानते थे कि भारतीय आदर्श और पाश्चात्य विज्ञान में समन्वय होना चाहिए। वे भारत की उन्नति के लिए सामान्य विज्ञान को अपनाना चाहते थे।
2. स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा
- स्वामी विवेकानन्द की जो एक महान देन है वह है, राजनीतिक क्षेत्र में स्वतन्त्रता की अभिधारणा । वे स्वतन्त्रता को मानव विकास का मूल मंत्र मानते थे, किसी वर्ग, जाति या धर्म विशेष की धरोहर नहीं । जहाँ जीवन वहाँ स्वतन्त्रता आवश्यक है।
- व्यक्ति और समाज के आत्मिक, नैतिक, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के विकास में स्वतन्त्रता अति आवश्यक वस्तु है।
- स्वामीजी का कथन था कि “हमें ऐसे सामाजिक बंधनों को समाप्त कर देना चाहिए जो हमारी स्वतंत्रता के मार्ग को अवरुद्ध करते हों। ऐसी संस्थाओं के विकास में सहयोग देना चाहिए जो स्वतन्त्रता के मार्ग पर अग्रसरित हों।"
- उन्होंने सदा ही तथा निरन्तर इस बात पर बल दिया कि देश में स्वतन्त्रता एवं समानता हो तथा जनता को ऊपर उठाया जाना चाहिए। यदि मनुष्य को सोचने तथा इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होगी तभी उसका जीवन सुखी तथा सफल होगा। वह उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है और उसका हित साधन सम्भव होगा।
- वह इस बात को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे कि उसे अपने शरीर, बुद्धि तथा धन को अपनी इच्छानुसार इस प्रकार प्रयोग करने दिया जाय कि दूसरे किसी को कोई हानि न हो। समाज के सभी व्यक्तियों को धन, शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने की समान सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। यह सम्भव नहीं है कि वह मनुष्य, समाज व जाति और राष्ट्र उन्नति करे जहाँ स्वतन्त्रता नहीं है।
- यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने लिए विकास की सीमाएँ स्वयं निर्धारित करे, अन्यथा उसका विकास दिशाहीन, भ्रष्ट और अवरुद्ध हो जायेगा। स्वामीजी की मान्यता थी कि मनुष्य अपनी जिज्ञासा को तभी शान्त कर सकता है तथा उसका सार्वभौम विकास तभी सम्भव है जब उसको स्वतंत्रता का आधार प्राप्त हो ।
3. राष्ट्रवाद सम्बन्धी धारणा
- स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में भारत का हित सर्वोपरि था और वे सदैव उसका चिन्तन किया करते थे। एक सन्त के समान उनका लक्ष्य समग्र मानव जाति की सेवा था परन्तु उनमें देशभक्ति तथा राष्ट्रवाद की भावना भी उपस्थित थी, अत: वे भारतीय जनता को निर्धनता तथा अज्ञानता से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील रहे। उनका राष्ट्रवाद भी सेवा की भावना से ओत-प्रोत था।
- उनके अनुसार धर्म, भारत के राष्ट्रीय हित का मुख्य अंग होना चाहिए। उनका राष्ट्रवाद आध्यात्मिकता पर आधारित था। वे इस हित में थे कि सभी सुधार धर्म के माध्यम से होने चाहिये। राष्ट्रवाद का यह आध्यात्मिक अथवा धार्मिक सिद्धान्त स्वामी विवेकानन्द की प्रमुख राजनीतिक देन थी ।
4. समाजवाद सम्बन्धी अवधारणा
- समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसरों को भोगने का अवसर मिले, इसे ही समाजवाद कहते हैं। स्वामी जी का विश्वास था कि वह राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है जिसे भोगते हुए जन सामान्य आर्थिक उत्थान प्राप्त न कर सकें, अतः वे समाजवादी थे। वे मानते थे कि भरपेट भोजन पहली आवश्यकता है। जनता को यह सुख प्राप्त होगा तो वह स्वयं अपना उद्धार कर लेगी।
5. समानता संबंधी अवधारणा
- स्वामी विवेकान्द का यह निश्चित मत था कि राजनीतिक स्वतंत्रता का सुख केवल उसी स्थिति में प्राप्त सकता है जब समाज है में समानता हो, असमानता के रहते यह सम्भव नहीं है। इस राजनीतिक स्वतंत्रता के भाव का क्रियात्मक रूप में पालन करना व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी के लिये उपयोगी और आवश्यक है। साधारण जनता के विकास के लिये यह आवश्यक है कि एक-दूसरे को नीचा समझने की प्रवृत्ति समाप्त हो ।
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