स्वामी दयानंद सरस्वती जीवन-परिचय महत्वपूर्ण जानकारी।.Swami Dayanand Saraswati Fact in Short Biography in Hindi
स्वामी दयानंद सरस्वती जीवन-परिचय महत्वपूर्ण जानकारी,
Swami Dayanand Saraswati Fact in Short Biography in Hindi
स्वामी दयानंद सरस्वती महत्वपूर्ण जानकारी (Swami Dayanand Saraswati Fact)
- नाम - स्वामी दयानंद सरस्वती
- जन्म- 1824
- निधन- 1883
- जन्म स्थान- टंकारा गाँव, कठियावाड़ गुजरात
- स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम मूल शंकर
- स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरू स्वामी विरजानन्द दांडी, मथुरा
- स्वामी दयानंद सरस्वती की रचना- सत्यार्थ प्रकाश 1875, ऋग्वेदादि भाष्य
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा की गयी स्थापना -
- गुरुकुल, कांगड़ी हरिद्वार के निकट
- आर्य समाज 1875
- दयानन्द एंग्लो वैदिक गोलमेज 1886 लाहौर
स्वामी दयानंद सरस्वती का नारा- वेदों की ओर लौटो, भारत, भारतीयों के लिए आंदोलन
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा चलाया गया आंदोलन - शुद्धि आंदोलन
स्वामी दयानंद सरस्वती जीवन-परिचय
- स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 में गुजरात राज्य के काठियावाड़ जिले के टंकारा गाँव में हुआ था। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया।
- मूलशंकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। घर में पूजन-पाठ और शिव भक्ति का वातावरण होने के कारण भगवान शिव के प्रति बचपन से ही उनके मन में गहरी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी थी। इनकी शिक्षा घर पर ही हुई।
- चौदह वर्ष की आयु तक मूलशंकर ने सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण, 'सामवेद' और यजुर्वेद का अध्ययन कर लिया था।
स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन के महत्वपूर्ण घटना
- टंकारा गाँव में एक शिव-मंदिर था। एक बार शिवरात्रि के दिन रात्रि जागरण में घटी घटना ने इनके जीवन को नई दिशा दी। रात्रि जागरण के दौरान इन्होंने मंदिर में देखा कि शिव की मूर्ति पर एक चूहा चढ़कर प्रसाद खा रहा है तथा मूर्ति को गंदा कर रहा है। उनके मन में तरह-तरह के सवाल पैदा होने लगे कि यदि शिव चेतन है तो फिर यह कैसे हो सकता है। उन्हें लगा कि शिवजी की मूर्ति पत्थर मात्र है। इस पत्थर में शिव नहीं हो सकते। यही सोचकर मूलशंकर ने मूर्ति पूजा का विरोध करने का निश्चय कर लिया। इसके बाद छोटी बहन और इनके चाचा की मृत्यु ने इन्हें सांसारिक नश्वरता का बोध करा दिया तथा 21 वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया।
मूलशंकर द्वारा गुरु की खोज
- कई वर्ष तक मूलशंकर गुरु की खोज में इधर-उधर भटकते रहे। अब वह दयानन्द बन गए थे। आखिर मथुरा के स्वामी विरजानन्द दांडी के आश्रम में उन्हें स्थान मिला।
- स्वामी विरजानन्द दांडी ने आपको धार्मिक शिक्षा-दीक्षा शिक्षा पूरी करके दयानंद गुरु दक्षिणा देने के लिए स्वामी विरजानन्द दांडी के समक्ष उपस्थित हुए।
स्वामीजी ने कहा,
“इस समय यह देश अन्धकार में भटका हुआ है। इसलिए मैं तुमसे में यह आशा करता हूँ कि तुम लोगों को ज्ञान और प्रकाश का सही मार्ग दिखाओगे।. भारतीय जनता को धार्मिक पाखण्ड से बचाओगे और असली वैदिक धर्म का ज्ञान दोगे। मैं इसे ही तुम्हारी गुरु दक्षिणा मानूँगा।
- उन दिनों भारतीय समाज में अनेक बुराइयाँ घुन बनकर उसे खोखला कर रही थीं। जैसे तीर्थ स्थानों में स्वर्ण आभूषणों से सजी अपनी पत्नी को, पण्डों को दान में दे देना, फिर दूसरे लोगों द्वारा उस स्त्री को पण्डों से खरीद लेना, मन्दिरों में कन्याओं को देवता की नौकरी और सेवा करने के लिए चढ़ा देना। इसके साथ ही छुआछूत और अन्ध विश्वास अपनी चरम सीमा पर था। महिलाएँ और अछूत वेद पाठ नहीं सुन सकते थे। विदेश यात्रा समाज विरोधी काम था।
- ऐसे घोर अत्याचारी और भटके हुए समाज को सही रास्ते पर लाना तथा उसे सुधारना आसान काम न था। स्वामी दयानन्द गाँवों, शहरों, कस्बों में घूम-घूमकर धार्मिक पाखण्डों, सामाजिक बुराइयों का खण्डन करने लगे। वह जनता को सच्चाई बताने लगे। समाज के इस कोढ़ को दूर करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। लेकिन उन्हें इस काम में जबरदस्त विरोध का सामना भी करना पड़ा। कई बार उन्हें जान से मार डालने की कोशिश हुई। किन्तु वे बड़े साहस से अपने काम में डटे रहे। उन्होंने समाज को बदलने का जो संकल्प लिया था, उसे वह हर कीमत पर पूरा करना चाहते थे।
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना एवं अन्य कार्य
- 6 अप्रैल, 1875 को स्वामीजी ने बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। इससे पहले 1863 में शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु ‘पाखण्ड-खण्डिनी पताका’ फहराई।
- 12 जून 1875 को आपने 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना शुरू की तथा वेद भाष्यों की रचना की। इन्होंने भारत, 'भारतीयों के लिए' तथा 'वेदों की ओर लौटो' के नारे दिए। स्वामीजी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनाने के लिए 'शुद्धि आंदोलन' चलाया।
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। सामाजिक क्रांति का वह दौर अभूतपूर्व था। कई बार स्वामीजी को धोखे से जहर देने की कोशिश की गई। उन्हें अपमानित और दण्डित करने के प्रयत्न भी किए गए। किन्तु शत्रुओं को सफलता न मिली।
- दूसरी ओर उनके तर्कों के सामने बड़े-बड़े विद्वान मौन हो जाते। वह कहते कि अगर गंगा नहाने, सिर मुंडाने या भभूत लगाने से स्वर्ग मिलता है तो मछली, भेड़ और गधा सबसे पहले स्वर्ग जाते।
- इसलिए यदि हम अपने पूर्वजों को सुखी और शांत बनाना चाहते हैं तो उनकी सेवा करें। उनके मरने पर श्राद्ध करना, ब्राह्मणों को खिलाना और जीते-जी दुःख देना - सच्चा धर्म नहीं है, सच्ची सेवा नहीं है।
- स्वामी दयानन्द ने बाल-विवाह और छूआछूत का भी घोर विरोध किया था। आपने कहा कि जन्म से सभी समान हैं। कर्मों के अनुसार ही वर्ण निश्चित हुए हैं। किन्तु जिस प्रकार न कोई ऊँचा है, न नीचा, उसी तरह समाज में विभिन्न जातियों के बीच छोटे-बड़े और ऊँच-नीच की भावना नहीं होनी चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हरिजन भी ब्राह्मणों के कार्य करके ब्राह्मण पद पा सकता है।
दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज एवं गुरुकुल" की स्थाप
- विद्या प्रचार के लिए स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से ही लाला हंसराज ने 1886 में लाहौर में “दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज" की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानंद ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में “गुरुकुल" की स्थापना की। आपने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया। विधवा-विवाह का प्रचार किया। साथ ही अनाथ आश्रम और 'विधवा-आश्रम खुलवाए।
स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु कैसे हुई
- स्वामीजी जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमंत्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहाँ पर उन्होंने “नन्हीजान" नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा।
- स्वामीजी ने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने स्वामी जी की बात मानकर 'नन्ही जान' से संबंध तोड़ लिए। इससे “नन्ही जान” स्वामीजी के विरुद्ध हो गई। उसने स्वामीजी के रसोइए कलिया उर्फ की सहायता से उनके दूध में पिसा हुआ काँच डलवा दिया जिससे कि 30 अक्टूबर 1883 को आपकी मृत्यु हो गई।
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