निबंध और निबंधकार। भारतेन्दु युग द्विवेदी युग प्रसाद युग शुक्ल युग। Yug Ke Anusaar Nibandhkaar
भारतेन्दु , द्विवेदी प्रसाद, शुक्ल युग के निबंधकार और उनके निबंध
युग के अनुसार निबंधकार
निबंध काल को (1) भारतुंदु युग (2) द्विवेदी युग (3) प्रसाद युग (4) शुक्ल युग तथा (5) शुक्लोत्तर युग नामकरण करके निबंध के विकास का विवेचन औचित्य पूर्ण होगा।
1. भारतेन्दु युग - निबंध काल
भारतेंदु युग (संवत् 1930 से 1960 वि.) के प्रमुख निबंधकारों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमधन', प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त तथा राधाचरण गोस्वामी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र
- भारतेन्दु मात्र निबंधकार ही नहीं अपितु साहित्यकार के विराट् रूप थे उन्होंने कविता, काव्य, नाटक, निबंध एवं आलोचना आदि अनेक विधाओं पर सफल लेखनी उठाई है। सभी रूपों का विकास ही नहीं किया अपितु उनमें उन विशेषताओं एवं प्रवत्तियों का समन्वय भी किया जो युगीन संभावना थी। कविता एवं नाटक की तरह उनके नाटकों का क्षेत्र अति व्यापक था। इतिहास, धर्म, राजनीति, समाज, आलोचना, खोज, यात्रा, आत्म चरित, प्रकृति वर्णन तथा व्यंग्य विनोद आदि सभी विषयों को निबंध में स्थान दिया।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र के प्रमुख निबंध
- उदयपुरोदय, काश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण तथा काल चक्र आदि हैं। निबंधों में साहित्य-मनीषी की सूक्ष्म दष्टि से अवगत हो जाते हैं। अन्य निबंध वैद्यनाथ धाम, हरिद्वार, तथा सरयूपार की यात्रा आदि में भारतीय संस्कृति एवं भारतभूमि के प्रति अगाध प्रेम दष्टिगोचर होता है। प्रकृति सौंदर्य का वर्णन द्रष्टव्य है-
- "ठंडी हवा मन की कला खिलाती हुई बहने लगी। दूर से घानी और स्याही रंग के पर्वतों पर सुनहरापन आ चला। कहीं आधे पर्वत बादलों से घिरे हुए, कहीं एक साथ वाष्प निकलने से उनकी चोटियां छिपी हुई और चारों ओर से उन पर जलधारा पात से बुक्के ही होली खेलते हुए बड़े ही सुहावने मालूम पड़ते थे।"
- यात्रा संबंधी निबंधों में यात्रा के कष्टों का अनुभव करते हुए भारतीय जनता के प्रति सहानुभूमि की अभिव्यक्ति पर्वतीय प्रवाहिनी के समान बीच-बीच में पत्थरों एवं वन प्रांत की झाड़ियों से निकलकर शीतलता प्रदान करने लगती है। "गाड़ी भी ऐसी टूटी-फूटी जैसे हिन्दुओं की किस्मत और हिम्मत अब तपस्या करके गोरी गोरी कोख में जन्म लें तब ही संसार में सुख मिले।"
- भारतेंदु के अन्य निबंधों में सामयिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर तीखा व्यंग्य किया गया है ऐसे निबंधों में लेवी प्राण लेवी, ज्ञाति विवेकिनी सभा, स्वर्ग में विचार सभा अधिवेशन, अंग्रेज स्रोत, पांचवें पैगंबर तथा कंकड़ स्रोत आदि प्रमुख हैं।
- कंकड़ स्रोत की कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं। कंकड़ को प्रणाम है। देव नहीं महादेव, क्योंकि काशी के कंकड़ शिव शंकर के समान हैं .आप अंग्रेजी राज्य में भी गणेश चतुर्थी की रात को स्वच्छंद रूप से नगर में भड़ाभड़ लोगों के सिर पर पड़कर रुधिर धारा से नियम और शांति का अस्तित्व बहा देते हो। अतएव हे अंग्रेजी राज्य में नवाबी संस्थापक! तुमको नमस्कार है।" यहां हिंदुओं की मूर्तिपूजा, बहुदेवोपासना तथा अंग्रेजी राज्य की शांति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया गया है।
- भारतेंदु के निबंधों में विषयानुसार भाषा शैलियों का वैविध्य दष्टिगोचर होता है। उनकी भाषा में मार्मिक अभिव्यंजना, वाम्वैदमध्य सजीव अनेकरूपता आकर्षक स्वच्छता एवं सरलता विद्यमान है जिसमें कहीं स्वाभाविक अलंकार योजना है, कहीं संगोष्ठी वार्तालाप का स्वरूप विद्यमान है। उनके आलोचनात्मक निबंधों में नाटक एवं वैष्णवता और भारतवर्ष प्रमुख हैं जिसमें भाषा अत्यंत प्रौढ़ एवं प्रांजल है। किन्तु उसमें दुरुहता, दुर्बोधता, कृत्रिमता एवं समासात्मकता नहीं दिखलाई पड़ती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विषय एवं भाषा शैली दोनों दष्टियों से भारतेंदु के निबंधों का अत्यधिक महत्त्व है।
बालकृष्ण भट्ट
- भारतेंदु युगीन नाटककारों में बालकृष्ण भट्ट श्रेष्ठ हैं। भट्ट हिंदी प्रदीप के संपादक थे। उन्होंने विवरणात्मक, वर्णनात्मक, विचारात्मक तथा भावात्मक आदि सभी प्रकार के निबंध लिखे हैं।
- कुछ ऐसे निबंध भी लिखे जिनके शीर्षकों से विषय वस्तु का संज्ञान हो जाता है। ऐसे निबंधों में मेला-ठेला, वकील, सहानुभूति, आशा खटका, रोटी तो किसी भांति कमाय खाय मुछंदर इंगलिश पढ़े तो बाबू होय, आत्म निर्भरता, शब्द की आकर्षण शक्ति तथा माधुर्य आदि प्रमुख हैं। भट्ट के निबंधों में वैचारिक मौलिकता, विषय वैविध्य, तथा शैली का आकर्षण आदि सभी गुण विद्यमान हैं।
प्रताप नारायण मिश्र
- प्रताप नारायण मिश्र 'ब्राह्मण के संपादक थे। इन्होंने विभिन्न विषयों को निबंध का विषय बनाया। कभी उन्होंने शारीरिक अंगों - भौं, दांत, पेट, मूंछ, नाक आदि को अपने निबंधों का विषय बनाया एवं उन पर सफलतापूर्वक निबंध लिखे। कभी उन्होंने प्रताप चरित, बद्ध, दान, जुआ तथा अपव्यय जैसे विषयों पर निबंध लिखे। उनके अन्य निबंध ईश्वर की मूर्ति, नास्तिक, शिवमूर्ति, सोने का डंडा, तथा मनोवेग आदि प्रमुख हैं। समझदार की मौत है धूरे क लत्ता बिनै कनातन क डोरी, होली है होरी है, होरी है जैसी उक्तियों को आधार बनाकर निबंध रचना की। मिश्र के निबंधों में मुहावरों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं तो वे एक वाक्य में ही मुहावरों की झड़ी लगा देते हैं। मुहावरेदार भाषा मात्र बात पर आधारित मुहावरों की झड़ी अवलोकनीय है
- "डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहां की बात हो, जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ-आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात जमती है, बात उखड़ती है। बात खुलती है, बात छिपती है, बात चलती है, बात उड़ती है।"
- हिंदी निबंधकार के निबंध में उद्धत उद्धरण इनकी निबंध संबंधी विशेषताओं पर पूर्ण प्रकाश डालता है - "भाषा में स्खलन, शैली में घरूपन, और ग्रामीणता, चंचलता और उछलकूद मिश्र जी की विशेषता है। भाषा संबंधी दोष जहां तहां लापरवाही से बिखरे पड़े हैं। कहीं-कहीं वाक्य का विलक्षण और दुर्बोधरूप भी मिलता है। उर्दू के एक-दो शब्द भी परदेशी की तरह डरे-डरे से दीख पड़ते हैं। तेग अदा कमाने, अव, निहायत, आदि भाँ में मिल जाएंगी। पर केवल इन्हीं तक में दूसरे में कुछ नहीं, फिर क्यों इनकी निंदा की जाए?" का अर्थ टेढ़ी खीर है। विराम चिन्ह तब प्रयुक्त ही अधिक नहीं होते थे | इन्होंने उनका जैसे बहिष्कार ही कर रखा हो। इनके अभाव में वाक्य कभी कभी इतना लंबा हो जाता है कि समझने में उसे बार-बार पढ़ना पड़ता है।"
बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमधन'
- बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' भारतेंदु के मित्र थे। इन्होंने आनंद कादंबिनी (मासिक) तथा नागरी नीदर (साप्ताहिक) दो पत्रों का संपादन किया जिनमें उनके अनेक निबंधों का प्रकाशन हुआ। इनमें प्रकाशित निबंधों में हिंदी भाषा का विकास, परिपूर्ण प्रवास, तथा उत्साह आलंबन आदि प्रमुख हैं। प्रेमधन की भाषा आलंकारिक, कृत्रिम तथा चमत्कारी है जिसमें इन्होंने अधिक-से-अधिक चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयास किया है। प्रेमधन की भाषा सदैव दलदल में फंसी रही है।
बालमुकुंद गुप्त
- बाल मुकुंद गुप्त भारतेंदु युग एवं द्विवेदी युग को जोड़ने वाली कड़ी हैं। इन्होंने बंगवासी तथा भारत मित्र का संपादन किया। गुप्त जी के अनेक निबंध इन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। उनके निबंधों में परराष्ट्रीय शासकों की नीति एवं अत्याचार पर मीठा, चुभता हुआ व्यंग्य किया गया है। शिव शंभु के उपनाम से उन्होंने अनेक निबंध लिखे। जिसमें शिव शंभू का चिट्ठा को अत्यधिक ख्याति मिली। इसमें लार्ड कर्जन को संबोधित करते हुए भारतवासियों की राजनीतिक विवशता को चित्रित किया गया हैं कहीं-कहीं उनके व्यंग्य में अति तीखापन आ गया है। होली के अवसर लिखे गए चिट्ठे में उन्होंने लिखा है
- "कृष्ण हैं उद्धव हैं, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटक पाते। सूर्य है, धूप नहीं चन्द्र है, चांदनी नहीं। माई लार्ड नगर में ही हैं पर शिव शंभू उनके द्वार तक नहीं फटक सकता है। उनके घर चल होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। माई लार्ड के घर तक बात की हवा तक नहीं पहुंच सकती। माई लॉर्ड के मुख चंद्र के उदय के लिए कोई समय भी नियत नहीं है।"
राधाचरण गोस्वामी
- राधा चरण गोस्वामी के निबंध व्यंग्य से ओत-प्रोत हैं। उन्होंने तत्युगीन समाज की कुरीतियों एवं बुराईयों पर तीखा व्यंग्य किया है। राधा चरण गोस्वामी धार्मिक अंध विश्वासों पर चोट करते हैं तो उनका व्यंग्य कबीर के दोहों से अधिक प्रभावोत्पादक हो जाता है। कबीर के व्यंग्यों में कटुता एवं तीखापन है जिसके गले से उतरते ही लकीर सी खिंच जाती है। जबकि गोस्वामी के व्यंग्य शहद में डूबे या होमियोपैथिक औषधि हैं तथा हंसी लिपटे एवं कल्पना से रंगीन हैं। यमपुर की यात्रा लेख में वैतरणी पार करते करते समय लेखक को वहां प्रधान ने रोक लिया, पूछा क्या तुमने गोदान किया है? तब लेखन उत्तर देता है - "साहब प्रथम प्रश्न तो सुन लीजिए, गोदान का कारण क्या? यदि गौ की पूंछ पकड़कर पार उतर जाते हैं, तो क्या बैल से नहीं उतर सकते? जब बैल से उतर सकते हैं, तो कुत्ते ने क्या चोरी की है?" लेखक ने किसी साहब को कुत्ता दान में दिया था। इसी से वह "वैतरणी पार" का पासपोर्ट बनवा लेना अपना अधिकार समझता है।"
- भारतेंदुयुगीन सभी निबंधकारों में व्यष्टि समष्टि का समन्वय विद्यमान है। निबंधों के विषय क्षेत्र में वैविध्यता एवं व्यापकता है। हास्य व्यंग्य सोद्देश्य है जो कि सामाजिक या राजनीतिक व्यवस्था पर प्रहार करना है। जटिल-से-जटिल विषयों को इस युग के निबंधकारों ने सरल सुबोध एवं मनोहारी शैली में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा शैली में भाषिक एवं व्याकरणिक शुद्धता भले ही न हो किंतु सहृदय को गुदगुदाने, उसके मस्तिष्क को झंकृत करने तथा उसकी आत्मा को स्पर्श करने में उसे पूर्ण सफलता मिली है। उनके निबंधों में शुष्कता एवं वैज्ञानिकता नहीं है। साहित्यिक आदर्श कोटि के निबंध हैं जिनसे विचारों के साथ-साथ भावनाओं का भी उदवेलन होता है जिनसे केवल ज्ञान की ही वद्धि नहीं होती अपितु रसानुभूमि की प्राप्ति भी होती है।
2. द्विवेदी युग और उनके निबंधकार
- द्विवेदी युगीन लेखकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मिश्र बंधु डॉ. श्याम सुंदरदास, डॉ. पदम सिंह शर्मा, अध्यापक पूर्ण सिंह, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, बनारसी दास चतुर्वेदी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सन् 1903 ई. से द्विवेदी युग का प्रारंभ हो गया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
- द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन द्वारा हिंदी भाषा एवं साहित्य को प्रौढ़ता प्रदान की। उन्होंने स्वयं निबंध लिखकर उच्चकोटि के निबंधों का आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने अंग्रेजी के निबंधकार बेकन के निबंधों का अनुवाद भी बेकन विचार रत्नावली के नाम से प्रस्तुत किया जिससे हिंदी के अन्य लेखकों को प्रेरणा मिली। सरस्वती के संपादन का कार्य भार संभालते ही द्विवेदी ने सर्वप्रथम तत्कालीन लेखकों की भाषा को संस्कारित एवं परिमार्जित किया। व्याकरणिक सुधार तथा विराम चिन्हों के प्रयोग पर बल दिया। वे भाषा के गठन एवं स्वरूप को समझाने का यत्न करते थे।
- हिन्दी को अन्य भाषा के शब्दों के प्रयोग से अलग न रखा जाए यह उनकी भाषाई नीति थी जानबूझकर संस्कृत के तत्सम शब्दों का आधिक्य या बहिष्कार न किया जाए। उनकी इस भाषा नीति से प्रायः सभी निबंधकार प्रभावित हुए। उनके निबंधों में कवि और कविता प्रतिमा, कविता, साहित्य की महत्ता, क्रोध तथा लोभ आदि नवीन विचारों से ओत-प्रोत हैं।
- भारतेन्दु युगीन निबंधों जैसी वैयक्तिकता का प्रदर्शन, रोचकता, सजीवता एवं सहज उच्छृंखलता का द्विवेदी के निबंधों में अभाव है। इनके निबंधों में भाषा की शुद्धता सार्थकता, एकरूपता शब्द प्रयोग पटुता, आदि गुण विद्यमान हैं। किंतु पर्यवेक्षण की सूक्ष्मता, विश्लेषण की गंभीरता, चिंतन की प्रबलता इसमें बहुत कम है। इनक निबंधों की शैली व्यास है जिसके कारण पर्याप्त सरलता है तथा हास्य व्यंग्य एवं भावुकता का पूर्ण अवसर है। कवि और कविता लेख में उनकी शैली का रूप द्रष्टव्य है।
- "छायावादियों की रचना तो कभी-कभी समझ में नहीं आती। वे बहुधा बड़े ही विलक्षण छंदों का या बत्तों का भी प्रयोग करते हैं। कोई चौपदें लिखते हैं, कोई छः पदें, कोई ग्यारह पदें तो कोई तेरह पदें। किसी की चार सतरें गज-गज लंबी तो दो सतरें दो ही अंगुल की। फिर ये लोग बेतुकी पद्यावली भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं। इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरखधंधा हो जाती है। न ये शास्त्र की आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ती कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती न सत्य समालोचकों के परामर्श की परवाह करने वाले इनका मूलमंत्र है हम चुनी दीगरे नेस्त।"
विषयानुसार उनकी शैली में गंभीरता भी दिखलाई देती है। 'मेघदूत' निबंध कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं -
- "कविता कामिनी के कमनीय नगर में कालिदास का मेघदूत एक ऐसे भव्य भवन के सदश्य है, जिसमें पद्यरूपी अनमोल रत्न जुड़े हुए हैं ऐसे रत्न जिनका मोल ताजमहल में लगे हुए रत्नों से भी कहीं अधिक है।" वास्तव में द्विवेदी के प्रमुख संग्रह रसज्ञ रंजन में सचमुच रसज्ञ पाठकों के रंजन की अपूर्व क्षमता विद्यमान है।
द्विवेदी युग के अन्य निबंधकारों में माधव प्रसाद मिश्र गोविंद नारायण मिश्र, श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, अध्यापक पूर्ण सिंह एवं चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के नाम प्रमुख हैं।
माधव प्रसाद मिश्र
- विषय वस्तु की दृष्टि से इन्होंने द्विवेदी का अनुसरण करते हुए विचारात्मक निबंधों की रचना की है। किंतु इनमें कहीं-कहीं शैली की विशिष्टता दिखलाई पड़ती है। माधव प्रसाद मिश्र ने धति सत्य जैसे विषयों पर निबंध लिखकर गंभीर शैली में प्रकाश डाला है।
गोविंद नारायण मिश्र
गोविंद नारायण मिश्र की शैली में अलंकारों की प्रधानता है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली के प्रयोगाधिक्य के कारण उनके निबंधों में जटिलता आ गई है। साहित्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है -
"मुक्ताहारी नीर-क्षीर- विचार सुचतुर कवि कोविद राज हिम सिंहासनासिनी मंदहासिनी, त्रिलोक प्रकाशनी सरस्वती माता के अति दुलारे, प्राणों से प्यारे पुत्रों की अनुपम, अनोखी, अतुलवाली, परम प्रभावशाली सजन मनमोहिनी नवरस भरी सरस सुखद- विचित्र वचन रचना का नाम ही साहित्य है। इस परिभाषा को पढ़ने से साहित्य से अवगत होना तो दूर रहा स्वयं यह परिभाषा ही गले से नीचे नहीं उतरती है।
बाबू श्याम सुंदर दास
- श्याम सुंदर दास उच्च कोटि के आलोचक तथा सफल निबंधकार भी थे। इनके निबंध आलोचनात्मक गंभीर विषयों पर लिखे गए हैं जैसे भारतीय साहित्य की विशेषताएं, समाज और साहित्य, हमारे साहित्योदय की प्राचीन कथा तथा कर्तव्य और सभ्यता आदि। उनके निबंधों में विचारों का संग्रह तथा समन्वय ही मिलता है। आत्मानुभूतियों का प्रकाशन या जटिलता का दर्शन उनमें नहीं होता है। उनकी शैली प्रौढ़ होते हुए भी सरल है। उनके निबंधों में जटिलता कहीं दिखलाई नहीं पड़ती है। द्विवेदी जैसी सुबोधता भी उनमें नहीं है।
पद्म सिंह शर्मा
- समालोचना के जन्मदाता पद्मसिंह बाबू श्याम सुंदर दास के समकालीन थे शर्मा जी के निबंधों के दो संग्रह पदमराग एवं प्रबंध मंजरी प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने निबंधों में महापुरुषों के जीवन का चित्रण, समकालीन व्यक्तियों के संस्मरण या उनको श्रद्धांजलि, साहित्य समीक्षा आदि विषयों को अपनाया है। उनकी शैली में वैयक्तिकता, भाषात्मकता एवं सरलता की प्रधानता थी। गणपति शर्मा को दी गई श्रद्धांजलि की कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं
- "हा। पंडित गणपति शर्मा जी हमको व्याकुल छोड़ गए। हाय हाया क्या हो गया। यह बज्रपात, यह विपत्ति का पहाड़ अचानक कैसे टूट पड़ा? यह किसकी वियोगाग्नि से हृदय छिन्न-भिन्न हो गया। यह किसके वियोग बाण ने कलेजे को बींध दिया यह किसके शोकानल की ज्वालाएं प्राण पखेरू के पंख जलाए डालती हैं। हा निर्दय काल-यवन के एक ही निष्ठुर प्रहार ने किस अन्य मूर्ति को तोड़कर हृदय मन्दिर सूना कर दिया।"
अध्यापक पूर्ण सिंह
- अध्यापक पूर्ण सिंह अपनी शैली की विशिष्टता के लिए निबंधकारों में ख्याति प्राप्ति निबंधकार हैं। इनके निबंधों में स्वाधीन चिंतन, निर्भय विचार प्रकाशन तथा प्रगतिशीलता के दर्शन होते हैं शैली में अनूठी लाक्षणिकता, एवं चुभता व्यंग्य मिलता है। "बादल गरज- गरजकर ऐसे ही चले जाते हैं, परंतु बरसने वाले बादल जरा सी देर में बारह इंच तक बरस जाते हैं।" या "पुस्तकों या अखबारों के पढ़ने से या विद्वानों के व्याख्यानों को सुनने से तो बस ड्राइंग रूप के वीर पैदा होते हैं।"
- "आजकल भारत वर्ष में परोपकार का बुखार फैल रहा है।" "पुस्तकों के लिखे नुस्खों से तो और भी बदहजमी हो जाती है।" जैसे वाक्यों से अध्यापक पूर्ण सिंह की निबंध शैली की रोचकता का नमूना मिल जाता है।
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
- गुलेरी ने कहानियों की तरह निबंध भी कम लिखे हैं किन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से उनका बहुत अधिक महत्व है। उनके निबंधों में गंभीरता एवं प्रगतिशीलता का सुंदर समन्वय दिखलाई पड़ता है। उनकी शैली में सरलता, रोचकता, व्यंग्यात्मकता तथा सरसता का गुण अत्यधिक परिमाण में उपलब्ध होता है। उनका प्रमुख निबंध कछुआ धर्म है जिसकी कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं
- "पुराने-से-पुराने आर्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे, आर्य सप्त सिंधु को आर्याव्रत बनाना चाहते थे। आगे ये चल दिए, पीछे वे दबाते गए पर ईशान के अंगूरों और गुलों का मुंजवत् पहाड़ की सोमलता का चस्का पड़ा हुआ था, लेने जाते तो वे पुराने गंधर्व मारने दौड़ते हैं। हां, उनमें से कोई-कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाता था। उस समय का सिक्का गौएं थीं...मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी। जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुंजड़ियों से हुआ करती है। ये कहते कि गौ भी एक कला में सोम बेच दो। वह कहता, वाह। सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबे जी ने अपने कंधे पर चढ़ी बाल-वधू के लिए कहा था कि 'या ही में बेटी' वैसे ये भी कहते हैं कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, घी होता है, वह होता है।"
- वास्तव में गुलेरी के निबंध उनके व्यक्तित्व की छाप से ओत-प्रोत हैं। उनकी शैली पर सर्वत्र उनका व्यक्तित्व छाया हुआ है। द्विवेदी युगीन निबंधकारों के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस युग के निबंध प्रायः विचार प्रधान हैं। भारतेंदु युगीन निबंधों की तरह इनमें तत्कालीन जीवन की अभिव्यक्ति एवं राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिवेशों का अंकन नहीं मिलता है। हास्य व्यंग्य के स्थान पर गांभीर्य की प्रधानता है। पूर्ण सिंह एवं गुलेरी के निबंधों के अतिरिक्त शेष निबंधकारों के निबंधों में वैयक्तिकता का अभाव है। निबंधों में मौलिकता नवीनता एवं ताजगी भी इनमें दष्टिगोचर नहीं होती है। इससे यह अधिक स्पष्ट हो जाता है कि इनमें निबंधत्व कम वैचारिक संग्रह अधिक है। व्याकरणिक एवं भाषाई शुद्धता एवं परिमार्जन इनमें मिलता है।
3. शुक्ल युग के निबंध और निबंधकार
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने विषय, भाषा और शैली सभी दष्टियों से हिंदी निबंधों को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा कर उन्हें उनकी पराकाष्ठा प्रदान की। निःसन्देह आचार्य राम चन्द्र शुक्ल को हिंदी का सर्वश्रेष्ठ निबंधकार कहा जा सकता है। द्विवेदी युग के बाद निबंधों का विकास इन्हीं के व्यक्तित्व से पहचाना जाता है। इसलिए इन्हीं के नाम पर इस युग का नामकरण किया गया है।
- हिंदी निबंध के विकास की गति में तीसरे मोड़ का श्रेय रामचन्द्र शुक्ल के निबंधों के संग्रह चिंतामणि को है। इसने पाठकों के समक्ष नवीन विचार, नव अनुभूति एवं नई शैली उपस्थित की। इस युग के निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गुलाब राय, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पंत, पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, आचार्य नंन्द दुलारे वाजपेयी, शांति प्रिय द्विवेदी प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, रामनाथ सुमन तथा माखन लाल चतुर्वेदी, पदुम लाल पुन्नालाल बख्शी, वियोगी हरि, रायकृष्ण दास, वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ. रघुवीर सिंह आदि उल्लेखनीय हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- आचार्य राम चन्द्र शुकल ने चिंतामणि (तीन भाग) द्वारा नवीन विचारधारा, नवीन अनुभूति तथा नव्य शैली का प्रारूप प्रदान किया। चिंतामणि के निबंधों का विषय अत्यंत सूक्ष्म एवं गंभीर है। जिसमें मनोवैज्ञानिकता तथा रसानुभूति की प्रधानता है। निबंधों का प्रतिपादन प्रौढ़तम शैली में हुआ है। जिसमें चिंतन की मौलिकता, विवेचन की गंभीरता, विश्लेषण की सूक्ष्मता तथा शैली की परिपक्वता दिखलाई पड़ती है। शुक्ल की लेखन कला में वैयक्तिकता, भावात्मकता एवं व्यंग्यात्मकता यथा स्थान दष्टिगोचर होती है। उनके निबंधों में व्यक्ति एवं विषय का ऐसा अद्भुत समन्वय हुआ है कि यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि उनके निबंधों को व्यक्ति प्रधान या विषय प्रधान कहें चिंतामणि (प्रथम भाग) के निवेदन में इसका निर्णय करने का भार अपने विज्ञ पाठकों पर छोड़ दिया है। ईर्ष्या श्रद्धा-भक्ति, लज्जा, क्रोध, लोभ, मोह, लोभ-प्रीति आदि मनोवत्तियों का विश्लेषण उन्होंने अति प्रखर दष्टि से किया है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण भी स्पष्ट दष्टिगोचर होता है। शुक्ल ने अपने निबंधों में मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री एवं साहित्यकार तीनों के कार्यभार का निर्वाह अति सफलतापूर्वक किया है।
- उनके साहित्यिक एवं आलोचनात्मक निबंधों में कविता क्या है? साधारणीकरण एवं व्यक्ति वैचित्र्यवाद, काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था आदि प्रमुख हैं जो अपूर्व प्रतिभा, स्वतन्त्र चिंतन एवं मौलिक विचारों की अमिट छाप पाठकों पर छोड़ते हैं। उनके विचारों एवं निष्कर्षों से असहमत रहते हुए भी उनकी मौलिकता अनिवार्यरूप से सबने स्वीकारी है। साधारणीकरण की जटिल समस्या को शताब्दियों पूर्व संस्कृत के आचार्यों ने सुलझाने का प्रयत्न किया किंतु उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिली। उसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने नये ढंग से सुलझाने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। वे सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के धनी ही नहीं अपितु नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के महान व्यक्तित्व थे।
निबंध में उनकी
वैयक्तिकता प्रमुख विशेषता है। लज्जा और ग्लानि पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने
लिखा है-
- "लक्ष्मी की मूर्ति धातुमयी हो गई, उपासक सब पत्थर के हो गए आजकल तो बहुत सी बातें धातु के ठीकरों पर ठहरा दी गई हैं।.. राजधर्म, आचार्य धर्म, वीर धर्म, सब पर सोने का पानी फिर गया है, सब टका- धर्म हो गए। सबकी टकटकी टके की ओर लगी हुई है। ऐसे में चाटुकारों की खबर लेते हुए उन्होंने लिखा है "इसी बात का विचार करके सलाम-साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने के पहले अर्दलियों से उनका मिजाज पूछ लिया करते हैं।"
- वास्तव में शुक्ल के निबंधों में वे सभी गुण विद्यमान हैं जो गंभीर विषयों के निबंधों के लिए अपेक्षित हैं। उनके कुछ निबंधों में जटिलता, दुरूहता, शुष्कता आदि आ गई है जिसका प्रमुख कारण निबंध-विषय की गंभीरता अति प्रौढ़ता एवं अति सूक्ष्मता है। अति सर्वत्र वर्जयेत्र का पालन न करने से उनके कुछ निबंधों में दुर्बोधता आई है।
गुलाब राय
- गुलाब राय के अनेक निबंध संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें फिर निराशा क्यों? मेरी असफलताएं तथा मेरे निबंध आदि विशेष लोकप्रिय संग्रह हैं। गुलाब राय के निबंधों की विशेषताओं में वैयक्तिक सारल्य, अनुभूति का समन्वय, वैचारिक स्पष्टता, एवं शैली की सुबोधगम्यता आदि प्रमुख हैं। मेरी असफलताएं में गुलाब राय ने व्यक्ति परक विषयों को अति मनोहरकारी रूप से उपस्थित किया है। व्यंग्य का यथास्थान प्रयोग किया गया है। व्यंग्य का लक्ष्य किसी और को न बनाकर अपने को ही बनाया है। मेरी दैनिकी का एक पष्ठ इनका प्रमुख निबंध है उसका कुछ अंश अवलोकनीय है -
- "खैर आज कल उस (भैंस) का दूध कम हो जाने पर भी अपने मित्रों को छाछ भी पिला न सकने की विवशता की झंझल के होते हुए भी उसके लिए भूसा लाना अनिवार्य हो जाता है। कहां साधारणीकरण एवं अभिव्यंजनाकवाद की चर्चा और कहां भूसे का भाव! भूसा खरीदकर मुझे भी गधे के पीछे ऐसे ही चलना पड़ता है, जैसे बहुत से लोग अकल के पीछे लाठी लेकर चलते हैं..... लेकिन मुझे गधे के पीछे चलने में उतना ही आनंद आता है जितना कि पलायनवादी को जीवन से भागने में।" गुलाबराय ने अपने निबंधों में साहित्य और मनोविज्ञान की समस्याओं का समाधान भी उपस्थित किया है।
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
- बख्शी ने अपने निबंधों में मौलिकता का प्रतिपादन करते हुए नवीन शैली का आदर्श प्रस्तुत किया है। उनके निबंधों के विषय अति सरल हैं यथा 'उत्सव', राम लाल पंडित, समाज सेवा, नाम तथा विज्ञान आदि। उनकी शैली की विशेषता अन्य निबंधकारों में नहीं मिलती है।
डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल
- बासुदेव शरण अग्रवाल ने सांस्कृतिक विषयों को अपने निबंध का विषय बनाया है।
डॉ. रघुवीर सिंह
- रघुवीर सिंह ने इतिहास को अपने निबंधों का विषय बनाते हुए ऐतिहासिक धूमिल तथ्यों की धूल हटाकर उन्हें नवीन रूप प्रदान करने का सफल प्रयास किया है। इनकी निबंधशैली में वैयक्तिकता की प्रधानता है।
- इससे स्पष्ट हो जाता है कि निबंध के विषय क्षेत्र में पर्याप्त गंभीरता, नवीनता एवं सूक्ष्मता का आविर्भाव हुआ है। शुक्ल युगीन निबंधों में गंभीर विषयों को लेकर उनकी समस्याओं को नवीन दष्टिकोण से मौलिक विचारों के साथ प्रतिपादित किया गया है। साहित्य, इतिहास, संस्कृति तथा मनोविज्ञान इनके निबंधों के विषय रहे हैं। वैयक्तिक अनुभूतियों एवं भावनाओं के प्रकाशन का अनेक निबंधकारों ने लक्ष्य बनाया है। भाषा शैली की दृष्टि से यह युग अन्य युगों की अपेक्षा निबंध साहित्य में अत्यधिक विकसित, प्रांजल एवं प्रौढ़ दष्टिगोचर होता है।
शुक्लोत्तर युग के निबंध और निबंधकार
- शुक्ल परवर्ती निबंधकारों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, जैनेंद्र, डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ. सत्येंद्र, शांति प्रिय द्विवेदी, डॉ. विनय मोहन शर्मा, डॉ. रामरतन भटनागर, डॉ. राम विलास शर्मा, डॉ. विश्वभर 'मानव', प्रभाकर माचवे, डॉ. पदम सिंह शर्मा कमलेश, इलाचन्द्र जोशी, डॉ. भगीरथ मिश्र, चन्द्रवली पांडेय, डॉ. भगवत शरण उपाध्याय, राम वक्ष बेनीपुरी, कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर, रामधारी सिंह दिनकर, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त तथा देवेन्द्र सत्यार्थी आदि प्रमुख हैं।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
- शुक्ल परवर्ती निबंधकारों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सर्वश्रेष्ठ निबंधकार हैं। इनके निबंध संग्रहों में अशोक के फूल. कल्पलता विचार और वितर्क, विचार प्रवाह तथा कुटज विशेष उल्लेखनीय संग्रह हैं। द्विवेदी का निबंध क्षेत्र अति व्यापक है। उन्होंने भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति, प्रकृति, परंपरागत ज्ञान-विज्ञान, आधुनिक युगीन विभिन्न परिवेशों, प्रवतियों एवं समस्याओं का अपूर्व समन्वय किया है। उनके निबंध अध्ययन क्षेत्र की व्यापकता तथा चिंतन की गंभीरता से युक्त हैं किन्तु द्विवेदी की वैयक्तिक सरलता, सहजता, सरसता एवं विनोदी स्वभाव उसने नीसरता, शुष्कता या दुर्बोधता का प्रवेश नहीं होने देता है। व्यक्ति एवं विषय का पूर्ण तादात्म्य उनमें दष्टिगोचर होता है। उनके गंभीर से गंभीर निबंधों को पढ़ते समय पाठक ऊबता नहीं है अपितु उपन्यास या काव्यानंद की रस विभोरता का अनुभव करता है। जिन निबंधों के लेखन में द्विवेदी का मन रमा नहीं है वे सरसता के अपवाद स्वरूप हैं। जब लेखक का मन ही नहीं रमा है तो पाठक का मन उसमें किस प्रकार रमकर आनंदानुभूति कर सकता है किन्तु द्विवेदी के अधिकांश निबंध लालित्य एवं कलात्मकता से परिपूर्ण आदर्श की स्थापना करते हैं।
- द्विवेदी की भाषा शैली में त्वरित परिवर्तनशीलता दष्टिगोचर होती है। निबंध के मनोभाव एवं विषयानुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कालिदास युगीन वातावरण का चित्रण करते समय उनकी शैली स्वाभाविक रूप से संस्कृत गर्भित हो जाती है जबकि ग्रामीण जीवन का चित्रण करते समय शैली में सारल्य एवं चलताऊपन आ जाता है जिसमें लोक भाषा के शब्दों का आधिक्य एवं सामान्य शब्दों की प्रचुरता देखी जा सकती है। आधुनिक जीवन व विसंगतियों तथा दूषित प्रवत्तियों का चित्रण करते समय उनकी शैली हास्य-विनोदी एवं व्यंग्यात्मक हो जाती है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं।
- "आसमान में निरंतर मुक्का मारने में कम परिश्रम नहीं और मैं निश्चित जानता हूं कि रहस्यवादी आलोचना लिखना कुछ हंसी खेल नहीं है। पुस्तक को छुआ तक नहीं और आलोचना ऐसी लिखी कि त्रैलोक्य विकंपित यह क्या कम साधना है।"
आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी
- आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी मुख्य रूप से आलोचक हैं। आलोचनात्मक निबंध लिखे हैं। अनेक निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी साहित्य, नया साहित्य तथा नए प्रश्न प्रमुख हैं। मुख्य रूप से ये आलोचनाएं हैं किन्तु काव्य रूप एवं शैली की दष्टि से निबंध के अंतर्गत रखा जा सकता है। इनमें वैचारिक प्रधानता है। इसलिए विचार प्रधान निबंध हैं जिनमें वैयक्तिकता की प्रधानता है। इनका मुख्य आधार व्यक्तिगत चिंतन एवं मनन है। व्यक्तिकता से प्रभावित होते हुए भी उनकी प्रतिपादन शैली विषयानुसार तथा विचारों से प्रतिबद्ध है। उसमें व्यक्तित्व की स्वतन्त्र सत्ता का आभास प्रायः नहीं मिलता है। विचार - गंभीरता आ जाने से शैली भी गूढ़ एवं बोझिल हो जाती है। इस दृष्टि से आचार्य वाजपेयी आचार्य शुक्ल की परंपरा के निबंधकार ठहरते हैं। उनकी शैली की बौद्धिकता एवं तार्किकता उच्च सतर के पाठकों को ही बौद्धिक आनंद प्रदान करती है।
डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल
- डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल भारतीय संस्कृति एवं पुरातत्व संबंधी विषयों पर निबंध लिखनेवाले निबंधकारों में सर्वश्रेष्ठ निबंधकार हैं। भारतीय संस्कृति एवं पुरातत्व से संबंधित इनके अनेक निबंध संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें पथ्वी पुत्र', 'मात्र भूमि तथा कला और संस्कृति विशेष महत्वपूर्ण संग्रह हैं। डॉ. अग्रवाल के निबंधों में अध्ययन-गांभीर्य तथा चिंतन- मौलिकता का प्राधान्य है। प्राचीन तत्वों एवं उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने एवं स्पष्ट करने की अपेक्षा अपनी विशिष्ट व्याख्याओं के माध्यम से सर्वथा नवीन रूप प्रदान करते हुए उन्होंने अपने आधुनिक पाठकों के लिए उसे सुबोध बना दिया है। उनकी शैली में सरलता एवं स्पष्टता विद्यमान है जो उनके निबंधों की विशिष्टता है।
पं. शांति प्रिय द्विवेदी
- आत्मानुभूति परक वैयक्तिक निबंध लिखने वालों में द्विवेदी का नाम मूर्धन्य है। इनके निबंध संग्रहों में जीवन-यात्रा, साहित्यिकी, हमारे साहित्य निर्माता, कवि और काव्य संचारिणी, युग और साहित्य तथा सामयिकी आदि उल्लेखनीय हैं। इन्होंने कला एवं साहित्य विषयक निबंधों की रचना की है। जिसमें स्वानुभूति के आधार पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति प्रदान की है। किंतु पथ-चिन्ह तथा परिव्राजक की प्रजा आदि में वैयक्तिकता को उभारा है। शैली में सरसता एवं प्रभावोत्पादकता विद्यमान है। कहीं-कहीं यह शैली करुणा प्रधान होकर करुणोत्पादक हो गई है। जैसे अपने संबंधित संस्मरण का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है -
- "छुटपन में वह विधवा हो गई थी। उस अबोध वय में उसने जाना ही नहीं कि उसके भाग्य - क्षितिज में क्या पट परिवर्तन हो गया। जन्म काल से मां का जो आंचल उसके मस्तक पर फैला हुआ था। सयानी होने पर वही अंचल अपने मस्तक पर ज्यों-का-त्यों पाया, मानो शैशव ही उसके जीवन में अक्षुण हो गया। अचानक एक दिन जब वह अंचल भी मस्तक पद से छाया की तरह तिरोहित हो गया, तब उसके जीवन में मध्याहन की प्रखर ज्वाला के सिवा और क्या शेष रह गया था।"
डॉ. नगेन्द्र
- डॉ. नगेन्द्र का साहित्यिक आलोचनात्मक निबंधों की अभिवद्धि में असाधारण योगदान है। इनके निबंध संग्रहों में विचार और विवेचन, विचार और अनुभूति, विचार और विश्लेषण तथा कामायनी के अध्ययन की समस्याएं आदि विशेष महत्व के हैं। इन निबंधों का मूल स्वर विषय विवेचन है। अनेक निबंधों में वैयक्तिकता भी दष्टिगोचर होती है फिर भी विवेच्य विषय या मूल समस्या के विवेचना की प्रधानता है। नगेन्द्र कुशल व्याख्याता हैं। वे किसी भी विषय पर अपना समाधान प्रस्तुत करने से पहले उसे पाठकों के हृदय में प्रतिष्ठापित कर देते हैं जिसके कारण पाठक गूढातिमूढ़ निबंध को पढ़ते समय उबासी न लेकर अति दत्त-चित्तता से उद्योपांत पढ़ जाता है। इसका उदाहरण उनका साधारणीकरण एवं व्यक्ति वैचित्र्यवाद" है। इस शैली का यह सर्वश्रेष्ठ निबंध है। डॉ. नगेन्द्र ने अधिकांश निबंधों में व्याख्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक शैली अपनाई है किन्तु कुछ निबंधों में रूपकात्मक या अप्रस्तुतात्मक शैली का प्रयोग भी किया है। जैसा कि वीणा पाणि के कंपाउंड में या हिंदी उपन्यास में किया गया है। वास्तव में विचारों की गंभीरता, चिंतन की मौलिकता एवं शैली की रोचकता इन तीनों का डॉ. नगेन्द्र ने सामंजस्य स्थापित किया है।
- साहित्य एवं कला संबंधी विषयों पर उत्कृष्ट निबंध लिखे हैं जिनमें कला, कल्पना और साहित्य तथा साहित्य की झांकी आदि संग्रहीत हैं तथ्यों को तर्क एवं प्रमाण से परिपुष्ट करके प्रतिपादन करते हैं।
डॉ. विनय मोहन शर्मा
- डॉ. शर्मा के निबंध संग्रह 'साहित्यावलोकन' तथा 'दष्टिकोण' आदि हैं। इन्होंने मुख्यतः सौंदर्य शास्त्रीय तथा साहित्यिक विषयों पर निबंध लिखे हैं। इनके व्यक्तित्व की सरलता एवं उदारता के परिणामस्वरूप निबंध शैली में सरलता, स्पष्टता तथा ऋजुता के गुण विद्यमान हैं। विषय प्रतिपादन से पूर्व पाठक मनोभूमि को विषयानुसार ढाल लेते हैं जिससे वह प्रतिपाद्य निबंध को सुनने, समझने या अध्ययन में तल्लीनतापूर्वक प्रवत्त हो जाता है। उदाहरण के लिए कलाकार एवं सौंदर्य बोध निबंध का अंश अवलोकनीय है।
- "सौंदर्य क्या है? उसका बोध कैसे होता है, और कवि या कलाकार पर उसकी किस प्रकार प्रतिक्रिया होती है? ये प्रश्न वर्षों से साहित्य और दर्शन में विवाद बने हुए हैं।" अलोचना या निबंध में ऐसे प्रश्न पाठक की उत्सुकता को बढ़ाने में सहायक होते हैं।
डॉ. राम विलास शर्मा
- अत्यंत तीखी, व्यंग्यपूर्ण एवं सशक्त शैली में निडरता से विषय का प्रतिपादन करने वाले निबंधकारों में डॉ. राम विलास शर्मा का विशेष स्थान है। इन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति तथा राजनीति आदि विषयों पर सौ से अधिक निबंध लिखे हैं जो संस्कृति और साहित्य प्रगति और परंपरा, प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं तथा स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य आदि संग्रहों में संग्रहीत हैं। डॉ. शर्मा मार्क्सवादी या प्रगतिवादी विचारधारा के निबंधकार हैं। इनके निबंधों में यही दष्टिकोण प्रधान है।
प्रकाश चन्द्र गुप्त
- प्रकाश चन्द्र गुप्त के निबंधों का संग्रह 'नया हिंदी साहित्य एक भूमिका' तथा 'साहित्य धारा' हैं जिनमें इनके निबंध संगहीत हैं। शैली सरल, स्पष्ट तथा रोचक है।
शिवदान सिंह चौहान
- शिवदान सिंह चौहान के निबंध संग्रह साहित्यानुशीलन' तथा आलोचना के मान हैं जिनमें इनके निबंधों का संग्रह किया गया है। इनकी शैली में सरलता, स्पष्टता तथा रोचकता विद्यमान है।
डॉ. भगवतशरण उपाध्याय
- डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के निबंधों के विषय ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक हैं जिनमें उन्होंने उत्कृष्ट निबंधों का प्रस्तुतीकरण किया है। निबंधों में अध्ययन, मनन एवं चिंतन की गंभीरता दष्टिगोचर होती है। इनके निबंध संग्रह भारत की संस्कृति का सामाजिक विश्लेषण', 'इतिहास के पष्ठों पर', 'खून के धब्बे तथा सांस्कृतिक निबंध' आदि उल्लेखनीय है।
डॉ. भगीरथी मिश्र
- डॉ. भगीरथी मिश्र के निबंधों का संग्रह कला और साहित्य है।
डॉ. रामरतन
भटनागर
- डॉ. रामरतन भटनागर का निबंध संग्रह 'अध्ययन और आलोचना है।
डॉ. रामधारी सिंह
दिनकर
- डॉ. दिनकर के निबंधों के संग्रह मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर तथा रेती के फूल हैं।
महादेवी वर्मा
- संस्मरणात्मक निबंध लिखने वालों में महादेवी का नाम सर्वश्रेष्ठ है। इनके संस्मरणों के संग्रह अतीत के चल-चित्र, स्मति की रेखाएं तथा श्रंखला की कड़ियां हैं। जिनमें सामाजिक विषमता तथा दीन-हीन मानव, पशु-पक्षियों की वेदना का चित्रण अनुभूति की भाव भूमि पर किया गया है। शब्द चयन एवं पद-विन्यास के भावों की मार्मिकता को स्पष्ट करने की सामर्थ्य एवं क्षमता विद्यमान है। उदात्त विषयों के प्रतिपादन में शैली में सशक्तता एवं प्रौढ़ता विद्यमान है। महादेवी के संस्मरणों एवं निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें दार्शनिक की अंतर्दृष्टि कवि की अभिव्यक्ति चित्रकार की प्याली- तूलिका तथा साहित्यकार की उजस्र लेखनी का अपूर्व समन्वय विद्यमान है।
रामवृक्ष बेनीपुरी
- रामवृक्ष बेनीपुरी के निबंध संस्मरणात्मक हैं। जिनमें उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों से संबंधित व्यक्तियों का सहृदयापूर्ण शैली में चित्रांकन किया है। इनके निबंध संग्रह माटी की मूरतें तथा गेहूं और गुलाब हैं। इनकी शैली काव्यात्मक तथा विवरणात्मक है। कही इनकी शैली आकुल-व्याकुल सामुद्रिक लहर तरंगों के कंपायमान अधरों का चुंबन प्रति चुंबन लेकर अट्टहास कर उठती है।
हरिवंश राय बच्चन'
- हरिवंश राय बच्चन ने संस्मरणात्मक निबंध लिखे जिनका संग्रह क्या भूलूं क्या याद करूं' है। जिसमें इनके जीवन के मर्मस्पर्शी संस्मरण संग्रहीत हैं।
देवी लाल
चतुर्वेदी 'मस्त'
- देवी लाल चतुर्वेदी के निबंधों का संकलन 'झरोखे' है।
आचार्य चंद्रवली
पांडेय
- चन्द्रबली पांडेय ने समीक्षात्मक एवं गवेष्णात्मक निबंधों की रचना की। इनके निबंधों के संग्रह एकता तथा विचार विमर्श हैं। इनके निबंधों में अध्ययन गांभीर्य एवं तर्क- पूर्ण शैली का समन्वय दष्टिगोचर होता हैं।
नलिन विलोचन शर्मा
साहित्यिक एवं
सांस्कृतिक विषयों पर निबंध लिखे।
रांगेय राघव
- साहित्यिक एवं सांस्कृतिक निबंध लेखकों में इनका विशेष स्थान है।
डॉ. देवराज
- अनेक निबंधकारों ने अपने निबंध का विषय साहित्य एवं संस्कृति को बनाया जिनमें डॉ. देवराज का नाम भी उल्लेखनीय है।
इलाचन्द्र जोशी
- इलाचन्द्र जोशी का निबंध क्षेत्र व्यापक है। इन्होंने अनेक विषयों को निबंध के लिए चुना। इनके निबंधों के संग्रह 'साहित्य सर्जना', 'विवेचन', 'विश्लेषण', 'देखा-परखा' तथा 'महापुरुषों की प्रेम कथाएं हैं। जोशी ने साहित्य, मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण से संबंधित विविध विषयों पर विवेचनात्मक एवं प्रभावोत्पादक शैली में निबंध लिखे।
सच्चिदानंद
हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
- 'अज्ञेय' ने निबंध हेतु साहित्यिक विषयों का चयन किया। इनके निर्णयों का संग्रह त्रिशंकु है।
यशपाल
- यशपाल ने कथा साहित्य की भांति निबंध साहित्य की अभिवद्धि में भी असाधारण योगदान किया। इनके निबंधों के संग्रह 'देखा, सोचा, समझा', 'मार्क्सवाद', 'चक्कर क्लब', 'न्याय का संघर्ध', 'गांधीवाद की शव परीक्षा तथा राज्य की कथा आदि प्रमुख हैं। शैली में सरलता तथा विचारोत्तेजकता विद्यमान है। कहीं-कहीं इनकी शैली व्यंग्यात्मक हो गई है। व्यंग्य सामाजिक एवं तीखे हैं, उदाहरण द्रष्टव्य है
- "कारतूसों की एक दुकान खोलो, जिसमें 'कलमाइड कारतूस मुसलमानों के लिए और झटकाइड कारतूस सिक्खों के लिए रहें। अच्छा मुनाफा रहेगा।"
Post a Comment