राधाकृष्णन दर्शन का सामान्य परिचय। Dr Sarvepalli Radhakrishnan ka darshan

 राधाकृष्णन दर्शन का सामान्य परिचय
 Dr Sarvepalli Radhakrishnan ka Darshan

राधाकृष्णन दर्शन का सामान्य परिचय  Dr Sarvepalli Radhakrishnan ka Darshan


राधाकृष्णन दर्शन का सामान्य परिचय

 

  • राधाकृष्णन का दर्शन प्रत्ययवादी है और शंकर अद्वैतवाद से अत्यधिक प्रभावित है। अद्वैत वेदान्त की उनकी व्याख्या को नव वेदान्त की संज्ञा दी जाती है। 
  • प्रोफेसर सी.ई.एम. जोड ने उनके दर्शन पर 'काउंटर अटैक फ्रोम दि ईस्टशीर्षक से एक ग्रंथ लिखाजिससे उनको ख्याति प्राप्त हुई। 
  • अलबर्ट स्वाइजर ने राधाकृष्णन के दर्शन में नव हिन्दू धर्म का प्रवर्तन देखा और उसको जीवन तथा जगत की सत्ता का प्रतिपादन करने वाला दर्शन माना। कुछ पश्चिमी विचारकों के इस कथन ने कि हिन्दू धर्मजीवन तथा जगत का निषेध करने वाला धर्म हैराधाकृष्णन के दर्शन की भूमिका तैयार कर दी। 
  • उन्होंने पश्चिमी विचारकों की इस चुनौती को स्वीकार किया और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि हिन्दू धर्म शुद्ध अध्यात्मवाद होते हुए भी जीवन और जगत की सचना का सच्चा उद्घोष करता है। वास्तव में इस शताब्दी में जिस प्रकार राधाकृष्णन ने धर्म और अध्यात्म का बौद्धिक समर्थन किया हैवैसा कुछ अस्तित्ववादी अथवा नो-टॉमसवादी मसीही विचारकों को छोड़कर किसी ने नहीं किया है। 
  • यही कारण है कि उनके दर्शन को प्राय: नव्य धर्म मीमांसा के रूप में स्वीकार किया जाता है तथा पश्चिम के धर्म मीमांसक राधा-कृष्ण को अपना सजातीय मानते हैं।
  • राधाकृष्णन ने अपनी धर्म मीमांसा में धर्ममीमांसा की आलोचना करने वाले सन्तोंसूफियों और रहस्यवादियों को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया। अध्यात्मवाद और प्रत्ययवाद का समर्थन करने के कारण राधाकृष्णन को धर्ममीमांसक के साथ-साथ प्रत्ययवादी दार्शनिक कहना अनुपयुक्त न होगा। 
  • राधाकृष्णन का नव वेदान्त दर्शन वस्तुतः समन्वयात्मक हैजो पूर्व और पश्चिम के दर्शनों को एक-दूसरे के समीप लाने का प्रयास करता है। इसके लिए उन्होंने विभिन्न दार्शनिक मतों के तुलनात्मक अध्ययन को अपनाया। उनके समन्वयवाद का आधार बिन्दु अध्यात्मवाद हैजिसके अन्दर के विश्व की अनेक आध्यात्मिक धाराओं को समन्वित करने की चेष्टा करते हैं।

 

राधाकृष्णन का धर्म और विज्ञान 

  • राधाकृष्णन यह मानते हैं कि यदि विज्ञान की प्रगति भौतिक विकास के लिए नितान्त आवश्यक और वांछनीय है तो प्रगति भी आन्तरिक समृद्धि के लिए उतनी ही आवश्यक और वांछनीय है। उनके अनुसार धर्म और विज्ञान दोनों का ही वर्तमान स्वरूप दोषपूर्ण हैं। वे यह स्वीकार करते हैं कि पूर्व के दर्शन धर्म पर और पश्चिम के दर्शन विज्ञान पर आवश्यकता से अधिक बल देने के कारण एकांगी हो गए हैं। 
  • पश्चिम के विज्ञान ने नौलिक सुख-समृद्धि प्रदान करके जीवन को निखार दिया है। पूर्व ने आन्तरिक उन्नति और समृद्धि के लिए धर्म की वांछनीयता पर जोर दिया हैकिन्तु यदि विज्ञान प्रदत्त बुद्धिसंशय एवं मौलिकता को जन्म देती है तो धर्म प्रदत्त आस्था अबौद्धिकता और अंधविश्वास को उत्पन्न करती है। 
  • फलतः वैज्ञानिक बुद्धि और अंधविश्वासी आत्या दोनों ही जीवन का समुन्नयन करने में सक्षम है। जहाँ विज्ञान प्रकृति विजय को ही सब कुछ मानने लगा हैवहाँ धर्म अंधविश्वासी प्रचलनों और रूढ़ियों से ग्रस्त है। 
  • आध्यात्मिकता विश्वव्यापी या सार्वभौमिक होती है। परन्तु आध्यात्मिकता को पूर्व की सम्पत्ति इसलिए कहा जाता है कि वह इसके प्रति अधिक जागरूक है। आध्यात्मिकता की भांति वैज्ञानिक ज्ञान भी सम्पूर्ण विश्व एवं सम्पूर्ण मानव जाति की सम्पदा है।
  • आध्यात्मिकता और वैज्ञानिक ज्ञान का समन्वय ही जीवन को सुख तथा संतोष प्रदान कर सकता है। पश्चिम को यदि आध्यात्मिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है तो पूर्व को वैज्ञानिक पुनर्जागरण की।

 

राधाकृष्णन के अनुसार तत्वमीमांसा 

  • राधाकृष्णन शंकर वेदान्त से प्रभावित होने पर भी उसके अंध समर्थक नहीं हैं। उनका दावा है कि उन्होंने उसे वैज्ञानिक मानस के लिए सुगम और ग्राह्य बनाने का प्रयास किया है। वे विश्व प्रक्रिया को विकासशील मानते हैं। उनके अनुसार हम जीवन का आदि और अंत नहीं जानतेकेवल उसका मध्य जानते हैंजो कि निरन्तर परिवर्तनशील है।

 

  • असीम ईश्वर के साथ सम्पर्क प्राप्त करने की असीम में विद्यमान भावना को राधाकृष्णन अविद्या और अज्ञान से उत्पन्न नहीं मानते हैं। वास्तव में ऐसी भावना असीम की सत्यता और परिपूर्णता को घोतित करती है। 
  • विकास और परिवर्तन भी अविद्याजन्य अभाव गाव न होकर सत्य है। जगत परम सत की अनन्त संभावनाओं की क्रमिक अभिव्यक्ति हैब्रह्म का विवर्तमात्र नहीं है। जगत परम रात पर आधारित होने के कारण सत्य है। आत्मा या ब्रह्मा को सत्य मानना समस्त जगत की सत्यता की प्रकारान्तर से स्वीकृति हैक्योंकि दजगत उसी पर आश्रित है। आत्मा ही सबका विधाता है। 
  • यह उपनिषद् उक्ति जगत के प्रपंच या विविधता अग नहीं बताती जगत को मिथ्या कहनाब्रह्म से उसे भिन्न या पृथक रखकर ही अर्थपूर्ण हो सकता है। जगत के तात्विक स्वरूप का ज्ञान उसकी सत्यता का निवारण नहीं करता बल्कि उसे एक उच्च अर्थ प्रदान करता है। ब्रह्म ज्ञान या आत्म साक्षात्कार के पश्चात जगत का निराकरण नहीं हो जाता हैबल्कि उसके सहत्व का अन्तर हो जाता है। आत्माईश्वर और जगत में तात्विक भेद नहीं है। वे वस्तुत: एक ही चैतन्य के विविध रूप हैं। 
  • परम चेतना की अनन्त संभावनाओं में से एक संभावना की अभिव्यक्ति वर्तमान जगत है। विविधता सत्य हैकिन्तु वह अपनी सत्यता अपने अन्दर विद्यमान सत्ताब्रह्म या आत्मा से प्राप्त करती है। 
  • राधाकृष्णन के अनुसार ब्रह्म परम सत् और ईश्वर दोनों हैं। जब हम उसे जगत से भिन्न और पृथक रूप में देखते हैंतब वह परम सत् है और जब हम उसे जगत से संबंधित रूप में देखते हैंतब वह ईश्वर है।

 

  • राधाकृष्णन के अनुसार ईश्वर एवं जीव दोनों उपाधिग्रस्त हैं। दोनों ही सीमित एवं सापेक्ष होते हैं। ऐसी स्थिति में यदि ईश्वर ब्रह्म है और जीव तथा ब्रह्म में सात्विक दृष्टि से अभेद है तो ईश्वर और जीव में उसके अनुसार भेद उतना अधिक नहीं रह जाता है। परन्तु जहाँ ईश्वर सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान और सर्वत्र विद्यमान हैवहाँ जीव प्रत्ययनितांत लघु एवं दुर्बल है। 
  • ईश्वर अविद्या मुक्त है। उसकी सीमाएं उसके ज्ञान को सीमित एवं परिच्छिन्न नहीं करती हैं। ईश्वर की सीमा शुद्ध तत्व से निर्मित होने के कारण अविद्या को उत्पन्न नहीं करतीबल्कि सृष्टि की रचना में उसकी सहायता करती हैपरन्तु यह जीव के लिए अविद्या को उत्पन्न करके उसे भ्रमित करती है। 
  • चूँकि सृष्टि रचना में ईश्वर की कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं निहित रहतीइसलिए वह अकर्ता है। परन्तु जीव कर्ता है। ईश्वर पूज्य है एवं कर्मानुसार जीवों को पुरस्कृत करता है। जीव पूजक है और दिव्य से अपनी उत्पत्ति के बारे में अनभिज्ञ रहता है।
  • धर्ममीमांसीय दृष्टि से ईश्वर और जीव परस्पर सेव्य एवं सेवक के रूप में संबंधित हैंपरन्तु तत्वमीमांसीय दृष्टि से यही जीवन ब्रह्म से उसी प्रकार संबंधित हैजिस प्रकार चिनगारी अग्नि से। राधाकृष्णन आत्मा को मुक्तावस्था में भी ब्रह्म में लीन नहीं मानते हैं। उनके अनुसार उसका अपना पृथक अस्तित्व रहता हैमुक्त होने पर उसे ब्रह्म का सायुज्य ही प्राप्त होता हैतादात्म्य नहीं | 

  • परा विद्या और अपरा विद्या में कोई विशेष विरोध नहीं है। अपरा विद्या की चरम परिणति ही परा विद्या है। अपरा विद्या सृष्टि या जगत को सत्य अवश्य मानती हैसृष्टि या जगत के स्वरूप से स्पष्ट है कि ब्रह्म ही परम या अन्तिम सत्य है। मोक्ष की प्राप्ति द्वारा जगत की सत्ता का निराकरण या विसर्जन न होकर उसके प्रति तथाकथित मिथ्या दृष्टि का ही निराकरण होता है। 
  • राधाकृष्णन के अनुसारशंकर मतावलम्बियों ने शंकर के दर्शन को मिथ्यात्व का समर्थक मानकर निष्क्रियता और पलायनवादिता को जन्म दियाजिससे हिन्दू समाज का विकास अवरुद्ध हो गया था। 

राधाकृष्णन के अनुसार ज्ञानमीमांसा

  • ज्ञानमीमांसा धार्मिक अनुभूति के अंतर्गत ही राधाकृष्णन ने परम सत्ता एवं ईश्वर की समस्या का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सच्चा धर्मउनके अनुसार न तो किसी विशिष्ट दृष्टिकोण का द्योतक हैन ही वह रूढ़ि और अंध- विश्वासपरक आस्था का समानार्थी है। 
  • उन्होंने हिन्दू धर्म में अंतर्निहित आध्यात्मिक सत्य को स्वीकार किया है। उन्होंने ऋषियों के साक्षात अनुभव को आप्तप्रमाण माना हैकिन्तु साथ ही यह भी स्वीकार किया है कि तत्व बोध तथा भ्रांतियों के निराकरण के लिए इस अनुभव के सूक्ष्म परीक्षण और तार्किक विश्लेषण की आवश्यकता है। 
  • राधाकृष्णन सत्य को आत्मानुभव का विषय मानते हैं। यह आत्मानुभव अथवा सत्यानुभूति धार्मिक अनुभूति है और केवल जिज्ञासा और साधना द्वारा ही सम्भव है। यह धार्मिक अनुभूति स्वतः सिद्ध और स्वत: प्रमाण हैपरन्तु तर्क निरपेक्ष या बुद्धि निरपेक्ष नहीं बल्कि तर्क और बुद्धि के ऊपर है। ज्ञानात्मक अनुभव के तीन साधन हैं- इन्द्रियानुभवतर्कबुद्धि और प्रज्ञा (प्रतिभा ज्ञान ) । 
  • इन्द्रियानुभव का विषय ज्ञान का क्षेत्र है। इस क्षेत्र को ही हम बाह्य जगत की संज्ञा देते हैं। इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान विज्ञान का आधार है। बौद्धिक ज्ञानविश्लेषण एवं संश्लेषण से प्राप्त किया जाता है। 
  • विश्लेषणात्मक होने के कारण बुद्धि जीवन को उसकी समग्रता में नहीं ग्रहण करती है। वह वस्तुओं को पृथक और खंडित करके ही उनका अध्ययन करती है। परम सत्ता बुद्धि की पहुँच के परे है। ऐसा इसलिए कि बुद्धि विषय और विषयी के भेद को मानकर चलती हैजबकि परम सत्ता भेद रहित है। उसका ज्ञान न तो इन्द्रियों से और न ही बुद्धि से संभव है। उसका ज्ञान तो प्रज्ञा द्वारा अपरोक्ष में होता है। 
  • बुद्धिजन्य ज्ञान अपरोक्षानुभव तक पहुँचने का एक अनिवार्य सोपान है। अपरोक्षानुभव वह अनुभूति हैजिसमें परम सत्ता या ज्ञान के विषय के साथ ज्ञाता का अभेद हो जाता है। परम सत्ता या ब्रह्म को जानने का आशय हैब्रह्म हो जाना (ब्रह्मविद् ब्रह्मेव भवति) यही प्रतिभाज्ञान वास्तविक स्वतंत्रता या मुक्ति है। 
  • परम सत्ता अपना कारण प्रमाण और अपनी व्याख्या स्वयं हैं। राधाकृष्णन के अनुसार अपरोक्षानुभूति या  प्रतिभाज्ञान ही धार्मिक बोध हैजिसमें कलात्मक बोध एवं तार्किक ज्ञान का समन्वय हो जाता है ।

 

राधाकृष्णन का तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन

 

  • राधाकृष्णन ने दर्शन में कुछ पश्चिमी और पूर्वी अध्यात्मवादीप्रत्ययवादी मतों विवेचन के आधार पर समकालीन दर्शन की नवीन विधा को उत्पन्न के तुलनात्मक करने का प्रयत्न किया है। इसमें उन्हें कहाँ तक सफलता मिली हैइस विषय में मतभेद हो सकता है। 
  • राधाकृष्णन के पास अपने अध्यात्मवाद को प्रमाणित करने के लिए कोई स्पष्ट निजी साक्ष्य भी नहीं है। वे केवल अध्यात्ममूलक प्रत्ययवाद की ऐतिहासिक परम्परा का साक्ष्य देते हैं। किन्तु इस परम्परा के अतिरिक्त अन्य दृष्टिकोणों से भी भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों के बीच समन्वय स्थापित किया जा सकता है।

 

  • स्पिरिटशब्द का प्रयोग अंग्रेजी में आज प्राय: अप्रचलित हो चला हैपरन्तु राधाकृष्णन के तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन में यही शब्द महत्व का है। उन्होंने टैगोर के रिलीजन ऑफ मैनसे अपनी धार्मिक यात्रा आरम्भ की और वे 'रिलीजन ऑफ स्पिरिटतक पहुँचे।
  • उनके अनुसार विश्व के संतों की अनुभूतियों में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत में संतमत और बौद्धिक दर्शन एक-दूसरे से अविभाज्य हैं। परन्तु पश्चिम में ऐसा नहीं है। वहाँ की संत परम्परा दर्शन की मुख्य धारा से बहुत हटकर रही है। राधाकृष्णन ने संतमत की धारा और दार्शनिक धारा को एकमेव करने का प्रयास किया है। पश्चिम को यही उनकी सबसे बड़ी प्रमुख देन है। 

  • 'स्पिरिटया अध्यात्म पर बल देने का अभिप्राय यह नहीं है कि हम शान्त होकर एकान्त में केवल ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयास करें। इसका आशय यह है कि हम विश्व में शोषणगरीबीदासता एवं अज्ञान के निराकरण के लिए भी संघर्ष करें।
  • 'स्पिरिटया आत्मा की शक्ति का प्रयोग राधाकृष्णन के अनुसार स्वतंत्रतासमताशोषण मुक्तियुद्ध मुक्ति आदि के लिए होना चाहिए। इन्हीं को लेकर वे विश्व में उभरते हुए भौतिकवाद एवं प्रकृतिवाद का विरोध करते हैं।
  • 'स्पिरिटका अर्थ उनके दर्शन में मात्र जीवपुरुष या आत्मा नहींबल्कि समष्टि हैजिसको वेदान्त में ब्रह्म कहा गया है और पश्चिमी दर्शन में (एब्सोल्यूट)। इसी चैतन्य का साक्षात्कार मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है।

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