लिपि का इतिहास। लिपि के विकास की चार अवस्थाएँ । History and Type of Lipi
लिपि का इतिहास (लिपि के विकास की चार अवस्थाएँ)
लिपि का इतिहास History of Lipi
- मनुष्य ने भाषा का आविष्कार कब किया होगा. उसने अपने भावों को कब लिपिबद्ध किया होगा, यह प्रश्न अभी भी विवादित है। अपनी स्मृति को सुरक्षित करने के क्रम में मनुष्य ने लिपि की खोज की होगी, हम ऐसा अनुमान करते हैं।
डॉ. बाबूराम सक्सेना ने इस क्रम परम्परा के ऊपर लिखा है-
- प्रथम सम्पूर्ण बात या वाक्य का बोध कराने वाले चित्र, फिर इन चित्रों से विकसित हुए उनके उद्बोधक संकेत और इनसे अक्षर, लिपि के विकास का यह क्रम रहा।
- डॉ0 उदयनारायण तिवारी ने भी लिखने की कला को चित्र लिपि से माना है और फिर उससे आगे क्रमशः भावलिपि तथा ध्वन्यात्मक अर्थात् अक्षरात्मक एवं वर्णनात्मक लिपि को माना है।
डॉ. अनंत चौधरी ने लिपि के विकास की चार अवस्थाएँ स्वीकार की है-
- 1 - चित्रलिपि 2- भाव - संकेत - लिपि 3- वर्णात्मक लिपि तथा 4- अक्षरात्मक लिपि। कहीं-कहीं प्रतीक - लिपि को जोड़कर इसकी संख्या को 5 कर दिया जाता है। प्रतीक-लिपि संकेतात्मक थी, इसलिए कुछ अध्येता इसे लिपि के अंतर्गत नहीं मानते। इस दृष्टि से चित्र लिपि को ही प्रारंभिक लिपि से रूप में अधिकांश अध्येताओं ने स्वीकार किया है।
1. चित्रलिपि -
- चित्रलिपि को प्रारंभिक लिपि मानने के पीछे मुख्य तर्क यह है कि संसार के अनेक स्थानों पर प्राप्त प्राचीन शिलाखण्ड, काष्ठपट्टिका, पशु-चर्म एवं भोजपत्रों पर अनेक चित्र उत्कीर्ण रूप में प्राप्त हुए हैं। इन्हीं के आधार पर अध्येताओं ने अनुमान किया कि चित्रलिपि ही आद्य लिपि हो सकती है। इस संबंध में देवेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है- "मनुष्य जिस वस्तु को लिपिबद्ध करना चाहता था, उसका चित्र बना देता था" |
2. भाव-संकेत लिपि
- भाव-संकेत लिपि को दूसरी लिपि के रूप में स्वीकार किया गया है। इस लिपि के विकास के कारणों की व्याख्या करते हुए डॉ. बाबूराम सक्सेना ने है कहा कि “ चित्रों को खींचना आसान काम न था, समय भी काफी लगता था धीरे-धीरे खराब खिंचे हुए चित्रों से भी काम चलता रहा। होते-होने ये चित्र अपने मूलरूप से बहुत दूर हट आर्ये अब इन संकेतों को देखकर ही मूल चित्रों का उद्बोध होता था और उनके द्वारा उनके भावों का । चित्रों की स्थिति तक, चोह वे कितने भी बुरे खिंचे हुए हो, भावों का उद्बोध अन्य भाषा-भाषियों को भी हो जाता था। पर, अब संकेतों के कारण व्यक्तीकरण उन्हीं तक सीमित रह गया, जो उन संकेतों से अनभिज्ञ थे। चित्र तक तो भाव और चित्र-संकेत में, देखने वालों को एक प्रकार का समवाय सम्बन्ध मालूम देता था, किन्तु अब तो कवेल ऐसा सम्बन्ध रह गया, जो रूढ़ि पर आश्रित था। “तात्पर्य यह कि इसका संकेत चित्रलिपि की तरह वस्तुओं का प्रतितिधित्व न कर भावों का प्रतिनिधित्व करते थे। इसलिए इसे भाव-संकेत लिपि कहा गया।
3. वर्णात्मक लिपि
- इस लिपि को ध्वन्यात्क लिपि या ध्वनि लिपि कहा गया है। इस लिपि में भाषा की प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग वर्ण प्रतीक निश्चित किये गये थे। इस दृष्टि से यह आधुनिक अर्थ में प्रथम लिपि भी कह गई है। डा. उदयनारायण तिवारी ने इस लिपि पर टिप्पणी की है कि, “ इसमें लिपि तथा भाषा एक दूसरे का अंग बन जाती हे और लिपि ही भाषा का प्रतिनिधित्व करने लगती है।”
4. अक्षरात्मक लिपि
- अक्षरात्मक लिपि, वर्णनात्मक लिपि ही विकसित व वैज्ञानिक रूप हे। डॉ. अनंत चौधरी ने इस लिपि पर टिप्पणी की है कि, “ वर्णनात्मक लिपि के समान इसमें भी प्रत्येक ध्वनि के लिए स्वतंत्र वर्ण तथा स्वर एवं व्यंजन के साथ में नहीं दिखलाया जा सकता । अक्षरात्मक लिपि की यह विशेषता होती है कि इसमें प्रत्येक स्वर की मात्रा तथा उसे सूचित करने वाल स्वतंत्र चिह्न निश्चित होते हैं, जिनके उपयोग से व्यंजन तथा स्वर के युक्त रूपों के एकीकृत का स्वतंत्र वर्णों के रूप में दिखाया जाता है।”
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