मध्य प्रदेश का प्राचीन इतिहास।Madhya Pradesh History in Hindi
मध्य प्रदेश का प्राचीन इतिहास (Madhya Pradesh History in Hindi)
भाग-02
मध्य प्रदेश का प्राचीन इतिहास
मौर्यकाल और मध्य प्रदेश
- मौर्यकाल में अवन्ति प्रदेश का कुमारामात्य अशोक था। अपने पिता बिंदुसार की मृत्यु के पश्चात् अशोक शासक बना। अशोक के शिलालेख जबलपुर से तीस मीटर की दूरी पर रूपनाथ स्थान से प्राप्त हुए हैं।
- एक अन्य लेख चांदा जिले में देवटक नामक स्थान से प्राप्त हुआ था। त्रिपुरी नामक स्थान के उत्खनन उत्तरी काले चमकदार मृद्भांड तथा आहत मुद्राएं प्राप्त हुई हैं।
- सरगुजा की रामगढ़ पहाड़ों की गुफाओं से अशोककालीन रंग-रंजित तथा उत्कीर्ण दोनों प्रकार के लेख प्राप्त हुए हैं। मौर्ययुगीन सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित विभिन्न लघु शिलालेख मध्य प्रदेश में स्थित हैं।
1. गुर्जरा ( दतिया जिले में)
2. सारी-भारी (शहडोल जिले में)
3. पानगुडारिया (सीहोर जिले में )
4. रूपनाथ (जबलपुर जिले में)
5. सांची (रायसेन जिले में)
- इन लघु शिलालेखों तथा स्तंभों से यह बात स्पष्ट होती है कि इन क्षेत्रों में मौर्ययुगीन शासन व्यवस्था कायम थी। मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण छोटे-बड़े शिलालेख कारीतलाई, खुरबई, कसटावद, रामगढ़ तथा आरंग स्थानों में हैं।
शुंग काल और मध्य प्रदेश
- मालविकाग्निमित्रम से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल था। उसने विदर्भ का राज्यपाल अपने मित्र माधवसेन को बनाया।
- इस काल में सतना जिले में भरहूत के विशाल स्तूप का निर्माण कराया गया। इस काल में सांची में तीन स्तूपों का निर्माण हुआ। इसमें एक विशाल तथा दो लघु स्तूप हैं। 14वें वर्ष में तक्षशिक्षा के पवन नरेश एन्टियासकिडाल के राजदूत हेलियोडारस ने विदिशा के समीप बंसलनगर में गरुड़ स्तंभ की स्थापना की।
भरहुत स्तूप सतना
- सतना जिले में एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था। इसके अवशेष आज अपने मूल स्थान पर नहीं है, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तोरण भारतीय संग्रहालय कोलकाता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित है। 1875 ई. में कनिंघम द्वारा जिस समय इसकी खोज की गई, उस समय तक इसका केवल (10 फुट लंबा और 6 फुट चौड़ा) भाग ही शेष रह गया था।
सांची ( काकनादबोट)
- 1818 ई. में सर्वप्रथम जनरल टेलर ने यहां के स्मारकों की खोज की थी। 1818 में मेजर कोन ने स्तूप संख्या 1 को भरवाने के साथ उसके दक्षिण पूर्व तोरणद्वारों तथा स्तूप के तीन गिने हुए तोरणों को पुनः खड़ा करवाया।
- यहां पर इस काल में तीन स्तूपों का निर्माण हुआ है, जिनमें एक विशाल तथा दो लघु स्तूप हैं। महास्तूप में भगवान बुद्ध के द्वितीय में अशोककालीन धर्म प्रचारकों के तथा तृतीय में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र तथा महामोदग्लायन के दंत अवशेष सुरक्षित हैं।
- इस महास्तूप का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के समय में ईंटों की सहायता से किया गया था तथा उसके चारों ओर काष्ठ की वेदिका बनी थी। अशोक का संघभेद रोकने की आज्ञा वाला अभिलेख यहां से मिला है।
कुषाण काल ( प्रथम शताब्दी ई.पू. ) और मध्यप्रदेश
- सांची व भेड़ाघाट से कनिष्क संवत् 28 का एक लेख मिला है। यह वासिष्क का है तथा बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है।
कनिष्क के राज दरबार में निम्न विद्वानों की उपस्थिति थी -
- 1. अश्वघोष ( राजकवि) - रचना (बुद्धचरित्र, सौंदर्यानंद व सारिपुत्र प्रकरण ), 2. आचार्य नागार्जुन, 3. पार्श्व, 4. वसुमित्र, 5. मातृचेट, 6. संरक्षण, 7. चरक (चरक संहिता ग्रंथ ) ।
कुषाणों का स्थान भारशिवनाग वंश ने लिया, जिनकी राजधानी पद्मावती थी।
सातवाहन काल और मध्यप्रदेश
- मध्य प्रदेश से प्राप्त अवशेषों से सातवाहन युग की स्थिति का भी ज्ञान प्राप्त होता है। गौतमी पुत्र सातकर्णी की नासिक गुफा लेख के अनुसार विदर्भ उसके अधिकार में था।
- त्रिपुरा के उत्खनन से सातवाहन वंशी सीसे के सिक्के प्राप्त हुए हैं। नर्मदा नदी के तट पर स्थित जमुनियां नामक ग्राम से जो सिक्के प्राप्त हुए हैं, उनके अनुसार यह कहा जा सकता है कि जबलपुर का चातुर्दिक प्रदेश प्रथम ईसा पूर्व शताब्दी में सातवाहन वंश के पूर्ववर्ती शासकों के अधिकार में था।
- पूर्ववर्ती सातवाहनों के सिक्के एरण, उज्जयनी तथा मालवा के सिक्कों से संबंध रखते हैं। परन्तु परवर्ती सातवाहन कालीन सिक्कों के एक तल पर हस्ति चिन्ह होने के कारण उन सिक्कों का संबंध दक्षिण भारतीय कोरोमंडल तट तथा उज्जैन से स्पष्ट प्रकट होता है।
- त्रिपुरा के उत्खनन से प्राप्त दो अवशेष चांदा नामक जिले में भांदक तथा अकोला नामक स्थानों से और निकटवर्ती पातुर नामक स्थान से गुफाएं प्राप्त हुई हैं।
मध्य प्रदेश में गुप्त काल
- मध्य प्रदेश में एरण नामक स्थान से गुप्तकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। यह प्रदेश प्राचीन काल से एरिकिण के नाम से प्रसिद्ध था। सम्राट समुद्रगुप्त ने इसे ( स्वभोगनगर) बनाया था।
- समुद्रगुप्त के बाद बुद्धगुप्त तथा भानुगुप्त के काल के लेख भी यहां उत्कीर्ण हैं और तात्कालिक विशाल मंदिरों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
- एरण के दक्षिण में 12 मील की दूरी पर मध्य प्रदेश की सीमा पर पथारी नामक स्थान है, जहां पर गुप्तकालीन लेख तथा मूर्ति करना के कुछ अवशेष विद्यमान हैं।
- गुप्त काल का एक मंदिर जबलपुर के समीप तिगवां में अभी तक बना हुआ है। गुप्त काल के दो मुद्रा लेख नागपुर के पास माहुरझरी तथा पारसिवनी में पाए गए हैं। गुप्त काल के सोने के सिक्के हट्टा के समीप सकौट, बैतूल तहसील में पट्टन, होशंगाबाद तहसील में हरदा तथा जबलपुर से प्राप्त हुए हैं। रायपुर जिले में खैरताल से प्राप्त श्री महेंद्रादित्य नामक अंकित सिक्के कुमार गुप्त प्रथम के माने जाते हैं। कुमार गुप्त के चांदी के 10 सिक्के इतिचपुर में पाए गए हैं।
मध्य प्रदेश में गुप्तकालीन अभिलेख
मंदसौर अभिलेख
- यह पश्चिम मालवा में स्थित था। इसका नाम 'दशपुर' भी मिलता है।
सांची अभिलेख
- सांची से प्राप्त इस अभिलेख में हरिस्वामिनी द्वारा यहां के आर्य संघ को धनदान में दिए जाने का उल्लेख किया गया है।
उदयगिरि शिलालेख
- इस अभिलेख में शंकर नामक व्यक्ति द्वारा इस स्थान में पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित किए जाने का उल्लेख है।
तुमैन अभिलेख
- यह अभिलेख गुना जिले में स्थित है।
सूपिया का लेख
- रीवा जिले के सूपिया नामक स्थान से यह लेख प्राप्त होता है। इसमें गुप्तों की वंशावली घटोतद के समय से प्राप्त होती है।
एरण अभिलेख
- एरण अभिलेख हूणों की उपस्थिति को दर्शाता है।
मध्य प्रदेश में वाकाटक वंश
- वाकाटकों का राज्य विदर्भ तथा मध्य भारत के भू-भाग में फैला हुआ था। इसका एक शिलालेख चांदा जिले के देवरेक गांव में मिलता है।
- इस वंश की दो प्रमुख शाखाओं में से एक वाशिम ( प्राचीन वत्सगुल्म) तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र पर तथा दूसरी मध्य विदर्भ पर शासन करती थी।
- प्रवरसेन द्वितीय के ताम्रपत्रों में बहुत से प्रदेशों का उल्लेख किया गया है। सिवनी, वर्धा, इलिचपुर, बालाघाट, छिंदवाड़ा और भंडारा जिलों से भी बहुत ताम्रपत्र प्राप्त हुए
मध्य प्रदेश में गुप्तोत्तर काल
राष्ट्रकूट वंश (मध्य प्रदेश में)
- मध्य प्रदेश के अन्तर्गत विदर्भ प्रांत पर 200 वर्षों से अधिक काल का राष्ट्रकूटों का राज्य रहा। इस वंश की अनेक शाखाएं थीं। उनमें से सबसे प्राचीन शाखा बैतूल के निकटवर्ती क्षेत्रों पर राज्यारूढ़ रही। यह साक्ष्य बैतूल तथा अकोला जिले से प्राप्त तीन दान पत्रों से स्पष्ट ज्ञात होती है।
- इस वंश का प्रभाव वस्तुतः स्थान सीमित होता है। कुछ समयोपरांत विदर्भ मान्यखेर के विस्तृत राज्य में सम्मिलित हो गया। मान्यखेर की शाखा से संबंध रखने वाले पांच ताम्रलेख और तीन शिलालेख ऐसे प्राप्त हुए हैं, जिससे यह प्रतीत होता हैं कि इस राज परिवार शाखा का शासन इस प्रांत पर दो सौ वर्षों तक रहा।
- भांदक में प्राप्त कृष्णराज प्रथम का ताम्रपत्र सबसे प्राचीन है, जो नान्दिपुरी द्वारी, आधुनिक नान्दूर में लिखा गया था। इसमें सूर्य मन्दिर के एक पुजारी को दान का उल्लेख है।
- राष्ट्रकूट वंश के शासकों के अन्तिम समय में इस वंश का प्रभाव उत्तर की ओर बढ़ गया था, क्योंकि अन्तिम शासक कृष्ण तृतीय का नाम छिन्दवाड़ा जिले के नीमकण्ठी शिलालेख में भी आता है तथा इसी की प्रशस्ति से युक्त एक शिलालेख मध्य प्रदेश की उत्तरी सीमा पर और मैहर की पश्चिम दिशा में लगभग 12 मील दूर जूरा नामक ग्राम से प्राप्त हुआ है।
- परवर्ती राष्ट्रकूट शासकों के वैवाहिक संबंध त्रिपुरी के कलचुरियों से हुए थे। राष्टकूट राजवंश की एक शाखा पहले होशंगाबाद के निकटवर्ती प्रदेश पर शासन करती थी। राष्ट्रकूट वंश के एक अन्य राजा गोल्हवदेव का उल्लेख लगभग 12वीं शताब्दी के बाहुरीबन्द स्थान में स्थित जैन-मूर्ति लेख से प्राप्त होता है। संभवतया यह त्रिपुरी के कलचुरि राजवंश का सामंत था।
मालवा का परमार वंश
- परमार वंशीय शासक राष्ट्रकूट राजाओं के सामंत थे। इस वंश के शासक हर्ष अथवा सीयक द्वितीय ने 945 ई. में स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया तथा नर्मदा नदी के तट पर तत्कालीन राष्ट्रकूट शासक खोट्टिग को परास्त किया।
- वाकपति मुंज ने धार में मुंजसागर झील का निर्माण करवाया। मुंज की मृत्यु के पश्चात् सिंधुराज शासक बना। सिंधुराज के पश्चात् उसका पुत्र भोज गद्दी पर आसीन हुआ । चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय ने उसकी राजधानी धारा नगरी पर आक्रमण किया, जिसमें भोज पराजित हुआ। यह जानकारी नागाई लेख से प्राप्त होती है।
- भोजकाल में धारा नगरी विद्या तथा कला का महत्वपूर्ण केंद्र थी। यहां अनेक महल व मंदिर बनवाए गए। इसमें सरस्वती मंदिर सर्वप्रमुख था। भोज ने भोपाल के दक्षिण-पूर्व में 250 वर्ग मील लंबी एक झील का निर्माण करवाया, जो 'भोजसर' के नाम से प्रसिद्ध है।
चंदेल वंश ( चंदेल वंश की स्थापना)
- चंदेल वंश की स्थापना 831 ई. में नन्नुक द्वारा की गई। यशोवर्मन द्वारा राष्ट्रकूटों से कालिंजर का दुर्ग जीता तथा मालवा के चंदेल शासक को अपने अधीन कर लिया। यशोवर्मन ने ही खजुराहो में विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था।
- यशोवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र धंग राजा बना, उसने कालिंजर पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके उपरान्त ग्वालियर पर अपना अधिकार जमाया। धंग द्वारा खजुराहो में विश्वनाथ, वैद्यनाथ तथा पार्श्वनाथ के मंदिर बनवाए गए। गंड द्वारा जगदम्बी तथा चित्रगुप्त के मंदिर बनवाए गए। विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज व त्रिपुरी के कलचुरि शासक गांगेयदेव को हटाकर उसे अपने अधीन कर लिया।
- विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र विजयपाल तथा पौत्र देववर्मन के काल में चंदेल, कलचुरि चेदि वंशी शासकों जैसे गांगेयदेव व कर्ण की अधीनता स्वीकार करते थे।
- इन दोनों के उपरांत कीतिवर्मन इस वंश का शासक बना, जिसने चेदि नरेश कर्ण को पराजित कर अपने प्रदेश को स्वतंत्र कर लिया। इसका उल्लेख अजयगढ़ तथा महोबा से प्राप्त चंदेल लेख से होता है। इस वंश का अंतिम शासक परमार्दिदेव था। कालिंजर के युद्ध में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा पराजित हुआ तथा परमार्दिदेव की मृत्यु हो गई। परमार्दिदेव के यहां आल्हा तथा ऊदल नाम के वीर दरबारी थे।
मध्य प्रदेश में कलचुरि वंश
- मध्य प्रदेश में कलचुरि नाम जनश्रुतियों, लेखों तथा मूर्तियों के द्वारा सर्वविदित है। मध्य प्रदेश के उत्तरीभाग में कलचुरि काल की अगणित मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। जबलपुर, दमोह, कटनी तथा होशंगाबाद जिलों में ऐसा गांव नहीं है, जो इस काल की कला में अछूता हो ।
- कलचुरि राजवंश की दो शाखाएं थीं: 1. त्रिपुरी, 2. रतनपुर
- इस वंश के प्रथम शासक कोक्कल ने 9वीं शताब्दी इस्वी के अंतिम काल में जबलपुर के उत्तर की ओर फैले हुए डाहल नामक प्रदेश पर विजय प्राप्त कर उस क्षेत्र को अपने 18 पुत्रों में बांट दिया।
- सबसे बड़ा पुत्र त्रिपुरी का शासक हुआ तथा बिलासपुर का पाश्र्ववर्ती क्षेत्र कनिष्ठ पुत्र के भाग में आया । प्राप्त लेखों में त्रिपुरी शाखा के 15 शासकों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि त्रिपुरी शाखा की राजधानी त्रिपुरी थी।
- कलचुरि वंश के प्रारम्भिक राजाओं के लेख मुख्यतः विंध्य प्रदेश के रीवा राज्य तथा कटनी, दमोह जैसे स्थानों में, जो मध्य प्रदेश की उत्तरी सीमा पर हैं, मिलते हैं। कारीतलाई, छोटी देवरी, सागर आदि के क्षेत्रों से इस वंश के सबसे प्राचीन लेख प्राप्त हुए हैं।
- इससे कलचुरि वंश का सुव्यवस्थित परिचय प्राप्त होता है। अधिकांश कलचुरि कन्याओं का विवाह राष्ट्रकूट वंश में हुआ था। इस वंश की राज-महिर्षियों के नाम हैं- अल्हण देवी, नोहला देवी, घोसला देवी आदि ।
- कलचुरि वंश का सबसे प्रतापी शासक कर्ण था। उसके शासन काल में कलचुरि साम्राज्य का भौगोलिक विस्तार सबसे अधिक था। कर्ण के साम्राज्य की सीमा अन्तर में प्रयाग, कौशांबी, वीरभूम तथा बनारस तक पहुंच गई थी। राजशेखर का 'कर्पूरमंजरी' नामक प्रसिद्ध नाटक कलचुरि दरबार के प्रोत्साहन से ही रचा गया था।
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