मौलाना आजाद मुस्लिम राजनैतिक विचारकों में पूर्व एवं पाश्चात्य के समन्वयक तथा सामूहिक राष्ट्रवाद के समर्थक थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा न केवल पूर्वी देश में हुई वरन उनके वंशज भी अरब एवं भारत के प्रसिद्ध व्यक्ति थे। उदाहरणार्थ उनके पूर्वज मौलाना जमालउद्दीन ने सम्राट अकबर की दीन-ए-इलाही सम्बन्धी घोषणा पर ने हस्ताक्षर करने से मना किया था। उनके दादा मौलाना मुनव्वरउद्दीन मुसलमानों में, गैर इस्लामी तौर-तरीकों के विरोधी थे तथा उनके पिता मौलाना खैरुद्दीन वहाबी आन्दोलन के कट्टर आलोचक थे।
अतः मौलाना आजाद पर परम्परावादिता की गहरी छाप पड़ी थी फिर भी वे नवीन विचारों के विरोधी ही नहीं थे वरन उनमें मौलिक चिन्तन करने, में आधुनिकता को स्वीकार करने की भी क्षमता थी। वे सर सैयद के इन विचारों के कायल थे कि आधुनिक शिक्षित व्यक्ति बिना पाश्चात्य विज्ञान दर्शन व साहित्य का अध्ययन करे पूरी तौर से शिक्षित नहीं कहा जा सकता।
आजाद ने सर सैयद के अलीगढ़ आन्दोलन को संकीर्ण मानकर ऐसे सार्वभौमिक चिन्तन की कल्पना की जिसे समस्त इस्लामी संसार में फैलाया जा सके। वे सैयद अहमद खाँ के इस विचार के समर्थक थे कि “कुरान” एवं “विज्ञान” एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं तथा उन्होंने सैयद अहमद के “तकलीद" ( नकल करना) एवं “एतहाद” के विचारों का समर्थन किया। इसके अतिरिक्त उन्हें साम्राज्यवाद विरोधी जमालउद्दीन अफगानी ने भी प्रभावित किया। मौलाना मोहम्मद अली के "पान इस्लामिज्म” के प्रभाव से भी वे अछूते नहीं रहे।
मौलाना आजाद ने अपने इस्लामी राजनैतिक विचारों की संरचना अपनी पत्रिका “अलहिलाल" के माध्यम से की।
उन्होंने ईश्वरीय राज्य की स्थापना तथा शांति, सत्य तथा एक आदर्श राज्य को ' स्थापना हेतु कुरान के आधार पर एक काल्पनिक आदर्श प्राप्ति के विचार प्रस्तुती उन्होंने भारतीय राजनीति का धार्मिक दृष्टिकोण से सिंहावलोकन किया तथा उन्होंने “धार्मिक आस्थावान” तथा गैर धार्मिक आस्थावान के माध्यम से यह कल्पना की कि सभी धर्मनिष्ठों को एक होकर भारतीय राजनीति के दोषों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। इसी आशय से उन्होंने 1914 सभी उलेमाओं के सामूहिक संकल्प के द्वारा इस्लाम में प्रतिपादित समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व के आधार पर राजनीति को धार्मिक आधार पर प्रतिपादित करने के लिये सम्मेलन किया किंतु प्रथम महायुद्ध के उपरान्त उन्होंने काल्पनिक दृष्टिकोण का परित्याग करके तत्कालीन वस्तु स्थिति का मूल्यांकन करके अपने विचारों को अधिकाधिक व्यावहारिक बनाया।
इस परिवर्तन के लिए इस काल में उनके द्वारा इराक, मिस्र, सीरिया और तुर्की देशों के भ्रमण के उपरान्त उनका यह अध्ययन कि इन देशों ने आधुनिकीकरण के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में जो विकास किया उसके आधार पर उन्होंने भी वस्तु स्थिति एवं यथार्थ को सम्मुख रख कर अपने विचारों को भी बदला और इस आधार पर उन्होंने मुसलमानों के भविष्य को कांग्रेस के नेतृत्व में सुरक्षित मान कर यह स्वीकार किया कि कांग्रेस द्वारा प्रतिपादित लक्ष्य ही मुसलमानों में स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की भावना का संचार करने में समर्थ हो सकेंगे। खिलाफत आन्दोलन के उपरान्त आजाद मूर्णतया उदारवादी, धर्म निरपेक्ष एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक बन गये तथा इसके उपरान्त वे पाश्चात्य विरोधी न होकर मुसलमानों से वास्तविकताओं को पहचानने के आग्रहवादी बने।
उनकी यह दृढ़ मानता थी कि धर्म के मार्ग में तर्क एवं ज्ञान बाधक न होट सहायक ही होता है। आजाद की धार्मिक धारणा के तीन आधार थे और वे ईश्वर के सर्वशक्तिमान, सार्वभौमिक स्वरूप के प्रतिपादक थे। उनका कथन था कि मनुष्य की कितनी भी विभिन्न धार्मिक मान्यताएं क्यों न हों फिर भी वे ईश्वर के एकाधिकारी स्वरूप को, विभाजित नहीं कर सकती। उनकी मान्यता थी कि ईश्वरीय रूप वृक्ष की जड़ के समान एक ही है, जबकि विभिन्न मजहब पत्तियों की भाँति अलग-अलग हो सकते हैं। इस अन्तर का कारण उन्होंने ज्ञान एवं सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर स्वीकार किया तथा सभी धर्मों में आत्मा की शुद्धिकरण के आधार एक ही स्वरूप में | अनत्तोगत्वा ईश्वर के सार्वभौमिक स्वरूप की कल्पना की गई है। अतः ईश्वर के हिन्दू एवं मुस्लिम स्वरूप में मौलिक रूप से कोई अन्तर नहीं है ।
आजाद के धार्मिक चिन्तन का दूसरा आधार उचित कर्म पर बल देने की भावना में निहित है और इस भावना के अन्तर्गत सभी धर्मों का उद्देश्य एक आदर्श समाज की स्थापना में निहित है।
उनका तीसरा आधार मृत्यु उपरान्त की कल्पना से संबंधित है। मृत्यु को उन्होंने जीवन का अन्त स्वीकार नहीं किया है तथा वे मानते थे कि पूर्व जन्म का अगले जन्म में व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। अतः इस आधार पर उन्होंने अच्छे कर्मों के करने पर बल दिया।
आजाद ने उपरोक्त आधार पर 'मोमिन एवं 'काफिर' शब्दों का पुनर्मूल्यांकन किया और यह माना कि जो धर्मनिष्ठ नहीं है उनको सुधारने हेतु ईश्वर का द्वार सदैव खुला रहता है तथा वे मानते थे कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे जो भी धर्म क्यों न माने यदि उसके कर्म सद्भावना एवं सत्कर्म हैं तो वह धर्मनिष्ठता की परिभाषा में आता है।
मौलाना आजाद का धार्मिक चिन्तन तर्क एवं उदारवादी था। वे मानते थे कि तर्क ही मानवता का सर्वोत्तम गुण है तथा इसी के द्वारा मनुष्य में सर्वोत्तम गुणों का विकास होता है। इस प्रकार से उनकी तर्क में आस्था होते हुए भी वे धार्मिक प्रेरणा के पक्षपाती थे और इस प्रकार से उनकी मान्यता थी कि इस प्रकार के सार्वभौमिक धर्म का मानव विकास में कभी भी महत्व कम नहीं होगा।
मौलाना अबुल कलाम आजाद के राष्ट्रवादी विचारों के दो पहलू थे। एक तो उनके अंग्रेजों के प्रति विचार तथा दूसरे अपने देशवासियों के प्रति । 1905 से बंगभंग से पूर्व वे भी सर सैयद की भांति अंग्रेज प्रभाव एवं अंग्रेजी न्याय के समर्थक थे किन्तु धीरे थे धीरे उन्होंने अंग्रेजों की सम्राज्यवादिता की नीति का विरोध करना प्रारम्भ किया तथा अपने प्रारम्भिक काल में उन्होंने मुसलमानों में कुरान के आधार पर अपने जीवन लक्ष्य को निर्धारित कर संगठित होने का आग्रह किया किन्तु “पान इस्लामिज्म’, इकबाल के मुस्लिम राष्ट्रवाद आदि के वातावरण में जब आजाद गाँधीजी के सम्पर्क में आये तो उन्होंने देश की राजनीति का यथार्थवादिता के आधार पर अध्ययन किया और उन्होंने प्रजातन्त्र, धर्म निरपेक्षता को राष्ट्रीयता का आधार स्वीकार करके "सामूहिक राष्ट्रवादी” विचारधारा का प्रतिपादन किया और उन्होंने यह स्वीकार किया कि राष्ट्रीयता एवं स्वतन्त्रता देश का तत्कालीन परिस्थितियों में अंतिम लक्ष्य है तथा अंग्रेजी यातनाओं एवं दमन से मुक्ति देश की प्रथम आवश्यकता है और इस हेतु देश के सभी धर्मावलम्बियों को एक मत होकर राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेना चाहिये।
सामूहिक राष्ट्रवादी विचारधारा उदारवादी होगी और यह सर्व विश्व की कल्पना के अनुरूप होते हुए सभी धर्मावलम्बियों के लिए साथ-साथ रहने की भावना के अनुरूप होगी।
गाँधीजी के अनुसार आजाद की राष्ट्रवाद में आस्था उतनी ही गहरी थी जितना कि उनका धर्म में विश्वास था। वे मानने थे कि प्रत्येक मुसलमान को भारत का सच्चा राष्ट्रवादी होते हुए अपने देश की एकता को मजबूत करना चाहिये।
वे सम्प्रदायिक सद्भावना के प्रतीक थे। इस दिशा में हिन्दू मुसलमान प्रश्न को राजनैतिक आधार पर सोचने की अपेक्षा वह सामाजिक दृष्टिकोण से सोचने की भावना पर बल देते थे। उनका कहना था कि लगभग ग्यारह सौ वर्षों के पारस्परिक सहवास के कारण भारत में सामूहिक एवं सामान्य संस्कृति का विकास हुआ है और देश के इतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति, भाषा, वेशभूषा और यहाँ तक कि दैनिक जीवन यापन समन्वयकारी दृष्टिकोण से ओत प्रोत है।
इस आधार पर उन्होंने निर्वाचन, नौकरियों में स्थानों की सुरक्षित आदि विषयों को केवल आर्थिक समस्या मानकर एक सार्वभौमिक समन्वयकारी राष्ट्रवादी की कल्पना की।
आजाद देश विभाजन तथा पाकिस्तान निर्माण के विरोधी, राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक आधार के साथ-साथ धार्मिक आधार पर भी विरोधी थे। उनका कहना था कि पैगम्बर के अनुसार समस्त विश्व एक मस्जिद है और इसलिये पृथक मुस्लिम राष्ट्र मुसलमानों की समस्याओं को समाप्त करने की अपेक्षा अधिक समस्यापूर्ण बनायेगा।
इस संदर्भ में उन्होंने कुरान की मान्यताओं के आधार पर यह प्रस्तुत किया इस्लाम युद्धों के औचित्य को, केवल उस दशा को छोड़कर जबकि वे अनिवार्य हो जाय, स्वीकार नहीं करता। बहुचर्चित 'जिहाद' का आशय उन्होंने बलिदान, शांति व प्रतीक्षा से लिया। उनका कुरान का अध्ययन एवं उसकी व्याख्या उनके गहन चिन्तन का आधार थी।
उन्होंने कुरान के माध्यम से सहिष्णुता पूर्ण दृष्टिकोण अपनाने के विचार को ब दिया। उनके उदारवादी समन्वयकारी धार्मिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में उन्होंने सामूहिक राष्ट्रवाद की कल्पना की। उनका कहना था कि यदि धर्मान्धता और संकुचित भावना का परित्याग कर यदि उदारवादिता को अपनाया जाय तो यह राष्ट्र उत्थान हेतु एक महान शक्ति बनेगा। वे मानते थे कि राष्ट्रवाद भी संकुचित न होकर सर्वमान्य कल्याण हेतु विश्व बंधुत्व की भावना के अनुरूप होना चाहिए।
आजाद ने देश की आजादी हेतु भिक्षावृत्ति, प्रस्ताव प्रस्तुत करने अथवा डेपूटेशन संगठित आदि करने की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप से सरकार पर दबाव डालने के विचारों का समर्थन करके गाँधीजी के अत्यन्त निकट आ गए उन्होंने धार्मिक निष्ठा एवं स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु असहयोग एवं अहिंसा के आन्दोलनों को स्वतन्त्रता प्राप्ति का साधन स्वीकार किया।
अहिंसा के सम्बन्ध में उनका विचार था कि यह राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति हेतु एक साधन मात्र है और यदि आवश्यकता हो तो शक्ति के प्रयोग में भी हिचकना नहीं चाहिए किन्तु शक्ति का प्रयोग अंतिम, असहाय स्थिति में ही करना चाहिए। उन्होंने गांधीजी के निष्ठावान सहयोगी के रूप में अहिंसा एवं सत्याग्रह आन्दोलनों में अपना सक्रिय सहयोग दिया।
आजाद एक महान उदारवादी, धर्मनिरपेक्षक समन्वयकारी विचारक थे “अलहिलाल" पत्रिका के माध्यम से उन्होंने मुस्लिम समाज से प्रजातंत्रीय पारस्परिक सहयोग, सद्भावना के विचारों को प्राप्त करने की दशा में जनमत तैयार किया।
ईश्वरीय आस्था की एकता के संदर्भ में उन्होंने सभी धर्मावलम्बियों के सार्वभौमिक दृष्टिकोण के आधार पर प्रजातन्त्र की कल्पना की। प्रजातंत्रीय व्यवस्था का आधार शक्ति न होकर सहिष्णुता होता हैं। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता मानवीय विकास हेतु एक परमावश्यक तत्व है अतः आजाद के धार्मिक राष्ट्रवाद एवं प्रजातन्त्र के विचारों की पृष्ठभूमि में विश्वास, निष्ठा, सद्भावना एवं सहिष्णुता की भावना का आधार था।
प्रजातन्त्र की “साधन एवं साध्य” के दृष्टिकोण से भी आजाद ने मीमांसा की और इस बात पर बल दिया कि उचित शांतिपूर्ण तरीकों से ही स्वतन्त्रता प्राप्ति कर प्रजातन्त्रीय व्यवस्था की स्थापना करना चाहिए। उनका कहना था कि देश सभी नागरिकों का है अतः सभी नागरिकों को उदारवादी दृष्टिकोण के आधार पर प्रजातंत्रीय व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिए। आजाद संसदात्मक एवं संघात्मक व्यवस्था को स्वतन्त्रता उपरान्त भारत में स्थापित करने के पक्षपाती थे तथा उनकी मान्यता थी कि प्रजातन्त्रीय व्यवस्था ही देश की साम्प्रदायिक समस्या को हल करने का एकमात्र उपाय है।
आजाद एक मुस्लिम राजनैतिक चिन्तक थे, जिन्होंने मुस्लिम समस्या का यथार्थवादिता एवं वास्तविकता के आधार पर अध्ययन करके वस्तुस्थिति को समक्ष रख व्यावहारिकता के आधार पर चिन्तन किया। उनकी यह दृढ़ मान्यता थी कि प्रजातन्त्र की स्थापना के उपरान्त सांस्कृतिक एवं अल्पवर्ग की समस्याओं का स्वतः ही समाधान हो जायेगा। उन्होंने समाजवाद को नैतिक दृष्टिकोण से अपनाने के माध्यम से सामूहिक राष्ट्रवादी कल्पना को और अधिक व्यावहारिकता दी तथा धर्मनिरपेक्ष देश में उन्होंने भारत के शिक्षा मंत्री होने के नाते विभिन्न विद्यालयों में नैतिक शिक्षा का समर्थन ही नहीं किया वरन इस प्रकार की नैतिक शिक्षा को प्रजातन्त्रीय आधार का एक आवश्यक तत्व स्वीकार किया और अन्त में उन्होंने सर्व मानवीय वृहद् अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को अपनाने पर बल दिया।
आजाद का चिन्तन "सत्य, तर्क एवं बुद्धि" पर आधारित था। यद्यपि वे एक परम्परावादी चिन्तक थे किन्तु उनके विचार पूर्णतया आधुनिक थे।
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