मध्यप्रदेश मध्य पाषाण काल इतिहास। Mesolithic History in MP
मध्यप्रदेश मध्य पाषाण काल इतिहास
( Mesolithic History in MP)
मध्यप्रदेश मध्य पाषाण काल इतिहास
- यह काल नूतन काल के प्रथम चरण को प्रदर्शित करता है। वस्तुतः इस काल में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गर्म जलवायु का अवसान हुआ एवं घास के मैदान विकसित हुए एवं विभिन्न क्षेत्र मानव निवास योग्य प्रस्थापित हुए। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर देश के सभी क्षेत्रों से इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये पुरास्थल विभिन्न क्षेत्रों में एवं विभिन्न जलवायु में प्रतिवेदित किये गये हैं।
- जलवायु निवास योग्य होने के कारण मध्य पाषाण काल के पुरास्थल विभिन्न प्रकार के जलवायु वाले क्षेत्रों से प्राप्त होते हैं। इस काल में पुरास्थल की संख्या में वृद्धि दिखलाई पड़ती है जो कि संभवत: मानव की जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ मानव का विभिन्न जलवायु के क्षेत्रों में निवास हेतु चुनाव के कारण था ।
- इस संस्कृति के उपकरण छोटे हैं एवं पूर्व संस्कृति उच्च पुरापाषाण काल के उपकरणों से विकसित अवस्था में हैं। प्रातिनूतन काल के अंतिम चरण की संस्कृति उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति के उपकरण एवं नूतन काल के प्रारम्भिक चरण की संस्कृति की तुलना में मध्य पाषाण काल की संस्कृति के अवशेषों एवं उपकरणों में क्रमिक विकास प्रदर्शित होता है।
- स्तरीकरण में मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के जमाव उच्च पुरा पाषाण कालीन जमाव पेवली ग्रैवेल के ऊपरी स्तरों के जमाव से प्राप्त होते हैं।
- स्तरीकरण के साथ-साथ इस काल के पुरास्थल मध्यप्रदेश में विविध प्राकृतिक क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं जो निम्नांकित हैं :-
1. पर्वतों के शिखर एवं ढलान पर
2. नदियों के किनारे एवं समतल भू-भाग में
3. लेटेराइट सतह से
4. गुफाओं एवं शैलाश्रयों में
उपकरण के आधार पर मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के दो भाग
उपकरणों एवं सम्बन्धित सामग्री के आधार पर विद्वानों ने मध्य पाषाण कालीन संस्कृति को दो भागों में विभक्त किया है-
- प्रारम्भिक मध्य पाषाण काल एवं विकसित मध्य पाषाण काल। ये पूर्ववर्ती उच्च पुरापाषाण काल एवं अनु पुरापाषाण काल से अनवरत विकासक्रम की द्योतक हैं। ये दोनों प्रकार के मध्य पाषाण कालीन सांस्कृतिक अवशेष मध्यप्रदेश में समृद्ध रूप से प्राप्त होते हैं ।
मध्य प्रदेश में मध्य पाषाण काल के उपकरण
- अत्यन्त छोटे उपकरण जिन्हें लघु पाषाण उपकरण (माइक्रोलिथ) कहा जाता है पूरे मध्यप्रदेश में प्राप्त हुए हैं। ये उपकरण संयुक्त रूप से प्रयोग किये जाते थे। इनको तैयार करने हेतु उच्चकोटि का कार्य कौशल उपयोग में लाया जाता था। ये उपकरण बहुधा माइक्रो ब्लेड पर निर्मित हैं। उपकरण आकार प्रकार में छोटे हैं एवं इन्हें लघु पाषाण उपकरण कहा जाता है।
- इस काल के प्रमुख उपकरण लूनेट, ट्रायंगल एवं ट्रपीज हैं। साथ ही विशेष उपकरण के रूप में माइक्रो ब्यूरिन एवं थम्बनेल स्क्रैपर प्राप्त होते हैं। (रेखाचित्र क्र. 9 ) । संभवतः प्राकृतिक बदलाव के कारण इस प्रकार के उपकरणों का प्रयोग मानव की आवश्यकता हेतु मृद्माण्डों आदि के साथ प्रचलित हुआ। प्रायः तीनों प्रकार के मध्य पाषाण कालीन उद्योग मध्यप्रदेश से प्राप्त हुए हैं।
ये उद्योग समृद्ध रूप में मध्यप्रदेश में निम्नांकित प्रतिवेदित किये गये हैं-
- अज्यामितीय उपकरण
- ज्यामितीय उपकरण
- मृदभाण्ड सहित ज्यामितीय उपकरण
- अज्यामितीय उपकरण युक्त मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष मध्य पाषाण काल में पूर्व विकासक्रम को दर्शाते हैं एवं उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति से विकसित समझे जाते हैं जबकि ज्यामितीय एवं मृद्माण्ड सहित ज्यामितीय उपकरण युक्त संस्कृति के पुरास्थल विकासक्रम में बाद के समझे जाते हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों द्वारा इस विकसित संस्कृति को 'प्रोटो नियोलिथिक' की संज्ञा दी गई है। अनेक मध्य पाषाण कालीन उत्खनित पुरास्थलों से धातु उपकरण प्राप्त होते हैं।
- मध्य पाषाण कालीन उपकरण छोटे हैं व कुछ उपकरण इतने छोटे हैं कि उपकरण के रूप में किस प्रकार उपयोग किये जाते यह अब भी अस्पष्ट है। इस काल के उपकरण लकड़ी या हड्डी में फिटकर करके चाकू- हँसिया, अन्य प्रकार के उपयोगी उपकरणों के रूप में प्रयोग किये जाते थे। ये बहुधा लघु पाषाण उपकरण एवं छोटे-छोटे फ्लेक पर निर्मित उपकरण होते हैं। इस काल के मुख्य उपकरण पॉइन्ट, चांद्रिक, त्रिकोण एवं समलम्ब हैं। पॉइन्ट के भी विभिन्न प्रकार इस काल में प्रतिवेदित किये गये हैं।
- विशेष उपकरणों में माइक्रो ब्यूरिन व थम्बनेल स्क्रेपर हैं जो कि विशेष कार्य हेतु प्रयोग में लाये जाते थे। इनके साथ कभी-कभी अस्थि उपकरण भी प्राप्त होते हैं। घोड़ामाड़ा से अनेक अस्थि उपकरण प्राप्त हुये हैं। इसके साथ ही साथ कुछ विशेष उपकरण घोड़ामाड़ा से उपलब्ध हैं, जिनमें हिरण की सींग पर निर्मित चाकू है। इसी प्रकार द्विधार युक्त अस्थि पर निर्मित चाकू महत्वपूर्ण है। इस पुरास्थल के उत्खनन से 13 अस्थि उपकरण प्राप्त हुए हैं।
- बाँकी एवं 2 बाघोर II से भी मध्य पाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। सोनघाटी से उच्च पुरापाषाण से मध्य पाषाण काल के उपकरणों में क्रमबद्ध विकास प्रदर्शित होता है। यहाँ उपकरणों के सभी प्रकार उपलब्ध हुए हैं 84 मोड़ी (भानपुरा) पुरास्थल से ज्यामितीय लघु पाषाण उपकरण स्तर 9 से प्रतिवेदित किये गये हैं। साथ ही साथ स्तर क्र. 8 से प्राप्त स्टोन एनविल व गेरू के अवशेष महत्वपूर्ण हैं। धीरे-धीरे ऊपरी स्तरों में लघु पाषाण उपकरणों की मात्रा बढ़ती जाती है।
- उपकरणों के साथ-साथ इस काल से सम्बन्धित अन्य सामग्री भी महत्वपूर्ण है, जैसे- सिल, लोढ़ा, हथौड़ा आदि। मध्य पाषाण कालीन संस्कृति में आमूल परिवर्तन दिखता है। इस काल में उपकरण मात्र 'सिलीका समूह' के मुलायम पत्थरों पर निर्मित होने लगे। पूर्व में उच्च पुरापाषाण काल में उपकरण क्वार्ट्जाइट जैसे ठोस एवं 'सिलीका समूह' के पत्थरों पर निर्मित होते थे ।
- उपकरण निर्माण 'सिलीका समूह' के पाषाण प्रकार बहुधा पूरे मध्यपद्रेश में प्राप्त हुए हैं। कहीं तो पहाड़ों के मध्य एवं कहीं पर नदियों द्वारा विभिन्न पेबुल से, जहाँ ये पुरास्थलों के पास नहीं प्राप्त होते थे, पाषाण की आवश्यकता आसपास के क्षेत्रों से पूर्ति की जाती थी। मध्यप्रदेश में बहुधा पाषाण खण्ड पहाड़ों में परत के रूप में विन्ध्य पहाड़ियों में मिलते हैं एवं दक्कन ट्रैप जमाव से भी प्राप्त होते हैं। पाषाण हेतु मध्यप्रदेश इतना समृद्ध है कि मानव को बाहर के क्षेत्रों से पाषाण को आयातीत करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
मध्य पाषाण काल से संबन्धित माधप्रदेश के स्थल
- इस काल के मुख्य पुरास्थल हैं अमरकंटक, जमोई, राजेन्द्रगाम, लालपुर, शहडोल (जिला शहडोल), मुरेल खुर्द (जिला रायसेन), चन्देरा, चंदला-भाटा, भापसोन, मकरोनिया, रेता, सागर (जिला सागर), उमरिया, कटरिया, कनवारा, कस्तरा, खेरनी, गाड़ाघाट, गुबरा कलाँ, घुघरा, घुघरी, छीता- कुदरी, जबलपुर, झोंझ, डोंगरिया, तमेर दबकिया, नीमखेड़ा, पड़रिया, परसेल, पहरूवा, पौड़ी खुर्द, बासन, बुड़बुड़ी, भेड़ाघाट, भोपार, मझोली, मड़ईकलां, मड़ईखुर्द, मातामार, रैना, लखारी, लीलखेड़ा, सकड़ा, सकरी, सहजपुरी, सगवां, सालीवाड़ा, सिलपुरा, सुकरी, सोनपुर, हनतला, हंसापुर, त्रिपुरी, रमखिरिया (जिला जबलपुर), अटूट-खास, अम्बाला, इतवा, करोली, कामरी, किरगाँव, किशनपुर गम्भीर, गाडावाड़ी, गारबर्डी, घंदवा, घाटखेड़ी, चरेना, चण्डीगढ़, चलपा-खुर्द, जामाधड़, टोसनिया, देहगाँव, नवला, नान्दखेड़ा, निगुड़िया, पाटाजन, पिपल्या-बावली, पूनाघाट कलां, बड़ाकुण्ड, बोरखेड़ा खुर्द, महलखेड़ी, मातुपुर, मुण्डी, मोजवाड़ी, मोसई, रतनपुर, रनहई, रामजीपुर, रिचपाल, रोशिनी, लक्कनगाँव, सालीढाना, हर्दी, हुतिया (जिला पूर्व निमाड़), कीर्तिनगर, नेवरी गुफा, भान-की-टेकरी, मनुआ (जिला सीहोर), अलवी महादेव, आवरा, भगवानपुरा, मंदसौर (जिला मंदसौर), नालखेड़ा (जिला शाजापुर), अलवासा, केवड़ेश्वर, चोरल, जानापावा, टिंछा, पातलपानी, बिचौली टेकरी, हत्यारा-कोह, हिंगवानिया (जिला इन्दौर), चान्चोड़ा (जिला गुना), उदयगिरि, ग्यारसपुर, टीला विदिशा (जिला विदिशा), अहमदाबाद, भोपाल (जिला भोपाल), सिवनी, होशंगाबाद, झीलपिपरिया, पचमढ़ी, महल कलां, आदमगढ़, सन्दिया (जिला होशंगाबाद), बंजारीघाट, जरारा (जिला मुरैना), मोरार नदी, हनुमानबन्ध (जिला ग्वालियर), ऊन (जिला पश्चिम निमाड़), खजुराहो, जतकारा, बेनीगंज, राजनगर, सकेरा (जिला छतरपुर), इतर पहाड़, कोरिया, गोबिन्दगढ़, चचाई प्रपात, देवलोंध, नोनघाटी (जिला रीवा), बम्हनी दादर (जिला बालाघाट), बाघ, अहू (जिला धार), कोहका, डांड-विछिया, भैसिया-गाँव, लुटगाँव (जिला मण्डला), उज्जैन, कालूजी-का-बाड़ा, देलचा (जिला उज्जैन), चोरहट, जामुनी पहाड़ी (जिला पन्ना), जावरा (जिला रतलाम), छिन्दवाड़ा (जिला छिन्दवाड़ा), कोड्री, नेर (जिला निमाड़ )
मध्यप्रदेश संस्कृति का स्तरीकरण
- यह संस्कृति नूतन काल से संबंधित है। मध्यप्रदेश में यह संस्कृति स्तरीकृत रूप में उच्च पुरापाषाण कालीन स्तरों के ऊपर मिट्टी के जमाव से प्राप्त होती है। कभी-कभी उच्च पुरापाषाण के ऊपर एवं कभी-कभी जमाव पर सबसे ऊपर प्राप्त होते हैं। सोन घाटी, नर्मदा घाटी, बेतवा घाटी, चम्बल घाटी से इस संस्कृति के उपकरण नूतनकाल के जमावों से प्राप्त हुए। हैं। भीमबैठका एवं आदमगढ़ में इस संस्कृति का जमाव ऊपरी स्तरों से प्राप्त हुए हैं। भीमबैठका में यह संस्कृति स्तर 1 3 के मध्य 0.45 से.मी. मोटे जमाव से प्राप्त हुई है। आदमगढ़ में स्तरों का अभाव है परन्तु यह संस्कृति 3 मी. मोटे जमाव से मिली है।
- मध्यप्रदेश गुफाओं एवं शैलाश्रय हेतु भी समृद्ध है एवं विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। इन्हीं शैलाश्रयों में क्रमबद्ध विविध सांस्कृतिक अवशेष प्राप्त हुए, जिनका नियमित उत्खनन हुआ एवं इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए। इस संस्कृति से सम्बन्धित हजारों पुरास्थल हैं, सभी का वर्णन करना संभव नहीं है। अतः इस संस्कृति से सम्बन्धित जितने उत्खनित प्रमुख पुरास्थल हैं, उनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
मध्य प्रदेश में मध्य पाषाण काल के उत्खनित पुरास्थल
- मोड़ी से इस संस्कृति के अवशेष केवल ऊपरी सतह से प्राप्त हुए हैं। नदी घाटियों में बाघोरII, बाघोर III, घघरिया, मेधौली में मध्य पाषाण कालीन संस्कृति से सम्बन्धित जमाव महत्वपूर्ण हैं जबकि भीमबैठका, आदमगढ़, घोड़ामाड़ा आदि ऐसे पुरास्थल हैं जो मध्य पाषाण कालीन जमाव समाहित किये हुये हैं। बाघोर में इस काल से सम्बन्धित जमाव 30 सेमी. है एवं तीन स्तरों में विभाजित है। प्रथम स्तर पीली मिट्टी का है एवं 14 सेमी. मोटा है, दूसरा 2ए एवं 2बी में विभाजित है जो कि ग्रैवेल है एवं क्रमशः 10 व 6 सेमी मोटा है।
- मेधौली में जमाव 1.5 मीटर है जिसे पुनः तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम स्तर 0 से 55 सेमी., दूसरा स्तर 55 से 71 सेमी. व शेष नीचे का जमाव है। घघरिया में जमाव मात्र 53 से. मी. प्राप्त हुआ है। इसे पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है।
- मध्य पाषाण कालीन अवशेषों में विविधता है एवं मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे पहाड़ी स्थलों पर, गुफा एवं शैलाश्रय से इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त होते हैं। इस संस्कृति से सम्बन्धित पुरास्थल स्तरीकृत एवं सतही रूप में पहाड़ों के ऊपर, ढलानों में नदी घाटी के ऊपरी जमाव में सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में विद्यमान हैं ।
भीमबैठका पुरास्थल
- यहाँ पर सांस्कृतिक क्रमबद्धता के अवशेष तो मिले ही हैं, साथ ही यह पुरास्थल शैल चित्रण के क्षेत्र में सबसे समृद्ध है। यहाँ पर अनेक शैलाश्रयों में उत्खनन किया गया जहाँ से 0.20 से.मी. से 1.50 मी. मोटा इस संस्कृति से सम्बन्धित जमाव उपलब्ध हुआ है। मुख्य निखात है III एफ. 23 जहाँ से क्रमबद्ध सांस्कृतिक अवशेष के साथ लगभग 490 से.मी. का जमाव प्राप्त हुआ है। इस निखात में इस संस्कृति के अवशेष ऊपरी प्रथम 3 स्तरों (1-3) से प्राप्त हुए हैं जो कि 0.450 मी. है। इस काल का जमाव सबसे ऊपर पतला है परन्तु सबसे समृद्ध है। विविध उपकरण प्रकार के साथ सिल-लोढ़े के अवशेष भी मिले हैं जो कि मध्य पाषाण काल के विकसित स्वरूप को दर्शाते हैं। यहाँ पर वी.एन. मिश्र एवं वी. एस. वाकणकर ने अनेक शैलाश्रयों में उत्खनन किये जिसके परिणामस्वरूप उपकरणों के साथ-साथ अनेक प्रकार के अगढ़ित उपकरणों की प्राप्ति हुई है, जिससे ज्ञात होता है कि यहाँ पर उपकरण निर्माण इन्हीं गुफाओं में किया गया था।
- उपकरण निर्माण में वस्तुत: दो प्रकार के पाषाण-चाल्सीडोनी एवं चर्ट का प्रयोग किया गया था। मिश्र के अनुसार ये पाषाण प्रकार भीमबैठका की पहाड़ियों पर नहीं मिलते एवं लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर बरखेड़ा एवं आसपास की पहाड़ियों से डेक्कन ट्रैप जमाव में प्राप्त होते हैं। वहाँ से वे इस पुरास्थल पर लाये गये।
- इस काल के उपकरण भी अनवरत विकासक्रम को प्रदर्शित करते हैं। इस काल की तकनीक पूर्वकाल (उच्च पाषाण काल) से भिन्न थी। लघु पाषाण उपकरण हेतु, मुलायम पत्थरों के उपयोग के साथ इस काल के उपकरण बहुत महीन. कारीगरी से निर्मित किये गये थे। बड़ी सावधानी से विभिन्न आकार के ब्लेड एवं माइक्रो-ब्लेड निकालकर उन पर कार्य करने के उपरान्त इज्छित आवश्यकतानुसार उपकरण के रूप में परिवर्तित किया गया। चूंकि ये उपकरण लकड़ी या हड्डी आदि में लगाकर चाकू, हंसिया, तीर, भाले आदि बनाकर सामूहिक रूप से प्रयोग में लाये जाते थे, अतः इनकी कारीगरी उत्तम थी।
- ये उपकरण मुख्यतः ब्लेड एवं माइक्रो-ब्लेड पर पुनः कारीगरी (रिटचिंग) के उपरान्त निर्मित किये गये थे। इन मुख्य उपकरणों में ब्लेड (ब्लंटेड, ट्रंकेटेड), चांद्रिक (क्रीसेन्ट), प्वाइंट, ट्रैगिल, ट्रपीज, ट्रांसवर्स- ऐरोहड आदि थे। इन ब्लेड उपकरणों के साथ, फलक पर निर्मित स्क्रैपर (साइड, एण्ड), बोरर, ब्यूरिन, ट्रंकेटेड फलक, अन्य फलक एवं कोर उपकरण कम मात्रा में प्राप्त होते हैं।
- इस उपकरण समूह में अस्थि उपकरण भी प्राप्त हुए हैं जिनमें प्वाइंट प्रमुख हैं। इस स्थल पर उत्खनन में पूर्व स्तरों से प्राप्त उपकरण बड़े, चौड़े एवं मोटे थे, परन्तु धीरे-धीरे ये छोटे होते गये। उत्खनन में मध्य पाषाण कालीन स्तरों से रंग के घिसे हुए विभिन्न रंग के टुकड़े प्राप्त हुए जो कि शैलाश्रयों में अनवरत चित्रण की ओर संकेत देते हैं।
- भीमबैठका उत्खनन में मध्य पाषाण कालीन स्तरों से राख जली हड्डीयाँ एवं कोयले के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिससे विदित होता है कि मध्य पाषाण काल में मानव आग में माँस आदि भूनता था। जानवरों की अस्थियों में विभिन्न प्रकार के हिरन, मवेशी एवं जंगली सुअर सम्मिलित हैं। इनमें काटे जाने के चिह्न विद्यमान हैं। शैलाश्रय क्र. III एफ. 23 में पत्थरों द्वारा दीवार बनाने के प्रमाण भी उपलब्ध हैं।
- इस काल के मानव द्वारा अन्त्येष्ठि निवास क्षेत्र में की गई। शव के पैर मोड़कर सीधा दफनाया प्रतीत होता है। दफनाते समय शव का सिर पूर्व या पश्चिम की ओर रखा जाता था। पत्थर का लोढ़ा, अस्थि उपकरण गेरू के टुकड़े अन्त्येष्ठि सामग्री में रखे प्राप्त हुए हैं।
- भीमबैठका से मध्य पाषाणकालीन स्तरों से 17 रेडियो कार्बन तिथियाँ प्राप्त हैं जो 5860(+-)110-370(+-)130 बी.पी. के मध्य हैं। कुछ तिथियाँ तो पुरानी नहीं हैं। भीमबैठका पुरास्थल पर निवास अधिक बाद के कालों तक प्रतीत होता है। यह अन्य सामग्री (ताम्रपाषाण युगीन) से समझा जा सकता है।
आदमगढ़ मध्य पाषाणकालीन संस्कृति
- आदमगढ़ में ऊपरी जमाव मध्य पाषाणकालीन संस्कृति से सम्बन्धित है एवं 5 से.मी. मोटा है। यह जमाव काली मिट्टी द्वारा निर्मित है जिसे सामान्यतया 'ब्लैक-काटन' मिट्टी के नाम से जाना जाता है।
- यहाँ ऊपरी जमाव में लघु पाषाण उपकरण, मृद्माण्ड एवं धातु उपकरणों के साथ प्राप्त होते हैं परन्तु निचले 1-3 मी. का जमाव लघु पाषाण उपकरणों से युक्त है। इसी कारण आदमगढ़ की मध्य पाषाण कालीन संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया गया है- ऊपरी जमाव के - विकसित उपकरण एवं निचले जमाव से प्राप्त उपकरण जो कम विकसित हैं।
- उन्हें क्रमशः 'अर्ली मेसोलिथिक' एवं 'लेट मेसोलिथिक' के नाम से अभिहित किया गया है। पूरे 5.0 मी. जमाव में लघु पाषाण उपकरण उद्योग समृद्ध था। एक ही निखात से लगभग 5000 लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं एवं उपकरण निर्माण सामग्री लगभग 250 कि.ग्रा. तौल में प्राप्त हुई है।
- उपकरण मुख्यत: चर्ट, चाल्सीडोनी, जैस्पर, अगेट आदि से निर्मित हैं। इस क्षेत्र की पहाड़ियों में इस प्रकार का पाषाण उपलब्ध नहीं होता, अतः ये संभवतः नर्मदा नदी से पेबुल या पाषाण खण्ड के रूप से प्राप्त हुए होंगे। उत्खनन में ब्लेड एवं प्वाइंट उपकरणों की अधिकता है परन्तु इनके साथ बोरर, ऑल, स्क्रैपर, ब्यूरिन, ट्रायंगल, टूपीज एवं क्रोड भी बहुत मात्रा में प्राप्त होते हैं।
- ऊपरी जमाव से मृद्माण्ड, मेस हेड के साथ-साथ मनके, धातु उपकरण एवं ऐतिहासिक काल का सिक्का उल्लेखनीय है। इन सामग्रियों के कारण इस काल के अन्तिम चरण में मानव संभवतः नव पाषाणिक-ताम्र पाषाणीय मानव के संपर्क में आया प्रतीत होता है।
- आदमगढ़ के उत्खनन में मध्य पाषाण कालीन स्तरों से अनेक जानवरों की अस्थियाँ प्राप्त हुई हैं जो जंगली एवं पालतू पशुओं से सम्बन्धित हैं जिनमें बड़े जानवरों से लेकर बहुत छोटे जानवरों तक भी सम्मिलित हैं। जिन पालतू पशुओं की अस्थियाँ प्राप्त हुईं उनमें प्रमुख हैं, मवेशी, कूबड़दार मवेशी, बकरी-भेड़, सुअर आदि जबकि जंगली प्रकार का घोड़ा-गधा, बारहसिंहा, साम्भर, चीतल, चूहा आदि हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि जंगली एवं पालतू दोनों प्रकार के पशुओं की अस्थियाँ लगभग बराबर हैं। इससे आखेटक एवं संग्राहक प्रवृत्ति के संकेत मिलते हैं। डॉ. जोशी के मतानुसार संभवत: उपकरण एवं पशु अवशेष नव पाषाण काल की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करते हैं .
- आदमगढ़ के मध्य पाषाण कालीन स्तरों से 2 रेडियो कार्बन तिथियाँ 7240(+-)125 एवं 2765(+-)105 बी. पी., जो कि पूर्व एवं अंत मध्य पाषाण कालीन स्तरों की हैं, मध्य पाषाण कालीन मानव के निवास के काल की ओर संकेत देती हैं।
पचमढ़ी मध्य पाषाण कालीन स्थल
- पचमढ़ी (22° 30'N', 78°22'E) (जिला होशंगाबाद) पर्वती क्षेत्र एवं सुरम्य है। यह स्थल पर्वत एवं वनों से आच्छादित हैं।
- यह प्रागैतिहासिक काल से ही मानव कार्यकलापों का केन्द्र बिन्दु बना।
- यहाँ सन् 1932,34-35, में जी. आर. हन्टर ने जम्बूदीप एवं डोरोथीदीप शैलाश्रयों का उत्खनन कराया था।
- डोरोथीदीप शैलाश्रय नं.1 पूर्व-पश्चिम में 70' लम्बा एवं 30' चौड़ा है। अधिकांश भाग मिट्टी एवं पत्थर के टुकड़ों का है। यह जमाव 2" से 50" से अधिक है। डोरोथीदीप शैलाश्रय वाले क्षेत्र में उत्खनन से 5' मोटा जमाव प्राप्त हुआ है। यहाँ 2 कंकालों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- स्तर-1 के निचले स्तरों से चकमक पत्थरों पर निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं जिन्हें चांद्रिक एवं त्रिकोण के रूप में विभाजित किया गया है।
- स्तर-2 में मृद्माण्ड प्रयोग करने वाले मानव निवास करते थे। यहाँ 3 नर कंकालों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। इनमें से 2 बच्चे 1 वयस्क के हैं।
- यहाँ पर समतल क्षेत्र बाजार उत्खनन में भी मध्य पाषाण काल के अवशेष/उपकरण प्राप्त हुए हैं। बाजार शैलाश्रय से बहुत बड़ी मात्रा में ज्यामितीय एवं अज्यामितीय, क्रोड, उपकरण निर्माण सामग्री प्राप्त हुये हैं।
गुप्तेश्वर
- यहाँ मध्य पाषाण कालीन संस्कृति दो स्तरों से मिले हैं। दोनों जमावों को बीच से अलग-अलग किया गया है। दोनों स्तरों के उपकरणों में ज्यामितीय एवं अज्यामितीय उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिनमें कोर ब्लेड, माइक्रो ब्लेड, चांद्रिक आदि सम्मिलित हैं। उपकरण चर्ट एवं चाल्सीडोनी से निर्मित हैं।
बाँकी
- इस पुरास्थल का उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्त्व विभाग द्वारा दो बार 1982-83 एवं 1991-92 ई. में कराया गया। यहाँ से 1.8 मी. जमाव प्राप्त हुआ जिसे 5 स्तरों में विभाजित किया। स्तर 1 का ऊपरी भाग खेती के कारण अव्यवस्थित पाया गया। स्तर 2, a एवं b में पुनः विभाजन किया गया। स्तर 2 से 93 से. मी. तक मध्य पाषाण संस्कृति का स्तर है। स्तर 4 से टर्मिनल उच्च पाषाण काल के उपकरण एवं स्तर 5 से उच्च पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं।
- इस प्रकार इस पुरास्थल पर उच्च पुरापाषाण काल से लेकर मध्य पाषाण काल तक क्रमिक विकास प्रदर्शित हुआ है। स्तर 2 B से निवास के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो महत्वपूर्ण हैं। गोलाकार, अण्डाकार झोपड़ियों के अवशेष मिले हैं। पत्थरों के टुकड़े, हथौड़े, निहाई, आदि संभवतः खाना तैयार करने एवं उपकरण तैयार करने के लिए प्रयोग में आते थे। उपकरणों में मुख्य रूप से विविध प्रकार के ब्लेड, बैक्ड ब्लेड, रिटज्ड ब्लेड, ट्रंकेटेड ब्लेड, ट्रायंगल एवं लूनेट हैं।
मध्यप्रदेश में मध्य पाषाणकाल के शवावशेष
- शव दफनाने के अवशेष पहली बार मध्यप्रदेश में मध्य पाषाणकाल के जमावों से प्राप्त हुये हैं। मुख्य रूप से दो प्रकारों से शव को दफनाने की विधि उत्खनन के परिणामस्वरूप ज्ञात हुई है। पहला, एक्सटेन्डेड बरियल एवं दूसरा फ्रेक्शनल बरियल। ये दो ही प्रकार के शव दफनाने की विधि भीमबैठका और आदमगढ़ के उत्खनन से प्राप्त हुई हैं। साथ ही पचमढ़ी क्षेत्र शैलाश्रय के जम्बूद्वीप से 3 व डोरोथीदीप से 1 शव दफनाने के अवशेष उपलब्ध हुये हैं। गुप्तेश्वर में मध्य पाषाण कालीन स्तरों से शिशु का सर कुचला हुआ शव प्राप्त हुआ है। अंत्येष्ठि सामग्री के रूप में मात्र लघु पाषाण उपकरण ही प्राप्त हुए हैं।
मध्य पाषाण काल की निवास पद्धति
- मध्य पाषाण काल में मानव शैलाश्रयों में अपने विभिन्न प्रकार के कार्यकलापों को अंजाम देता था। भीमबैठका के III एफ 23 शैलाश्रय में 6 मीटर लम्बी एवं 7 मीटर चौड़ी पत्थरों की दीवाल निर्मित करने के प्रमाण हैं। इसके साथ ही सोन नदी के किनारे बाघोर एवं बाँकी में अण्डाकार एवं अर्ध-वृत्ताकार/गोलाकार झोपड़ी बनाने के प्रमाण उपलब्ध हुये हैं। साथ ही 41 स्तम्भ गर्त से इस पुरास्थल पर एक लम्बे समय तक निवास के संकेत प्राप्त हुए हैं जो महत्वपूर्ण हैं। अनेक पुरास्थल नदियों के किनारे पहाड़ियों के नीचे पहाड़ियों की ढलान पर प्राप्त हुये हैं। इस काल में पुरास्थलों की संख्या अत्यधिक है। अतः मानव यायावरी जीवन यापन करता था और साथ ही कुछ निश्चित स्थानों पर झोपड़ी बनाकर रहता था।
भोजन
- इस काल का मानव बहुधा जंगलों में रहता था। इन जंगलों में विभिन्न प्रकार की वनस्पति पेड़, पौधे, कन्द, मूल, फल सुरक्षित थे। साथ ही विभिन्न प्रकार के जानवर भी इन जंगलों में निवास करते थे। आदमगढ़ में जो अस्थियाँ प्राप्त हुई। हैं, उनमें अनेक अस्थियाँ पालतू जानवरों की हैं। इससे विदित होता है कि मध्य पाषाण कालीन मानव जानवर पालने लगा था। अत: प्राकृतिक सम्पदाओं, जैसे कन्द-मूल, फल का उपयोग मानव नित्य ही करता था, साथ ही भोजन-आहार के रूप में पालतू पशु भी उसके नित्य प्रति आहार हेतु सहायक रहे होंगे। उत्खनन से बाणाग्र प्राप्त हुये हैं जो कि शिकार में सहायक रहे होंगे। साथ ही साथ भोजन निर्माण के प्रयोग में आने वाले उपकरण भी प्राप्त हुये हैं जैसे सिल लोढ़े आदि। इनके द्वारा मानव शाकाहारी भोजन तैयार कर उपयोग में लाता रहा होगा ।
- पुरापाषाण काल के बाद हिम युग की समाप्ति के कारण वातावरण में बदलाव आया एवं जलवायु अब गर्म होने के कारण मानव के जीवन यापन हेतु उपयोगी एवं सरल हुई। नई-नई विधाएँ प्रारंभ हुईं। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भूधरा के साथ-साथ मानव के जीवन पर पड़ा एवं मानव बदली हुई परिस्थति में रहने के लिये बाध्य हुआ।
- वर्षा के कारण नदियों में पानी की अधिकता हुई, बहाव तेज हुआ, कटाव हुये। उसके साथ-साथ मैदानी क्षेत्रों का प्रादुर्भाव हुआ जिनमें लम्बी-लम्बी घांसे एवं विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों में अधिकता आई। बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप मानव के क्रिया कलाप भी बदले, छोटे-छोटे जानवरों का प्रादुर्भाव हुआ। अब मानव बड़े-बड़े शिकार पर आश्रित न रहकर, छोटे-छोटे जानवरों का शिकार कर उन्हें भोजन हेतु प्राप्त किया। अतः इस काल का मानव शाकाहारी व माँसाहारी दोनों था।
मध्यप्रदेश के शैल चित्रण
- मध्यप्रदेश शैलाश्रय एवं गुफा प्रमाण हेतु भारतवर्ष में सबसे समृद्ध है। इन शैलाश्रयों में सांस्कृतिक जमाव के साथ साथ शैल चित्रण भी प्राप्त हुए हैं। शैल चित्रण विश्व में सर्वाधिक भारत में एवं भारत के मध्यप्रदेश में स्थित शैलाश्रयों एवं गुफाओं में निर्मित हैं। ये चित्रण शैलाश्रयों एवं गुफाओं में छत एवं दीवालों पर हैं। इसमें सबसे अधिक शैलाश्रय भीमबैठका, जिला रायसेन में स्थित हैं। वस्तुत: भीमबैठका के आसपास का क्षेत्र, जैसे बेतवा का उद्गम क्षेत्र, भोपाल, सिहोर शैल चित्रण हेतु प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण मध्यप्रदेश चित्रण के सम्बन्ध में अद्वितीय है।
- भीमबैठका में चित्रण निर्माण उच्च पुरा पाषाण काल से माना जाता है। हरे रंग द्वारा निर्मित मानव चित्रण भारत में सबसे पुराना माना गया है। वी. एन. मिश्र एवं मठपाल ने भीमबैठका एवं भारत में शैल चित्रण को 9 (ए-I) भागों में विभाजित किया है। इनमें चित्रण के 5 चरण (ए-ई) मध्य पाषाणकाल से सम्बन्धित माने जाते हैं ।
- इनमें अधिकतर चित्रण मानव एवं जानवरों के हैं जो अनेक एवं समूह में चित्रित प्राप्त होते हैं। इनके चित्रण में एकरूपता के दिग्दर्शन होते हैं। चित्रण तकनीक में भी एकरूपता प्रदर्शित होती है। चित्रण मे मानव क्रियाकलापों की विभिन्न अवस्थाएँ प्रदर्शित होती हैं जो चलायमान भागते हुए, स्थिर हैं शिकार एवं समूह नृत्य के दृश्य भी अनेक शैलाश्रयों में चित्रित हैं। भीमबैठका, रायसेन एवं चुड़ैलों का पहाड़, ग्वालियर शैलाश्रयों में चित्र, गर्भवती स्त्री का चित्रण अत्यन्त मनोहारी हैं।
- वी. एन. मिश्र के अनुसार प्रारम्भिक चित्रण अधिक प्राकृतिक हैं एवं बाद के चित्रों में स्टाइल का समावेश देखने को मिलता है। अनेक आखेट दृश्यों में मनुष्यों द्वारा भालानुमा हथियार/औजार प्रदर्शित है। चम्बल घाटी में ग्वालियर, शिवपुरी पहाड़ी क्षेत्रों में अनेक शैलाश्रय चित्रण युक्त प्राप्त हुए हैं। शैली के आधार पर ये मध्य पाषाण काल के प्रतीत होते हैं। इनमें पाषाण उपकरण भी शैलाश्रय के आंतरिक सतह पर प्राप्त हुए हैं। इन शैलाश्रयों में मुख्य हैं- परा, डेनगाँव, चुड़ैलों का पहाड़, लिखीछाज, महराजपुरा आदि।
मध्य प्रदेश के मृद्भाण्ड
- आदमगढ़, भीमबैठका उत्खनन में मध्य पाषाण कालीन स्तरों में ऊपरी स्तरों से धातु उपकरणों के साथ-साथ मृद्भाण्ड के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। ये अवशेष सादे मृद्भाण्ड हैं जो गले से हैं। इन पर किसी प्रकार का चित्रण स्पष्ट नहीं हैं। उत्खननकर्ता यहाँ के मानव एवं ताम्र पाषाणिक निवासी से सम्बन्ध की संभावना ताम्र-पाषाणिक चित्रण, शैलाश्रयों के आकार पर प्रतिपादित करते हैं।
- बाघोर से प्राप्त मृद्भाण्ड भी गले हैं। घघरिया से प्राप्त मृद्भाण्ड अच्छी हालत में प्राप्त हुए हैं। ये लाल सिलेटी रंग के हैं एवं पात्रों में मुख्य रूप से खाकी हैं। आकार-प्रकार के विषय में कम जानकारी मिलती है एवं छोटे आकार के कटोरे हैं।
- इस काल के उपकरणों के साथ-साथ जमाव में बाघोर, दुतिया एवं घघरिया से मृद्भाण्ड के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। मृद्भाण्ड कम पके व भूरे रंग के हैं। मुख्यतया मृद्भाण्डों के अवशेष बाघोर दुतिया, घघरिया एवं आदमगढ़ से प्राप्त हुए हैं।
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