सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी ।Subhash Chandra Boss Aur Mahatma Gandhi
सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी (Subhash Chandra Boss Aur Mahatma Gandhi)
सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी
- 1930 में उन्होने नामक सत्याग्रह में भाग लिया सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर बन्दीगृह में डाल दिया। 5 मार्च 1931 को गांधी इर्विन समझौता हुआ तथा सत्याग्रह निलम्बित कर दिया । सुभाष और उनके साथी छोड़ दिये गए। परंतु सुभाष चन्द्र बॉस इस समझोते के विरुद्ध थे क्योंकि गांधी जी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी से बचाने का कोई प्रयत्न नहीं किया और 23 मार्च को इन्हें फांसी दे दी गई।
- 1931 और 1937 के बीच बोस कई बार जेल गए। परन्तु परिस्थितियां तब बदली जब 1937 में भारत सरकार अधिनियम 1935 के अधीन चुनाव हुए और 11 में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस बहुसंख्यक दल के रूप में सामने आई तथा उस दल की सरकारें बनीं।
- गुजरात में हुए हरिपुर कांग्रेस अधिवेशन में (फरवरी 1938) में बोस केवल 41 वर्ष की आयु में सर्व सम्मति से कांग्रेस के प्रधान चुन लिए गए। उन्होंने अपने प्रधान पद से दिए गए एक लम्बे भाषण में सात प्रान्तों में बनी कांग्रेसी सरकारों की क्रान्तिकारी सम्भावनाओं का वर्णन किया। उन्होंने भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों की बात भी की और आगे चल कर भारतीय समाज की निर्धनता तथा निरक्षरता का विवरण देकर समाज को रोग मुक्त कराने की बात कही।
- इसी प्रकार उन्होंने वैज्ञानिक पद्धति से उत्पादन को बढ़ाने तथा उत्पादों को सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बांटने का सुझाव भी दिया। प्रायः यह कहा जाता है कि पण्डित नेहरू ही आर्थिक योजना (Economic Planning) पद्धति से प्रतिपादक थे। परन्तु बोस ने तो यह स्वप्न 1938 में ही देख लिया था और 1938 के कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में राष्ट्रीय योजना समिति (National Planning Committee) की स्थापना का सुझाव दिया था और कहा था कि राष्ट्रीय योजना समिति को एक व्यापक योजना के अनुसार समस्त कृषि तथा औद्योगिक उत्पादन और वितरण पद्धति को अपनाना पड़ेगा।
- इसी दिशा में अग्रसर होते हुए 17 दिसम्बर 1938 को बम्बई में अखिल भारतीय राष्ट्रीय योजना समिति का विधिवत् रूप से उद्घाटन किया गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में बोस महोदय पूरा 1938 का वर्ष कांग्रेस के कार्य को आगे बढ़ाने और कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में लगे रहे। इनकी कार्यशैली गांधी जी और उनके समर्थकों को नहीं भाई तथा बोस को संघठित और कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।
- अगले वर्ष सुभाष बाबू ने पुनः अपने आपको कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तुत कर दिया। (जनवरी 1939 )। उन्होंने नवीन विचारों, सिद्धान्तों, समस्याओं तथा कार्यक्रमों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट किया विशेषकर भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के बने रहने के विरुद्ध संघर्ष की बात कही।
- कांग्रेस के दक्षिण पंथी वर्ग ने महात्मा गांधी के आशीर्वाद से पट्टाभी सीतारमैय्या का नाम प्रस्तुत किया। त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) में हुए अधिवेशन में बोस को 1580 मत मिले और सीतारमैय्या को 1377 महात्मा गांधी को बड़ा धक्का लगा और उन्होंने दुःख भरे शब्दों में कहा कि यह सीतारमैय्या की पराजय नहीं, यह तो मेरी पराजय है।"
- इस चुनाव के उपरान्त घटना चक्र बहुत तेज़ी से घूमा कांग्रेस कार्यकारिणी के 15 में से 12 सदस्यों ने कार्यकारिणी से त्याग पत्र दे दिया। वे बोस के साथ सहयोग करने को उद्यत नहीं थे। इस षड़यंत्र में सरदार पटेल, मौलाना अब्बुकलाम आज़ाद, डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद इत्यादि उच्च कोटि के कांग्रेसी नेता सम्मिलित थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने औपचारिक रूप से तो त्यागपत्र नहीं दिया, परन्तु उन्होंने एक ऐसा वक्तव्य जारी किया कि जिससे यह लगे कि उन्होंने भी त्याग पत्र दे दिया है।
जवाहर लाल नेहरू का सुभाष बोस पर आक्षेप
- जवाहर लाल नेहरू ने सुभाष बोस द्वारा अपने सहयोगियों पर आक्षेप करने की निन्दा की और यह कहा कि इस चुनाव में दक्षिण पंथी और वामपंथी का प्रश्न नहीं था और फिर 4 फरवरी 1939 को बोस को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि मैं नहीं जानता कि कौन वामपंथी है और कौन दक्षिण पंथी। जिस प्रकार से आपने अध्यक्ष के चुनाव के सम्बन्ध में इन शब्दों का प्रयोग किया है, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी तथा कार्यकारिणी में उनके समर्थक दक्षिण पंथी नेता हैं और उसके विपरीत उनके विरोधी जो कोई भी हों, वे वामपंथी हैं। यह विवरण पूर्णतया अशुद्ध है।......अगर इन शब्दों की बजाए हम नीतियों की बात करें तो यह अधिक अच्छा होता।"
- ऐसा लगता है कि गांधीवादियों तथा बोस और उसके समर्थकों के बीच एक नए सविनय अवज्ञा आन्दोलन को लेकर मूलभूत भेद था। बोस तथा उनके साथी समझते थे कि भारत का युवक उसके लिए तैयार है और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां भी अनुकूल हैं। गांधी जी और उनके समर्थक इनकी नीति तथा रणकौशल से हमत नहीं थे।
अपने 1939 के कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में सुभाष चन्द्र बोस ने यह कहा :
"मैं कुछ समय से ऐसा अनुभव कर रहा हूँ कि अब समय आ गया है कि हम अंग्रेज़ी सरकार से स्वराज की मांग करें और उन्हें इस विषय में अन्तिम चेतावनी (Ultimatum) दे दें। वह समय बीत गया है जब हम कर्मण्यता का रुख अपनाते हुए इस प्रतीक्षा में बैठे रहें कि वह हम पर कब संघीय प्रणाली लागू करेंगे ।
अनुकूल अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा : करेंगे।'
"आज हमारे पास वैधता के रूप में एक व्यापक सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने की शक्ति है। आज अंग्रेजी सरकार इस अवस्था में नहीं है कि वह एक व्यापक सत्याग्रह के रूप में चलाए गए आन्दोलन को बहुत तक सहन कर सके अपने राष्ट्रीय इतिहास में हमें आज के अवसर से अधिक उपयुक्त अवसर नहीं पेलेगा। जब हम सब मिलकर एक बड़ा प्रयत्न करें। विशेषकर जबकि अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां भी हमारे अनुकूल हैं।"
उनका संकेत यूरोप में युद्ध के बादलों की ओर था। अपनी उभरती हुई शक्ति के सिर पर हिटलर वारसाई की सन्धि (1919) की शर्तों को तोड़ रहा था। यूरोप में जर्मनी से संलग्न छोटे-छोटे प्रदेशों को और अन्ततः ऑस्ट्रिया को भी हड़प चुका और अंग्रेज़ बार-बार घुटने टेक रहा क्योंकि वह हिटलर को रोकने में असमर्थ था। गांधी जी इस मूल्यांकन में सुभाष बोस से सहमत नहीं थे। उन्होंने 5 मई 1939 को दिए गए एक साक्षात्कार में यह कहा था: "सुभाष बोस समझते हैं कि हमारे पास अंग्रेजों से झगड़ने की शक्ति है। मैं इस विचार के पूर्णतया विरुद्ध हूँ। आज हमारे पास अंग्रेजों से झगड़ने से शक्ति नहीं है।"
गांधी जी का तर्क कितना खोखला था जब हम यह सोचते हैं कि 1939 का भारत 1921 के असहयोग आन्दोलन, और 1930-32 के सविनय अवज्ञा आन्दोलनों के समय से राजनैतिक तौर पर कहीं अधिक जागरूक था तथा 1942 के 'करो या मरो' के आदेश से भी कम जागरूक नहीं था। वास्तविकता थी जो बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने पीछे अपनी आत्मकथा में यों स्पष्ट की है :
"गांधी जी तथा उनके पुराने साथी इस परिस्थिति को स्वीकार करने को उद्यत नहीं थे जहां रणनीति अथवा कौशल किसी और का हो और उसे पूर्णतया सिरे चढ़ाना इनके कन्धों पर आ पड़े। खीज कर बोस महोदय ने अप्रैल 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया।
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